सोमवार, 29 दिसंबर 2008

शुक्रिया आपने बढाया हौसला

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
ब्लॉग की दुनिया में आने का अपना ही मजा है... एक महीने में जो कुछ लिखा उसे अगर आपने पढ़ा न होता .... आपने सराहा न होता तो शायद मैं चुप बैठ गया होता। मैंने इस दौरान कई मित्रों के ब्लॉग देखे जहाँ लंबे अरसे से कोई हलचल ही नहीं दिखाई दी। खैर!
सबसे पहले शुक्रिया आदर्श का जिसने न केवल ये ब्लॉग बनवाया बल्कि मेरी हर पोस्ट पर प्रतिक्रिया भी दी। यामिनी गौर, पूनम अग्रवाल और संगीता पुरी ने ब्लॉग की दुनिया में मेरा स्वागत किया, धन्यवाद।
दूसरी पोस्ट - आतंक का एक चेहरा ये भी- एक सीरीज लिखना चाहता हूँ पर अभी दूसरी कड़ी नहीं दे पाया।
राम गोपाल वर्मा के ताज जाने पर बवाल क्यों ?
इस पोस्ट पर आप लोगों ने खट्टी - मीठी प्रतिक्रिया दी
आदर्श राठौर ने कहा…
मसाला, मसाला और मसाला....मीडिया को चाहिए मसाला । मीडिया का काम 'खबरों' को पेश करना है। लेकिन बजाए इसके मीडिया खबरें 'बनाने' में जुटा है। आम तौर पर मीडिया का काम राय बनाना नहीं होता लेकिन आज मीडिया राय बनाने का सबसे सबल हथियार है। मीडिया जो भी दिखाएगा, उसका जनता पर तुरंत प्रभाव होगा। इस घटना में भी यही हुआ। कुछ चैनलों ने इस खबर को बेवजह ही तूल दे दिया। लेकिन ये मात्र राम गोपाल वर्मा की बात नहीं है। आए दिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं।इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।
ab inconvenienti ने कहा…
यह ग़लत था क्योंकि, वर्मा के साथ मुख्यमंत्री और उनका अभिनेता पुत्र था। निजी स्वार्थ की संभावना से कोई इंकार नहीं कर सकता. और यह मीडिया के सामने आ गया.वर्मा अनुमति लेकर किसी छोटे मोटे सरकारी अफसर या इंडियन होटल्स के किसी प्रतिनिधि के साथ भी जा सकते थे.और अगर सच में वहां कलाकार रामगोपाल वर्मा ही गया था बनिस्बत स्टारमेकर रामगोपाल वर्मा के, तो वह अपने निजी सहायकों के साथ चुपचाप होटल के पिछले दरवाजे से अन्दर जाता. कुछ देर ज़्यादा मुआयने में लगाता, इससे मीडिया में उसकी फोटो भी न आती, और अपनी विसिट की ख़बरों को वर्मा अफवाह बताकर खंडन भी कर सकते थे. क्या इतना भी इन तीनों को नहीं सूझा?
अभय मिश्रा ने कहा…
पशुपति जी आपने सही लिखा है लेकिन फिल्म को मीडिया मानना तो छोड़िए, पत्रकार किसी दूसरे पत्रकार को भी पसंद नहीं करते, वर्मा की बिसात ही क्या है। इस मामले में गुस्सा इतना ज्यादा था कि बात बिगड़ गई । संक्षेप में कहूं तो रामगोपाल वर्मा ने दो सरकार (फिल्म) बनाई है और एक गिराई है।
Udan Tashtari ने कहा…
मीडिया को मसाला चाहिये चाहे जहाँ से मिले। यहाँ से मिल गया तो उसे ही उछाल लिया।
-माडर्न महाजन पर लिखी पोस्ट पढने कुछ नए साथी आए। नीरज रोहिल्ला और मनोज द्विवेदी और हे प्रभु। मनोज जी आपके कहे मुताबिक माडर्न महाजन की दूसरी किश्त पोस्ट कर चुका हूँ।
-एक ख़बर न्यूज़ रूम से- कविता पढने परमजीत बाली ब्लॉग पर आए।
- यूँ न तोड़ो सपने- मनोज द्विवेदी दुबारा दिखाई दिए। कन्हैया मेरा पुराना दोस्त भी हाजिरी लगा गया।
-वो लडकी - शिरीष की कविता पर
अबयज़ ख़ान ने कहा…
अगर आप अब भी छत पर खड़े होकर इंतज़ार करते होंगे, तो कोई आपका इंतज़ार ज़रूर करता होगा। आप तो बड़े ब्लॉगिये निकले, जनाब.. गुडलक
- इस महीने मैंने कुछ मित्रों की रचनाएँ डाली हैं , आगे भी ये सिलसिला जारी रहेगा।
- पुष्यमित्र, अमित (वी ओ आई) , विश्वदीपक आदि ने भी राय मशविरा दिया।
इस पथ पर इस बटोही को हर पल आप सभी के साथ की दरकार है ।

शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008

माडर्न महाजन-२

अब एक बार फ़िर बात नए जमाने के महाजन और उसकी चालबाजियों की।
मैं एक क्रेडिट कार्ड अमेरिकन एक्सप्रेस बैंक का इस्तेमाल कर रहा हूँ। नवम्बर महीने का बिल आया तो इंटरेस्ट देख कर मैं थोड़ा परेशान हो गया। बड़े ही मनमाने अंदाज में चार्ज किया गया था। मैंने ३ दिसम्बर को इंटरेस्ट कैलकुलेशन सीट के लिए फ़ोन किया जो मुझे कई बार फ़ोन करने के बाद १६ दिसम्बर को मिली। उसकी हार्ड कॉपी तो अभी तक नहीं मिली।
१- जिस मेल पते पर हर महीने बिल आता है, उसी पते पर इंटरेस्ट कैलकुलेशन सीट भेजने में इतनी देर की कोई वजह बैंक के पास नहीं है।
२- अभी तक हार्ड कॉपी भेजने की जहमत भी बैंक ने नहीं उठाई।
३- बैंक की ओर से ये जानने की कोशिश नहीं हुई की ग्राहक की समस्या दूर हुई या नहीं। बैलेंस भुगतान की रकम और तारीख याद दिलाने में इसी बैंक का कोई जोड़ आपको नहीं मिलेगा। तब आपका मेल पता, मोबाइल हर कुछ ये खुद ब ख़ुद ढूंढ लेते हैं।
४- मैंने इंटरेस्ट कैलकुलेशन सीट को लेकर कई सवाल उठाये लेकिन इसका कोई जवाब कस्टमर केयर अधिकारी के पास नहीं था। जैसे - किस रकम पर कितने दिन का इंटरेस्ट चार्ज किया गया है इसकी जानकारी बैंक ने नहीं दी।
५- आख़िर जो बिल ग्राहक को भेज दिया गया है उसकी इंटरेस्ट कैलकुलेशन सीट भेजने में इतनी देरी की वजह क्या है?
६- इंटरेस्ट कैलकुलेशन सीट में पूरा डिटेल क्यों नहीं दिया जाता?
कई बार फ़ोन करने और करीब ५०-६० रुपये फ़ोन पर खर्च करने के बाद मैंने ही कान पकड़ लिया।

वो लड़की

वो लड़की
जो जानती नहीं थी
मेरा नाम तक
क्या अब भी
इंतज़ार करती खड़ी होगी
अपनी छत पर !
उसकी गली में
एक कमरा था ,
जिसे छोड़े महीनों हुए !
हर जगह
इस तरह अपने को
कितनी- कितनी बार
अधूरा ही छोड़ आए हैं हम !
यह शहर वह शहर है
जहाँ खाने और
कमाने के बीच जीना
लोगों की आदत है ,
ठिकाने बदलना एक
जरूरत ...
या मजबूरी !
जहाँ चाँद
रेड लाइट के ठीक
उपर है
और रात अभी
बाकी है
वहां ऐसे किसी
रिश्ते को निबाहना
सचमुच, बड़ा मुश्किल है।
(ये कविता शिरीष खरे की है जो इन दिनों मुंबई में हैं। )

बुधवार, 24 दिसंबर 2008

क्या-क्या सीखें ?

वो मेरे बॉस हैं
वो हमें सिखाते हैं
काम करने का तरीका
वो सिखाते हैं
कैसे आना है चुप-चाप ऑफिस
वो सिखाते हैं
कैसे करना है सैलरी का इंतज़ार ?

वो सिखाते हैं
सवाल नहीं करने की अदा
लेकिन हम ही हैं
नालायक, गरीब और लाचार
समझ नहीं पाते
उनकी अकलमंदी की ये सारी बातें ...
हमें इतना कुछ सिखाने वाले बॉस
क्या ये सब मालिकों से सीख कर आते हैं ?
क्या इन्हें सदियों पुरानी
कहावत भी याद नहीं आती
भूखे पेट भजन न होई रे 'लाला'।

रविवार, 21 दिसंबर 2008

यूँ न तोड़ो सपने

एक मजदूर
३० दिन तक करता जी-तोड़ मिहनत
कि महीने के आख़िर में
मिलेंगे कुछ पैसे
जिससे खरीदेगा
वो घर का राशन
जिससे खरीदेगा
वो बच्चों के कपड़े
जिससे खरीदेगा
वो माँ-बाप की दवाई
जिससे चुकाएगा
वो मकान का किराया
जिससे चुकायेगा
वो थोड़ा सा पुराना कर्ज
जिससे चुकायेगा
वो दोस्तों का हाथ-पैंचा ।
लेकिन
हवेलियों में रहने वाले
लम्बी गाड़ियों में घूमने वाले
मस्ती में चूर मालिकों को
ये 30 दिन भी पड़ते हैं कम
उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं कि
इसके बाद का हर दिन
मजदूर के लिए
एक सदी से कम नहीं होता
वो तिल - तिल मरता है
हर पल अपनी मजूरी के इंतज़ार में।
टूट जाता है उसका सपना
जो वो खरीदा करता है
महीने की आख़िरी रात
हाथ में कुछ पैसे
और आँखों में प्यारी नींद लिए
अपनी पत्नी के साथ
लेटे हुए अपने बिस्तर पर।
(-ये कविता २२ दिसम्बर २००८ की सुबह लिखी गयी। )

जुमला बन गया हथियार

मंदी की मार है
बाज़ार में एक नया जुमला
जुमला नहीं
एक नया हथियार है
जिसे लेकर चलना
जुर्म नहीं ।
लेकिन इस हथियार ने
अब तक कर दिए हैं
न जाने कितने कत्ल ...
और
असली तमाशा तो अभी बाकी है
होना है जनसंहार
क्योंकि मंदी की मार है ।
-21 दिसम्बर २००८ को लिखी गयी कविता

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2008

एक ख़बर न्यूज़ रूम से

किरण बेदी नाराज़ हैं
ख़बर आयी और न्यूज़ रूम में मच गयी हलचल
बॉस ने कहा - तान दो ख़बर
ख़बर तन गयी ...
बेदी नाराज़ हैं कि
उन्हें दिल्ली पुलिस प्रमुख नहीं बनाया गया
बेदी नाराज़ हैं कि
उनकी जगह किसी जूनियर को दिया गया प्रमोशन
बेदी नाराज़ हैं कि
प्रधानमंत्री ने उनका भरोसा तोड़ दिया
बेदी नाराज़ हैं कि
इस तंत्र में अब काबिलियत की जरूरत नहीं
करनी होती है तिकड़म
चीख - चीख कर बार-बार बताना होता है कि
मैं भी हूँ कतार में ।
चैनल पर ये ख़बर दिन भर चलती रही
मानो बेदी कि लड़ाई का जिम्मा चैनलों ने उठा लिया।
शाम होते- होते
उसी न्यूज़ रूम में बाँटीं गयी कुछ चिट्ठियां
बंद लिफाफों में
कुछ के चेहरे खिले तो
कुछ थे नाराज़ ,
अब बारी खबरें तानने वालों की थी
यहाँ भी तंत्र ने अपना कमाल दिखा दिया था
बस फर्क था तो इतना कि
सब कुछ ऑफ़ स्क्रीन था
हताशा , मायूसी और गुस्सा...
अब किसी बॉस को फिक्र नहीं थी
क्योंकि उन्हीं ने बाँटीं थीं रेवडी
आंकी थी काबिलियत
कुछ ने थोडी भड़ास निकाली
कुछ चले गए छुट्टी पर ।
लेकिन यहाँ कोई बेदी नहीं थी
कि चैनल पर बन जाती ख़बर
कि बेदी तीन महीने की छुट्टी पर
कि मच जाता हड़कंप
कि गृहमंत्री के साथ हो जाती मीटिंग
कि मिल जाती थोडी दिलासा ।
ये चैनल है
जहाँ चलती हैं खबरें
हमेशा यूँ ही दौड़ती -भागती
न्यूज़ रूम की खबरें
कब कुचल जाती हैं
या कुचल दी जाती हैं
पता नहीं .....
(ये कविता मैंने जुलाई अगस्त २००७ के आस पास लिखी थी )

मंगलवार, 16 दिसंबर 2008

मॉडर्न महाजन-१

काफी दिनों से इस पोस्ट को लेकर मंथन चल रहा था, आज आपसे शेयर कर ही लेता हूं।
मौजूदा दौर की मजबूरी कहिए या वक्त की जरूरत मैंने भी कुछ बैंकों के क्रेडिट कार्ड ले लिए हैं। हालांकि बार-बार मैं ये महसूस करता रहा हूं कि ये मॉर्डन महाजन पुराने महाजनों से ज्यादा खतरनाक हैं फिर भी इन कार्ड्स के जाल से बाहर नहीं निकल पा रहा हूं। पिछले दो-ढाई साल के दौरान कई ऐसे वाकये हुए जब मैंने इनसे तौबा करने की ठानी, लेकिन हमेशा टाल गया या ये कहूं कि टाल देना पड़ा। हालांकि आईसीआईसीआई का एक कार्ड मैं रद्द कर चुका हूं।
- इस कार्ड को रद्द करने का कारण भी बड़ा दिलचस्प है। चार-पांच महीनों पहले मैंने एक बार क्रेडिट कार्ड के बिल का नकद भुगतान किया। अगली बार के बिल में १०० रुपये अतिरिक्त जुड़ कर आ गए। मैंने कस्टमर केयर को फोन मिलाया तो जवाब बहुत रूखा था। सामने वाले सज्जन ने कहा कि ये रिजर्व बैंक का सर्कुलर है। बस मैंने भी ठान लिया कि इसे अब रद्द कर देना है। पैसे जमा कराया और एक कार्ड से मुक्ति मिल गई।
- रिजर्व बैंक का ये सर्कुलर भी कम दिलचस्प नहीं है। अलग-अलग बैंक इस सर्कुलर का अपने तरीके से इस्तेमाल कर रहे हैं। आईसीआईसीआई क्रेडिट कार्ड के नकद भुगतान पर १०० रुपये वसूल रहा है, एचडीएफसी ५० रुपये तो एचएसबीसी इसके लिए कोई शुक्ल नहीं लेता। आखिर ये फर्क क्यों है?
ये मॉडर्न महाजनों का पहला फंडा है कि अपने मन से नियमों की व्याख्या करो और कस्टमर या ग्राहक के हर तर्क को खारिज कर दो। खारिज करने का तरीका भी बेहद आसान सा है... एक मशीन की तरह रटे-रटाए जवाब देते रहिए... ये सिस्टम जेनरेटेड है... ये आरबीआई का सर्कुलर है... ये हमारे बैंक का नियम है... आखिर आप क्या करेंगे?
मॉडर्न महाजन के इस दोहरे चरित्र पर बात और भी होगी... इस सीरीज में कुछ और बातें आपसे शेयर करूंगा... उम्मीद है कि ये सीरीज लंबी चलेगी।

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

जल डमरू बाजे

कल अचानक एक नया नाटक देखने का मौका लग गया। मैं, विश्वदीपक और सचिन मंडी हाउस में जमा हुए थे, विचार था संगीत नाटक अकेडमी के कार्यक्रम में जाने का लेकिन पहुंच गए nsd.
पता चला अभिमंच में जल डमरू बाजे नाटक है।
हम काफी देर तक इंतज़ार करते रहे, जब अंदर गए तो abhimanch का नक्शा ही बदला हुआ था। कोशी की धार दूर से आती हुई साफ नज़र आ रही थी। सेट लाजवाब था। नाटक कोशी के प्रकोप और उस के बीच बिहार के लोगों की जिजीविषा के ताने बाने के साथ बुना गया था।
बाढ़ की विभीषिका भी थी और जीने की ललक भी। बाढ़ नदी में थी तो गाँव की जवान होती गहना में भी। सिर्फ़ नदियों की धारा ही नहीं, गहना भी मदमस्त हो घूमती फिरती, इश्क लड़ाती, कई तटबंध तोड़ जाती है।
नाटक में जाति का सवाल भी उठता है और जमींदारी प्रथा का भी। स्त्री पुरूष संबंधों की बात भी होती है और स्त्री मन की भी कई परतें खुलती हैं। और इस सबके बीच बाढ़ से पीड़ित लोगों का दर्द बार-बार उभर उठता है।
रामगोपाल बजाज के निर्देशन में एक और अच्छा नाटक, जो बिहार के लोगों की पीड़ा अभिव्यक्त करता है। सविता का अभिनय अच्छा है। सेट नाटक का मुख्य आकर्षण है। संजय उपाध्याय का संगीत नाटक के सूत्रों को ही नहीं जोड़ता बल्कि इलाके के साथ भी संवाद स्थापित करता है।

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

आक्रान्ताओं से

तुम जो चाहते हो
इस पृथ्वी पर अकेले राज करना !
तो फोड़ते क्यों हो बम -
कभी- कभी
कहीं-कहीं
छिपकर पॉँच-एक ?
कुछ ऐसा फोड़ो-
एक ऐसी मिसाइल
या परमाणु बम,
जिससे बच न सके कोई भी,
सिवा तुम्हारे!
और फिर,
चढ़ जाना हिमाद्रि के
उत्तुंग शिखर पर ।
वहां नोच- नोच कर अपने बा
नोच डालना अपने वस्त्र ;
और
जोर- जोर से चिल्लाना फिर
नंगा होकर।
- किसलय
(ये कविता काफी समय पहले मेरे मित्र किसलय ने मुझे 'कारवां' के लिए भेजी थी। आज ये कविता फिर से मौजूं हो गयी है। )

रविवार, 7 दिसंबर 2008

राम गोपाल वर्मा के ताज जाने पर बवाल क्यों ?

राम गोपाल वर्मा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख (तत्कालीन) के साथ ताज होटल गए तो हंगामा मच गया। सबसे ज्यादा ये खबर मीडिया में उछली। कहा गया कि एक फिल्ममेकर को लेकर विलासराव का ताज जाना सही नहीं था। राम गोपाल वर्मा मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले को लेकर फिल्म बनाना चाहते हैं। और ऐसे ही न जाने क्या-क्या सवाल मीडिया ने उठाए?
ये खबर सबसे ज्यादा उस मीडिया में उछली जो इन दिनों खुद को कुछ ज्यादा ही जिम्मेदार मान बैठा है। वो अपने अलावा किसी और माध्यम को मौजूं ही नहीं मानता। उसे लगता है कि जो वो कह रहा है, सोच रहा है, दिखा रहा है वही अंतिम सत्य है।
मेरे मन में इस खबर को देख कर बार-बार ये खयाल आता रहा कि
-आखिर राम गोपाल वर्मा को क्यों नहीं ताज होटल जाना चाहिए?
-वो क्यों नहीं उस जगह जा सकते जहां मुख्यमंत्री के साथ कई चैनलों के कैमरे जा सकते हैं?
- फिल्म भी एक मास मीडिया है... एक निर्देशक को इस अधिकार से क्यों और कैसे वंचित किया जा सकता है कि वो घटनास्थल का नजदीक से मुआयना करे...
- इसे एक मुद्दे की तरह क्यों उछाला जा रहा है... मुख्यमंत्री और ऐसे ही दूसरे महत्वपूर्ण लोगों के साथ मीडिया के प्रतिनिधि हर जगह जाने को तैयार रहते हैं लेकिन वो यही अधिकार दूसरे को देने को क्यों नहीं तैयार?
- ताज जाना एक निर्देशक की ललक थी... उसने अपने संपर्कों का इस्तेमाल कर अगर मौका-ए-वारदात का मुआयना कर भी लिया तो इसमें ऐसा क्या गुनाह हो गया?
- ये क्या मुंबई आतंकवादी हमलों को लेकर चल रही खबरों में महज एक और रंग जोड़ देने भर की कोशिश नहीं ?
बहरहाल, मेरे कई सवालों का जवाब आपके पास भी होगा... आप इसे जस्टिफाई कर सकते हैं कि मीडिया ने देशमुख को टारगेट किया है रामगोपाल वर्मा को नहीं... लेकिन बहस के केंद्र में रामगोपाल वर्मा ही तो हैं।
हमें ये भी सोचना चाहिए कि आखिर ऐसी क्या बात है कि रामगोपाल वर्मा ने मीडिया को आतंकवादी से ज्यादा खतरनाक करार दे दिया।
या फिर हम ये कह कर अपना पल्ला झाड़ सकते हैं हमें ऐसी टिप्पणियों की कोई परवाह ही नहीं है।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

आतंक का एक चेहरा ये भी-1

तीन चार दिन पहले की बात है... हम नाइट ड्रापिंग से लौट रहे थे। दफ्तर की गाड़ी थी... नोएडा से लक्ष्मी नगर के लिए निकले थे हम सभी... गाजीपुर मोड़ के पास काफी जाम लगा हुआ था... हम सभी हंसते-खेलते बाते करते जा रहे थे... गाड़ी में दो-तीन लड़के और कुछ लड़कियां थीं... मैं आगे की सीट पर बैठा हुआ था... तभी अचानक हमारी गाड़ी सामने वाली गाड़ी से टच कर गई....
इसके बाद जो कुछ हुआ वो किसी आतंक से कम नहीं था... हम कुछ समझ पाते इसके पहले ही सामने वाली गाड़ी से एक अधेड़ व्यक्ति आया और ड्राइवर को पीटने लगा... मैंने उसे रोकने की कोशिश भी की... लेकिन वो ताबड़तोड़ पिटाई करता चला गया.... उसमें एक लाइन ये भी जोड़ी- ड्राइवर कहीं का....
मैं बिलकुल हतप्रभ था... हैरान भी... किसी तरह हमने उस शख्स को रोका... या यूं कहें कि वो खुद ही वहां से दादागीरी दिखाता हुआ चला गया...
इस स्थिति में क्या करना चाहिए था.... मैं कुछ समझ नहीं पाया... लेकिन मुझे खुद से काफी कोफ्त हो रही थी... मैं पूरे रास्ते गुमसुम सा सोच रहा था... ये आखिर किस चीज का नशा है जो लोग इस तरह से रिएक्ट करते हैं... गाड़ी में जरा सी खरोंच भी लोगों को बर्दाश्त नहीं... गाड़ी में काफी देर तक खामोशी रही...
उसके बाद लोग अपनी तईं अपनी झेंप मिटाने की कोशिश करते रहे... चालक महोदय का दिल बहलाने की कोशिश करते रहे... उनके संयम की तारीफ भी की.... लेकिन मैं कुछ नहीं बोल पाया... गाड़ी से उतरने तक ये खामोशी मेरे साथ रही.... मैं उनसे नजरें भी नहीं मिला पा रहा था...
ये आतंक नहीं तो और क्या था कि हम उस हिंसक महाशय का विरोध तक न कर सके...
आतंक का एक चेहरा ये भी तो है...

बुधवार, 3 दिसंबर 2008

आपकी महफिल में आ ही गया

ब्लॉग पढ़ते-पढ़ते आखिर अब आप लोगों के बीच मैं भी आ ही गया। काफी दिनों से कई ब्लॉग देखा करता था... ख्वाहिश थी की यारों की इस महफिल में मैं भी शरीक हो जाऊं.... सो आज ये ख्वाहिश भी पूरी हो गई... आदर्श ने दूसरा मौका भी नहीं दिया सोचने का... एक प्याला उसने खुद थाम ही रखा था... एक प्याला मेरे आगे भी कर दिया और कहा--- देखिए आपका खोया चांद आसमान में कहां है... बादलों के बीच खोया चांद कहीं आपको भी दिख जाए तो बस यारों की महफिल जम जाए...
इस ब्लॉग की शुरुआत का श्रेय जिस दूसरे शख्स को जाता है वो हैं जयंत अवस्थी... वो भी कम यारबाज नहीं... सो उन्होंने भी कहा-अभी और फौरन.... चलिए मुलाकातें होंगी और कुछ बात भी...
बात कहां तक जाएगी.... दूर तलक या यहीं कहीं आस-पास... ये तो वक्त ही बताएगा....