शनिवार, 18 जुलाई 2009

हमारे लेखक को माफ कर दो

बहुत आसान होता है किसी की गलती पर उसे दम भर कोस लेना। ऐसा करते हुए कई बार 'न्यायकर्ताओं' को उस हद का भी पता नहीं होता, जिसके बाद अपराध की 'सजा' भी अपराध हो जाती है। मुझे अफसोस होता है कि अपने ही साथ के लोगों को महज एक गलती के लिए हम कितना पराया बना देते हैं। उसे इतना ज्यादा प्रताड़ित करना शुरू कर देते हैं कि उसका खुद पर से यकीन ही डगमगाने लगता है।
इंसान की फितरत ही है गलती करना... उसमें न तो कोई उम्र कमाल दिखा सकती है... न कामयाबी की बुलंदियां... न अरजा हुआ अनुभव। सब कुछ होने के बाद भी गलतियां करना भी हमारा एक मौलिक अधिकार ही है। गलतियों का एहसास कराना और बात है और गलतियों को एक मुद्दा बनाकर किसी का हौसला तोड़ना और बात?
उदयप्रकाशजी ने भाई साहब की स्मृति में दिए गए सम्मान को लेने की भूल की। भूल ये कि आपने इसे योगी आदित्यनाथ के हाथों से ले लिया। जाहिर है योगी आदित्यनाथ की शख्सियत को लेकर कुछ लोगों को गंभीर आपत्तियां है और इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर हम वाकई समाज में कोई बदलाव चाहते हैं उसकी सूरत बदलना चाहते हैं तो इसे बहुत सारे खांचों में बांट कर नहीं देख सकते। हो सकता है उदयजी की सोहबत में आदित्यनाथ जैसे लोगों में भी कुछ बदलाव आ जाए। लेकिन हम तो इसी बात से डरे रहते हैं कि कहीं योगी आदित्यनाथ ही आपको अपने रंग में न रंग ले। बस इसी चक्कर में हमेशा दूर से ही ऐसे लोगों को धिक्कारते रहते हैं। कोई सच्ची कोशिश भी नहीं होती इन लोगों से संवाद की।
उदयजी आपसे मुलाकात के दौरान हुई चर्चा में यही बात उठी थी... बार-बार हम सभी ने जोर दिया था कि जो भी आपको इस समय महसूस हो रहा हो उसे ईमानदारी से लिखें... इसमें कोई रणनीतिक एजेंडे की दरकार नहीं। अच्छा लगा कि आपने भी उसी तरह सच्चे दिल से सच को कबूल किया। माफी मांगी तो जरूर लेकिन उन सारी बातों के जिक्र के साथ जो आपके दिलो-दिमाग में उमड़ घुमड़ रहे थे।
शायद आपकी इस स्वीकारोक्ति के बाद सहृदय आलोचकों और दोस्तों ने राहत की सांस ली होगी। उन्हें ये लगा होगा कि जो साथी सुबह को अपना रास्ता भूल गया था वो शाम को घर लौट आया। और अगर अब भी उन्हें आपके व्यक्तित्व को लेकर शक है, अब भी आप से उनके गिले शिकवे दूर नहीं हों तो फिर क्या किया जा सकता है?
हां, हम सभी को आप जैसे लोगों से कई उम्मीदें होती हैं। क्योंकि जो हम खुद नहीं कर पाते उसका ठेका हम आप जैसे लोगों को दे देते हैं। बड़ा अच्छा लगता है ये कहते हुए देखो वो उदय प्रकाश हैं-एक मिसाल हैं... बड़े लेखक हैं... और जो भी उपमाएं जोड़नी होती है जोड़ देते हैं। मूर्ति पूजा का विरोध भले ही हम सदियों से करते रहे हों लेकिन आज भी मंदिरों की लालसा नहीं मरी... और जब मंदिर बनेंगे तो उसमें विराजने के लिए कोई भगवान तो चाहिए न। तो फिर कोई उदय प्रकाश क्यों नहीं?
वो चाहे न चाहे, उसे लेना ही होगा ये ठेका। उसे धारण करनी ही होगी हमारी दी गई ये जिम्मेदारी। और अगर उसने चू-चपड़ की तो फिर पंचायत बैठेगी... हो जाएगा हुक्का पानी बंद। हमें हर तरकीब आती है... हमने किसी को बुलंदियों पर बैठाया हो तो उसकी कब्र खोदकर दफनाने में भी महारथ हासिल है हमें। आखिर इस तरह का दंभ क्यों? आखिर क्यों हम कभी-कभी पुलिस की भूमिका में आ जाते हैं और पुलिस वालों के तरह ही डंडे की चोट पर अपनी बात मनवाने की जिद्द पर अड़ जाते हैं?
हमारे लेखक ने अपनी गलती मान ली है... उसने मान लिया है कि उससे भूल हुई है। अब इस मुद्दे को यहीं विराम देकर सभी को आगे की सुध लेनी चाहिए। यहां दो कहावतें याद आ रही हैं उनका भी जिक्र कर ही देता हूं-पहली-
काजर की कोठरी में कैसे भी सयानो जाएएक लीक काजल की लागि है पे लागि है

उदय प्रकाश के पूरे व्यक्तित्व पर इस प्रकरण पर मचे बवाल से एक धब्बा तो लग ही गया जिसे धुलने में लंबा वक्त लगेगा।लेकिन वहीं दूसरी तरफ रहीम का दोहा खुद ही मन में उदय प्रकाश जी के प्रति एक ऐसा भाव भर देता है कि किसी शिकायत की जगह ही नहीं बचती।
रहिमन जो नर उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटत रहत भुजंग।
उदयजी जो बातें मेरे मन में आ रही थी, वो मैंने भी लिख दी हैं। ये मेरा भी अंतिम ड्राफ्ट नहीं है।
चलते-चलते सभी सुधी पाठकों, आलोचकों और लेखकों से मैं उदय प्रकाशजी की तरफ से माफी मांगता हूं... इसलिए भी कि मेरे सामने उन्होंने आप सभी से माफी मांगने की बात कही है... वो खुद ही काफी परेशान हैं... हमें उन्हें इन पलों में और परेशान करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए। एक लेखक को उसके पथ पर चलने दीजिए... उसकी अपनी गति और अपनी चाल से... वो भटका भी तो बहुत कुछ दे कर ही जाएगा।