बुधवार, 25 मार्च 2009

विस्थापन पर दो कविताएं

१- मेलघाट

जो तिनका-तिनका जोड़कर
जिंदगी बुनते थे
वो बिखर गए।

गांव-गांव
टूट-टूटकर
ठांव-ठांव बन गए।

अब उम्मीद से
उसकी उम्र
और छांव-छांव से
पता पूछना
बेकार है।


मुंबई

मुंबई का चांद
अकेला होता है।

उस रात
बहुत अकेला था चांद
खुले आसमान में
चंद तारों के साथ
अकेला और
देर तक लटका था चांद।

बेकरार चांद
उस रात
सोना नहीं चाहता था।

वह जानता था
उसकी एक झपकी से
उजियाला होगा और
शहर के हजारों चांद टूट जाएंगे।

शहर के हजारों घर रोशनी खो देंगे
वह अपने ठिकानों से लापता होंगे।

उस रात
चांद
हजारों ख्वाबों को तोड़ने की तैयारियां
देख रहा था।

- ये दोनों कविताएं शिरीष खरे की है, जो इन दिनों क्राई, मुंबई के साथ काम कर रहे हैं।

सोमवार, 23 मार्च 2009

मॉडर्न महाजन-3

लंबे अरसे बाद इस सीरीज में एक कड़ी और जोड़ रहा हूं। ताजा मामला एचएसबीसी के क्रेडिट कार्ड के साथ जुड़ा है। ये बातें आपसे इसलिए भी शेयर कर लेता हूं ताकि मेरीबीती से आप कुछ सतर्क हो जाएं।
एचएसबीसी कार्ड के साथ मेरा रिश्ता बड़ा अजीबो-गरीब रहा है। मैं क्रेडिट कार्ड के चक्कर में तब नया-नया ही फंस रहा था। शादी तय हो चुकी थी इसलिए हाथ तंग था और पैसों की जरूरत। ऐसे में एचएसबीसी क्रेडिट कार्ड वालों ने फोन किया तो मैं ना नहीं कर सका।
इस कार्ड की शुरुआती लिमिट पचास हजार के करीब थी, जो बैंक वालों ने मुझसे कोई सलाह मशविरा किए बगैर, बड़े ही मनमाने तरीके से घटाकर ११ हजार के आसपास कर दी। मैंने सोचा चलो पिंड छुटा नहीं कुछ हलका तो हुआ ही।
खैर बात आई गई हो गई और फिलहाल इस क्रेडिट कार्ड का लिमिट १५ हजार है, वो भी बैंक ने खुद ही अतिरिक्त कृपा दिखाते हुए एकतरफा फैसला लिया।
एकतरफा फैसला लेने का बैंक का ये सिलसिला यहीं नहीं रुका। हाल ही में मुझे कुछ शॉपिंग करनी थी मैंने ये कार्ड यूज करना चाहा। मैंने करीब ५४०० का पेंमेंट करना चाहा तो बैंक वालों ने डिनाय कर दिया। इसके बाद सेकेंड टाइम में ४३०० का पेमेंट करना चाहा तो पेमेंट हो गया।
इसके बाद मैंने जब भी कार्ड यूज करना चाहा, बैंक वालों ने डिनाय कर दिया। मुझे डिनायल का कोई कारण समझ में नहीं आया। और न ही पेमेंट के लिए मैसेज कर ग्राहक को बार-बार रिमाइंड कराने वाले बैंक अधिकारियों ने ये जरूरी समझा कि मेरे कार्ड पर लगी पाबंदी की सूचना मुझे देते।
बहरहाल सबसे हैरान करने वाला तथ्य तो ये है कि करीब ४०० रुपये के ओवरयूज के लिए बैंक ने ५०० रुपये चार्ज कर दिया।
सवाल ये है कि
१- जब बैंक ने डिनाय ही किया तो मुझे महज ४०० रुपये ज्यादा निकालने की सुविधा ही क्यों दी?
२- दूसरा सवाल ४०० रुपये के ओवरयूज पर ५०० का फाइन कहां तक जायज है?
३- इस तरह के फैसले लेने के बाद बैंक ग्राहक को सूचना भेजने की जहमत क्यों नहीं उठाते?

मैंने जैसे ही क्रेडिट कार्ड का बिल देखा मेरा माथा ठनक गया। मैंने जब फोन कर कस्टमर केयर वालों से अपना गुस्सा जाहिर किया तो उन्होंने एहसान जताते हुए फाइन को कम कर १२५ रुपये कर दिया। मैं जानता था कि ये भी बिलुकल नाजायज है लेकिन क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल की कुछ तो सजा मिलनी ही चाहिए न।
आखिर मॉडर्न महाजन के पैंतरों से आप और हम कैसे वाकिफ होंगे... इसी तरह तो....

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

कविता क्यों और कैसे ?

वर्ल्ड पोएट्री डे पर याद आई कविता

सदियों पहले..एक परिंदे की दर्द भऱी आवाज में ढल कर तुम किसी की रूह में उतरीं..एक डाकू..जिसने उस दर्द को महसूस किया और उस दर्द के पेट से तुम पैदा हुई..डाकू महर्षि बन गया और दर्द कविता.. यूं तो अंजान ताकतों की प्रार्थना का रहस्य..भी कविता है लेकिन..वाल्मीकि..ही तुम्हारे पिता थे...और फिर मेघ की भाषा में तुम्हें कालिदास ने बात करने की कला सिखलाई..तुम्हें रंगीनियों से संवारा.. और सीता की तकलीफ भवभूति की कलम से उभरी..तुम्हारी रंगीनियों ने पहली बार करुणा और अंधकार की भाषा भवभूति से सीखी..

तुम चलती रही..बहती रही..भास, दण्डी..श्रीहर्ष..और न जाने कितनी ही जुबां से संवरती रही.शंकर.. कुमारिल ने तुम्हें दर्शन के जेवर पहनाये..तुम्हारी धारा..उत्तर से दक्षिण की ओर बहने लगी..सुदूर..तमिलनाडु में तुम्हें एक नया कलेवर मिला..

एक वक्त ऐसा भी आया जब धारा कुछ रुक सी गई.. लेकिन फिर अमीर खुसरो..की जुबां में तुम ताजा हो उठीं..और राम तुम्हारे हाथों कुछ और संवर से गए.. तुलसी की कलम से.. कूष्ण की शख्सियत को सूर ने तुम्हारे सहारे से एक नई चांदनी से भर दिया..कबीर ने तुम्हें तोड़ना फोड़ना सिखाया..तुम खुद अपनी राह बनाकर चलने की कला उस फकीर से सीख गईं.. नानक की भाषा में तुम कई विरोधों को साथ लेकर चलीं.. और जयदेव..चैतन्य.. कम्ब..पंपा तुम्हें रोशन करते गए..

सदियां बीतीं..भाषा बदलती रहीं.. फारसी में बेदिल की कलम से तुम खिल उठी.. तो मीर के शेर और नज्म तुम्हें खुदा के करीब ले गए.. गालिब की पीड़ा और दर्द में तुम पिघल सी गई....और टैगोर ने तुम्हें झरने का प्रवाह दिया..पश्चिम को पूर्व से मिला दिया..बंकिम ने तुम्हें मुक्ति की चाह दी..और भारती के स्वरों में तुमने विद्रोह करना सीखा....प्रसाद के सहारे तुमने इस संस्कृति की धारा में फिर से डुबकी लगाई... निराला के प्रचंड ओज में तुम्हारे बंधन टूट गए तुम परंपरा और आधुनिकता के बीच भिड़ंत करती रहीं..

जीवनानंद ने तुम्हें नई छवियां दीं..तो मुक्तिबोध ने तुम्हें अंधकार से प्रकाश में जाने की छटपटाहट...नागार्जुन ने तुम्हें भदेस होना सिखलाया और अज्ञेय की भाषा में अभिजात्य हो गईं..
अब तुम्हारे स्वर कुछ बदले हुए हैं.. तुम्हारी शैली भी बदल गई है.. तुम्हारी पहचान मुश्किल है.. तुम कविता हो या कुछ और कहना आसां नहीं.. लेकिन जीवन जब भी गम...खुशी.हार जीत के लम्हों से गुजरता है तुम सांस लेती हो..जब भी बादल गरजते हैं.. झरने बहते हैं.. नदियां उफनती हैं.. चिड़ियां चहचहाती हैं..किसान खेतों में काम करते हैं.. बच्चे जिद करते हैं...मां रोती है..और पिता मुस्कराते हैं तुम मौजूद रहती हो.. और शायद किसी न किसी भाषा, जुबां में इस धरती के जीवित रहने तक तुम भी सांस लेती रहोगी.. क्योंकि जीवन एक कविता ही है...
- देबांशु कुमार (न्यूज २४ में कार्यरत प्रोड्यूसर)

बुधवार, 18 मार्च 2009

उसकी मां

दिल्ली की
सर्द रात और
क्नॉट प्लेस पर
रोता बच्चा
भीख मांगता, खेलता
भटक आया इस
फुटपाथ पर।

डरा, सहमा वह नन्हा
दो खुली आंखों से
खोजता अपनी मां को।

आसमान में तारे और
एक बड़ा सा चांद
उग आया।

बच्चा टकटकी लगाए
कुछ देर देखता है और
फिर स्ट्रीट लाइट के
नीचे झरे
पत्तों के ढेर इकट्ठा कर
नरम बिस्तर बना
सो जाता है।

सुबह तक
हो सकता है
उसे उसकी मां मिल जाए!
- शिरीष खरे (क्राई, मुंबई में कार्यरत)

सोमवार, 16 मार्च 2009

गोंडनी मां

काम से लौटी
थकी, एक अधेड़ गोंडनी
अपने चौथे बच्चे को
बेधड़क दूध पिला रही है।

देवदूत, परियां और
उनके किस्से
श्लोक, आयतें और
आश्वासन
सब झूठे हैं
स्तनों से बहा
खून का स्वाद
चोखा है।

'तीस रूपैया'
दिहाडी के साथ मिली
ठेकेदार की
अश्लील फब्तियों से
अनजान है बच्चा।

नींद में
उसकी मुस्कान
नदी की रेत पर
चांदनी सी फैली है।

धरती पर बैठी
देखती मां
बेतहाशा चूमती है
उसके सारे दुख और
सपने!
- शिरीष खरे ( क्राई में कार्यरत, मुंबई)

सोमवार, 2 मार्च 2009

वसंत

गांव को जाती हुई पगडंडी पर
सर्दी की सुस्त परछाई को
कल शाम घिसटते देखा था मैंने।
पेड़ से लटक रहे थे
आधे हरे, आधे पीले पत्ते उदास।
पेड़ ने ज्यों देखा
अपना पीला बीमार चेहरा,
उद्धत होकर झाड़ दिये सब पत्ते।
पत्ते उड़ते रहे खेत में,
मैदान में कहते रहे अपनी व्यथा।
डालियां कांपती रहीं देर तक,
हिल-हिल कर वसंत को बुलाती रहीं।
-देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)

पिता

मैने संस्कृति के जिस बियाबान में तुम्हें छोड़ दिया है,
वहां तुम अपनी जड़ों को तलाशने की बात सोच भी नहीं सकते
इसलिए तुम्हारा स्वर एकालापी हो चला है।
हमारी भाषा में जिसे जड़ता कहते हैं,
वह तुम्हारी पीड़ा की घनीभूत अवस्था है।
मैं क्षितिज के पास गलते सूरज की तरह
तुम्हें हर रोज गलते देखता हूं
तुम्हारी आंखों में उदासी की अबूझ लिपियां
पढ़ने की कोशिश करता हूं,
तुम्हारे स्वरों में अंतर्द्वंद्व की ध्वनियां सुन सकता हूं,
जिसे तुम मुस्कुराहट में कह जाते हो।
-देवांशु कुमार, (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)

पगडंडियां और सड़कें

पगडंडियां अब सड़कों में मिल गई हैं।
वे संकीर्ण थीं,
एक बार में किसी एक राहगीर को ही जगह दे पाती थीं
लेकिन कंधे तो टकराते थे, आखें भी मिलती थीं।
सुबह, दोपहर, शाम और देर रात तक
आने-जाने का सिलसिला चलता था।
पगडंडियां जो गेंहू और अरहर के खेतों से
लुकाछिपी का खेल खेलती थीं,
रेल की पटरियों को पार कर
दूर तलक बाजार के मुहाने तक जाती थीं,
ज्य़ादा महफूज थीं।
अब सड़कें खा गईं हैं इन्हें,
जो पसर गई हैं खेत के पास-पास
और सीधे-सीधे जुड़ गई हैं बाजार से,
गांव से बाहर जाने का ज़रिया बनकर रह गई हैं।
सड़कों पर अब एकतरफा यातायात
है और गांव में उदासी की एकतानता।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)