गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

दिल वालों का शहर बहुत तंगदिल है


 
दिल वालों के शहर में फिर किसी की आत्मा रौंदी गई। फिर किसी की इज्जत से खेला गया। बलात्कारियों ने उसे गिद्ध की तरह नोंचा खसोंटा और सड़क पर फेंक कर चलते बने। वह मणिपुर की रहने वाली है। रोजगार की तलाश में देश की राजधानी आई थी। उसका कसूर शाय़द ये था कि देश की राजधानी में रात के बारह बजे वह दफ्तर से घर लौट रही थी। उसे शायद ये एहसास नहीं था कि दिल्ली में देर रात जब शहर की रफ्तार थम जाती है तो सरेआम इंसान की शक्ल में घूमने वाले भेड़िये, तेज निगाहों से शिकार की तलाश में निकलते हैं। हालाकि यहां दिन-रात, सुबह- दोपहर और शाम सब एक जैसे हैं। कब किसकी आबरू तार-तार हो जाए कहना मुश्किल है। हालत ये है कि फिल्मी अभिनेत्रियां तक कहने को मजबूर हो जाती हैं कि शहर की नजर में ही खोट है। हाल ही में दिल्ली में संपन्न हाफ मैराथन में गुल पनाग के साथ ही दिल्ली के मनचले छेड़खानी कर बैठे। उन्होंने कहा कि भले ही दिल्ली की सड़कें पहले से ज्य़ादा चौड़ी हो गई हों ,भले ही इस शहर की चमक दमक पहले ज्यादा बढ़ गई हो,भले ही यहां विकास के ऊंचे-ऊंचे पुल नजर आने लगे हों लेकिन शहर अब भी उतना ही पिछड़ा और असभ्य है जितना आज से दस साल पहले हुआ करता था।
 
 आंकड़े गवाह हैं कि दिल्ली में हवस के भूखे किस तरह से लड़कियों और महिलाओं को तार तार करते रहे हैं। साल 2010 के शुरुआती छह महीनों में बलात्कार के 277 मामले सामने आ चुके हैं। पूरे साल का आंकड़ा आना अभी बाकी है। 2009 में बलात्कार के 452 मामले सामने आए थे। 2008 में  466 लड़कियों और महिलाओं की आबरू लूटी गई। 2007 में अस्मत लूटे जाने के 581 मामले सामने आए जबकि 2005 में 600 से ज्य़ादा बलात्कार की घटनाएं हुईं। 
 
उत्तर पूर्व से आने वाली लड़कियों के साथ य़े शहर सबसे खराब सलूक करता है। उनकी वेशभूषा देखकर इस शहर का विकृत दिमाग ये सोचता है कि हर लड़की बिस्तर पर जाने के लिए ही  है। उन पर फिकरे-फब्तियां कसना, बसों में उन्हें छेड़ना, राह चलते परेशान करना और मौका मिलने पर उनकी इज्जत पर हमला करना इस शहर का पसंदीदा शगल है।
 
 आम तौर पर ये सोचा जाता है कि मुंबई में बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोगों के साथ नाइंसाफी होती है। उन्हें पीटा जाता है,सताया जाता है और भगाया भी जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि ठाकरे की बददिमाग सेना ऐसी हरकतें करती है लेकिन शहर के आम लोगों का व्यवहार कतई ऐसा नहीं है। दिल्ली में कोई ठाकरे की संगठित सेना नहीं है लेकिन ठाकरे से भी विकृत दिमाग वालों की बड़ी तादाद है। वो राह चलते कभी भी, किसी भी शक्ल में आपके सामने हाजिर होकर आपको हैरान कर सकते हैं। क्या इस शहर में बिहारियों को कम मानसिक हमले झेलने पड़ते हैं।  बिहारी  शब्द यहां अब भी गाली की तरह है और जरा ये भी देखिये कि बिहार, बंगाल और उत्तर प्रदेश से आने वाले गरीब मेहनतकश मजदूरों,रिक्शावालों के साथ दिल्ली के लोग कैसे पेश आते हैं।
 
 लक्ष्मी नगर में हुआ हादसा इस बात की तस्दीक करता है कि दिल्ली सरकार को  बिहारी-बंगाली मजदूरों से कोई लेना देना नहीं है। दो साल पहले तो शीला दीक्षित ने यहां तक कह दिया था कि दिल्ली की समस्या, बिहार और उत्तर प्रदेश से आने वाले लोगों से बढ़ रही है। लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि लक्ष्मी नगर जैसे हादसों की जड़ में कौन है। उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि दिल्ली की सबसे ऊंची और शानदार इमारत, सिविक सेंटर में बैठने वालों का सिविक सेंस इतना खराब क्यों है। लक्ष्मी नगर की भयावह घटना इसलिए संभव हुई कि एमसीडी की रग रग में रिश्वतखोरी समाई हुई है। सत्तर से ज्यादा लोग मारे गए। खानदान के खानदान तबाह हो गए तब भी दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित मौका ए वारदात पर चौदह घंटे बाद नमूदार हुईं। मरने वालों को दो-दो लाख का मुआवजा देकर उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों से छुट्टी पा ली। अब वो तमाम दुखियारे एक सामुदायिक भवन में सड़ रहे हैं। उनके सामने जिन्दगी सवाल बन कर खड़ी है। न रोजगार है, न रिश्तेदार हैं। गांव लौटने की कोई वजह नहीं है क्योकि वहां दो जून रोटी नहीं मिल सकती और यहां रहने का कोई बहाना नहीं है।
 
 दिल्ली एक अजीब पुरुषवादी दंभ से भऱा शहर है। इसकी फितरत ही मर्दाना है।  ये बात बात पर उलझना जानता है। सड़कों पर छोटी-छोटी बात पर फसाद करते हुए लोग यहां बड़ी आसानी से दिख जाते  हैं। सड़क पर आपकी गाड़ी या मोटर साइकिल से सामने वाले को जरा सी खरोंच क्या लगी, समझ लीजिए आफकी शामत है। वो बात करने से पहले हाथ चलाते हैं। शिष्टाचार का इस शहर से कोई लेना देना नहीं। मेट्रो में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर पुरुष बड़े चैन से बैठे देखे जा सकते हैं। बसों में कंडक्टरों का गाली गलौच करना आम बात है। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद ये दिल वालों का शहर है। अगर दिल वालों का शहर ऐसा ही होता है तो फिर दूसरे शहर बेहतर हैं,जहां लोगों का दिल जरा छोटा है लेकिन इंसानियत का आय़तन जरूर बड़ा है।  
 
देवांशु कुमार, न्यूज 24 में बतौर एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर कार्यरत। मोबाइल-9818442690
 

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

देश से बड़े नहीं सचिन तेंदुलकर




दक्षिण अफ्रीका के सेंचुरियन मैदान पर सचिन तेंदुलकर टेस्ट क्रिकेट में शतक की ओर बढ़ रहे थे और टेलिविजन मीडिया का विवेक विहीन उन्माद उफान पर था। चैनल में उत्सव की तैय़ारी शुरू हो गई थी। महान, महानतम, ब्रैडमैन का बाप, क्रिकेट का भगवान न जाने कितने ही जुमले हवा में उछाले जा रहे थे। मूर्तिपूजा में अंधा हो चुका नायकों से रिक्त हमारा समाज सचिन में अपना नायक देख रहा था, पिछले कई सालों से देखता आ रहा है और आने वाली नस्लें भी देखती रहेंगी। लेकिन एक सत्य जो सामने चीख-चीख कर इस उत्सव का मजाक उड़ा रहा था, उसे देखने और अफसोस जताने की चिंता किसी को नहीं थी।
 
वो सत्य दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर भारतीय  टीम की शर्मनाक हार के रूप में पहले भी कई मर्तबा प्रकट हो चुका है। इस बार भी सामने था लेकिन सचिन रमेश तेंदुलकर के पचासवें शतक की प्रतीक्षा में अधीर लोग भला हार की ओर क्यों ध्यान देते। वैसे भी जब क्रिकेट और फिल्मों के नायक देश से बड़े हो जाएं तो राष्ट्र के अपमान और सम्मान का प्रश्न अपनी प्रासंगिकता खो देता है। यहां ऐसा ही हो रहा है। सचिन तेंदुलकर ने शतक जमाया। तालियों के शोर में सब डूब गए और दूसरी ओर से भारतीय टीम पर छाया हार का संकट धोनी के आउट होने के साथ ही गहराता  चला गया।
 
टीवी चैनल्स के तमाम तय कार्यक्रम रद्द हो चुके थे। हर चैनल पर बस सचिन थे। कहीं भगवान बनकर तो कहीं महानायक , कही महासेंचुरियन बनकर तो कहीं पचास मार खां।
 
एक टीवी चैनल ने तो हद ही कर दी। वैसे वो चैनल स्वनामधन्य है। वहां बड़े महान अंग्रेजीदां पत्रकार हैं। वैचारिक तौर पर वामपंथी, सत्य़ दिखाने वाले। वहां एक वरिष्ठ समाचार वाचक सचिन का गुणगान करने में लगे थे। तेंदुलकर के प्रशस्ति गान में डूबी उनकी वाणी दर्प से चूर थी। ऐसा आभास हो रहा था कि महाशक्ति बनने से बस फर्लांग भर की दूरी पर खड़ा है भारत। तभी टीवी स्कीन पर अचानक एक संदेश चस्पा हो गया।
 
 जिस पर लिखा था---
जेनरेशंस टू कम विल स्कार्स बिलीव दैट सच ए मैन एज़ दिस एवर इन फ्लेश एन्ड ब्लड वॉक्ड अपोन दिस अर्थ..
 
अलबर्ट आइन्सटीन
 
 ये संदेश बिना किसी प्रस्तावना के टीवी स्क्रीन पर आया और कुछ देर रुक कर विलुप्त हो गया।  बताने की जरूरत नहीं है कि ये बातें आइन्सटीन ने महात्मा गांधी के बारे में कही थीं। लेकिन भावुक पत्रकार ने सोचा होगा कि गांधी तो बीते जमाने के हो गए अब इस दौर में तो सचिन ही इस श्रद्धाभाव के हकदार हैं। आने वाली पीढ़ियां वाकई य़े सोचकर हैरान होंगी कि हाड़ मांस का बना कोई ऐसा इंसान कभी इस धऱती पर मौजूद था। 
 
अब जरा सोचिए कि नायक की परिभाषा और पहचान कैसे बदल गई। गांधी और तेंदुलकर एक ही तराजू पर तौले जा रहे हैं। भ्रष्टाचारियों के आतंक से त्रस्त भारत अब कभी सचिन रमेश तेंदुलकर में अपना नायक देखता है, तो कभी अमिताभ, शाहरुख और आमिर खान में। कभी अंबानी, कभी अजीम प्रेमजी भी नायक बन जाते हैं ।
 
 इस पूरे टेस्ट मैच में भारत की शर्मनाक हार कभी मुद्दा नहीं रही। मुद्दा ये रहा कि सचिन निजी कीर्तिमान को और कितनी ऊंचाई पर ले जा सकते हैं। वैसे उनके कीर्तिमान जब देश के काम ही न आ सकें तो व्यर्थ हैं ।
 
 ऐसे पहली बार नहीं हुआ है। कई मर्तबा सचिन को शतक बनाते हुए देखने के लिए विकल हमारी ये पीढ़ी देश की विजय या पराजय का प्रश्न भूल जाती है। इसके लिए बहुत हद तक मीडिया जिम्मेदार है। मीडिया ने उन्हें भगवान का दर्ज दे दिया है और क्रिकेट परोसने वाले चैनल उनके कीर्तिमानों से सम्मोहित हो चुके हैं।
 
 खेल के नाम पर उन्हें सिर्फ क्रिकेट दिखता है और क्रिकेट के नाम पर सिर्फ सचिन। अगर कीर्तिमानों की ही बात है तो इसी टेस्ट के दौरान राहुल द्रविड़ 12000 रन का आंकड़ा छूने वाले  दुनिया के तीसरे बल्लेबाज बन गए लेकिन उन्हें कौन पूछता है।
 
ये अंधभक्ति अब कुंठित सोच में तब्दील होती जा रही है। सचिन रमेश तेंदुलकर की महानता से भला कौन इन्कार करता है लेकिन वो देश से बड़े नहीं है। उनकी उपस्थिति इस देश से है। पहले देश है फिर सचिन तेंदुलकर हैं। अगर देश शर्मनाक हार के कगार पर है तो सचिन की व्यक्तिगत उपलब्धियां खुशी का मौका नहीं हैं।
 
देवांशु कुमार, एसोसिएट एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर, न्यूज 24, 9818442690

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

पहला विनय स्मृति सम्मान शफी आलम को


कौमी तंजीम के युवा पत्रकार शफी आलम को पहला विनय स्मृति सम्मान प्रदान किया गया है। 19 दिसंबर को पूर्णिया के मिनिस्ट्रियल क्लब में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्हें ये सम्मान प्रदान किया गया। युवा पत्रकार शफी आलम को ये सम्मान पूर्णिया के बुजुर्गों की संस्था बुजुर्ग समाज की ओर से दिया गया है। बुजुर्ग समाज ने शफी आलम को संभावनाओं से भरा पत्रकार करार देते हुए उन्हें विनय स्मृति सम्मान से नवाजा।
शफी आलम फिलवक्त कौमी तंजीम के पूर्णिया के ब्यूरो चीफ हैं। पिछले 8-9 सालों से उन्होंने कौमी तंजीम के लिए संजीदा रिपोर्टिंग की है और सामाजिक बदलाव की सरोकारी पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं। शफी आलम ने इस सम्मान के मिलने पर खुशी जाहिर की। उनके मुताबिक स्थानीय पत्रकारों के लिए एक पेशे के तौर पर पत्रकारिता करना काफी चुनौती भरा है। इसमें करियर नहीं है लेकिन हां कुछ अच्छा करने का सुकून है और वही सबसे बड़ी ताकत है। शफी ने हाल के दिनों में पत्रकारिता में आई गिरावट को लेकर चिंता भी जाहिर की। उन्होंने कहा कि पत्रकारों को निजी स्वार्थों से ऊपर उठकर काम करना होगा और राजनीतिक-प्रशासनिक प्रलोभनों से बचना होगा।
हिंदुस्तान के युवा पत्रकार विनय तरूण का इसी साल 21 जून को एक हादसे में आकस्मिक निधन हो गया था। पूर्णिया के रहने वाले विनय तरूण की याद में उनके मित्रों ने अगस्त महीने में एक कार्यक्रम रखा था। इसी कार्यक्रम में बुजुर्ग समाज के अध्यक्ष भोला नाथ आलोक ने विनय स्मृति सम्मान का एलान किया था। बुजुर्ग समाज ने पूर्णिया के साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की मौजूदगी में शफी आलम को सम्मानित किया और इस परंपरा को आगे भी जारी रखने की प्रतिबद्धता दोहराई।