शनिवार, 15 मई 2010

बहस निकली है तो दूर तलक जाएगी...

दफ्तर से लौटते हुए शाम को थका मांदा मैं दिल्ली के यमुना बैंक स्टेशन पर बैठा तहलका पत्रिका के पन्ने पलट रहा था। मैं सीढियों पर बैठा शोमा चौधरी का एक लेख पढ़ रहा था, जिसमें नक्सलवाद से लड़ने की सरकार की नीति पर तर्क-वितर्क थे। मुझे इस बात का इल्म ही नहीं रहा कि कोई मेरे पीठ पीछे खड़ा है। 2-3 मिनट बाद एक वर्दीधारी अफसर ने टोका-क्या कुछ गंभीर पढ़ रहे हो? मुझे इस सवाल की कतई उम्मीद नहीं थी। पुलिस अफसर ने अपना सवाल दोहराया। इन दो पलों में मेरे जेहन में कई सारी चीजें घूम गईं। नक्सलवाद को लेकर मचे हो-हंगामे से लेकर सरकार की धमकी भरी चेतावनी, सब कुछ। मुझ कुछ समझ नहीं आया कि मैं उसे क्या जवाब दूं। मैंने पत्रिका उस अफसर के हाथ में सौंप दी। उसने पत्रिका को उलट-पुलट कर देखा और अजीब सी निगाहों से मुझे देखता हुआ सीढियों से उतर गया। गलियारे में मौजूद गार्ड को उसने कुछ कहा। अगले दिन मैं फिर सीढ़ियों पर बैठने लगा तो गार्ड ने मना कर दिया। पता नहीं ये नक्सलवाद पर लेख पढ़ने का असर था या फिर सुरक्षा चौकसी, लेकिन मुझे तपती गर्मी में लू के थपेड़े सहने सीढ़ियां छोड़ प्लेटफार्म पर आना पड़ा। ये तो बस बानगी भर है, अभी सरकार के उस एलान पर पूरी तरह अमल शुरू नहीं हुआ जिसमें नक्सलवाद का समर्थन या उसके समर्थक होने की बू मात्र से आप गुनहगार बन जाएंगे, पता नहीं उस दिन पुलिसवाले क्या करेंगे?

खैर! ये भी बड़ी अजीब बात है न, जिस देश में अपराधों पर लगाम लगा पाने में पुलिस नाकाम रही है, उस देश में अब उसे विचारों की निगरानी की भी जिम्मेदारी देने पर विचार चल रहा है। उस देश में जहां कत्ल की वारदात के बाद पुलिस सालों में कातिल का पता नहीं ढूंढ पाती, उस देश में विचार से होने वाले खून-खराबे को रोकने की जिम्मेदारी पुलिस को सौंपी जा रही है। आज जब मैं ये लेख लिख रहा हूं, आरुषि के कत्ल को दो साल बीत गए हैं- न तो यूपी पुलिस और न ही देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी अभी तक कातिल का सुराग ढूंढ पाई है। आरुषि तो महज एक मामला है, ऐसे न जाने कितने मामले हैं जहां लोग इंसाफ के इंतजार में हैं। शायद, सरकार में बैठे साहबों को इस बात का इल्म भी न हो कि देश में महज एक-आध फीसदी लोग ही इंसाफ की लड़ाई लड़ने में यकीन रखते हैं। देश के इस छोटे से हिस्से को भी इंसाफ मुहैया करा पाने में सरकार और ये मशीनरी पूरी तरह नाकाम रही है। एक बहुत बड़ा हिस्सा तो इंसाफ की प्रक्रिया और उसमें आने वाली परेशानियों के बारे में सोच कर ही तौबा कर लेता है। ऐसे में नक्सलवाद समर्थकों की गिरफ्तारी को लेकर किए नए एलान के जरिए चिदंबरम साहब ने देश की अदालतों और थानों का बोझ कई गुना बढ़ाने का ही फैसला किया है। बल्कि इसके जरिए लोगों के शोषण और उनके दमन का एक नया हथियार पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को सौंपा है। अब तो गिरफ्तार शख्स के पास हथियार या असलाह बारूद दिखाने की जरूरत भी नहीं होगी, ये कह देना भर ही काफी होगा कि ये नक्सलवाद समर्थक है।

हो सके तो सरकारी मशीनरियों में बैठे चंद इमानदार लोग मुझे माफ करें, लेकिन सच यही है कि नक्सलवाद समर्थक शब्द की रेंज इतनी बड़ी है कि किसी को भी इसमें घसीटा जा सकता है। देश भर में चलने वाले जन आंदोलनों में से किसी पर भी नक्सल समर्थक या नक्सलियों से प्रभावित होने का लेबल बड़ी आसानी से चस्पा किया जा सकता है। हर उस शख्स पर जो नक्सलियों की ओर से उठाए जा रहे मुद्दों की बात करे, उन्हें देश के दुश्मनों की श्रेणी में डाला जा सकता है। हर वो शख्स जो किसानों की जमीन पर जबरन कब्जा किए जाने का विरोध करे, किसानों और गरीबों के हितों की लड़ाई लड़े, उसे नक्सलियों के खाते में डाला जा सकता है। ये फेहरिश्त कितनी लंबी हो सकती है शायद इसका गुमान भी गृहमंत्री को नहीं है। एक बार इस फेहरिश्त में किसी का नाम शुमार हो जाए तो फिर पुलिस के दमन चक्र से बचने का कोई उपाय नहीं। क्योंकि विचार तो ऐसे हैं कि कभी मरते नहीं खत्म नहीं होते। एक बार आप इस जुर्म में सजा काट कर आएं तो देश में नक्सलियों की किसी बड़ी घटना के साथ ही थाने में हाजिर होकर खुद ही गिरफ्तारी दे दें, वरना आपका एनकाउंटर हो सकता है। आतंकवाद निरोधक कानून पोटा के दुरुपयोग के बाद सरकार को इसे वापस लेना पड़ा था, ऐसे में नक्सल समर्थकों की गिरफ्तारी की चेतावनी देने से पहले सरकार को इसके नतीजों पर भी सोचना चाहिए था।

नक्सलवाद से लड़ाई के मसले पर चिदंबरम साहब के रवैये और बयान में आए उतार-चढ़ाव का भी अपना ही ग्राफ है। करीब दो महीने पहले चिदंबरम नक्सलियों से बातचीत की पेशकश कर रहे थे। दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ कैंप पर हमला होते ही चिदंबरम त्यौरियां चढ़ा कर ये बयान देने लगे कि नक्सलियों के खिलाफ हवाई हमले की नीति पर भी पुनर्विचार किया जा सकता है। इसके कुछ दिनों बाद चिदंबरम जेएनयू जैसे संस्थान में आम सभा करने पहुंचे तो उन्हें तीखा विरोध झेलना पड़ा। जेएनयू के वामपंथी संगठनों ने सभा स्थल के बाहर चिदंबरम और केंद्र सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की। इस विरोध के बाद ही शायद ये खबर आई कि अब नक्सल समर्थकों की भी खैर नहीं। चिदंबरम साहब को लोकतंत्र में विरोध और प्रतिरोध के ये सुर बेहद नागवार गुजरे और ये एलान हो गया कि नक्सल समर्थक जेल की हवा खाने को तैयार रहें।

जेएनयू की इस घटना को चंद दिन गुजरे ही थे कि चिदंबरम ने ये बयान दे दिया कि माओवाद से लड़ने के लिए सबसे जरूरी है जनता का भरोसा जीतना। कंफेडरनेश ऑफ इंडियन फेडरेशन के एक कार्यक्रम में चिदंबरम ने कहा-"साल 2004-09 के बीच देश ने 8.5 फीसदी की दर से विकास किया लेकिन पिछड़े राज्यों में प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा। सरकार और औद्योगिक घरानों को लोगों का भरोसा जीतने के उपाय ढूंढने होंगे।" गनीमत है कि चिदंबरम को ये एहसास हो रहा है कि बिना लोगों का विश्वास हासिल किए नक्सलवाद जैसी समस्या से नहीं निपटा जा सकता। नक्सलवाद से निपटने के लिए 'गोली' से ज्यादा जरूरत 'भरोसा' जीतने की है। चिदंबरम साहब आप जो सोच रहे हैं उसे कर दिखाइए, जंग में आपकी जीत निश्चित होगी। दो पल ठहरकर सोच लीजिए, ये रास्ता जरा लंबा है-इसमें धीरज भी चाहिए और ज्यादा आत्मबल भी। वरना गोली चलाना तो बहुत आसान है- जवानों को आदेश दिया और मरने-मारने के लिए जंग-ए-मैदान में उतार दिया। गोली की लड़ाई जवानों को लड़नी है लेकिन भरोसे की लड़ाई सरकार और सियासी पार्टियों को लड़नी है। क्या वाकई आपमें वो हिम्मत और हौसला बाकी है? क्या वाकई सरकार एक तानाशाही कानून की बजाय लोकतांत्रिक तरीके से ये लड़ाई लड़ने का माद्दा रखती है?

चिदंबरमजी आपकी नीयत को लेकर सवाल उठाने का मेरा इरादा कतई नहीं है। हो सकता है आप देश में अमनबहाली का सपना देख रहे हों पर साथ ही साथ आप ये भी तय कर लीजिए कि ये अमनबहाली कैसे और किन शर्तों पर? क्या लोकतंत्र का दम घोट कर आप नक्सलवाद की लड़ाई लड़ेंगे? क्या आप लोगों को डरा-धमका कर उनकी जुबान बंद करना चाहते हैं या फिर एक बहस के जरिए देश में आम राय बनाना चाहते हैं? सीआईआई के एक कार्यक्रम में आपने खुद कहा है कि माओवाद के मुद्दे पर दो तरह की राय है। एक धड़ा ये मानता है कि मौजूदा सरकार बुरी है और दूसरा धड़ा सरकार के साथ खड़ा है। मतभेद हो सकते हैं, लोगों की राय अलग-अलग हो सकती है। विचारों की इस भिन्नता को ये कहकर खत्म मत कीजिए कि चुप रहो वरना सलाखों के पीछे डाल दिए जाओगे। जिस देश में हर मुजरिम को बचाव के लिए एक वकील मुहैया कराने की व्यवस्था है, वहां किसी मुद्दे या शख्स के पक्ष-विपक्ष में बहस पर रोक मत लगाइए। देश की आजाद आबोहवा और लोकतांत्रिक परंपराओं का गला मत घोटिए, बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश बने रहने दीजिए, देश आपको दुआएं देगा।

पशुपति शर्मा