सोमवार, 17 जनवरी 2011

रूपम पाठक और हमारी उदासीनता का अर्थ


पिछले हफ्ते अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की अपनी सहयोगियों के साथ मैं पूर्णिया गई हुई थी। वहां हमारी मुलाकात भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी पर हमला करने वाली रूपम पाठक की माताजी और उनके साथ हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप में बंद पत्रकार नवलेश पाठक की पत्नी रोमा पाठक से हुई। हम रूपम पाठक और नवलेश पाठक से मिलना चाहते थे, लेकिन प्रशासन ने मिलने नहीं दिया। प्रदर्शन का यह नतीजा जरूर हुआ कि नवलेश पाठक के पास उसकी पत्नी गरम कपड़े पहुंचा सकीं। एक हफ्ते से बंद उस पत्रकार को कड़ाके की ठंड में गरम कपड़ों से वंचित रखा गया था। दूसरे दिन रोमा पाठक को एक हफ्ते बाद पहली बार अपने पति से मुलाकात का मौका मिला, लेकिन रूपम पाठक को अपनी मां और वकील से मिलने नहीं दिया गया। हमने मुख्यमंत्री सचिवालय से संपर्क किया और उसके बाद रूपम को अपने वकील से मिलने की अनुमति भी मिल गई। विधायक पर हमले के बाद उसे बहुत बुरी तरह से मारा गया था। एफआईआर के अनुसार, एक हजार लोगों ने उसे मारा, लेकिन उसे किसी प्रकार की चिकित्सा सेवा नहीं दी गई। वह भी ऐसे प्रांत में, जहां कई-कई कत्ल के आरोपी नेताओं का जेल जाने के रास्ते में स्वास्थ्य खराब होता रहा है और उन्हें तुरंत अच्छे अस्पतालों में पहुंचाया जाता रहा है, लेकिन रूपम पाठक की किस्मत में मरहम-पट्टी भी नहीं लिखी थी।

बाद में आम लोगों से मिलने पर लगा कि उनमें एक गहरी निराशा और उदासीनता थी, वे नहीं मानते कि इस मामले में कुछ होगा। निराशा इसलिए कि बड़े लोगों के तमाम पाप बहुत आसानी से माफ हो जाते है। राजनैतिक दलों के नेताओं के पीछे शासन-प्रशासन की पूरी ताकत खड़ी हो जाती है। उनके तमाम अपराधों पर पर्दा डाल दिया जाता है। पकड़े भी जाते हैं तो जल्दी छूट भी जाते हैं। उनके मरने पर भी उनकी ताकत कम नहीं होती और जिनको वह जिन्दा रहकर परेशान करते हैं, उनका उत्पीड़न उनके मरने के बाद भी जारी रहता है। राजनीति, आन्दोलन और न्याय के लिए संघर्ष के प्रति आम लोगों में उदासीनता पैदा करने का बीड़ा तो समस्त पूंजीवादी मीडिया, तमाम बुद्धिजीवियों और इस वैश्वीकरण के दौर में पनप रहे तमाम संगठनों और संस्थाओं ने उठा रखा है। इन दोनों प्रतिक्रियाओं के बीच फंसे लोग यह जान भी नहीं पाते है कि उनकी उदासीनता ही उनकी निराशा का एक बहुत बड़ा कारण है। अगर वह विरोध करना भूल जाएंगे, या अगर उनका विरोध असली दुनिया में नहीं केवल ‘वचरुअल’ दुनिया तक सीमित रह जाएगा। वे इंटरनेट पर, ज्ञापनों पर हस्ताक्षर करके या ट्विटर पर अपने आक्रोश को व्यक्त करके या फेसबुक पर अपनी टिप्पणी करके संतुष्ट हो जाएंगे कि उन्होंने कुछ कर दिया या टीवी चैनल के सवाल के जवाब में ‘हां’ या ‘न’ का एसएमएस करके अगर उन्हें तसल्ली हो जाएगी तो निश्चित ही अन्याय और अपराध का बोलबाला रहेगा।

लोग चाहे कितने ही निराश और उदासीन बना दिए गए हों, उन्होंने अपनी संवेदनशीलता नहीं खोई है। जब रूपम पाठक द्वारा विधायक पर किए गए जानलेवा हमले की तस्वीर टीवी के स्क्रीन पर देखने के बाद, हिंसा और कानून को अपने हाथ लेने की प्रक्रिया को बिल्कुल अनुचित मानने वाले लोग भी एक ही सवाल कर रहे थे, आखिर इस सामान्य-सी दिखने वाली, अधेड़ उम्र की औरत ने ऐसा कदम क्यों उठाया? यह जानते हुए कि वह पकड़ी जाएगी, मारी भी जाएगी, बन्द कर दी जाएगी, उसने ऐसा क्यों किया? इन तमाम सवालों ने रूपम पाठक के प्रति न चाहते हुए भी एक हमदर्दी की भावना पैदा कर दी, जिसका अहसास मुङो उस पूरे सफर के दौरान हुआ जो मुङो पूर्णिया तक ले गई। कानपुर स्टेशन पर कोहरे के कहर को बर्दाश्त करने वाले रेल-कर्मियों को जब पता चला कि मैं क्यों और कहां जा रही हूं, तो उन्होंने पूर्णिया जाने वाली ट्रेन की जानकारी बड़ी तत्परता से दी। ट्रेन में मेरा आरक्षण नहीं था, लेकिन मुसाफिरों ने मुङो पहले बैठने और फिर लेटने की जगह दी।

पूर्णिया पहुंचने के बाद पता चला कि मामला तो वाकई में काफी गड़बड़ था। वह पहले ही पूर्णिया के पुलिस अधिकारी को एक पत्र लिखकर इस बात की शिकायत कर चुकी थी कि विधायक और उनके एक सहयोगी द्वारा उसका यौन शोषण किया जा रहा था। तमाम प्रयासों के बावजूद वह कभी उस अधिकारी से मिल नहीं पाई। 28 मई को रूपम की एफआईआर पूर्णिया के एक थाने में दर्ज हुई। उसमें उसने विधायक और उसके सहयोगी के खिलाफ बलात्कार और यौन शोषण करने का आरोप लगाया, जिसने कभी एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की होगी, वही इस तथ्य की अहमियत समझ सकता है। अगर तभी समय रहते कुछ हो जाता, तो शायद यह नौबत ही न आती।
सुभाषिनी सहगल अली, लेखिका एडवा की अध्यक्षा
(दैनिक हिंदुस्तान का संपादकीय पेज, 18 जनवरी 2011)

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

हत्या से उपजे सवाल



बिहार में पूर्णिया से भारतीय जनता पार्टी के विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या का पूरा विवरण तो जांच के बाद ही सामने आएगा, लेकिन पहली नजर में जो बातें सामने आई हैं, वे हमारे जनप्रतिनिधियों की आम फहम छवि को ही पुख्ता करती हैं। हमारे जनप्रतिनिधियों में बहुसंख्यक लोग निश्चय ही भले और जिम्मेदार लोग हैं, लेकिन उनमें अपराधी तत्वों की तादाद भी इतनी बड़ी है कि किसी नेता पर कोई आरोप लगे तो लोग सहज ही विश्वास कर लेते हैं। केसरी की हत्या की आरोपी महिला रूपम पाठक ने केसरी पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था और संभवत: हत्या भी उसने समय पर सुनवाई न करने की वजह से करने की ठानी। विधायक के आसपास के लोगों का आचरण भी कानून और न्याय के प्रति उनकी उपेक्षा को ही जाहिर करता है कि उन्होंने उस महिला को इतना पीटा कि वह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती है। समूचा प्रसंग यह बताता है कि जिन लोगों के जिम्मे कानून बनाने और उसके पालन की देखरेख करने की जिम्मेदारी है, उनके आसपास कैसा अराजक और कानून का मखौल उड़ाने वाला माहौल है। यह स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए कि विधायक केसरी की हत्या निहायत गलत कदम है और उस महिला के आरोप अगर सच भी हों तो उसने एक गलत और गैर-कानूनी रास्ता अपनाया, लेकिन हमें इस बात पर भी फिक्रमंद होना चाहिए कि हमारे जनप्रतिनिधियों की छवि इतनी खराब है कि शायद लोग बिना किसी पुख्ता सुबूत के उस महिला के आरोपों को विश्वसनीय मान लें। ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी विधायक पर ऐसे आचरण का आरोप लगा हो। उत्तर प्रदेश में एक बसपा विधायक द्वारा कथित यौन दुराचार को लेकर बवाल मचा हुआ है। मुख्यमंत्री मायावती द्वारा सख्त कार्रवाई करने के बावजूद उत्तर प्रदेश में एकाधिक बार विधायक ऐसे मामलों में फंस चुके हैं, बल्कि लगभग हर राज्य में ऐसे कांडों की गूंज हुई है। यह कहना भी जरूरी है कि हर पार्टी में ऐसे लोग हैं और जबानी जमाखर्च के अलावा किसी पार्टी ने अपने अंदर के अपराधी तत्वों को बाहर निकालने के लिए व्यवस्थित प्रयास किए हों। हर पार्टी को राजनीति में अपराधियों का मसला तभी महत्वपूर्ण दिखाई देता है, जब विरोधी पार्टी के किसी नेता का नाम अपराध में उछलता है। सवाल सिर्फ माननीय जनप्रतिनिधियों के लिप्त होने का नहीं है, सवाल यह है कि अगर जनप्रतिनिधि ऐसे हों तो बाकी समाज में कानून के पालन की हम क्या उम्मीद कर सकते हैं।

बिहार में राजग ने अभी-अभी ऐतिहासिक जनमत हासिल किया है और इस ऐतिहासिक जनमत के पीछे एक बड़ा कारण कानून के राज की बहाली है। राजग ने बिहार में कुछ समझौते जरूर किए हैं, लेकिन राजनीति में अपराध के वर्चस्व को कम करने की नीतीश कुमार की सरकार ने काफी हद तक सफल कोशिश की है। जरूरी यह है कि जनता का विश्वास इस सरकार और कानून के राज में बना रहे और इसके लिए सरकार को इसकी निष्पक्ष जांच करनी चाहिए। तय है महिला द्वारा विधायक की हत्या करने के बाद भीड़तंत्र ने उसकी खूब पिटाई की, पर उस समय सुरक्षा गार्ड क्या कर रहे थे। यह सवाल भी है। जरूरी यह है कि राजनैतिक और कानूनी प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बना रहे, इसलिए राजनैतिक पार्टियां अपने गिरेबान में जरा झांकें।

दैनिक हिंदुस्तान का संपादकीय, 5 जनवरी, 2011