बुधवार, 13 जुलाई 2011

मेट्रो ये तो बताए पचास रुपये का गुनाह क्या है ?

जिस समय सरकार देश से चार आने को विदा कर रही थी, और भारी मन से आठ आने की जान बख्स रही थी, उसी वक्त देश की राजधानी की एक बड़ी कॉरपोरेट फर्म बड़े चुपके से पचास रूपये के नोट को उसकी औकात बता रही थी। सरकार ने चवन्नी को अलविदा किया तो अखबारों में खबरें भी आईं, फीचर भी छपे ... यहां तक कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी बड़े तामझाम के साथ चवन्नी की विदाई का गम या जश्न जो भी समझें, महसूस कराया। लेकिन ये क्या दिल्ली मेट्रो की छोटी से छोटी खबर को अखबार की लीड बना कर परोसने वाले मीडिया ने इस बात का जिक्र तक नहीं किया कि अब जेब में पचास रूपये का नोट लेकर मेट्रो स्मार्ट कार्ड रिचार्ज कराने पहुंच रहे लोगों को काउंटर से बैरंग लौटाया जा रहा है।

जी हां, दिहाड़ी मजदूर जो पचास रूपये का कूपन रिचार्ज करा कर दो चार दफा बिना लाइन में लगे मेट्रो का आरामदायक सफर कर लेता था, उसकी जेब में अगर सौ रूपये का नोट नहीं हो तो उसे लंबी लाइन में लग कर टोकन लेना पड़ेगा। लोग भले ही पूरे सफर एसी का मजा लेते रहें लेकिन वो बेचारा ये सोच कर ही पसीने-पसीने होते रहेगा कि दस रूपये के सफर में एक रूपये की जो बचत हो पाती, वो आज नहीं हो पाई।

यही आलम उन छात्रों का भी होगा, जो यार दोस्तों से सौ-पचास उधार लेकर कहीं घूम आने के लिए मेट्रो का इस्तेमाल किया करते थे। मैं उन रईसपुत्रों की बात नहीं कर रहा, जिनके लिए एक दिन में हजार दो हजार खर्च कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। मैं तो यूपी और बिहार से आने वाले ऐसे छात्रों की बात कर रहा हूं जो घर से अगले ड्राफ्ट के इंतजार में बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरतें पूरी कर पाते हैं। इन सभी जरूरतमंदों की जरूरत से बेफिक्र एसी वाली मेट्रो के एसी में पघुराते अधिकारियों ने ये फैसला कर लिया कि अब पचास रूपये से स्मार्ट कूपन रिचार्ज नहीं होगा।

महीने में अपने पतियों के साथ एक बार घर से बाहर निकलने वाली गृहणियों के लिए भी मेट्रो का ये फैसला किसी झटके से कम नहीं। घर के बजट से जोड़-जाड़ के, पति से लड़-झगड़ कर उन्होंने अपना मेट्रो कार्ड बनवाया था, जिसे वो सहेज कर रखतीं। घूमना-फिरना होता तो अपना कार्ड लेकर चलतीं और पचास रूपये रिचार्ज करवा कर घर तक लौट आतीं। पचास रूपये के रिचार्ज कूपन की अहमियत क्या होती है, मेट्रो अधिकारियों को एक बार इन महिलाओं से भी पूछ कर देख लेना चाहिए था। ऐसी न जाने कितनी महिलाएं होंगी, जो पहली दफा मेट्रो काउंटर पर हाथ से लिखी नई नोटिस देखकर मायूस होकर लौटीं होंगी... इसका हिसाब मेट्रो के पास कतई नहीं होगा। हां, उनसे आप पूछें न पूछें, आनंदविहार से वैशाली तक मेट्रो चालू होते ही पहले दिन कितने और लोगों ने मेट्रो का खजाना भरा, ये आंकड़ा वो आपके बिना पूछे भी मुहैया करा देंगे।

कोई मेट्रो अधिकारियों से ये पूछेगा कि आखिर क्या सोच कर उन्होंने मेट्रो स्मार्ट कार्ड के रिचार्ज वैल्यू से पचास रूपये को विदा कर दिया? जो मेट्रो दस-दस रूपये के कूपन काउंटर से बेच रहा है, उसे एक मुसाफिर के पचास रूपये के रिचार्ज को नकारने का अधिकार किसने दिया ? वो मुसाफिर जिसने सौ रुपये में पहली बार मेट्रो स्मार्ट कार्ड खरीदा था, उसकी अनुमति के बिना उसका पचास का रिचार्ज क्यों बंद किया गया? क्या ये उपभोक्ताओं के अधिकार का हनन नहीं ? क्या ये मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा नहीं ? क्या ये देश की अर्थव्यवस्था में प्रचलित नोटों को मनमाने तरीके से अपमानित और अवमूल्यित करने की साजिश नहीं ?

लेकिन मेट्रो के सौ गुनाह भी माफ हैं... क्योंकि ई श्रीधरन जैसे काबिल लोगों ने रिकॉर्ड समय में मेट्रो का काम पूरा कर इसे विश्वस्तरीय उपलब्धि बना दिया है। ऐसे ग्लोबल उत्साह में किसी आम आदमी की मायूसी से उपजे सवालों पर चर्चा करना ही गुनाह है। कम से कम हमारे मीडिया में ऐसे सवालों के लिए कोई नहीं जगह नहीं, क्योंकि मेट्रो के पीआर अधिकारियों ने सब कुछ इतनी खूबसूरती से मैनेज कर रखा है कि मेट्रो मतलब... सुहाना ही सुहाना... मेट्रो मतलब खजाना ही खजाना.... ऐसे में आठ आने के सौ गुना मूल्य वाले पचास के नोट को मेट्रो स्मार्ट कार्ड काउंटर से बेआबरू होकर लौट आना पड़े तो किसी को मायूस नहीं होना चाहिए... लोगों को तो बस इस बात पर खुश होते रहना चाहिए कि मेट्रो ने पचास के नोट को इतनी इज्जत बख्स रखी है कि वो अकेले नहीं, एक हमसफर के साथ आए और सौ रुपये का रिचार्ज करा कर लौट जाए।