सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

आयरा और कवि का प्रेम-1


(हाल ही में विमल कुमार के नए काव्य संकलन- क्या तुम रोशनी बनकर आओगी आयरा
?- हाथ लगा। महज 24 घंटों में एक-एक कविता पढ़ गया। दूसरी बार पढ़ते हुए बतौर पाठक कुछ बातें मन में उठीं, वो आप सभी के साथ साझा कर रहा हूं। )

-----------------

संकलन की पहली कविता 'प्रेम क्या है?', प्रेम की उस व्यापकता का संकेत दे जाती है, जो महज नारी तक सीमित नहीं है। खुद को पहचानने और दूसरे को जानने तक पसरा है ये प्रेम। गलत को गलत और सही को सही मान पाने की सहज ताकत है कवि का प्रेम। 'प्रेम का अभिप्राय' में कवि चांद, फूल और सूरज की दुहाई देता हुआ प्रेम को महज देने का जरिया बना देता है, लेकिन इस आरजू के साथ कि बस कोई इस प्रेम को समझ ले।

अगर तुम न दे सको अपना प्रेम मुझे

तो कोई बात नहीं

पर कम से कम समझना जरूर

मेरा प्रेम कितना सच्चा है

प्रेम को समझना

मेरे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है

प्रेम करने से

प्रेम और उसका अभिप्राय समझाने के बाद कवि ये भी समझा देना चाहते हैं कि 'प्रेम करने से पहले' क्या-क्या देख लेना चाहिेए। घर का नक्शा, चौहद्दी, आंगन, छत, सीढियां और खिड़कियां अगर घर हो तो, वरना ये देखें कि सिर पर कितना आसमान है, कितनी छांव। फिर धीरे से मन में झांक लेने की नसीहत भी - घबराहटें, साहस, दुख, धैर्य, लालच, घृणा, क्रूरता, हिंसा सब कुछ प्रेम से पहले जान लेने की ललक रखता है कवि। काश 'डायरियां पढ़ लेने' भर से ये समझ पाना इतना आसान होता।

प्रेम करने से पहले

हमें एक दूसरे के भीतर,

झांककर देख लेना चाहिए

जैसे हम देखते हैं

झांककर कोई कुआं

'प्रेम से पहले' कविता में कवि प्रेम को 'सृजन' का जरिया बताता हुआ 'क्रोध', 'तोहमत' से बचने की नसीहत भी देता चलता है। लेकिन क्या करे...

पर एक जद्दोजहद भी

चलती रहती है

मनुष्य के भीतर

तर्क और भावना के बीच

किसी की भावना जीत जाती है

तो किसी का तर्क जीत जाता है

और इस तरह हार जाता है मनुष्य

पड़ जाता है किसी के प्रेम में

फिर बुरी तरह

'प्यार में कुछ भी नहीं छिपाना चाहिए'- आसमान का रंग, बारिश, शहर में उल्लसित तरंगें, समुद्र का गर्जन, रात की उदासी- सब कुछ बता देना चाहिए। आसमान की पतंग, तार पर बैठी चिड़िया, आंगन में खिला फूल, पार्क में खिली धूप। ये सारी बातें इतनी सहजता से कवि कहता है कि पाठक के मन को गहरे तक छू जाती हैं। इसके साथ ही प्रेम में आज के सवाल कैसे घुलते हैं, वो भी कवि का अपना अंदाज है।

पर जब आदमी करता है

किसी से सच्चा प्यार

तो आटे दाल और

सब्जियों के दाम भी

चाहता है बताना

किस तरह बढ़ गई है महंगाई

और प्याज के भाव

चढ़ गए आसमान पर

********

बढ़ गया है कितना

किराया

और स्कूल की फीस

********

पर यह भी बताना चाहता है

नौकरी करता किस तरह घुट घुटकर

इन दिनों

और नहीं मिल पा रही है

समय पर तनख्वाह।




(विमल कुमार की प्रेम कविताओं के संकलन पर पाठकीय प्रतिक्रिया की दूसरी किश्त जल्द आपके साथ साझा करूंगा। कवि विमल से आप- 9968400416- पर संपर्क कर सकते हैं।)

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

मैं इस देश को बेचकर चला जाऊंगा

(पैसे पेड़ पर नहीं उगते, इस पारंपरिक ज्ञान को आदरणीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नया अर्थ प्रदान किया है। बाजारवाद के इस दौर में इस अर्थ को कवि विमल कुमार जितना कुछ समझ पाए हैं, उसे इन शब्दों में बयां किया है। एक 'ईमानदार' प्रधानमंत्री की पीड़ा से आप भी गुजरें।-पशुपति)
 
सोने की इस मरी हुई चिड़िया को
बेच कर चला जाऊंगा....
तुम देखते रह जाओ
मैं नदी नाले तालाब
शेरशाह सुरी का ग्रांड ट्रंक रोड
नगर निगम की कार पार्किग
चांदनी चौक के फव्वारे
सब कुछ बेच कर चला जाऊंगा

मैं चला जाऊंगा बेचकर
अपने गांव की जमीन जायदाद खेत खलिहान
दुकानों, यहां तक कि अपने पूर्वजों के निशान
सब कुछ बेच कर चला जाऊंगा एक दिन
तुम देखते रहना बस चुपचाप

 

तंग आ गया हूं
इस देश की बढ़ती गरीबी से
परेशान हो गया हूं
नित्य नये घोटाले से

मेरी नींद जाती रही
जाता रहा मेरा चैन
इसलिए मैंने तय कर लिया है
अपने घर का सारा सामान पैक कर चला जाऊंगा

पर जाने से पहले
इस देश को पूरी तरह बेचकर जाऊंगा
 

मैं ठहरा एक ईमानदार आदमी
नहीं तो बेच देता मैं अब तक कुतुबमीनार
अगर मिल जाता मुझे कोई खरीददार

बेच देता चार‌मीनार
इंडिया गेट, चंडीगढ़ का रॉक गार्डन, मैसूर का पैलेस
आखिर इन चीजों से हमें मिलता ही क्या है
नहीं होता अगर इनसे कोई उत्पादन
नहीं बढ़ता जी.डी.पी.
नहीं घटती मुद्रास्‍फीति
तो बेच ही देना चाहिए
बाबा फरीद और बुल्ले शाह के गीत
बहादुर जफ़र का उजड़ा दयार, टीपू की तलवार
 

मैं धर्मनिरपेक्ष हूं
नहीं तो कब का बेच देता
अमृतसर का स्वर्ण मंदिर
बाबरी मस्‍जिद जो ढहा दी गयी
पुरी या कोर्णाक का मंदिर
सोमनाथ या काशी विश्‍‍वनाथ का मंदिर
लेकिन नहीं बेचा अब तक

पर मैंने सोच लिया है
अगर तुम लोग करोगे मुझे नाहक परेशान
उछालोगे कीचड़ मेरी पगड़ी पर
तो मैं इस देश की आत्मा को ही बेच कर चला जाऊंगा

है इस देश में इतना भ्रष्‍‍‍टाचार
तो मैं क्या करूं
है इस देश में इतना कुपोषण
तो मैं क्या करूं
है इस देश में इतना शोषण
तो मैं क्या करूं

अधिक से अधिक एफ.डी.आई. ही तो ला सकता हूं
बेच सकता हूं भोपाल का बड़ा ताल
नर्मदा नदी पर बांध
पटना का गोलघर
लहेरिया सराय में अशोक की लाट
कन्या कुमारी में विवेकानन्द रॉक
बंकिम की दुर्गेशनन्‍दिनी
टैगोर का डाकघर
वल्लोत्तोल की मूर्ति
बैलूर मठ
दीवाने ग़ालिब

अगर इन चीजों के बेचने से बढ़े विदेशी मुद्रा भंडार
तो हर्ज क्या है
बताओ, इस मुल्क के रोग का मर्ज क्या है

क्या हर्ज है
यक्षिणी की मूर्ति बेचने में
कालिदास को बेचने में
भवभूति के नाटकों को बेचने में
हीर रांझा और सोहनी महिवाल
और देवदास को बेचने में

मैं इस देश को उबारने में लगा हूं
संकट की इस घड़ी में
जब अर्थव्यवस्‍था पिघल रही है
पर तुम समझते ही नहीं
लेकिन तुम फौरन बयां देते हो मेरे खिलाफ

मैं तो इस देश के भले के लिये ही
इस देश को बेच रहा हूं
अपने मौहल्ले में पान की गुमटी
किराना स्टोर को बेच दिया

बेच रहा हूं कोयले की खान
स्टील के प्लांट
कपड़ें की मिल
ताकि तुम्हारे बच्‍चे कुछ लिख पढ़ सकें
ताकि तुम्हारी दवा दारू का हो सके इंतजाम
न करो तुम इस तरह आत्महत्याएं

पर तुम कहते हो कि
मैं नयी ईस्ट इंडिया कम्पनी ला रहा हूं
देश को गुलाम बना रहा हूं
आजादी का ये जज्बा ही है कि मैं बेच रहा हूं

क्योंकि आजादी से हमें नहीं मिली आजादी दरअसल
सचमुच, मैं तुम्हारे तर्क, विरोध, प्रर्दशन
जुलूस धरने और जल सत्याग्रह से अज़िज आ गया हूं
78 साल की उम्र में पेस मेकर लगा कर चला रहा हूं
डायबटिज का मरीज हो गया हूं
चश्मे का नम्बर बढ़ता जा रहा हर साल
घुटने होते जा रहे मेरे खराब

मेरा क्या है
अगर तुम लोग मुझे रहने नहीं दोगे
अपने देश में
तो मैं वहीं चला जाऊंगा
जहां से आया हूं सेवानिवृत होकर
तुम लोग ही भूखे मरोगे
सोच लो
मुझे अपने जाने से ज्यादा चिंता है तुम्हारी
इसलिए
पहले आओ पहले पाओ के आधार पर
मैं पहले आर्यवर्त
फिर भारत को बेचकर चला जाऊंगा
देखता हूं तुम लोग कैसे रहते हो इंडिया में

तुम लोग पड़े रहो इस गटर में जहलत में
जब तक तुम्हारी टूटेगी नींद
जागोगे मेरे खिलाफ
लामबंद होगे
 
मैं इस सोने की मरी हुई चिड़िया को बेचकर चला जाऊंगा

दूर बहुत दूर ......

 
 
विमल कुमार, इनसे आप 9968400416 पर संपर्क कर सकते हैं।
 

शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

हमने अपने 'आनंद' को याद किया...


विनय स्मृति आयोजन-3

मुजफ्फरपुर प्रेस क्लब। तारीख 23 जून। समय सुबह के 11 बजे। विनय स्मृति में तीसरा आयोजन। हॉल में गिने-चुने लोग। एक बार तो लगा कि परिचर्चा चाय की चुस्कियों के साथ ही खत्म न हो जाए, लेकिन घड़ी का कांटा 11.30 पर पहुंचते-पहुंचते संशय जाता रहा। हॉल में मुजफ्फरपुर की अलग-अलग बिरादरी के लोग मौजूद थे- साहित्यकार, रंगकर्मी, पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता।

11.45 पर अखलाक ने विनय की यादें ताजा कर दीं, कई छोटी-छोटी बातों का जिक्र होते ही विनय उस हॉल में जिंदा हो उठा और उसकी धड़कनें महसूस होने लगीं। सचिन श्रीवास्तव की कविता जब शेफाली के सुर में घुलकर कानों तक पहुंची तो विनय के न होने का 'अफसोस' और गहरा हो गया।

मीडिया सत्ता और जनअपेक्षाएं पर परिचर्चा की शुरुआत पत्रकार रामप्रकाश झा के विषय प्रवेश के साथ हुई। रामप्रकाश की नजर में मीडिया ने बाजार से समझौता नहीं किया, बल्कि 'संतुलन' बनाया है। मीडिया ने जनता की अपेक्षाओं को निष्कर्ष तक पहुंचाया है।

सामाजिक कार्यकर्ता शाहिद कमाल ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सनसनीखेज खबरों और प्रिंट मीडिया पर छाए पेड न्यूज के संकट के साथ अपनी बात रखी। मीडिया में बड़े घराने और कॉरपोरेट के कब्जे के बीच उन्होंने छोटी-छोटी पहल पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाएं अपने तरीके से छोटा पाठक वर्ग तैयार कर रही हैं और विचार बना रही हैं। ये एक शुभ संकेत है।

साहित्यकार नंद किशोर नंदन ने पत्रकारिता के साथ 'मिशन था' को जोड़े जाने पर आपत्ति जाहिर करते हुए 'मिशन है' पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि लुंज-पुंज संसदीय सिस्टम में पत्रकार उम्मीद की किरण जगाते हैं। टूजी घोटाले से लेकर बथानी टोला नरसंहार पर आए फैसले के बाद की घटनाओं का बखान करते हुए नंदनजी ने अपनी बात रखी। उन्होंने मीडिया के सामने एक सवाल रखा कि लोकतंत्र की रट लगाने वाले पत्रकारों को ये भी सोचना चाहिए कि आर्थिक लोकतंत्र के बिना ये कैसे मुमकिन है?

सुरेश प्रसाद गुप्ता ने कहा कि जब सारा सिस्टम फेल हो जाए तब एक पत्रकार काम आ सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर अफसोस भी जाहिर किया कि मुद्दों को लेकर मीडिया में संवेदनशीलता घटी है। बीटी बैगन के खिलाफ जनयात्रा का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि 72 जिलों में उन्हें अच्छा कवरेज मिला, लेकिन दिल्ली पहुंचने पर वहां के अखबारों ने इतनी बड़ी यात्रा को नजरअंदाज कर दिया। जनसत्ता में पूरा पेज कवरेज जरूर दिया लेकिन बाकी अखबारों में सिंगल कॉलम के लायक भी जगह नहीं मिली।

अरविंद जी ने ये सवाल उठाया कि चतुर्दिक गिरावट के दौर में मीडिया तमाम कसौटियों पर खरा उतरे, ये कैसे मुमकिन है। उन्होंने कहा कि आज की तारीख में औद्योगिक घराने सरकार के फैसले को प्रभावित नहीं तय करते हैं, वो भी जनसरोकारों की कीमत पर। इस अंधे युग में मीडिया भी मिशन की जगह कमीशन के जाल में फंसता चला गया है। वहीं डॉक्टर धनाकर ठाकुर ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का मीडिया अपमान करता है।

पशुपति शर्मा (रिपोर्ट लेखक) ने बाबा भारती और उसके घोड़े की कहानी के जरिए अपनी बात रखी। बाबा भारती को घोड़ा छिन जाने के बाद सबसे ज्यादा चिंता इस बात की थी कि ये बात फैली तो इंसान का इंसान से भरोसा उठ जाएगा। ये संवेदनशीलता खबरों के चयन, संपादन और प्रसारण के दौरान मीडियाकर्मियों के बीच भी होनी चाहिए। उन्होंने निर्मल बाबा से लेकर अन्ना के आंदोलन तक मीडिया कवरेज की प्रवृत्ति को लेकर अपनी बात रखी।

इसके बाद मंच पर राजनीतिक हस्तक्षेप भी हुआ। पूर्व विधायक केदार बाबू तो संक्षेप में अपनी बात रख कर 'गायब' हो गए, लेकिन आरजेडी प्रवक्ता शमी इकबाल ने कई मुद्दों पर तीखे तेवरों के साथ अपनी बात रखी। शमी इकबाल ने कहा कि जो लोग 60 लाख खर्च कर मेयर बनते हैं, वो पहले अपना हिसाब चुकता करते हैं और फिर शहर की सफाई की बात सुनना पसंद करते हैं। उन्होंने कहा कि अन्ना को कवरेज करने वाला मीडिया ये भूल गया कि 'मैं अन्ना हूं' कह कर रैली निकालने वालों की भीड़ में तमाम वो लोग थे जो अपराध, घोटाले और भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं। महज ईमानदारी से बात बनने वाली नहीं है, कई ईमानदार हैं लेकिन घोर जातिवादी हैं, कई ईमानदार हैं लेकिन घोर सांप्रदायिक हैं। इसलिए इस वक्त में जो महज आदमी है, उसको दिक्कत है और इस दिक्कत को मीडिया को समझना होगा।

शमी इकबाल ने एक तीन सूत्री फॉर्मूला भी रखा- मिलावट का सामान, सामूहिक बलात्कार और वित्तीय लूट। इन तीनों के खिलाफ अभियान के तौर पर मीडिया कवरेज होना चाहिए। हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि मीडिया में काम करने वाले कर्मचारियों के हाथ बंधे हैं क्योंकि आज की तारीख में सारे सौदे मालिकान और सत्ता में बैठे लोगों के बीच सीधे तय हो जाते हैं। वहीं पूर्व प्राचार्य राम इकबाल शर्मा ने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी और उसमें चल रही धांधली का सवाल उठाया।

जमशेदपुर, प्रभात खबर के स्थानीय संपादक रंजीत ने मीडिया को एक सर्कस की संज्ञा के साथ अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि इस सर्कस का रिंग मास्टर- संपादक है, जबकि इन दिनों जोकर की भूमिका में पत्रकार हैं, जहां तक पाठक का सवाल है तो वो दर्शक की भूमिका निभाकर ही संतुष्ट बैठा है। मीडिया वाच डॉग की भूमिका छोड़कर फेसिलिटेटर की भूमिका में आ चुका है। अगर मीडिया में वाकई बदलाव लाना है, तो उसे चौक-चौराहे पर खड़ा कीजिए और सवाल दागिए।

रंजीत ने कहा कि अखबारों इन दिनों कई तरह के दबाव के बीच निकल रहे हैं- सत्ता, पूंजी और कॉरपोरेट का दबाव। छोटे अखबारों को जिंदा रखने की ताकत समाज को खुद पैदा करनी होगी। हालांकि उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि सरकार, लोकशाही और ज्यूडिशियरी के मुकाबले मीडिया की आज भी सबसे बड़ी ताकत है कि वो अपनी आलोचना सुनने को हर पल तैयार रहता है।

प्रभात खबर के वरिष्ठ साथी पुष्यमित्र ने रंजीत की बात को आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पाठकों की तरफ से मीडिया का रिजेक्शन होना चाहिए। जिलों में मीडिया वॉच जैसी संस्थाएं होनी चाहिए। एक फीसदी पत्रकार जो बदलना चाहते हैं, उनके लिए ये रिजेक्शन, आलोचना एक आईने का काम करेगी। उनके बाद मंच पर आए तारकेश्वर मिश्रा ने स्थानीय सृजन की बात कही तो शारदानंद झा ने कर्ता भाव और कर्तव्य भाव के सामंजस्य का सुझाव दिया।

पटना आईनेक्स्ट के स्थानीय संपादक चंदन शर्मा ने एक तरफ मीडिया को पूरी तरह गुलाम बताया तो वहीं इस सबके बीच वैकल्पिक रास्तों की तलाश पर जोर भी दिया। उन्होंने फेसबुक, ब्लॉग और इंटरनेट को संचार के नए हथियार बताया। इसके साथ ही संपादक के नाम चिट्ठी के पारंपरिक तरीके को पुनर्जीवित करने की अपील भी की। हिंदुस्तान के प्रभात ने गंदगी, गरीबी और अशिक्षा के खिलाफ मीडिया को कारगर हथियार बताया बशर्ते ईमानदारी से और विश्लेषणात्मक रिपोर्टिंग हो।

एक-एक वक्ता को बड़े ध्यान और धैर्य से सुन रहे सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश ने अध्यक्षीय वक्तव्य में इस परिचर्चा का सार सामने रखा। उन्होंने कहा कि जो सत्ताधारी मीडिया को कंट्रोल करने की कोशिश करता है, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। अगर आप अपने खिलाफ असंतोष को अभिव्यक्ति के मौके नहीं देंगे तो समाज में एक दिन विस्फोट हो जाएगा, जो सत्ताधारियों के लिए कहीं ज्यादा घातक होगा। इसके साथ ही उन्होंने समाज के बीच काम करने वाले लोगों को ये संदेश भी दिया कि मीडिया के कैमरों के सामने फोटो खिंचाने से नेता या एक्टिविस्ट पैदा नहीं होता।

आयोजन के दूसरे और तीसरे सत्र में अप्पन समाचार की पहल और पुष्यमित्र के उपन्यास की झलक के साथ सभी अपने घर लौटे। हां, इसमें गांव ज्वार के कलाकार ने निर्गुण के सुरों में विनय की यादें घोल दीं। निर्गुण के बोल ट्रेन की धुक-धुक में बार-बार विनय की धक-धक के गुम हो जाने की बेचैनी, उदासी के साथ ही आगे बढ़ने और जीवन के चलते रहने की चेतना को झकझोर गए।
-पशुपति शर्मा

मंगलवार, 29 मई 2012

ये सड़कें कहीं नहीं जाती...


उत्तराखंड के देवप्रयाग में हल्दू और दैडा के जंगलों से गुजरते हुए अचानक पांव ठिठक जाते हैं। अनायास ही जंगल की हरीतिमा खत्म हो जाती है और धूसर, पथरीला पहाड़ नजर आने लगता है। कुछ दूर चलने के साथ ही यह भी ज्ञात हो जाता है कि क्यों जंगल खत्म हो गए। दरअसल यहां सड़क बनाई जा रही है। आश्चर्य इस बात पर नहीं होता कि सड़क बन रही है, लेकिन इस बात पर जरूर होता है कि सड़क बनाने के लिए सम्बद्ध विभाग ने कितनी निर्दयता से पर्वत और जंगल को नष्ट किया है। एक विशाल क्षेत्र से वृक्ष गायब कर दिये गए हैं। सिर्फ ठूंठ, जमीन पर यहां वहां बिखरी शाखें और विनाश के चिन्ह हैं। इस जंगल का एक हिस्सा वन क्षेत्र के नाप में आता है, दूसरा हिस्सा सिविल है। लेकिन जिला प्रशासन ने वन विभाग को बिना किसी सूचना के इस जंगल को पथरीले मैदान में बदल दिया। स्टोन क्रशर, बुल्डोजर और बड़ी बड़ी मशीनों से पहाड़ को रौंद कर समतल कर दिया गया है और विस्फोट कर पूरे इलाके में पत्थर बिखेर दिये गये। ताज्जुब है कि वन संरक्षक को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि वहां स़ड़क बनाई जा रही है। इस लापरवाही और निर्वैयक्तिकता के लिए पहले तो वनविभाग ही दोषी है, दूसरा दोष जिला प्रशासन का है जिन्होंने इतनी बड़ी पहाड़ी पट्टी को वृक्ष से सूना कर दिया लेकिन वन विभाग से इसकी आज्ञा लेने की जरूरत नहीं समझी।

कुछ अरसा पहले तक इन पहाड़ों पर हरे भरे पेड़ थे। अब मरे हुए, निष्प्राण वृक्ष हैं। व्य़ासघाट से डाडा नागराज तक सड़क बनाए जाने के क्रम में विकास का अलकतरा जब गिराया गय़ा तो सुंदर वन उसके ताप में तबाह हो गए। इस इलाके में अब मीलों रोते हुए बंजर पहाड़ हैं जिनके सीने पर चट्टानों का साम्राज्य है। हल्दू और दैडा के जंगली इलाकों को ध्वस्त किये गए पहाड़ के मलबों से पाट दिया गया है। बोल्डरों से कुचले गए हजारों पेड़ या तो नीचे बहने वाली गंगा में समा गए या फिर खड़े खड़े सूख गए। अब सोचिये कि पर्यावरण और गंगा को बचाने का सरकारी शोर कितना सच्चा है। सच तो यही है कि इन दोनों को रौंदे जाने की प्रक्रिय़ा सतत चल रही है।

इस विनाश की जानकारी जब गढ़वाल के वन संरक्षक को दी गई तो उन्होंने सड़क निर्माण कार्य रुकवा दिया। चूंकि इस वन क्षेत्र का एक हिस्सा नाप में और एक हिस्सा सिविल इलाके में आता है इसलिए वन विभाग के अधिकार भी सीमित हैं। अब कार्रवाई करने की बारी जिला प्रशासन की है जिनकी ओर से अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया है।

जब आप यहां का मंजर देखेंगे तो आपको विश्वास नहीं होगा कि कुछ महीनों पहले तक यह क्षेत्र घने और छायादार पेड़ों से घिरा था, जिनका एक सुंदर छंद था। अब क्या है? सिर्फ चट्टानी चुप्पी और पथरीले पनाहगाह। आखों में बसने वाले वन को बर्बरता से तहस नहस कर दिय़ा गया है। और यह सब एक सड़क बनाने के नाम पर हुआ है ताकि आप इस रास्ते पर चलें, सरकार का कृतज्ञता ज्ञापन करें कि उन्होंने आपके लिए सड़क बनाई, प्रकृति के बीच होने के भ्रम में भी रहें। और इस सत्य से सवर्था अनभिज्ञ रहें कि गंगा के पास से गुजरने वाली इस सड़क ने कितनी बड़ी बलि ली है।

देवांशु झा, महुआ चैनल के प्रोग्रामिंग से जुड़े हैं। आपसे 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है।

सोमवार, 14 मई 2012

मरी हुई पत्नी से प्यार


(विमल कुमार की इस कविता से हर पति का एक बार गुजरना बेहद जरूरी सा जान पड़ता है... मैंने जब ये कविता पढ़ी, मन बेचैन हो उठा। क्या मैं कातिलों की कतार में खड़ा हूं? क्या मेरी पत्नी भी मर चुकी है? कविता पढ़िए और समय रहते सोचिए जरूर कि क्या पत्नियों को जिंदा करने के लिए थोड़ा उजाला किया जा सकता है?)


स्केच-पशुपति शर्मा


मुझे इतने दिनों तक मालूम ही नहीं था
मैं अपनी मरी हुई पत्नी से प्यार कर रहा हूं
मैं तो उसे वर्षों तक चूमता रहा
आलिंगनबद्ध होता रहा
निर्वस्त्र करता रहा उसे अंधेरे में
उसके साथ हंसी ठिठोली करता रहा
पर मुझे मालूम ही नहीं था
वह कब की मर चुकी है

मेरी मां भी ऐसी ही मरी थी
जिंदा रहकर
एक लाश की तरह

सोती रही मेरी पत्नी
बिस्तर पर मेरे संग
कई सालों तक
एक लाश की तरह
मुझे चूमती रही
टेलीफोन पर
उसकी आवाज
बीच में ही दम तोड़ देती थी


स्केच-सर्बानी शर्मा

मैं उसे लेकर गया
बेगूसराय
रिश्तेदारों की शादी में
गया दोस्तों के घर
एक बार शिमला
और एक बार भोपाल भी गया
तब भी वह मरी हुई ही थी

मुझे मालूम नहीं था
वह एक नरकंकाल में बदल चुकी है
शरीर पर मांस जरूर
पर वह तो ठठरी है
आंखें पत्थर हो चुकी हैं
हाथ टहनियां
पांव हो चुके बिजली के खंभे

किसी ने भी मुझसे नहीं कहा-
तुम्हारी पत्नी मर चुकी है
मेरे बच्चों ने भी नहीं कहा-
पापा, मम्मी तो मर गई है
दोस्तों ने भी कहा-
अरे भाभीजी जिंदा नहीं हैं क्या?

एक दिन मेरी पत्नी ने
मुझे भींचते हुए कहा-
जानते हो, मैं कब की मर चुकी हूं
मैं तो सिर्फ जिंदा हूं
अपने बच्चों के लिए
और तुम्हारे लिए
मैंने पत्नी से पूछा-
आखिर कौन है तुम्हारा हत्यारा?

तब से मैं हत्यारे को
खोज रहा हूं
पत्नी ने कहा-
कई हत्यारे हैं मेरे
उनमें से एक तुम भी हो
तब से मैं अपने घर में
गुनहगार की तरह खड़ा हूं
यह जानने की कोशिश कर रहा हूं
मैं तो उससे प्यार ही कर रहा था
आखिर कैसे बन गया
पति से एक हत्यारा

जबकि मुझे मालूम ही नहीं
मैं इतने दिनों तक
एक मरी हुई पत्नी से प्यार कर रहा हूं

लेकिन वह कौन सी मजबूरी है
कि मेरी पत्नी
अपने इस हत्यारे से प्रेम करती है
और उसके साथ अभी भी रहती है
अपने घर में एक दीवार की तरह
रोज थोड़ा-थोड़ा ढहती है,
फिर भी अपने पति पर मरती है

मैं भी अपनी मरी हुई पत्नी से
प्यार करता हूं
और उसे जिंदा करने के लिए
थोड़ा उजाला करता हूं
रोज न चाहते हुए भी दफ्तर निकलता हूं।
 
(कवि विमल कुमार से इस नंबर पर संपर्क किया जा सकता है- 09968400416)

सोमवार, 7 मई 2012

गाड़ी रांची जा रही है...

पेड़वा कटाइल हो रामा' (नुक्कड़)- जवाहर नवोदय विद्यालय पूर्णिया की पेशकश। नुक्कड़ जाम। बहुत भीड़। कुछ साइकिल, कुछ आदमी। साइकिलें कम, आदमी ज्यादा। बहुत शौकीन हैं लोग यहां के। पसंद करते हैं।

अभी शोर है। कई तरह की आवाजें आ रही हैं। एक आवाज- चल न यार फोर स्टार (सिनेमा) आई लव यू कि....कि..... किरण (डर) लगा है। ठहर यार दूसरा शो देखेंगे। नुक्कड़ देख लेते हैं। नुक्कड़ क्या होता है यार ? मुझे भी पता नहीं। भीड़ है इसलिए हूं। दोनों किशोर।

जवाहर नवोदय विद्यालय, पूर्णिया- सर्वेश्रेष्ठ। प्रतियोगिता थी न। अब ये टीम बाहर जाएगी। विद्यालय में थोड़ा-बहुत इधर-उधर, सभी खुश। आगे जाने के लिए पहले तो ना नुक्कड़ हुई लेकिन अंततः अनुमति मिल ही गई। नुक्कड़ पार्टी बहुत खुश थी। गाड़ी खुल गई।
+       +      +      +     +     +     +
सबरंगा यात्री। एक-आध जगह छोड़कर पूरी गाड़ी यात्रियों से सजी थी। नौजवान, बूढे-बच्चे, अच्छे-बुरे, सब। चहकते-गाते, हंसते सभी खुश। एक अनूठा नौजवान। उम्र बाइस-तेइस की रही होगी।

बहुत अच्छा था बेचारा। बहुत बोलता था। दिन-रात, रात-रात भर बोलने की आदत सी पड़ गई थी। आप थोड़ी सी बातें करो, वह बोलता रहेगा। आप तंग हो जाओगे, वह थकेगा नहीं। पढ़ा-लिखा थोड़ा कम था। टूटी-फूटी लेकिन फटाफट हिन्दी बोलता था। पूरे शरीर से बोलता था न इसलिए बहुत देर तक बोल लेता था शायद। ओठ पूरा खुलता था, सभी दांत देख सकते थे आप- सफेद... भुट्टा के दाने जैसे। गुलाबी मसूरे भी अपने आप को प्रदर्शन के योग्य समझ रहे थे। हाथ-पांव सभी सजीव हो जाते थे हंसते समय। बहुत अच्छा किरदार था। कोई फिल्मवाला होता तो जरूर आजमाता उसे। "पंद्रह बोझा पटुआ भैया ले लिए हैं। बेईमानी करते हैं। मैं भी पटुआ बेचूंगा। " बार-बार यही किस्सा दुहराता था बेचारा।

शरीर पर कुछ नहीं था, एक लंगोट था बस। शीत ऋतु - गाड़ी का सफर, फिर भी खुश था। यात्री मज़ाक उड़ाते, बच्चे (नुक्कड़ वाले) तंग करते। उसे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। उसके दो रिश्तेदार उसे हमेशा पकड़े रहते, फिर भी वह गाड़ी में इधर-उधर करता। कभी वानर की भांति उछलता तो कभी शंतानी भैंस की तरह बैठकर जुगाली करता। बच्चों (नुक्कड़ पार्टी) का भरपूर मनोरंजन करता। दोनों रिश्तेदार काफी परेशान दिखते थे। नजर हमेशा उसी पर रहती। केवल रिश्तेदार ही दुखी थे और सभी खुश... यात्री और सारे यात्री।

वह कभी लालू यादव, मुख्यमंत्री, बिहार (उस समय) की बातें करता, तो कभी पी वी नरसिंहा राव, प्रधानमंत्री (उस समय) को फोन पर बुलाता। जैसे की 'रावजी' उसके कोई दोस्त हों और वह किसी मुसीबत में फंस गया हो। कभी तेंदुलकर के साथ क्रिकेट खेलता, तो कभी फुटबॉल के मैदान में अपने आप को आजमाता।

उसकी मुखाकृति पर पर इस तरह की कई रेखाएं थीं, जिससे साफ झलकता था कि किसी ने उसके साथ बेईमानी की है। यह सारा कुछ जबरन छीन लिया है उससे। यहां के हंगामे इंसान से बहुत कुछ छीन लेते हैं।

रिश्तेदार कहते हैं- "दिमाग कमजोर हो गया है... अबकी ठीक हो जाएगा।" यात्री कहते हैं-बेचारा पागल है। तब नुक्कड़ पार्टी में से किसी ने हंसकर कहा कि अतः सिद्ध हुआ कि गाड़ी रांची जा रही है। ... और नुक्कड़ पार्टी एक साथ गुनगुना उठी-

"पड़वा कटाइल हो रामा।
आदमियो कटा गेल।।"

- कन्हैया लाल सिंह
सरसी, पूर्णिया के निवासी। फिलहाल स्वतंत्र पत्रकार।

शुक्रवार, 4 मई 2012

स्वर नहीं परमेश्वर की साधना



हिन्दी सिनेमा के यशस्वी गायक मन्ना दा तिरानवे वर्ष के हो गए। एक मई को उनका जन्म दिवस था। उनके गाने तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं लेकिन उस रोज़ मन्ना दा बरबस याद आ रहे थे। एक इत्तेफाक ही था कि सुबह सुबह रेडियो पर उनका अमर गीत, सुर ना सजे बज उठा। ऐसा लगा जैसे पीड़ा के समंदर से तान की लहर उठ रही है। आत्मा की वह रागिनी समय की सारंगी पर निरंतर बज रही है जो मन्ना दा के कंठ से पैदा हुई थी। एक सधे हुए सुर में गाया गया दर्द का वह राग अमर हो गया है। स्वर की वह साधना निश्चय ही परमेश्वर की साधना थी जिसे गाते हुए मन्ना दा ने सुर और शब्द को एकाकार कर दिया था।

'मेरी सूरत तेरी आखें' फिल्म के संगीतकार बर्मन दा ने जब अपने बेजोड़, गीत पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई, के लिए गायक की तलाश शुरू की तो उनकी तलाश सहज ही मन्ना दा के साथ खत्म हो गई। अब उस गाने को सुनते हुए अकसर यह ख्याल आता है कि मन्ना दा के सिवा भला वह कौन सा पार्श्वगायक था जो कुरूप नायक के मन की तकलीफ को इतना सुंदर भाव दे पाता। मन्ना दा ने गीत की आत्मा में उतरकर शब्द उठाए और उन्हें अर्थ के पारदर्शी बना दिया। दिलचस्प है कि मन्ना दा उन नायकों के गायक थे जिन्हें स्टार का तमगा नहीं मिला था लेकिन जब भी मन्ना दा ने उन्हें आवाज़ दी, वे अमर हो गए। भारत भूषण, अशोक कुमार, बलराज साहनी को आवाज़ देते हुए उन्होंने अनायास ही इन नायकों के गरिमामय व्यक्तित्व को अपने स्वर की दीप्ति से आलोकित किया।

मन्ना दा को मालूम था कि संगीत में पीड़ा की तान कैसे छेड़ी जाती है। वे बखूबी जानते थे कि मन की दुखती रग का राग सबसे मधुर होता है इसीलिए वे कुछ अमर गाने गा सके। एक सच्ची आवाज़ जो मुश्किल रियाज़ से तप कर गायन के लिए तैयार हुई थी। सिनेमा के गानों ने जब भी अपनी सीमा पार कर शास्त्रीय संगीत की देहरी तक पहुंचने की कोशिश की। संगीत के यात्री के रूप में सबसे पहले मन्ना दा याद आए । संगीतकारों को मालूम था, मन्ना दा ही एक ऐसे गायक हैं जो लयकारी में रफ्तार के साथ उतार चढ़ाव की लहरों को खूबसूरती से संभाल सकते हैं। लिहाज़ा जब भी झनक झनक कर पायल बजी, जब भी चुनरी में दाग लगा, जब भी किसी ने फुलगेंदवा न मारने की पुकार की, वो पुकार मन्ना दा के गले से ही निकली।

बसंत बहार फिल्म में दो धुरंधर गायकों के बीच भिड़ंत होनी थी। फिल्म का दृश्य कुछ इस तरह से था कि दरबार के प्रतिष्ठित गायक को एक अन्जान गायक से संगीत के समर में हारना थ। दरबारी गायक के लिए पंडित भीमसेन जोशी का चुनाव किया गया फिर एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई कि पंडित जी के सामने कौन सा पार्श्वगायक गाना गाए। संगीतकार शंकर जय़किशन मन्ना दा के पास गए। लेकिन उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। बाद में काफी मान मनव्वल और खुद पंडित जी के उत्साहवर्धन पर वे गाने के लिए तैयार हुए। यह कहना गलत नहीं होगा कि 'केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले' गाने के साथ मन्ना दा ने न्याय किया है। हिन्दी सिनेमा के किसी पुरुष गायक में निश्चित तौर पर सुर और तान की ऐसी पकड़ नहीं थी।

मन्ना दा जितना ही नीचे से गा सकते थे। उनकी तान उतनी ही सहजता से ऊपर भी जाती थी। तार सप्तक को निबाहने वाले वे सिनेमा के अकेले पुरुष पार्श्वगायक हैं। ये बात सब जानते हैं कि जिन गानों को आजमाने से दूसरे पार्श्वगायक मना कर देते थे, वे तमाम गाने मन्ना दा की झोली में आए। संगीतकार सलिल चौधरी ने 'काबुलीवाला' फिल्म के लिए जब, 'ऐ मेरे प्यारे वतन' की धुन तैयार की तो उन्हें बिलकुल नई आवाज की दरकार थी। गाना गाने के लिए मन्ना दा स्टूडियो आए तो उन्होंने साफ कहा कि गाना मुक्त कंठ से नहीं बल्कि दबे हुए दर्द को सहेजती हुई आवाज़ में गाइये। मन्ना दा ने संगीतकार के भाव को समझा,काबुलीवाला फिल्म में फिल्माए गए उस दृश्य में नायक की भावनाओं को दिल में उतारा और अपनी आत्मा से उसे सींच डाला। जब भी वतन की याद में गाए जाने वाले अमर गीतों की सूची तैयार होगी। काबुलीवाला फिल्म का यह गाना चोटी के पांच गानों में होगा।

बिमल रॉय की बेजोड़ फिल्म, दो बीघा जमीन का एक गाना, मौसम बीता जाय, मन्ना दा के कम सुने जाने वाले गानों में जरूर है लेकिन गाने का सौन्दर्य कम नहीं है। बिमल राय़ ने जिस नायक को इस फिल्म में गढ़ा था और जो दृश्य रचा था, यह गाना उसमें खूबसूरती से पिरो दिया गया है। मन्ना दा ने अपनी आवाज़ को देहाती जीवन के अनुरूप खोल दिया था। वह मन्ना दा का अनूठा स्वर था जिसका बलराज साहनी के किरदार से तादात्म्य हो गया है।

पड़ोसन फिल्म का गाना, एक चतुर नार, की शुरुआत कर्नाटक शास्त्रीय संगीत शैली में होनी थी। इस गाने में मन्ना दा को सुनते हुए कहीं से भी यह प्रतीत नहीं होता कि कोई दक्षिण भारतीय गायक नहीं गा रहा। ताज्जुब होता है कि पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई जैसे संजीदा गाने का गायक, कैसे हंसते हंसते इतना चुटीला गाना गाकर सबको अपना मुरीद बना गया। 'ना तो कारवां की तलाश है' जैसी मुश्किल कव्वाली में मन्ना दा ने अपना रंग जमा दिया है। रफी साहब जैसे धुरंधर प्लेबैक सिंगर के साथ जब उन्होंने इस गाने को गाया तो कहीं से उन्नीस नहीं पड़े।
शो मैन राजकपूर के पसंदीदा गायक मुकेश थे लेकिन मन्ना दा ने उनके लिए भी कई बेहतरीन गाने गाए। उनमें से कुछ गाने तो सदाबहार रोमांटिक है। भीगी भीगी रात में मस्त फिजाओं के बीच मन्ना दा की आवाज में चांद का वो उठना अब तक याद है। या फिर प्यार हुआ इकरार हुआ को भला कौन भूल सकता है। राजकपूर ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर का भी एक यादगार गाना उन्हें दिया।

मन्ना दा का संगीत भोर का संगीत है, जो उम्मीदों का उजाला लिये आता है। उनके दर्द भरे गानों में भी विलाप नहीं करुणा का रस है। उनका गाना नाद से उठता है, हृदय में ठहरता है और गले से बाहर निकल कर मन में उतर जाता है। आंखें खोल कर सुनिए तो गाने का संसार सामने चल रहा होता है, आखें बंद कर सुनिए तो गाने के संसार में आप खुद को ठहरा हुआ, डूबा हुआ पाएंगे।

- देवांशु कुमार झा

(महुआ चैनल के प्रोगामिंग सेक्शन से जुड़े हैं.... आपसे 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है)

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

चुनाव का आईपीएल कनेक्शन

इस देश के तमाम नेताओं से विनम्र अनुरोध है कि वो आईपीएल क्रिकेट का महातमाशा जरूर देखें। ना सिर्फ देखें बल्कि इसकी बारीकियां, इसकी ब्यूह रचना और इसके दूसरे विन्यासों को भी गौर से देखने-परखने की कोशिश करें। क्योंकि आईपीएल नाम के इस तमाशे में अपने नेता बंधुओं को आगे लिए कई अहम सीख मिल सकती हैं। वो आईपीएल से सीख सकते हैं कि किसी टीम या किसी पार्टी की कप्तानी कैसे दबोच ली जाती है। कैसे 'बाहरी' होते हुए भी कोई किसी टीम की बागडोर संभाल लेता है और उन खिलाड़ियों को अपने आदेशों पर भगाना- नचाना शुरु कर देता है जो वहां के हैं, स्थानीय हैं।
 
आईपीएल क्रिकेट को राजनीति का रुपक बनाने पर शायद आप हैरान हों। आपको ये जुगलबंदी शायद अजीबोगरीब लगे। अगर मैं आपसे ये कहूं कि अभी-अभी खत्म हुआ यूपी विधानसभा चुनाव आईपीएल क्रिकेट की तर्ज पर लड़ा गया तो आप यकीनन और अचंभित होंगे। लेकिन सच कहूं तो मुझे कुछ ऐसा ही लगा। आप बताएं। आईपीएल में टीम राजस्थान की होती है और कप्तान साहेब आस्ट्रेलिया के होते हैं कि नहीं? टीम पंजाब की होती है और कप्तान श्रीलंका के होते हैं कि नहीं? टीम चेन्नई की होती है और कप्तान हुजूर झारखंड से इंपोर्टेड होते हैं कि नहीं? यही नहीं टीम दिल्ली की होती है खिलाड़ी न्यूजीलैंड का। टीम कोलकाता की होती है खिलाड़ी पाकिस्तान का।

अब जरा यूपी चुनाव के फ्लैश बैक में जाइए। चुनाव यूपी में था और बीजेपी की सीएम कैंडिडेट उमा भारती मध्यप्रदेश की थी कि नहीं? चुनाव यूपी का और कांग्रेस के सबसे बड़े कर्ता-धर्ता दिग्विजय सिंह मध्यप्रदेश के थे कि नहीं? चुनाव यूपी का और बीजेपी के सारे फैसले नागपुरी नितिन गडकरी ने किए कि नहीं? कांग्रेस के सीएम कैंडिडेट बेनी प्रसाद वर्मा हाल तक समाजवादी पार्टी की शोभा बढा रहे थे कि नहीं? तो यूपी चुनाव से आईपीएल का कनेक्शन हुआ कि नहीं?
 
यूपी इलेक्शन से आईपीएल कनेक्शन सबसे ज्यादा बीजेपी में नजर आया। कहां उमा भारती मध्यप्रदेश के सियासी वन में वनवास भोग रही थीं। ठसक वाली उमाजी का ये हाल हो गया था कि ठौर-ठिकाना तलाशने को मजबूर हो गई थीं। लेकिन वाह री बीजेपी। यूपी इलेक्शन से आईपीएल का ऐसा कनेक्शन जोड़ा कि उमाजी गुमनामी के बियावान जंगल से निकलकर चुनावी मैदान में गुर्राने लगीं। जिस बीजेपी को उमाजी बड़ी बेदर्दी से टाटा-बाय-बाय बोल चुकी थीं उसी बीजेपी ने उन्हें ससम्मान यूपी चुनाव में वाइस कैप्टन बना दिया। ये अलग बात है कि उमा भारती की उप कप्तानी यूपी की जनता को रास नहीं आई। उमाजी मैच हारकर पैवेलियन में बैठी हैं। इंतजार कर रही हैं अगले इलेक्शन का। अगले चुनाव में उमाजी के लिए फिर कोई कोई काम तो निकल ही आएगा।
 
क्रिकेट में अब ये आम प्रैक्टिस हो गई है विदेशी कोच लाने की। बीजेपी ने यूपी चुनाव में भी कोचिंग की जिम्मेदारी नागपुर के नितिन गडकरी के हाथों में ही रखी। वैसे गडकरीजी पार्टी अध्यक्ष हैं और इस नाते कोच पद पर उनका हक भी बनता है लेकिन उन्होंने गलती ये कर दी कि खुद ही बैटिंग, बालिंग और फील्डिंग तीनों के कोच बन गए। आडवाणी, राजनाथ, सुषमा, जेटली, तमाम खेमों को गडकरीजी ने इस चुनाव में किनारे लगाकर रखा। यूपी के बाकी बीजेपी नेताओं की तो खैर बिसात ही क्या। नतीजा आपके सामने है। गडकरीजी ने पार्टी के नेताओं को किनारे किया, जनता ने बीजेपी से किनारा कर लिया।
 
इलेक्शन में आईपीएल  का फंडा कांग्रेस ने भी आजमाया और जनता ने उसका भी हिसाब-किताब बराबर कर दिया। बाहरी खिलाड़ियों को इंपोर्ट करने में कांग्रेस भी पीछे नहीं रही। कांग्रेस के चाणक्य दिग्विजय मध्यप्रदेश से इंपोर्टेड, कांग्रेस के सीएम कैंडिडेट बेनी प्रसाद वर्मा समाजवादी पार्टी से इंपोर्टेड, कांग्रेस के एक और तुरुप का पत्ता और दलित चेहरा पीएल पुनिया बीएसपी से इंपोर्टेड। टिकट बंटवारे में भी बाहरियों की बल्ले-बल्ले रही। बस, जनता ने भी बल्ला चला दिया। अब कांग्रेसियों से मेरी यही अपील है कि अब जब वो आईपीएल मैच देखें तो ये भी देखें कि टीम सिर्फ स्टार खिलाडियों के दम पर नहीं जीता करती। टीम जीतती है टीम भावना से, टीम एफर्ट से।
 
बात आईपीएल से यूपी इलेक्शन के कनेक्शन की चली है तो जरा देसी खिलाड़ियों की भी बात हो जाए। यूपी इलेक्शन में आउटसाइडर के भरोसे रहने वाली पार्टी को जनता ने धोबी पाट दिया तो देसी खिलाड़ियों से सजी टीम अखिलेश को ट्राफी ही सौंप दी। देसी खिलाडी तो बहिनजी की टीम में भी खूब थे लेकिन चुनाव आते-आते सबके सब आउट ऑफ फार्म हो गए। बहिनजी ने टीम सलेक्शन में खूब दिमाग लगाया। जिस पर ना चलने का रत्ती भर भी शक था उसे टीम से बाहर कर दिया। लेकिन बहिनजी का 'आपरेशन फेरबदल' फरेबी साबित हुआ। जनता ने उनकी फांस में आने से इंकार कर दिया। बहिनजी को अब पांच साल तक नेट प्रैक्टिस करनी होगी। तब भी इस बात की कोई गारंटी नहीं कि उनका फार्म लौट ही आए।  
 
तो कहने का मतलब ये कि यूपी इलेक्शन से बीजेपी और कांग्रेस ने जिस तरह आईपीएल का कनेक्शन जोड़ा उसका एक्सटेंशन आपको आने वाले दिनों में और भी देखने को मिल सकता है। गुजरात का चुनाव आने वाला है, हिमाचल में भी चुनाव है। फिर छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, दिल्ली, राजस्थान की बारी है। हो सकता है उन चुनावों में भी आईपीएल कनेक्शन आपको दिख जाए। क्योंकि ये सिर्फ यूपी का मसला नहीं। ये तो राजनीति का एक फेनोमेनन है जिसकी झलक आपको कहीं भी, कभी भी देखने को मिल सकती है। यूपी से शुरु हुआ ये प्रयोग आगे भी जारी रह सकता है। यूपी में कारगर नहीं रहा लेकिन कहीं और ये कारगर हो जाए। जो भी हो मारे तो 'वो' बेचारे ही जाएंगे जो पांच सालों तक इस उम्मीद में मेहनत करते हैं कि वक्त आने पर उन्हें ईनाम मिलेगा लेकिन उनके हिस्से की मलाई कोई और महानुभाव खा जाते हैं। बोली किसी और की लग जाती है और वो इंतज़ार करते रह जाते हैं।



बजरंग झा
एसोसिएट एक्जक्यूटिव प्रोड्यूसर
न्य़ूज 24
मोबाइल-9899029101

मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

सीढियों पर 'वो'...


स्टेशन की सीढ़ियों से उतरते हुए
वह रोज़ दिखता है।
दुख की संचित निधि को समेटे हुए
कुछ पाने की दृष्टि से देखता है।
मैं सोचता हूं,
देखता हूं,
पर,
मेरी और उसकी आखों के पीछे का संचालित
संसार दो अलग छोर पर टिका है।
संघर्ष मेरा भी है,
विजय और पराजय के बीच टंगा हुआ
और
संघर्ष उसका, पीढ़ियों के पराजय का पुल है
जिसके नीचे की नदी सूखी हुई है।
वह कभी स्वांग है, कभी घृणा
कभी तरस, कभी क्रोध का कारण
शायद भूले से दया भी
और
सहानुभूति अपवाद है।
उसके परिचय में संज्ञा सबसे कमजोर है
और सबसे विशिष्ट है, विशेषण
जो सदैव उसके नेत्र को
अभिमान के जल से रिक्त किये हुए है।
-देवांशु झा
(इन दिनों महुआ न्यूज चैनल में कार्यरत। आप से 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है)

शुक्रवार, 30 मार्च 2012

पचमढ़ी - बौद्धिक विविधता के तीन दिन

जैविक विविधतताओं के लिए मशहूर पचमढ़ी में तीन दिनों तक बौद्धिक विविधता के दर्शन हुए । 23, 24 और 25 मार्च को पचमढ़ी के न्यू होटल में 'आर्थिक संकट: मायने, भ्रम, हकीकत और चुनौती' विषय की छतरी तनी और इस छतरी के नीचे कई उपविषयों के तहत 11 सत्रों का समावेश किया गया। यहां मौजूद प्रतिभागियों से लेकर विषय के महारथियों तक किसी को इस बात का इल्म नहीं था कि बहस कब कौन सा मोड़ ले लेगी। कभी अध्ययन की गहनता बहस पर हावी रही तो कभी व्यावहारिक अनुभव का तीखा हस्तक्षेप ।
सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच इस बहस की शुरुआत भवानी प्रसाद मिश्र की कविता से हुई- 'सतपुड़ा के घने जंगल/नींद में डूबे हुए से, ऊंघते अनमने जंगल।' पहला सत्र अपने तय कार्यक्रम से थोड़ी देर यानी 23 मार्च को लंच के बाद शुरू हो पाया। आयोजकों ने पहले ही दिन बड़ा खतरा उठा लिया था। पोस्ट लंच सेशन की दुर्गति कई बार देखी जा चुकी है, लेकिन नींद में डूबे हुए ऊंघते अनमने जंगलों के बीच जब बातचीत शुरू हुई तो वहां मौजूद हर शख्स की आंखों की नींद गायब थी, सफर की थकान नदारद थी।
संदीप नाईक ने स्वागत की औपचारिकता पूरी की और फिर सचिन जैन ने आयोजन की भूमिका बांधी। इसी दौरान वहां मौजूद हर शख्स ने एक दो पंक्तियों में अपना परिचय दिया, जो परिचय की शुरुआत भर ही कहा जाए तो बेहतर होगा। (...क्योंकि असली परिचय तो बाद के सत्रों में कुछ अलग रूपों में हुआ और खाने की मेज पर औपचारिकता के तमाम बंधन भी ढीले पड़ते चले गए और आत्मीयता बढ़ती गई।)
पहले सत्र का विषय- 'नवउदारवाद के बाद प्राकृतिक संसाधनों का दोहन संदर्भ वन बारास्ते पचमढ़ी ।' पेशे से वकील अनिल गर्ग ने वन विभाग के 150 साल पूरे होने के संदर्भ में इस परिचर्चा की भूमिका बांधी। उन्होंने बताया कि 150 साल पहले पचमढ़ी में ही वन विभाग का पहला दफ्तर खोला गया था। इस तारीखी सच को उन्होंने सालगिरह की बजाय बरसी के तौर पर मनाने की बात कही। उन्होंने बताया कि कैसे इन डेढ़ सौ सालों में वन विभाग वनों के संरक्षण की बजाय वनों के दोहन का जरिया बन गया। बाबा मायाराम ने जंगल के लिए राजा भभूत सिंह की लड़ाई को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि अंग्रेजों ने भभूत सिंह को जबलपुर जेल में फांसी की सजा दे दी थी। मायाराम ने कहा कि वन विभाग देश का भ्रष्टतम विभाग है। इस विभाग ने वनों को बचाने के नाम पर उस आदिवासी समाज को बेघर किया जो वनों की रक्षा करने में अग्रणी रहा है।
सिराज केसर ने प्लांटेशन का सरकारी गणित लोगों को समझाया। पेड़, खंब और झाड़ में वन विभाग के अधिकारी किस तरह से गड़बड़झाला करते हैं, इसकी पूरी थ्योरी इस सत्र में सामने आई। प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखाने के लिए पेड़ झाड़ बन जाते हैं और झाड़ों की गिनती पेड़ों में कर ली जाती है। पुष्पेंद्र पाल सिंह ने बताया कि पचमढ़ी जैव विविधिता के लिहाज से देश का सबसे समृद्ध इलाका था, इसलिए अंग्रेजों ने इसे वन विभाग के पहले दफ्तर के लिए चुना।
दूसरा सत्र- नवउदारवाद और आर्थिक नीतियां: मायने, हकीकत और सवाल। विनोद रैना ने अपने सारगर्भित व्याख्यान से पूरी बहस को नया मोड़ दे दिया। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की इस पूरी प्रक्रिया को 1991 की बजाय 500 साल से चली आ रही सतत प्रक्रिया के तौर पर व्याख्यायित किया। उन्होंने 1492, 1947 और 1991 को उदारीकरण के तीन अहम मोड़ के तौर पर सामने रखा। 1492 में जब यूरोपीय देश दुनिया के दूसरे हिस्सों तक पहुंचे, उसी वक्त वैश्विक उपनिवेश का दौर शुरू हो गया। ये वो वक्त था जब यूरोप और भारत की समृद्धि को दुनिया की दौलत के आंकड़ों में देखा गया तो कोई खास फर्क नजर नहीं आया, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में ये फासला कभी बढ़ चुका है। अगर आर्थिक दोहन को हम पांच सौ साल पीछे लेकर जाएं तो विकसित देशों पर अरबों की देनदारी बन जाती है।
रैनाजी ने दूसरी तारीख 1947 बताई जब हयक जैसे विद्वानों ने फ्री मार्केट का विचार रखा, जब ये कहा गया कि दुनिया की खुशहाली सरकार से नहीं होगी। डिफेंस, परिवहन, कानून बनाने की प्रक्रिया और शिक्षा को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों के निजीकरण की वकालत पुरजोर तरीके से शुरू हो गई। उदारीकरण को समझने के लिहाज से तीसरा अहम प्रस्थान बिंदु 1991 रहा, जब भारत को अपना गोल्ड गिरवी रखना पड़ा। इतना ही नहीं IMF का ऋण हासिल करने के लिए भारत ने वो शर्तें स्वीकार कर लीं, जिसने देश को मजबूरन आर्थिक उदारीकरण की ओर धकेल दिया। पीयूष बबेले ने इस थ्योरी पर ये कहकर सवाल उठाया कि अगर पांच सौ साल पहले भारत आर्थिक रूप से समृद्ध था तो उसने विदेशी शक्तियों के आगे घुटने क्यों टेके?
अरविंद मोहन ने कहा कि आर्थिक उदारीकरण ने मीडिया को अपना गुलाम बना लिया है। आज अंबानी के खिलाफ लिखने वाला कोई नहीं। हालांकि उनके इस कथन के साथ ही सभा में ये बुदबुदाहट भी सुनाई दी कि लिखने वाले तो कई हैं, लेकिन छापने वाला कोई नहीं। अरविंद मोहन ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ये इस व्यवस्था की विडंबना है कि जो खरीद सकता है, वही आदमी है, बाकी सब कूड़ा-कचरा या कबाड़।
चाय की चुस्कियों के बाद 23 मार्च का तीसरा सत्र- 'मौजूदा अर्थव्यवस्था और बच्चों के अधिकार'। यूनीसेफ के अनिल गुलाटी ने बच्चों के जन्म के बाद के साथ ही जन्म के पहले के भेदभाव और अधिकारों के दमन का सवाल उठाया। उन्होंने आंकड़ों के जरिए ये समझाने की कोशिश की कि कैसे चाइल्ड रेशियो घट-बढ़ रहा है। आशीष अंशु ने आदिवासी समाज में बच्चियों की दुर्दशा का जिक्र किया, तो रोली ने भारिया कम्यूनिटी में लड़कियों में दहेज लाने की बढ़ती प्रवृति को खतरनाक बताया। विनोद रैना ने राज्य प्रायोजित शादियों को लेकर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि अगर राज्य दहेज देकर शादियां कराएंगे तो फिर बदलाव की बात कहां से उठेगी और कैसे आगे बढ़ेगी। कुल मिलाकर बच्चों के अधिकार से जुड़ा ये सत्र कई मुद्दों के बीच भटकता रहा और बच्चे मुद्दों की इस भूलभूलैया में संदर्भ, हां संदर्भ के तौर पर ही कभी-कभार आते रहे।
24 मार्च का पहला सत्र सुबह दस बजे शुरू हुआ। विषय- 'नई आर्थिक नीति और शिक्षा'। विनोद रैना ने शिक्षा का हक कानून को ऐतिहासिक संदर्भों में रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि ब्रिटेन में 1870 ईस्वी में ही शिक्षा का हक नागरिकों को मिल चुका था। दुनिया के 134 देशों में ये कानून पारित हो जाने के बाद 2009 में भारत में ये कानून की शक्ल ले पाया। उन्होंने इस कानून को लागू करने के लिए जरूरी धन की कमी का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि शिक्षा का बजट अभी भी इस योजना को पूरी तरह लागू कर पाने के लायक नहीं है।
उदारीकरण के इस दौर में शिक्षा के लिए पैसा कहां से आए? इस सवाल पर उन्होंने गांधीजी के 'हरिजन' में लिखे एक लेख का जिक्र किया। 1938 में गांधी ने इस बात से साफ इंकार कर दिया था कि शराब से मिलने वाले टैक्स से वो बच्चों की पढ़ाई का बंदोबस्त करेंगे। गांधी ने कहा कि वो इसका कोई वैकल्पिक रास्ता तलाश करेंगे। आज के दौर में भी लोगों को विकल्पों की तलाश करनी होगी जो वैश्विक शक्तियों की घुसपैठ को रोक सकें, उनकी मनमानी शर्तों से निजात दिला सकें। हालांकि अपने वक्तव्य के दौरान रैना जी ने उदारीकरण को एक नया टर्म दे दिया- 'उधारीकरण' (बार-बार जबान फिसलती रही, लेकिन सच तो यही है-उदारीकरण और उधारीकरण में फासला तो कम ही है)
अरुण त्रिपाठी ने अपनी बात फिल्म 'त्री इडियट' के रोचक संदर्भ के साथ शुरू की और 'बिलगेटिया मजूदर' की त्रासदी तक पहुंच गए। उन्होंने बताया कि शिक्षा को उपकरण बनाकर कैसे समाज में असमानता पैदा की जा रही है। कैसे पूंजी छात्र संघों और शिक्षक संघों को कमजोर कर रही है ताकि विरोध की संस्कृति ही न पनपे। उन्होंने कहा कि बाजार के जो रहनुमा नब्बे के दशक में स्टेट पर काबिज होने को बेताब थे, उनके रूख में 9/11 के बाद अचानक परिवर्तन आ गया। उन्हें ये एहसास हो गया कि बाजार के हितों की रक्षा तभी मुमकिन है जब स्टेट दमनकारी शक्तियों से लैस रहे।
इन दो वक्तव्यों के बाद चिन्मय मिश्र की एक बेहद दिलचस्प टिप्पणी आई- हमने अभी गिरमिटिया से बिलगिटिया दुनिया की एक झलक देखी। इस सत्र में पेशे से वकील शम्स ख्वाजा का पहला हस्तक्षेप हुआ, जो आगे के सत्रों तक जारी रहा। हर सत्र के बाद उनके 8, 13 या 16 प्वाइंट्स जिरह को नया आयाम देते रहे।
बंदरों की धींगामुश्ती की बीच सत्र आगे बढ़ते रहे। 24 मार्च का दूसरा सत्र एक तरह से खुली बहस के लिए छोड़ दिया गया। दरअसल समय की कमी की वजह से जो चर्चा तीन सत्रों में होनी थी, उसे एक सत्र में समेट दिया गया। पहला विषय- बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और समाज सरोकारों से कटा अर्थशास्त्र। दूसरा विषय- नयी पूंजी में मीडिया। तीसरा विषय- पत्रकारिता की चुनौतियां और फ्री प्रेस मूवमेंट।
पुष्पेंद्र पाल सिंह ने आज के मीडिया का उद्देश्य बताया- पूंजी और ताकत हासिल करना। उनके मुताबिक अगर उद्देश्य ही सामाजिक सरोकारों से कटा होगा तो फिर वो उनके काम में कैसे दिखेगा। इसके लिए उन्होंने विकल्पों पर जोर दिया। उन्होंने को-ऑपरेटिव के द्वारा संचालित अखबार जनमोर्चा और ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित दैनिक ट्रिब्यून की मिसाल सामने रखी। इसके साथ ही उन्होंने मीडिया पर राज्य के नियंत्रण को लेकर एक नई बहस छेड़ी। उन्होंने दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और राज्यसभा टीवी का उदाहरण सामने रखते हुए कहा कि कम से कम इन चैनलों में वो सारी विकृतियां नहीं हैं, जिन्हें लेकर मीडिया को कटघरे में खड़ा किया जाता है। पुष्पेंद्र पाल सिंह ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि मीडिया और सरकार के बीच के अंतर्संबंधों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
इसके बाद 'परिवर्तन' की ओर से चंद्रिका ने फ्री प्रेस को लेकर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि ऑब्जर्बर यानी पत्रकार जो 'रियलिटी' क्रिएट करता है उसे लाखों करोड़ों लोग देखते-समझते हैं। इसलिए ऑब्जर्बर को फ्री रखना जरूरी है और पत्रकारों को उनके तमाम अधिकार मिलने चाहिए। चंद्रिका जी की बात को शम्स ख्वाजा ने आगे बढ़ाया। ख्वाजा ने कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता इस बात पर निर्भर करती है कि संस्थान अपने मातहत पत्रकारों को कितनी आजादी देता है। उन्होंने कहा कि मीडिया संस्थानों को मिल रही सुविधाओं का सीधा फायदा संपादकीय विभाग के कर्मचारियों को मिलना चाहिए न कि मार्केटिंग से जुड़े लोगों को। इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक सरोकारों और पत्रकारों की भूमिका के आधार पर मीडिया संस्थानों के वर्गीकरण (ए, बी, सी, डी और ई) का भी प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि इस वर्गीकरण के आधार पर मीडिया संस्थानों को सरकार से सहायता दी जानी चाहिए। शम्स ख्वाजा ने ये बात भी जोर देकर कही कि मीडिया संस्थान में संपादकीय प्रमुख का वेतन हमेशा समान सीनियरिटी के मार्केटिंग हेड से ज्यादा होना चाहिए। प्रेस बिजनेस की कमाई कौन लेगा? ये सवाल भी उन्होंने पुरजोर तरीके से उठाया।
प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चल रही इस बहस के दौरान ही ई टीवी में 3 साल की 'बंधुआ मजदूरी' (कॉन्ट्रेक्ट) का सवाल भी उठा और एक इलैक्ट्रॉनिक चैनल में 5 साल से इंक्रीमेंट न होने का दर्द भी सामने आया। शम्स ख्वाजा और उनकी संस्था ने खुले मंच से ये एलान किया कि ईटीवी के ऐसे कॉन्ट्रेक्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाएगी और अल्लाह ने चाहा तो मालिकान को इस मुद्दे पर घुटने टेकने होंगे।
आलोक पुराणिक ने उदारीकरण के असर को समझाने के लिए जनता के वर्गीकरण का नया मुहावरा पेश किया- अमेरिका, मलेशिया और यूगांडा। उन्होंने कहा कि भारत जैसे देश में 5 करोड़ की आबादी 'अमेरिका' का प्रतिनिधित्व करती है, 40 करोड़ आबादी 'मलेशिया' का और 80-90 करोड़ आबादी 'यूगांडा' का प्रतीक है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा 'मलेशिया' की चिंताओं और उनके हितों की रक्षा को ही अपना कर्म और धर्म मान बैठा है। उन्होंने इन परिचर्चाओं के बीच नए विकल्प तलाशने की बात कही है और ये वादा भी किया कि अगले सेमिनार में वो कुछ नई बुकलेट्स के साथ हाजिर होंगे। दूसरे सत्र के अंतिम वक्ता आनंद प्रधान ने परिचर्चा को भोजन अवकाश के लिए 'ब्रेक' दे दिया।
अब तक पंडाल के अंतिम सिरे से छोटी-छोटी टिप्पणियों से 'हस्तक्षेप' कर रहे आनंद प्रधान ने दूसरे दिन लंच के बाद माइक संभाला। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र और पूंजीवाद साथ-साथ नहीं चल सकते। उन्होंने ग्रीस का उदाहरण रखा, जहां आर्थिक संकट के बाद यूरोपियन यूनियन ने कर्ज की पेशकश की और उसके साथ ही कई शर्तें भी लाद दी। जब ग्रीक सरकार ने इस पर जनता की रायशुमारी करनी चाही तो उन्हें रोक दिया गया, सरकार बदल दी गई। इसके साथ ही उन्होंने नीरा राडिया प्रकरण के जरिए ये समझाया कि कैसे पीआर एजेंसियां पत्रकारों को 'कंट्रोल' कर रही हैं। उन्होंने विकल्पों की तलाश कर रहे पत्रकारों को ये कहकर थोड़ा निराश किया कि मौजूदा दौर में बड़ी पूंजी की शरण में गए बगैर अच्छा अखबार निकाल पाना मुमकिन नहीं है।
वेदव्रत गिरि ने मेरी खबर डॉट कॉम का अपना अनुभव साझा कर आनंद प्रधान की इसी बात को थोड़ा और पुख्ता कर दिया। उन्होंने बताया कि खबरों के नेट संस्करण में कभी 'मेरी खबर' अग्रणी था लेकिन बड़ी पूंजी वालों ने उन्हें धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिया। आज उनके लिए ये वेबसाइट चला पाना भी मुश्किल हो गया है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों के सबसे बड़े दुश्मन पत्रकार ही बनते चले गए हैं।
इसके बाद के दो सत्र खेती और पानी के संकट को समर्पित रहे। इन सत्रों में डीके अरुण ने खेती को लेकर अपने अनुभव साझा किये तो रहमत भाई ने पानी को लेकर चल रहे षडयंत्रों का पर्दाफाश किया। डीके अरुण ने बताया कि खेती के लिए जानबूझकर विदेशी तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है जबकि देसी तकनीक कहीं ज्यादा कारगर है।
24 की रात सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम रही। दस्तक की ओर से 'आधे अंधेरे समय में' की प्रस्तुति हुई और फिर युवाओं ने मंच संभाल लिया। गीत-संगीत के साथ ही मोनो एक्टिंग में भी लोगों ने अपना हुनर आजमाया। ये खुला सत्र दो दिनों की थकान को खत्म कर गया और लोग देर रात तक झूमते-नाचते रहे।
25 को अंतिम सत्र में लोगों ने अपने अनुभव साझा किए। किसी ने विनोद रैना को सुनना पचमढ़ी की उपलब्धि बताया तो किसी ने युवाओं के समागम को इसकी कामयाबी माना। लोगों ने विकास संवाद के सूत्रधार सचिन जैन से ये गुजारिश की कि पिछले छह सालों से चल रहा ये सिलसिला आगे भी जारी रहे और मुमकिन हो पाए तो साल के बीच के महीनों में भी संवाद की गुंजाइश बने। सचिन जैन ने इस बात पर थोड़ा अफसोस जाहिर किया कि साल भर में लोग एक मंच पर आने के लिए तीन दिन का समय निकाल नहीं पाते।
बहरहाल, सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच हुआ ये 'संवाद' लोगों के मन में लंबे वक्त तक उमड़ता-घुमड़ता रहेगा और मुमकिन है कि उन्हें अनमने ढंग से ही सही लेकिन अपनी 'नींद' को तोड़ने के लिए विवश जरूर करेगा।
रिपोर्ट- पशुपति शर्मा

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

जो जीयै सो खेले फाग



"महंगी पड़े या अकाल हो, पर्व त्यौहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मलेरिया और कालाआजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूंक देती है। रोने कराहने के लिए बाकी ग्यारह महीने तो हैं हीं, फागुन भर तो हंस लो, गा लो। जो जीयै सो खेले फाग। " ये बात फणीश्वर नाथ रेणु कह रहे हैं, अपने उपन्यास 'मैला आंचल' में।

मैला आंचल में होली का जो जीवंत वर्णन है, वो बेहद रोमांचित कर देने वाला है। रेणु जब होली का राग छेड़ते हैं तो पाठकों को बौरा देते हैं। मैला आंचल में छह पृष्ठों की होली में आपको छह हजार रंग नजर आने लगते हैं। नाच-गाना, धमा-चौकरी, छींटाकशी, नए उलाहने भरे गीत... सब कुछ पिक्चर की तरह खटाखट एक दृश्य खत्म होता है, दूसरा चला आता है।

दृश्य एक

फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है, पर वह उसके साथ जाना नहीं चाहती, वह होली गांव में ही मनाना चाहती है। वह क्यों गांव में रहना चाहती है, ये रेणु की नजरों से परे नहीं। फुलिया पिछली होली में सहदेव मिसर से 'मिलन' को भूल नहीं पाई है। फुलिया की पोर-पोर में मीठा दर्द फैल रहा था। मन में कहीं इच्छा है- सहदेव मिसर को बुला भेजे।

'नयना मिलानी करी ले रे सैयां....
नैयना मिलानी करी लें'

दृश्य-दो

चारों ओर गुलाल उड़ रहा है। पर डॉक्टर को कोई रंग नहीं देता।..... उसे कोई रंग क्यों नहीं देता? बाहर का आदमी है, ऊपर से सरकारी... सो गांव के सीधे-सादे लोग उससे सटते ही नहीं। कालीचरण तो नेता आदमी है, उसे डर काहे का। लो ये मारी पिचकारी। डॉक्टर के सफेद कुर्ते पर लाल-गुलाबी रंगों के छींटे छरछराकर पड़ते हैं।

'आज ब्रज में चहुं दिश उड़त गुलाल...'

दृश्य-तीन


डॉक्टर उसकी 'मरीज' कमली आमने-सामने। प्रेमी-प्रेमिका आमने-सामने हों और होली का दिन हो, फिर क्या कहना। पर यह क्या, डॉक्टर चुटकी में अबीर लिए सोच में पड़ा है-कमली को रंग कहां लगाए। निरा बुद्धू है डॉक्टर प्रशांत। कमली 'प्रशांत' में हिचकोले लगाने को बेताब है और वह...।

" जरा अपना हात बढ़ाइए तो"... कमली कह ही तो देती है- " आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं।" ऐसे कितने ही रोचक दृश्य रेणु ने खींचे हैं जो होली की मस्ती बयान करते हैं।

होली में प्रेम, मिलन, हास-परिहास तो है ही, इसके साथ ये सामाजिक- राजनैतिक आलोचना का दिन भी है। रेणु इस पर्व की सर्जनात्मकता को रेखांकित करना नहीं भूलते। एक गीत जो होली के लिए खास तौर पर रचा गया है, तत्कालीन परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य है।

"चर्खा कातो, खद्दर पहनो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुराजी बोली
जोगीजी सरररररररररर....
जोगीजी ताल न टूटे....
तीन ताल पर ढोलक बाजे
ताक धिना धिन, धिन्नक तिनक, जोगीजी..."


-पशुपति शर्मा

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

'सुन्नर नैका'-तटबंधों को तोड़ती एक प्रेम कथा

सुन्नर नैका। कोसी मइया की धाराओं और उसके प्रवाह की तरह कई तरह की अनिश्चितताओं और आवेग के साथ आगे बढ़ती कथा है। कोसी मइया को लेकर प्रचलित लोक कथाओं की तरह ही सुन्नर नैका की इस कथा में एक नारी की भावनाएं हैं, एक नारी का उद्वेलन है, उसकी तड़प है, उसका गुस्सा है, विद्रोह है और नारी का वो विनाशकारी रूप भी है, जो अपने पर आ जाए तो न तो अपने अस्तित्व की चिंता करती है और न ही उनकी जो हमेशा उन्हें कुछ 'तटबंधों' में बांधने की कोशिश करते हैं।

उपन्यास सुन्नर नैका 'महा-महानगर' दिल्ली के एक ड्राइंग रूम में शुरू होता है लेकिन ये कोसी के कछार में ऐसा रमता है कि उपन्यास के अंत तक ये खयाल ही नहीं रह जाता कि सुरपति राय नाम का कोई शख्स इस उपन्यास में कथावाचक की भूमिका में है और उसकी दो पोतियां अच्छे श्रोता की तरह कहानी में पूरा रच-बस गई हैं।

उपन्यास 14 खंडो में बंटा है और हर खंड कथा को कुछ और गति देता हुआ बड़ी तेजी से किस्सागोई के क्रम को आगे बढ़ाता है। सुरपति राय का 'भसियाना' क्या होता है, इससे पाठक उपन्यास के पहले पेज पर ही रूबरू हो जाते हैं। विश्वंभर, सुरपति राय का भतीजा, अनजाने में ही वो तार छेड़ देता है- जिससे दंता राकस की याद ताजा हो जाती है - "तुम जो कुरसी पर बैठे मुंडा, मरांडी, कोड़ा और सोरेन नामधारी नेताओं को देखती हो, इससे यह भ्रम मत पालना कि वे राज कर रहे हैं। ये तो बस मोहरे हैं, जिन्हें वहां के उद्योगपतियों, कोल माफियाओं और ठेकेदारों ने सामने खड़ा कर रखा है ताकि परदे के पीछे अपनी लूट खसोट जारी रख सकें.... आम आदिवासी आज भी उतना ही गरीब है, उतना ही शोषित जितना राज्य बनने से पहले था, कई लोग तो इन्हें इनसान ही नहीं समझते हैं, पशु समझते हैं या फिर राक्षस...." बस सुरपति राय एक पुराना किस्सा लेकर बैठ जाते हैं। चार सौ साल पुराना किस्सा। राकस चार सौ साल पहले भी राकस था और आज भी राकस है, कैसे और किनकी नजरों में ये कथा में आगे खुलता है।

सुरपति राय की कहानी सुनने से पहले सुरपति के सर्जक से एक छोटी सी मुलाकात करते चलें। उस उपन्यास के लेखक हैं पुष्यमित्र। ये महज संयोग नहीं है कि कि कोसी की ये कथा जिनकी जुबान से निकली है, वो कोसी क्षेत्र के रहने वाले हैं और अपने इलाके से बाहर जाकर पढ़ाई की है। (कामाख्या का 'तंत्र-मंत्र' शायद पुराने जमाने में भी ऐसी ही कोई शिक्षा होता हो।) वो उपन्यास में ही एक जगह लिखते हैं- "काश उसे भी सुन्नैर और सुन्नर की तरह कामाख्या का कालू जादू आता और वे खुद को आधा रघ्घू रामायणी और आधा जेएनयू के किसी प्रोफेसर में बदल सकते ताकि सबकुछ कहना और समझाना आसान होता..." लेखक का ये 'काश' वाकई 'काश' ही रह गया है। वो काला जादू के जरिए रघ्घू रामायणी की आत्मा में तो प्रवेश कर गए हैं लेकिन जेएनयू का कोई प्रोफेसर उनकी आत्मा पर हावी नहीं हो पाया है। यही वजह है कि आधा-आधा का संतुलन जो कथावाचक या लेखक चाहता था, वो इस उपन्यास में नहीं बन पाया है, जो पाठकों के लिए मेरे लिहाज से सुकून की बात ही है। शुरूआती खंडों में दो-चार हिस्से ऐसे जरूर हैं, जो हमें मौजूदा काल-परिवेश से जोड़ते हैं लेकिन कथा आगे बढ़ने के साथ ही वो मूलत: भावना के धरातल पर ही पाठकों को जोड़ती भी है और झकझोरती भी है। रघ्घू रामायणी जेएनयू के किसी प्रोफेसर पर हावी रहता है।

'गीतक्कर-बतक्कर' अपने अंदाज में 'कुपित कोसी मैया' की कथा को रस ले-लेकर कहते हैं। जिंदगी में तमाम परेशानियों के बीच जिंदादिली का जो एहसास कोसी के लोगों में है, वही रस कथा में भी बनाए रखा है- 'जो रस सुन्नैर में है वो सुंदरी में कहां'। 'आठ-दस बैलगाड़ी चर्र-चोयं-चर्र चोयं करती किसी लंबे सफर के लिए चली जा रही थीं'। पोतियां 'गुमेगुम-चुपेचुप'। तीन साल के लिए अपने कलेजे के टुकड़ों- सुन्नर और सुन्नैर को कामाख्या भेजने का कठिन फैसला कमल नायक करते हैं- "वैसे तो कमल नायक नयी सोच का आदमी था, तंत्र-मंत्र पर कम ही भरोसा करता था। मगर इस समस्या ने उसके आत्मविश्वास को काफी कमजोर कर दिया था।"

तीन साल बाद जब दोनों भाई-बहन लौटते हैं तो 'परानपुर हवेली में उत्सव' मनता है। यहां लेखक ने सुन्नर की कद-काठी (सिक्स पैक एब्स) का वर्णन जिन उपमाओं में किया है, वो काफी भदेस है- "सुन्नर तो किबाड़ की चौखट जितना लंबा हो गया है, देह भरा गया है, बांह पर मछलियां उग गई हैं। मोंछ कड़-कड़, चलता है तो धरती कांपती है।" लेकिन उपन्यास में ही दूसरी जगह सुन्नर की देह-दशा का वर्णन करते वक्त लेखक पर जेएनयू वाले प्रोफेसर की छाप नजर आती है- "तभी पीतांबरी पहने सुन्नर नायक आंगन में घुसे। गोरा बदन, गठीला शरीर, पीछे कंधे तक लटक रहे घुंघराले बाल, बदन पर जनेऊ, पांव में खड़ाऊं।"

दादी का काजल लगाना और सुन्नर नायक का उस काजल को पोंछ देना, एक द्वंद्व है परंपरा और आधुनिकता का... जो पूरे उपन्यास में कई मौकों पर नजर आता है। जब तर्क की कसौटी पर दादी का 'काजल' खरा नहीं उतरता तो मां उसे दादी का 'स्नेह' कह सुन्नर को झिड़की लगा जाती हैं। कामाख्या में तीन साल का तंत्र-मंत्र वाकई तंत्र-मंत्र है या शिक्षा-दीक्षा?

राहत अली और कैलाश खेर से मुकाबला करते लक्षमन गवैया की एंट्री। "गजब हुनर दिया है, उस गवैया को भगवान ने। बिरहा गाता है तो महफिल सिसकारी पारने लगती है और मदमाता है तो लोग पगला जाते हैं, उठ-उठकर नाचने लगते हैं।" लक्षमन गवैया को लेकर तरह-तरह के किस्से और फिर उसके द्वारा गीतों के साथ कोसी मइया की लोक कथा का वर्णन उपन्यास का सशक्त पक्ष है। कोसी मइया की इस कहानी में कई ऐसे सूत्र मिलते हैं, जो आगे चलकर सुन्नैर की कहानी में और स्पष्ट होकर सामने आते हैं। कोसी का अपने ससुराल में विद्रोह, ससुराल से भागने पर मायकेवालों का मौन और इन सबके बीच विनाश की पूरी कथा। क्या ये कोसी की उन बेटियों की कहानी नहीं जो विवाह के बाद प्रताड़ना झेलने को विवश हो जाती हैं, और उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती? हां, कोई 'दुलारीदाय' जरूर उम्मीद का एक दीपक जलाती है और अपनी बहन का दर्द साझा करने सामने आती है। कोसी जब अपनी जिंदगी में पीछे मुड़कर देखती है तो क्या पाती है- "सचमुच गांव का गांव असमसान बन गया, हजारों हजार आदमी के प्राण पखेरू उड़ गए। जो बचा उनके पास न घर था और न खाने-पीने का इंतजाम। उनको तो वैसे भी भूख-प्यास से पटपटाकर मरना था। सिसकारी और क्रंदन से आसमान कांप रहा था।" सिसकारी के साथ क्रंदन शब्द का इस्तेमाल भाषा के मूल प्रवाह में थोड़ा अड़चन डालता है लेकिन नारी मन अपनी बात कह जाता है-"जे अपने बंस के अभागन बेटी के पुकार पर खिड़की नै खोललकै से मैरियै गेलै त कोन दुख। धरती के भार घटलै।"

लेखक की स्मृतियों का 'डेविड धवन' लोककथाओं की अतार्किकता को समझाने के लिए इस्तेमाल होता है। "वैसे भी कथा-कहानियों की गुणवत्ता उसके तार्किक होने में थोड़े ही है, कई बार अतार्किक कहानियां लोगों को ज्यादा पसंद आती हैं, क्योंकि उसमें वो कहीं नहीं होते और कथा का संदेश या मर्म उन्हें या उनके अहं को चोट नहीं पहुंचाता।" 'पहाड़ों से आया परदेसी' खंड में उपन्यासकार इस कथन के जरिए पाठकों को 'फैंटेसी' की दुनिया में कुछ और विचरण के लिए तैयार कर लेता है। पुरनिया के दैता तालाब का जिक्र करते-करते वो कहता है- 'भोपाल का बड़ा तालाब भी कहते हैं किसी दैत्य या जिन्न ने ही खोदा था'। बात कोसी क्षेत्र की हो रही है और अचानक से भोपाल का बड़ा तालाब लेखक की अपनी स्मृतियों से कथा में उतर आया है। (लेखक ने एक लंबा समय भोपाल में भी गुजारा है)

'सपनों का देवपुत्र' खंड से सुन्नर नैका कथा के केंद्र में आ जाती है। उसका रूप, लावण्य, सौंदर्य और इन सबके साथ नायक से पहला परचिय। मुलाकात की पहली जगह-तालाब और स्थिति- भींगी-भींगी नायिका। डेविड धवन के साथ ही राजकपूर की यादें भी ताजा हो जाएं तो कोई अचरज नहीं। "पल भर को ये भी नहीं सोचा कि जिसे वह इस तरह देख रही है, वह भला क्या देख रहा है। छाती से जांघ तक के शरीर को सूती के अधोवस्त्र से ढकी एक युवती। .... पानी से भीगा अधोवस्त्र जितना छुपा रहा है, उससे अधिक इशारे कर रहा है। स्तन की गोलाइयां, बदन का कटाव, नितंब का आकार कुछ भी तो नहीं छुपाया जा रहा है।"

तालाब किनारे देवपुत्र से इस एक मुलाकात से नवयौवना सुन्नैर की कल्पना और भावना को पंख लग जाते हैं। भावनाओं का ऐसा आवेग जिसे वो रोक नहीं पाती और कामाख्या से सीखे गुन से पल भर में कलगी बनकर देवपुत्र के घोड़े के सिर में जा फंसती है। कलगी को चुंबन के जरिए देवपुत्र सुन्नैर के यौवन का 'उद्घाटन' कर देता है। ये कौन हैं- धरमपुर से शिवचंद्र ठाकुर के पुत्र और आनंद ठाकुर के भतीजे राघव ठाकुर। आनंद ठाकुर यानी छोटका मौसा का भतीजा। राघव और सुन्नैन के बीच प्रेम का अंकुरण काफी नाटकीय किंतु रोचक। यहां भी नारी की आधुनिक चेतना की एक झलक- "आपको कैसे मालूम है मेरा अपना घर कहां है ? अभी तो यह मुझे भी नहीं मालूम।" बातें प्रेम की और पीड़ा एक लड़की के पूरे जीवन की।

एक तरफ गांव के पानी की समस्या और दूसरी तरफ राघव और सुन्नैर के बीच की प्रेम कथा। नारी मन का द्वंद्व शुरू हो जाता है। सुन्नैर राघव के प्रेम में खिंची धरमपुर पहुंच तो जाती है लेकिन उसका जी बहुत जल्द ही 'पहली नजर के बचकाने प्रेम' से भर जाता है। "वह परानपुर के कुंडों की खुदाई की बातें करना चाहती थी, जबकि राघव आने वाले दिनों की, विवाह और अपने परिवार की योजना बनाना चाहता था। वह न राघव को मना कर पाती और न ही अपने मन को इन चीजों के लिए तैयार कर पाती।" इस मानसिक खींचतान के बीच ही राघव का सुन्नैर को रात के दूसरे पहर अपने कमरे में लेकर जाना। उसके साथ अंतरंग होने की कोशिश और सुन्नैर की बगावत।

उपन्यास में मौसी के बहाने गांवों की महिलाओं का एक और रूप नजर आता है। वो महिलाएं जो भोली दिखती है, उनका अपना अरजा हुआ 'ज्ञान' एक दो पंक्तियों में ही जिंदगी का निचोड़ रख देता है- "इतनी परेशान क्यों हो, मर्द की जात ऐसी ही होती है... आज यही न कमाल किया कि अपना कौमार्य बचा लिया। अब यह सोचो इसे बचाया भी तो किसके लिए एक मर्द के लिए ही न। जो पहली रात को इस गर्व से भर उठेगा कि मैंने ही इस औरत को पहली बार भोगा।" मौसी एक सांस में नारी की जिंदगी के कमशकश और अनुभव को सुन्नैर के सामने कड़वे किंतु सपाट अंदाज में बयां कर देती है-"औरतों का जीवन आदर्शों से नहीं चलता है। बल्कि हर कदम पर उसे समझौते करने पड़ते हैं। इसलिए कहती हूं, नीति और आदर्श के चक्कर में पड़ने से बेहतर समझौता करने और समझौते में अपने लिए अधिक से अधिक हासिल करने का हुनर सीखो।" इस एक रात ने सुन्नैर को और बड़ा बना दिया और वो हर बात से असंबद्ध हो गई।

इसके बाद का घटनाक्रम बड़ी तेजी से आगे बढ़ता है। सुन्नैर के गांववाले कोयले वाले पहाड़ से दंता राकस को कुंड खोदने के लिए बुला लेते हैं। 'कोयले वाले पहाड़' पर भी हिरनी रानी की बेबसी और लाचारगी नजर आती है। हिरनी के मना करने के बावजूद दंता सुन्नर नायक के साथ परानपुर चला आता है और 'मानुष छोकरी मोहनियां' के फेर में पड़ जाता है।

उपन्यास में एक बार फिर सुन्नैर की स्वाभाविक चुहलता से दंता के साथ सहज प्रेम पनपने लगता है। सुन्नैर चींटी बनकर दंता के कमरे में घुस जाती है। सोमाय को बज्र वाली नींद में सुला देती है। दंता की आवाज छीन लेती है। ये कामाख्या का मंतर हो न हो लेकिन प्रेम में तो ऐसा ही होता है। मानुष छोकरी मोहनिया के मंतर के बाद कहां बोली फूटती है। वैसे में तो बस दो ही रास्ते बचते हैं- वहां से भाग निकलो या उसे स्वीकार कर लो। दंता राकस ने वापसी की जिद पकड़ी तो सुन्नर ने टोना करने वाली का पता लगा लिया और फिर सुन्नैर को ही उसे मनाने का आखिरी मौका भी मिला।

अब गांववालों के स्वार्थ का एक और अध्याय शुरू होता है। पानी के लिए महिला की सौदेबाजी होती है। अब सुन्नैर 'परानपुर की बेटी' बन जाती है, क्योंकि वो गांववालों के हित के लिए पांच रातों के नाच गाने के लिए तैयार हो जाती है। दंता को प्रेम के बज्जर बांध में बांधने के हुनर पर भाई की रजामंदी की मुहर लग जाती है। गांववाले इस काम के लिए सुन्नैर की जयजयकार करते हैं। "दंता राकस तो चाहता है कि सुन्नैर नाचे, मगर दंता राकस के हाथों से उसे बचाने वाले पहरेदार और तीरंदाज भी कहां चाहते हैं कि सुन्नैर नहीं नाचे। इस बड़े परिवार और कुल खानदान में कोई क्यों नहीं चाहता कि सुन्नैर नहीं नाचेगी... जैसे सुन्नैर का जन्म नाचने और राकसों को मोहने के लिए ही हुआ है। "

उधर, राकस कुल में भी हिरनी रानी के साथ एक छल होता है। मर्द अपनी बात मनवा लेते हैं और दंता राकस नई बहू लाने दल बल के साथ परानपुर के लिए निकल पड़ता है। "जो इन तालाबों की खुदाई की कहानी जानना चाहता है, या तो बीमार पड़ जाता है या असमय काल कवलित हो जाता है। ऐसा लगता है कि ये कहानियां इसलिए फैलाई जाती होंगी क्योंकि इनके पीछे न सिर्फ दंता राकस बल्कि सुन्नैर नायिका और हिरन्नी रानी की दुखभरी कहानियां छुपी रहती हैं। कोई समाज इन कहानियों को सामने आने नहीं देना चाहता।"

अलग-थलग पड़ी सुन्नैर का एक ही साथी बचता है उसका आईना। "मगर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, उसके समझ में आता गया कि इस सुंदरता की तारीफ का नशा महज छलावा है। यह नशा उसके जीवन को अंदर से खोखला बनाता जा रहा है। इस सुंदरता ने उसके जीवन की सहजता छीन ली है और उस पर एक असहजता थोप दी है। उसके सारे मित्र छीन लिए और उसे अकेलेपन का उपहार सौंप दिया।" आईना उपन्यास में एक और संवेदनशील हिस्सा है और नारी के अंतर्मन को समझने का एक और जरिया। एक सुंदर स्त्री आईने के सामने घंटों बैठे क्या सोचती है, क्या बातें करती हैं, ये उपन्यास में सरलता से कह दिया गया है। "शराब के नशे में धुत्त एक हजार एक राकसों के अश्लील इशारे-फिकरे, भेदती आंखें, किलकारियां, छूने और बाहों में भर लेने की कोशिशें। उसे हर चीज के बारे में अभी इसी वक्त सोच लेना और उसका कष्ट इसी कमरे में झेल लेना होगा, ताकि रात को जब यह सब होगा तब मुस्करा सके।" ये सब सोचते हुए सुन्नैर की शख्सियत कैसे दो-फाड़ हो चुकी है- ये लेखक ने बड़ी संजीदगी से बयां किया है- "उसकी एक आंख से एक इकलौता आंसू बह निकला, दूसरी आंख सूखी थी क्योंकि वह नैन मटक्का की तरकीब सीखने में व्यस्त थी।"

सुनैर की 'छम्म-छम्म' और राकसों की 'खच्च-खच्च' के सुर में तालाब की खुदाई शुरू हो गई। एक-दो-तीन तालाब खुद गए। सुन्नैर का द्वंद्व बढ़ता गया। वो इस फरेब को और जारी नहीं रखना चाहती। दंता और सुन्नैर के बीच संवाद। रिश्तों की सच्चाई। सुन्नैर दंता के सामने सारा सच उगल देना चाहती है। दंता उस सच को समझते हुए भी उससे अनजान रहना चाहता है। दोनों के दिल और मन एक दूसरे के हो चुके हैं। दंता- "अब मैं भी तुमको जान गया हूं। तुम्हारे साथ बुरा नहीं कर सकता। तुम मेरे घर में खुश नहीं रहोगी। जानता हूं। रोज सोचता हूं। जिस घर में तुम्हारा ब्याह होगा, उसके यहां नौकरी कर लूंगा।.... क्योंकि अब एक दिन भी तुमको नहीं देखा तो..." आंसू पोंछती सुन्नैर के पास भागने के अलावा चारा ही क्या था?

आईने के साथ एक और संवाद। वर के रूप में कौन अच्छा- राघव या दंता। सुन्नर और सुन्नैर में बहस। क्या बनेगी सुन्नैर- धरमपुर के महल की रानी या नौकरानी, या फिर दंता राकस की पटरानी? "बीस गोटेदार साड़ियां और दस भरी सोने के गहने, क्या यही है एक औरत की पूरी जिंदगी की कीमत।"

राघव के मन का द्वंद्व-"खूबसूरत लड़कियां निहारने और मौका मिले तो भोग लेने के लिए होती हैं। मगर शादी के लिए कभी नहीं। वे ऐसे खंडहर की तरह होती हैं जहां सिर्फ भूत बस सकते हैं। उनका कोई दोस्त नहीं होता और ता उम्र उन्हें यही लगता है कि उन्हें और बेहतर जीवन साथी मिल सकता था। यानी उनका कोई भी चयन अंतिम नहीं होता है।" मजाक की ये बातें आज सच साबित हो रही हैं और सुन्नैर ता उम्र राघव को तनाव देते हुए जिएगी। इस तरह के निष्कर्ष पर पात्र का पहुंचना, उस पुरुषवादी सोच का प्रतिबिंब ही है, जहां पुरुष स्त्री को उसके सौंदर्य के खांचे से बाहर नहीं देख पाता। "अब तमाम उम्र सुन्नैर की गुलामी और खुशामद में बीतने वाले हैं। बदले में सुन्नैर से वह सिर्फ एक ही चीज मांगेगा, वह इस राज को राज ही रहने दे कि वह उसे पसंद नहीं करती।"

हिरनी का दर्द- "नबकी माय आयेगी तो तुम्हारा बाप तो भूल ही जायेगा। चांदी के कटोरे में दूध-भात खाकर तुम भी मेरे पास नहीं आओगे?.... जरूर आ जाना बेटा, हमको भी अकेले सोने में डर लगेगा... " सारे पात्रों की व्यथा और पीड़ा आवेग के साथ व्यक्त होने लगती है।

काफी सोच-विचारकर सुन्नैर जो फैसला करती है वो उपन्यास को निर्णायक मोड़ पर पहुंचा देता है। 'पांचवां दिन और पांचवीं रात' में फटाफट कामाख्या का काला जादू चलता है और सबकुछ गड्डमड्ड हो जाता है। पाठक की कल्पना से कहीं तेजी से उपन्यास अंत की ओर बढ़ जाता है।

सुन्नैर और राघव की लाश तालाब में तैर रही है। हिरनी चांदी के कटोरे में बेटे को दूध पिला रही है।

लोग सुन्नर नायक का नाम बड़े उत्साह से लेते हैं, उसी के प्रताप से परानपुर में हरियाली लौटी। कुंड खोदने के लिए कुर्बानी देने वाली सुन्नैर और अपनी जान झोंकने वाले दंता राकस का लोक स्मृतियों से लोप हो जाता है। नारी के विद्रोह के बाद एक बार फिर असमसान सा विनाश और सन्नाटा पसर जाता है।

पुष्यमित्र का ये उपन्यास नारी चेतना का प्रतिबिम्बन करने के साथ ही पुरुष मन की सड़ांध और समाज के सामंती सोच को करीने से बेनकाब करता है, लेकिन किसी को आहत नहीं करता, बल्कि पुरुष मन को भी सहलाता हुआ अपनी बात कहता है। लेखक ने नारी मन के साथ पुरुष के मनोभावों का एक संतुलन बनाने की कोशिश की है लेकिन सुन्नर नैका की सुंदरता को लेकर राघव जिन निष्कर्षों पर पहुंचता है, उसका कोई तार्किक आधार उपन्यास में नहीं बनता। मजाक में कही गई ऐसी बातें उपन्यास में क्यों कर आ गई हैं, ये लेखक को खुद ही सोचना और समझना होगा। बहरहाल, कोसी और सुन्नैर की कथा का ये 'रसभरा' उपन्यास आधुनिक युग के 'राकसों' के ठहरे हुए पानी में 'कंकड़' मारकर हलचल जरूर पैदा करेगा, ऐसा लगता है।

पशुपति शर्मा
(ये समीक्षा संपूर्ण उपन्यास के साथ संविदया के जनवरी-मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित है।)