शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

हमने अपने 'आनंद' को याद किया...


विनय स्मृति आयोजन-3

मुजफ्फरपुर प्रेस क्लब। तारीख 23 जून। समय सुबह के 11 बजे। विनय स्मृति में तीसरा आयोजन। हॉल में गिने-चुने लोग। एक बार तो लगा कि परिचर्चा चाय की चुस्कियों के साथ ही खत्म न हो जाए, लेकिन घड़ी का कांटा 11.30 पर पहुंचते-पहुंचते संशय जाता रहा। हॉल में मुजफ्फरपुर की अलग-अलग बिरादरी के लोग मौजूद थे- साहित्यकार, रंगकर्मी, पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और राजनेता।

11.45 पर अखलाक ने विनय की यादें ताजा कर दीं, कई छोटी-छोटी बातों का जिक्र होते ही विनय उस हॉल में जिंदा हो उठा और उसकी धड़कनें महसूस होने लगीं। सचिन श्रीवास्तव की कविता जब शेफाली के सुर में घुलकर कानों तक पहुंची तो विनय के न होने का 'अफसोस' और गहरा हो गया।

मीडिया सत्ता और जनअपेक्षाएं पर परिचर्चा की शुरुआत पत्रकार रामप्रकाश झा के विषय प्रवेश के साथ हुई। रामप्रकाश की नजर में मीडिया ने बाजार से समझौता नहीं किया, बल्कि 'संतुलन' बनाया है। मीडिया ने जनता की अपेक्षाओं को निष्कर्ष तक पहुंचाया है।

सामाजिक कार्यकर्ता शाहिद कमाल ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सनसनीखेज खबरों और प्रिंट मीडिया पर छाए पेड न्यूज के संकट के साथ अपनी बात रखी। मीडिया में बड़े घराने और कॉरपोरेट के कब्जे के बीच उन्होंने छोटी-छोटी पहल पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाएं अपने तरीके से छोटा पाठक वर्ग तैयार कर रही हैं और विचार बना रही हैं। ये एक शुभ संकेत है।

साहित्यकार नंद किशोर नंदन ने पत्रकारिता के साथ 'मिशन था' को जोड़े जाने पर आपत्ति जाहिर करते हुए 'मिशन है' पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि लुंज-पुंज संसदीय सिस्टम में पत्रकार उम्मीद की किरण जगाते हैं। टूजी घोटाले से लेकर बथानी टोला नरसंहार पर आए फैसले के बाद की घटनाओं का बखान करते हुए नंदनजी ने अपनी बात रखी। उन्होंने मीडिया के सामने एक सवाल रखा कि लोकतंत्र की रट लगाने वाले पत्रकारों को ये भी सोचना चाहिए कि आर्थिक लोकतंत्र के बिना ये कैसे मुमकिन है?

सुरेश प्रसाद गुप्ता ने कहा कि जब सारा सिस्टम फेल हो जाए तब एक पत्रकार काम आ सकता है। इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर अफसोस भी जाहिर किया कि मुद्दों को लेकर मीडिया में संवेदनशीलता घटी है। बीटी बैगन के खिलाफ जनयात्रा का हवाला देते हुए उन्होंने बताया कि 72 जिलों में उन्हें अच्छा कवरेज मिला, लेकिन दिल्ली पहुंचने पर वहां के अखबारों ने इतनी बड़ी यात्रा को नजरअंदाज कर दिया। जनसत्ता में पूरा पेज कवरेज जरूर दिया लेकिन बाकी अखबारों में सिंगल कॉलम के लायक भी जगह नहीं मिली।

अरविंद जी ने ये सवाल उठाया कि चतुर्दिक गिरावट के दौर में मीडिया तमाम कसौटियों पर खरा उतरे, ये कैसे मुमकिन है। उन्होंने कहा कि आज की तारीख में औद्योगिक घराने सरकार के फैसले को प्रभावित नहीं तय करते हैं, वो भी जनसरोकारों की कीमत पर। इस अंधे युग में मीडिया भी मिशन की जगह कमीशन के जाल में फंसता चला गया है। वहीं डॉक्टर धनाकर ठाकुर ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का मीडिया अपमान करता है।

पशुपति शर्मा (रिपोर्ट लेखक) ने बाबा भारती और उसके घोड़े की कहानी के जरिए अपनी बात रखी। बाबा भारती को घोड़ा छिन जाने के बाद सबसे ज्यादा चिंता इस बात की थी कि ये बात फैली तो इंसान का इंसान से भरोसा उठ जाएगा। ये संवेदनशीलता खबरों के चयन, संपादन और प्रसारण के दौरान मीडियाकर्मियों के बीच भी होनी चाहिए। उन्होंने निर्मल बाबा से लेकर अन्ना के आंदोलन तक मीडिया कवरेज की प्रवृत्ति को लेकर अपनी बात रखी।

इसके बाद मंच पर राजनीतिक हस्तक्षेप भी हुआ। पूर्व विधायक केदार बाबू तो संक्षेप में अपनी बात रख कर 'गायब' हो गए, लेकिन आरजेडी प्रवक्ता शमी इकबाल ने कई मुद्दों पर तीखे तेवरों के साथ अपनी बात रखी। शमी इकबाल ने कहा कि जो लोग 60 लाख खर्च कर मेयर बनते हैं, वो पहले अपना हिसाब चुकता करते हैं और फिर शहर की सफाई की बात सुनना पसंद करते हैं। उन्होंने कहा कि अन्ना को कवरेज करने वाला मीडिया ये भूल गया कि 'मैं अन्ना हूं' कह कर रैली निकालने वालों की भीड़ में तमाम वो लोग थे जो अपराध, घोटाले और भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं। महज ईमानदारी से बात बनने वाली नहीं है, कई ईमानदार हैं लेकिन घोर जातिवादी हैं, कई ईमानदार हैं लेकिन घोर सांप्रदायिक हैं। इसलिए इस वक्त में जो महज आदमी है, उसको दिक्कत है और इस दिक्कत को मीडिया को समझना होगा।

शमी इकबाल ने एक तीन सूत्री फॉर्मूला भी रखा- मिलावट का सामान, सामूहिक बलात्कार और वित्तीय लूट। इन तीनों के खिलाफ अभियान के तौर पर मीडिया कवरेज होना चाहिए। हालांकि उन्होंने ये भी कहा कि मीडिया में काम करने वाले कर्मचारियों के हाथ बंधे हैं क्योंकि आज की तारीख में सारे सौदे मालिकान और सत्ता में बैठे लोगों के बीच सीधे तय हो जाते हैं। वहीं पूर्व प्राचार्य राम इकबाल शर्मा ने किसानों को मिलने वाली सब्सिडी और उसमें चल रही धांधली का सवाल उठाया।

जमशेदपुर, प्रभात खबर के स्थानीय संपादक रंजीत ने मीडिया को एक सर्कस की संज्ञा के साथ अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि इस सर्कस का रिंग मास्टर- संपादक है, जबकि इन दिनों जोकर की भूमिका में पत्रकार हैं, जहां तक पाठक का सवाल है तो वो दर्शक की भूमिका निभाकर ही संतुष्ट बैठा है। मीडिया वाच डॉग की भूमिका छोड़कर फेसिलिटेटर की भूमिका में आ चुका है। अगर मीडिया में वाकई बदलाव लाना है, तो उसे चौक-चौराहे पर खड़ा कीजिए और सवाल दागिए।

रंजीत ने कहा कि अखबारों इन दिनों कई तरह के दबाव के बीच निकल रहे हैं- सत्ता, पूंजी और कॉरपोरेट का दबाव। छोटे अखबारों को जिंदा रखने की ताकत समाज को खुद पैदा करनी होगी। हालांकि उन्होंने इस बात पर संतोष जताया कि सरकार, लोकशाही और ज्यूडिशियरी के मुकाबले मीडिया की आज भी सबसे बड़ी ताकत है कि वो अपनी आलोचना सुनने को हर पल तैयार रहता है।

प्रभात खबर के वरिष्ठ साथी पुष्यमित्र ने रंजीत की बात को आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि पाठकों की तरफ से मीडिया का रिजेक्शन होना चाहिए। जिलों में मीडिया वॉच जैसी संस्थाएं होनी चाहिए। एक फीसदी पत्रकार जो बदलना चाहते हैं, उनके लिए ये रिजेक्शन, आलोचना एक आईने का काम करेगी। उनके बाद मंच पर आए तारकेश्वर मिश्रा ने स्थानीय सृजन की बात कही तो शारदानंद झा ने कर्ता भाव और कर्तव्य भाव के सामंजस्य का सुझाव दिया।

पटना आईनेक्स्ट के स्थानीय संपादक चंदन शर्मा ने एक तरफ मीडिया को पूरी तरह गुलाम बताया तो वहीं इस सबके बीच वैकल्पिक रास्तों की तलाश पर जोर भी दिया। उन्होंने फेसबुक, ब्लॉग और इंटरनेट को संचार के नए हथियार बताया। इसके साथ ही संपादक के नाम चिट्ठी के पारंपरिक तरीके को पुनर्जीवित करने की अपील भी की। हिंदुस्तान के प्रभात ने गंदगी, गरीबी और अशिक्षा के खिलाफ मीडिया को कारगर हथियार बताया बशर्ते ईमानदारी से और विश्लेषणात्मक रिपोर्टिंग हो।

एक-एक वक्ता को बड़े ध्यान और धैर्य से सुन रहे सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश ने अध्यक्षीय वक्तव्य में इस परिचर्चा का सार सामने रखा। उन्होंने कहा कि जो सत्ताधारी मीडिया को कंट्रोल करने की कोशिश करता है, उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं है। अगर आप अपने खिलाफ असंतोष को अभिव्यक्ति के मौके नहीं देंगे तो समाज में एक दिन विस्फोट हो जाएगा, जो सत्ताधारियों के लिए कहीं ज्यादा घातक होगा। इसके साथ ही उन्होंने समाज के बीच काम करने वाले लोगों को ये संदेश भी दिया कि मीडिया के कैमरों के सामने फोटो खिंचाने से नेता या एक्टिविस्ट पैदा नहीं होता।

आयोजन के दूसरे और तीसरे सत्र में अप्पन समाचार की पहल और पुष्यमित्र के उपन्यास की झलक के साथ सभी अपने घर लौटे। हां, इसमें गांव ज्वार के कलाकार ने निर्गुण के सुरों में विनय की यादें घोल दीं। निर्गुण के बोल ट्रेन की धुक-धुक में बार-बार विनय की धक-धक के गुम हो जाने की बेचैनी, उदासी के साथ ही आगे बढ़ने और जीवन के चलते रहने की चेतना को झकझोर गए।
-पशुपति शर्मा