शुक्रवार, 30 मार्च 2012

पचमढ़ी - बौद्धिक विविधता के तीन दिन

जैविक विविधतताओं के लिए मशहूर पचमढ़ी में तीन दिनों तक बौद्धिक विविधता के दर्शन हुए । 23, 24 और 25 मार्च को पचमढ़ी के न्यू होटल में 'आर्थिक संकट: मायने, भ्रम, हकीकत और चुनौती' विषय की छतरी तनी और इस छतरी के नीचे कई उपविषयों के तहत 11 सत्रों का समावेश किया गया। यहां मौजूद प्रतिभागियों से लेकर विषय के महारथियों तक किसी को इस बात का इल्म नहीं था कि बहस कब कौन सा मोड़ ले लेगी। कभी अध्ययन की गहनता बहस पर हावी रही तो कभी व्यावहारिक अनुभव का तीखा हस्तक्षेप ।
सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच इस बहस की शुरुआत भवानी प्रसाद मिश्र की कविता से हुई- 'सतपुड़ा के घने जंगल/नींद में डूबे हुए से, ऊंघते अनमने जंगल।' पहला सत्र अपने तय कार्यक्रम से थोड़ी देर यानी 23 मार्च को लंच के बाद शुरू हो पाया। आयोजकों ने पहले ही दिन बड़ा खतरा उठा लिया था। पोस्ट लंच सेशन की दुर्गति कई बार देखी जा चुकी है, लेकिन नींद में डूबे हुए ऊंघते अनमने जंगलों के बीच जब बातचीत शुरू हुई तो वहां मौजूद हर शख्स की आंखों की नींद गायब थी, सफर की थकान नदारद थी।
संदीप नाईक ने स्वागत की औपचारिकता पूरी की और फिर सचिन जैन ने आयोजन की भूमिका बांधी। इसी दौरान वहां मौजूद हर शख्स ने एक दो पंक्तियों में अपना परिचय दिया, जो परिचय की शुरुआत भर ही कहा जाए तो बेहतर होगा। (...क्योंकि असली परिचय तो बाद के सत्रों में कुछ अलग रूपों में हुआ और खाने की मेज पर औपचारिकता के तमाम बंधन भी ढीले पड़ते चले गए और आत्मीयता बढ़ती गई।)
पहले सत्र का विषय- 'नवउदारवाद के बाद प्राकृतिक संसाधनों का दोहन संदर्भ वन बारास्ते पचमढ़ी ।' पेशे से वकील अनिल गर्ग ने वन विभाग के 150 साल पूरे होने के संदर्भ में इस परिचर्चा की भूमिका बांधी। उन्होंने बताया कि 150 साल पहले पचमढ़ी में ही वन विभाग का पहला दफ्तर खोला गया था। इस तारीखी सच को उन्होंने सालगिरह की बजाय बरसी के तौर पर मनाने की बात कही। उन्होंने बताया कि कैसे इन डेढ़ सौ सालों में वन विभाग वनों के संरक्षण की बजाय वनों के दोहन का जरिया बन गया। बाबा मायाराम ने जंगल के लिए राजा भभूत सिंह की लड़ाई को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि अंग्रेजों ने भभूत सिंह को जबलपुर जेल में फांसी की सजा दे दी थी। मायाराम ने कहा कि वन विभाग देश का भ्रष्टतम विभाग है। इस विभाग ने वनों को बचाने के नाम पर उस आदिवासी समाज को बेघर किया जो वनों की रक्षा करने में अग्रणी रहा है।
सिराज केसर ने प्लांटेशन का सरकारी गणित लोगों को समझाया। पेड़, खंब और झाड़ में वन विभाग के अधिकारी किस तरह से गड़बड़झाला करते हैं, इसकी पूरी थ्योरी इस सत्र में सामने आई। प्रोजेक्ट को हरी झंडी दिखाने के लिए पेड़ झाड़ बन जाते हैं और झाड़ों की गिनती पेड़ों में कर ली जाती है। पुष्पेंद्र पाल सिंह ने बताया कि पचमढ़ी जैव विविधिता के लिहाज से देश का सबसे समृद्ध इलाका था, इसलिए अंग्रेजों ने इसे वन विभाग के पहले दफ्तर के लिए चुना।
दूसरा सत्र- नवउदारवाद और आर्थिक नीतियां: मायने, हकीकत और सवाल। विनोद रैना ने अपने सारगर्भित व्याख्यान से पूरी बहस को नया मोड़ दे दिया। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की इस पूरी प्रक्रिया को 1991 की बजाय 500 साल से चली आ रही सतत प्रक्रिया के तौर पर व्याख्यायित किया। उन्होंने 1492, 1947 और 1991 को उदारीकरण के तीन अहम मोड़ के तौर पर सामने रखा। 1492 में जब यूरोपीय देश दुनिया के दूसरे हिस्सों तक पहुंचे, उसी वक्त वैश्विक उपनिवेश का दौर शुरू हो गया। ये वो वक्त था जब यूरोप और भारत की समृद्धि को दुनिया की दौलत के आंकड़ों में देखा गया तो कोई खास फर्क नजर नहीं आया, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में ये फासला कभी बढ़ चुका है। अगर आर्थिक दोहन को हम पांच सौ साल पीछे लेकर जाएं तो विकसित देशों पर अरबों की देनदारी बन जाती है।
रैनाजी ने दूसरी तारीख 1947 बताई जब हयक जैसे विद्वानों ने फ्री मार्केट का विचार रखा, जब ये कहा गया कि दुनिया की खुशहाली सरकार से नहीं होगी। डिफेंस, परिवहन, कानून बनाने की प्रक्रिया और शिक्षा को छोड़कर बाकी सभी क्षेत्रों के निजीकरण की वकालत पुरजोर तरीके से शुरू हो गई। उदारीकरण को समझने के लिहाज से तीसरा अहम प्रस्थान बिंदु 1991 रहा, जब भारत को अपना गोल्ड गिरवी रखना पड़ा। इतना ही नहीं IMF का ऋण हासिल करने के लिए भारत ने वो शर्तें स्वीकार कर लीं, जिसने देश को मजबूरन आर्थिक उदारीकरण की ओर धकेल दिया। पीयूष बबेले ने इस थ्योरी पर ये कहकर सवाल उठाया कि अगर पांच सौ साल पहले भारत आर्थिक रूप से समृद्ध था तो उसने विदेशी शक्तियों के आगे घुटने क्यों टेके?
अरविंद मोहन ने कहा कि आर्थिक उदारीकरण ने मीडिया को अपना गुलाम बना लिया है। आज अंबानी के खिलाफ लिखने वाला कोई नहीं। हालांकि उनके इस कथन के साथ ही सभा में ये बुदबुदाहट भी सुनाई दी कि लिखने वाले तो कई हैं, लेकिन छापने वाला कोई नहीं। अरविंद मोहन ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ये इस व्यवस्था की विडंबना है कि जो खरीद सकता है, वही आदमी है, बाकी सब कूड़ा-कचरा या कबाड़।
चाय की चुस्कियों के बाद 23 मार्च का तीसरा सत्र- 'मौजूदा अर्थव्यवस्था और बच्चों के अधिकार'। यूनीसेफ के अनिल गुलाटी ने बच्चों के जन्म के बाद के साथ ही जन्म के पहले के भेदभाव और अधिकारों के दमन का सवाल उठाया। उन्होंने आंकड़ों के जरिए ये समझाने की कोशिश की कि कैसे चाइल्ड रेशियो घट-बढ़ रहा है। आशीष अंशु ने आदिवासी समाज में बच्चियों की दुर्दशा का जिक्र किया, तो रोली ने भारिया कम्यूनिटी में लड़कियों में दहेज लाने की बढ़ती प्रवृति को खतरनाक बताया। विनोद रैना ने राज्य प्रायोजित शादियों को लेकर सवाल उठाया। उन्होंने कहा कि अगर राज्य दहेज देकर शादियां कराएंगे तो फिर बदलाव की बात कहां से उठेगी और कैसे आगे बढ़ेगी। कुल मिलाकर बच्चों के अधिकार से जुड़ा ये सत्र कई मुद्दों के बीच भटकता रहा और बच्चे मुद्दों की इस भूलभूलैया में संदर्भ, हां संदर्भ के तौर पर ही कभी-कभार आते रहे।
24 मार्च का पहला सत्र सुबह दस बजे शुरू हुआ। विषय- 'नई आर्थिक नीति और शिक्षा'। विनोद रैना ने शिक्षा का हक कानून को ऐतिहासिक संदर्भों में रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि ब्रिटेन में 1870 ईस्वी में ही शिक्षा का हक नागरिकों को मिल चुका था। दुनिया के 134 देशों में ये कानून पारित हो जाने के बाद 2009 में भारत में ये कानून की शक्ल ले पाया। उन्होंने इस कानून को लागू करने के लिए जरूरी धन की कमी का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि शिक्षा का बजट अभी भी इस योजना को पूरी तरह लागू कर पाने के लायक नहीं है।
उदारीकरण के इस दौर में शिक्षा के लिए पैसा कहां से आए? इस सवाल पर उन्होंने गांधीजी के 'हरिजन' में लिखे एक लेख का जिक्र किया। 1938 में गांधी ने इस बात से साफ इंकार कर दिया था कि शराब से मिलने वाले टैक्स से वो बच्चों की पढ़ाई का बंदोबस्त करेंगे। गांधी ने कहा कि वो इसका कोई वैकल्पिक रास्ता तलाश करेंगे। आज के दौर में भी लोगों को विकल्पों की तलाश करनी होगी जो वैश्विक शक्तियों की घुसपैठ को रोक सकें, उनकी मनमानी शर्तों से निजात दिला सकें। हालांकि अपने वक्तव्य के दौरान रैना जी ने उदारीकरण को एक नया टर्म दे दिया- 'उधारीकरण' (बार-बार जबान फिसलती रही, लेकिन सच तो यही है-उदारीकरण और उधारीकरण में फासला तो कम ही है)
अरुण त्रिपाठी ने अपनी बात फिल्म 'त्री इडियट' के रोचक संदर्भ के साथ शुरू की और 'बिलगेटिया मजूदर' की त्रासदी तक पहुंच गए। उन्होंने बताया कि शिक्षा को उपकरण बनाकर कैसे समाज में असमानता पैदा की जा रही है। कैसे पूंजी छात्र संघों और शिक्षक संघों को कमजोर कर रही है ताकि विरोध की संस्कृति ही न पनपे। उन्होंने कहा कि बाजार के जो रहनुमा नब्बे के दशक में स्टेट पर काबिज होने को बेताब थे, उनके रूख में 9/11 के बाद अचानक परिवर्तन आ गया। उन्हें ये एहसास हो गया कि बाजार के हितों की रक्षा तभी मुमकिन है जब स्टेट दमनकारी शक्तियों से लैस रहे।
इन दो वक्तव्यों के बाद चिन्मय मिश्र की एक बेहद दिलचस्प टिप्पणी आई- हमने अभी गिरमिटिया से बिलगिटिया दुनिया की एक झलक देखी। इस सत्र में पेशे से वकील शम्स ख्वाजा का पहला हस्तक्षेप हुआ, जो आगे के सत्रों तक जारी रहा। हर सत्र के बाद उनके 8, 13 या 16 प्वाइंट्स जिरह को नया आयाम देते रहे।
बंदरों की धींगामुश्ती की बीच सत्र आगे बढ़ते रहे। 24 मार्च का दूसरा सत्र एक तरह से खुली बहस के लिए छोड़ दिया गया। दरअसल समय की कमी की वजह से जो चर्चा तीन सत्रों में होनी थी, उसे एक सत्र में समेट दिया गया। पहला विषय- बाजार आधारित अर्थव्यवस्था और समाज सरोकारों से कटा अर्थशास्त्र। दूसरा विषय- नयी पूंजी में मीडिया। तीसरा विषय- पत्रकारिता की चुनौतियां और फ्री प्रेस मूवमेंट।
पुष्पेंद्र पाल सिंह ने आज के मीडिया का उद्देश्य बताया- पूंजी और ताकत हासिल करना। उनके मुताबिक अगर उद्देश्य ही सामाजिक सरोकारों से कटा होगा तो फिर वो उनके काम में कैसे दिखेगा। इसके लिए उन्होंने विकल्पों पर जोर दिया। उन्होंने को-ऑपरेटिव के द्वारा संचालित अखबार जनमोर्चा और ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित दैनिक ट्रिब्यून की मिसाल सामने रखी। इसके साथ ही उन्होंने मीडिया पर राज्य के नियंत्रण को लेकर एक नई बहस छेड़ी। उन्होंने दूरदर्शन, लोकसभा टीवी और राज्यसभा टीवी का उदाहरण सामने रखते हुए कहा कि कम से कम इन चैनलों में वो सारी विकृतियां नहीं हैं, जिन्हें लेकर मीडिया को कटघरे में खड़ा किया जाता है। पुष्पेंद्र पाल सिंह ने कहा कि अब वक्त आ गया है कि मीडिया और सरकार के बीच के अंतर्संबंधों पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
इसके बाद 'परिवर्तन' की ओर से चंद्रिका ने फ्री प्रेस को लेकर अपने विचार रखे। उन्होंने कहा कि ऑब्जर्बर यानी पत्रकार जो 'रियलिटी' क्रिएट करता है उसे लाखों करोड़ों लोग देखते-समझते हैं। इसलिए ऑब्जर्बर को फ्री रखना जरूरी है और पत्रकारों को उनके तमाम अधिकार मिलने चाहिए। चंद्रिका जी की बात को शम्स ख्वाजा ने आगे बढ़ाया। ख्वाजा ने कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता इस बात पर निर्भर करती है कि संस्थान अपने मातहत पत्रकारों को कितनी आजादी देता है। उन्होंने कहा कि मीडिया संस्थानों को मिल रही सुविधाओं का सीधा फायदा संपादकीय विभाग के कर्मचारियों को मिलना चाहिए न कि मार्केटिंग से जुड़े लोगों को। इसके साथ ही उन्होंने सामाजिक सरोकारों और पत्रकारों की भूमिका के आधार पर मीडिया संस्थानों के वर्गीकरण (ए, बी, सी, डी और ई) का भी प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा कि इस वर्गीकरण के आधार पर मीडिया संस्थानों को सरकार से सहायता दी जानी चाहिए। शम्स ख्वाजा ने ये बात भी जोर देकर कही कि मीडिया संस्थान में संपादकीय प्रमुख का वेतन हमेशा समान सीनियरिटी के मार्केटिंग हेड से ज्यादा होना चाहिए। प्रेस बिजनेस की कमाई कौन लेगा? ये सवाल भी उन्होंने पुरजोर तरीके से उठाया।
प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर चल रही इस बहस के दौरान ही ई टीवी में 3 साल की 'बंधुआ मजदूरी' (कॉन्ट्रेक्ट) का सवाल भी उठा और एक इलैक्ट्रॉनिक चैनल में 5 साल से इंक्रीमेंट न होने का दर्द भी सामने आया। शम्स ख्वाजा और उनकी संस्था ने खुले मंच से ये एलान किया कि ईटीवी के ऐसे कॉन्ट्रेक्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ी जाएगी और अल्लाह ने चाहा तो मालिकान को इस मुद्दे पर घुटने टेकने होंगे।
आलोक पुराणिक ने उदारीकरण के असर को समझाने के लिए जनता के वर्गीकरण का नया मुहावरा पेश किया- अमेरिका, मलेशिया और यूगांडा। उन्होंने कहा कि भारत जैसे देश में 5 करोड़ की आबादी 'अमेरिका' का प्रतिनिधित्व करती है, 40 करोड़ आबादी 'मलेशिया' का और 80-90 करोड़ आबादी 'यूगांडा' का प्रतीक है। मीडिया का एक बड़ा हिस्सा 'मलेशिया' की चिंताओं और उनके हितों की रक्षा को ही अपना कर्म और धर्म मान बैठा है। उन्होंने इन परिचर्चाओं के बीच नए विकल्प तलाशने की बात कही है और ये वादा भी किया कि अगले सेमिनार में वो कुछ नई बुकलेट्स के साथ हाजिर होंगे। दूसरे सत्र के अंतिम वक्ता आनंद प्रधान ने परिचर्चा को भोजन अवकाश के लिए 'ब्रेक' दे दिया।
अब तक पंडाल के अंतिम सिरे से छोटी-छोटी टिप्पणियों से 'हस्तक्षेप' कर रहे आनंद प्रधान ने दूसरे दिन लंच के बाद माइक संभाला। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र और पूंजीवाद साथ-साथ नहीं चल सकते। उन्होंने ग्रीस का उदाहरण रखा, जहां आर्थिक संकट के बाद यूरोपियन यूनियन ने कर्ज की पेशकश की और उसके साथ ही कई शर्तें भी लाद दी। जब ग्रीक सरकार ने इस पर जनता की रायशुमारी करनी चाही तो उन्हें रोक दिया गया, सरकार बदल दी गई। इसके साथ ही उन्होंने नीरा राडिया प्रकरण के जरिए ये समझाया कि कैसे पीआर एजेंसियां पत्रकारों को 'कंट्रोल' कर रही हैं। उन्होंने विकल्पों की तलाश कर रहे पत्रकारों को ये कहकर थोड़ा निराश किया कि मौजूदा दौर में बड़ी पूंजी की शरण में गए बगैर अच्छा अखबार निकाल पाना मुमकिन नहीं है।
वेदव्रत गिरि ने मेरी खबर डॉट कॉम का अपना अनुभव साझा कर आनंद प्रधान की इसी बात को थोड़ा और पुख्ता कर दिया। उन्होंने बताया कि खबरों के नेट संस्करण में कभी 'मेरी खबर' अग्रणी था लेकिन बड़ी पूंजी वालों ने उन्हें धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल दिया। आज उनके लिए ये वेबसाइट चला पाना भी मुश्किल हो गया है। उन्होंने कहा कि पत्रकारों के सबसे बड़े दुश्मन पत्रकार ही बनते चले गए हैं।
इसके बाद के दो सत्र खेती और पानी के संकट को समर्पित रहे। इन सत्रों में डीके अरुण ने खेती को लेकर अपने अनुभव साझा किये तो रहमत भाई ने पानी को लेकर चल रहे षडयंत्रों का पर्दाफाश किया। डीके अरुण ने बताया कि खेती के लिए जानबूझकर विदेशी तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है जबकि देसी तकनीक कहीं ज्यादा कारगर है।
24 की रात सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम रही। दस्तक की ओर से 'आधे अंधेरे समय में' की प्रस्तुति हुई और फिर युवाओं ने मंच संभाल लिया। गीत-संगीत के साथ ही मोनो एक्टिंग में भी लोगों ने अपना हुनर आजमाया। ये खुला सत्र दो दिनों की थकान को खत्म कर गया और लोग देर रात तक झूमते-नाचते रहे।
25 को अंतिम सत्र में लोगों ने अपने अनुभव साझा किए। किसी ने विनोद रैना को सुनना पचमढ़ी की उपलब्धि बताया तो किसी ने युवाओं के समागम को इसकी कामयाबी माना। लोगों ने विकास संवाद के सूत्रधार सचिन जैन से ये गुजारिश की कि पिछले छह सालों से चल रहा ये सिलसिला आगे भी जारी रहे और मुमकिन हो पाए तो साल के बीच के महीनों में भी संवाद की गुंजाइश बने। सचिन जैन ने इस बात पर थोड़ा अफसोस जाहिर किया कि साल भर में लोग एक मंच पर आने के लिए तीन दिन का समय निकाल नहीं पाते।
बहरहाल, सतपुड़ा के घने जंगलों के बीच हुआ ये 'संवाद' लोगों के मन में लंबे वक्त तक उमड़ता-घुमड़ता रहेगा और मुमकिन है कि उन्हें अनमने ढंग से ही सही लेकिन अपनी 'नींद' को तोड़ने के लिए विवश जरूर करेगा।
रिपोर्ट- पशुपति शर्मा

शुक्रवार, 2 मार्च 2012

जो जीयै सो खेले फाग



"महंगी पड़े या अकाल हो, पर्व त्यौहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मलेरिया और कालाआजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूंक देती है। रोने कराहने के लिए बाकी ग्यारह महीने तो हैं हीं, फागुन भर तो हंस लो, गा लो। जो जीयै सो खेले फाग। " ये बात फणीश्वर नाथ रेणु कह रहे हैं, अपने उपन्यास 'मैला आंचल' में।

मैला आंचल में होली का जो जीवंत वर्णन है, वो बेहद रोमांचित कर देने वाला है। रेणु जब होली का राग छेड़ते हैं तो पाठकों को बौरा देते हैं। मैला आंचल में छह पृष्ठों की होली में आपको छह हजार रंग नजर आने लगते हैं। नाच-गाना, धमा-चौकरी, छींटाकशी, नए उलाहने भरे गीत... सब कुछ पिक्चर की तरह खटाखट एक दृश्य खत्म होता है, दूसरा चला आता है।

दृश्य एक

फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है, पर वह उसके साथ जाना नहीं चाहती, वह होली गांव में ही मनाना चाहती है। वह क्यों गांव में रहना चाहती है, ये रेणु की नजरों से परे नहीं। फुलिया पिछली होली में सहदेव मिसर से 'मिलन' को भूल नहीं पाई है। फुलिया की पोर-पोर में मीठा दर्द फैल रहा था। मन में कहीं इच्छा है- सहदेव मिसर को बुला भेजे।

'नयना मिलानी करी ले रे सैयां....
नैयना मिलानी करी लें'

दृश्य-दो

चारों ओर गुलाल उड़ रहा है। पर डॉक्टर को कोई रंग नहीं देता।..... उसे कोई रंग क्यों नहीं देता? बाहर का आदमी है, ऊपर से सरकारी... सो गांव के सीधे-सादे लोग उससे सटते ही नहीं। कालीचरण तो नेता आदमी है, उसे डर काहे का। लो ये मारी पिचकारी। डॉक्टर के सफेद कुर्ते पर लाल-गुलाबी रंगों के छींटे छरछराकर पड़ते हैं।

'आज ब्रज में चहुं दिश उड़त गुलाल...'

दृश्य-तीन


डॉक्टर उसकी 'मरीज' कमली आमने-सामने। प्रेमी-प्रेमिका आमने-सामने हों और होली का दिन हो, फिर क्या कहना। पर यह क्या, डॉक्टर चुटकी में अबीर लिए सोच में पड़ा है-कमली को रंग कहां लगाए। निरा बुद्धू है डॉक्टर प्रशांत। कमली 'प्रशांत' में हिचकोले लगाने को बेताब है और वह...।

" जरा अपना हात बढ़ाइए तो"... कमली कह ही तो देती है- " आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं।" ऐसे कितने ही रोचक दृश्य रेणु ने खींचे हैं जो होली की मस्ती बयान करते हैं।

होली में प्रेम, मिलन, हास-परिहास तो है ही, इसके साथ ये सामाजिक- राजनैतिक आलोचना का दिन भी है। रेणु इस पर्व की सर्जनात्मकता को रेखांकित करना नहीं भूलते। एक गीत जो होली के लिए खास तौर पर रचा गया है, तत्कालीन परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य है।

"चर्खा कातो, खद्दर पहनो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुराजी बोली
जोगीजी सरररररररररर....
जोगीजी ताल न टूटे....
तीन ताल पर ढोलक बाजे
ताक धिना धिन, धिन्नक तिनक, जोगीजी..."


-पशुपति शर्मा