बुधवार, 27 मई 2015

मम्मा की डायरी- कुछ पन्ने यूं हीं

17 मई की संध्या। इंडिया हैबिटेट सेंटर का केसोरिना हॉल। जब हम पहुंचे तो हॉल में गिनती के लोग। देखते ही देखते हॉल में बच्चों की शैतानियां शुरू हो गईं। मम्मियों की आंखें लाल होने लगीं और इस सबके बीच सज गया मंच- मम्मा की डायरी पर बातों के लिए। नताशा ने संचालन का जिम्मा उठाया और लेखिका अनु सिंह चौधरी ने बातों की भूमिका बांधी। एक सवाल के साथ- मैं मां न होती तो न जाने क्या होती?
औपचारिक शुरुआत दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुछ स्टुडेंट्स की बनाई फिल्म- आओगी ना मां - से हुई। संवाद के तौर तरीके चिट्ठी पत्री से बदल कर ईमेल तक पहुंचे। इस दौरान बेटी रिद्धिमा की शैतानी बढ़ी, सामने बैठे शख़्स ने नाराज़गी जाहिर की, अर्चना राजहंस ने रिद्धि को बातों में फंसाया और हम कार्यक्रम में मशगूल होने की कोशिश करते रहे।
नताशा ने पब्लिक प्लेटफॉर्म पर पर्सनल राइटिंग के चलन का जिक्र किया, उसके तमाम ख़तरों के साथ। इस सवाल के साथ कि कहीं ऐसे लेखन के जरिए माता-पिता के साथ डिसकनेक्ट को 'हील' करने की कोशिश तो नहीं। पत्रकार मंजीत ठाकुर ने मां की 'कड़ियल' छवि की अंतर्कथा शेयर की। विनीता ने अपनी मां और उनकी सास के रिश्तों से सबक लेते हुए अपनी बेटी के लिए एक प्रण का किस्सा साझा किया। उन्होंने कहा कि बेटी पर कभी हाथ न उठाने का संकल्प तो ले लिया लेकिन इसके लिए उन्हें कई बार बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा।

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने इस चुटकी के साथ बात शुरू की कि पत्रकारों को अब पढ़ने-लिखने की फुरसत कहां? उन्होंने कहा- मां एकतरफा प्रेम करती है। यही एकतरफा प्रेम तमाम रिश्तों के सुधरने, बनने की नींव होता है। इंद्र कुमार गुजराल से बातचीत का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के साथ बातचीत में भी ऐसे एकतरफा प्रेम की अहमियत है। उन्होंने मां को मेडिटेशन गुरु बताया, जिनका मंत्र था- जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।
मनीषा पांडेय ने स्त्री के जन्म देने की प्राकृतिक ताकत पर स्त्री के अधिकार की वकालत के साथ अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि महिलाओं को मां होने के लिए शादी करने की शर्त से निजात मिलनी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक कविता भी सुनाई, जिसके जरिए अजन्मे बच्चों की मां की टीस हॉल में पसर गयी। तूलिका ने अपने पुराने दिनों की वो यादें साझा की, जो उनके लड़की होने से जुड़ीं थीं- कैसे दिल्ली आने के लिए सैकड़ों सवालों के जवाब देने पड़े, कैसे भाई न होने की वजह से रिश्ता ठुकरा दिया गया... आदि-आदि।
नीलम ने कहा कि वो अनु की किताब पढ़ने के बाद एक दिन तक 'साइलेंट मोड' में चली गईं थीं। फिल्म देखने पर 'गिल्ट' का एहसास 'मम्मा की डायरी' पढ़ते हुए ताजा हो गया। प्रियंका अपनी मां के साथ कार्यक्रम में पहुंचीं थीं। उन्होंने किताब की आख़िरी लाइनों का ज़िक्र किया- जो है बस यही पल है... ज़िंदगी डूबते-डूबते बच जाती है... बच्चों की वजह से...
रमा ने अपनी 'नालायकी' के इजहार के साथ बात शुरू की। बच्चों और पति की मौजूदगी में उन सारी बातों का जिक्र किया जो वो बकायदा नोट बना कर ले आईं थीं। उन्होंने कहा कि शादी से पहले आप चाह कर भी बच्चे नहीं ले सकतीं और शादी के बाद आप चाह कर भी बच्चे न लेने का फ़ैसला नहीं कर सकतीं। गृहस्थी में बच्चा प्रेम को अपडेट कर देता है। पति संजय की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि पहले बच्चे को तीन-तीन घंटों तक गोद में खिलाने वाले पिता भी दूसरे बच्चे के वक़्त थोड़े बदल से जाते हैं। उन्होंने कहा कि बच्चों की ज़िम्मेदारी को लेकर पलायनवादी रवैया पुरुष या स्त्री किसी का नहीं होना चाहिए।
नताशा ने इस टिप्पणी के साथ चर्चा को आगे बढ़ाया कि 'नाइस-नाइस' खेलने का वक़्त नहीं है। प्रीति ने कहा कि सत्तर के दशक के बच्चों के लिए मां त्याग की मूर्ति हुआ करती थी, वो दीवार जैसी फ़िल्मों का दौर था, जहां सारे ऐशो-आराम एक तरफ और मां दूसरी तरफ। उन्होंने कहा कि जब पहली बार उन्होंने स्लीवलेस महिलाओं को सुट्टा मारते देखा तो हिंदी फिल्मों की 'वैम्प' का ख़याल ही ज़ेहन में आया। 4 साल की शादी के बाद तमाम तानों के दबाव में बच्चा लिया, लेकिन सच कहूं तो मैंने 'मदरहुड' इंज्वॉय नहीं किया। एलएसआर की मनोविज्ञान की स्टुडेंट रहीं प्रीति की स्वीकारोक्ति, कार्यक्रम का चरम ही कहा जाएगा।
अंत में अपनी मर्जी से मां नहीं बनने का विकल्प चुनने वालीं अमृता ने अपनी बातें रखीं। उन्होंने कहा कि इससे उनका मातृत्व कमतर नहीं हो गया। रिश्तेदारों के तमाम बच्चे उनसे वो सब कुछ साझा कर लेते हैं, जो वो शायद अपने मम्मी पापा से भी न करते हों। इक्का -दुक्का कुछ और टिप्पणियां हुईं और कार्यक्रम शोभा की इस गुजारिश के साथ संपन्न हुआ कि हम कुछ और ईमानदार हो जाएं... खुद को बेहतर होने की खिड़की पर खड़ा पाएं।
इस परिचर्चा ने 'मम्मा की डायरी' की खिड़कियां खोलीं... मैं, मेरी पत्नी... उनकी बहन के मन में इस घर में दाखिल होने की तमन्ना जगी। किताब का ऑर्डर किया था, जो ये टिप्पणी लिखते-लिखते दरवाजे से घर में दाखिल हो चुकी है। लेकिन बिना पढ़े भी एक पत्रकार ने (विजय त्रिवेदी के मुताबिक पढ़ने से वास्ता रखना थोड़ा मुश्किल तो है ही ) जो कुछ मन में सहेजा-समेटा वो साझा कर दिया।


पशुपति शर्मा

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

ये दिल्ली है, ज़रा संभल कर


(आप बीती)


ये आपबीती खास तौर पर उन लोगों के लिए जो दिल्ली और एनसीआर में रहने की वजह से खुद को बिहार की तुलना में खुद ज्यादा महफूज महसूस करते हैं। (बिहार का बाशिंदा होने की वजह से तुलना का क्षेत्र बिहार चुना गया है। ) 14 अप्रैल को मेरे दो भाई (चंदन और विवेक) कुछ काम के सिलसिले में मंगोलपुरी के लिए निकले। उन्होंने बाइक से जाने का प्रस्ताव रखा तो मैंने उसे खारिज कर दिया। मेट्रो से वो पीरागढ़ी पहुंचे और फिर वहां से  पैदल मंगोलपुरी की तरफ बढ़े।

उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि मेट्रो के आसपास मंडराने वाले मोबाइल लुटेरों के एक गिरोह की निगाह उन पर पड़ चुकी है। वो मंगोलपुरी जाने के लिए फ्लाईओवर पर पैदल ही बढ़ रहे थे, तभी पीछे से एक लड़का आया। धक्का मारा और लड़ाई शुरू कर दी। विवेक के साथ हो रहे इस बर्ताव पर चंदन ने टोका तो वो लड़का पीछे हट गया। उसे डर लगा पता नहीं कितने लोग साथ हैं। जब उसे पूरी तरह इस बात की तसल्ली हो गई कि ये दो ही हैं। उसका एक और साथी वहां आ गया। अब धक्का-मुक्की और बदसलूकी का दूसरा दौर शुरू हुआ। दोनों बदमाशों ने दिन दहाड़े शाम के 4 बजे बिहार के पूर्णिया जिले से आए इन दोनों भाईयों से सैमसंग का एक मोबाइल छीना और चंपत हो गए। आगे चलकर शायद उनका कोई साथी आया और बाइक से वो आंखों से ओझल हो गए। आपकी जानकारी भर के लिए दोनों भाइयों को ज्यादा सदमा इसलिए लगा कि मोबाइल की कीमत तकरीबन 27 हज़ार रुपये थी।

मुझे ऑफिस में इस बात की सूचना मिली तो मैं कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया। फिर न्यूज नेशन के क्राइम रिपोर्टर रुमान उल्लाह खान से बात की। आगे की औपचारिकताएं रुमान के निर्देश पर पूरी की गईं। उनके कहे मुताबिक मंगोलपुरी थाने में एफआईआर दर्ज कर ली गई है और तफ़्तीश के लिए श्रीमान सुभाषजी को आईओ नियुक्त किया गया है।
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घटना एक नज़र में
तारीख- 14 अप्रैल 2015, शाम 4 बजे
FIR NO- 780
थाना- मंगोलपुरी
आईओ- 9871426097, सुभाषजी

घटना- पीरागढ़ी मेट्रो स्टेशन के पास मंगोलपुरी फ्लाईओवर पर मोबाइल लूट।
शिकायतकर्ता- विवेक कुमार
चश्मदीद- चंदन शर्मा

मोबाइल-
सैमसंग N7000 नोट
क़ीमत- 27 हज़ार
IEMI NO-353058056263222
नंबर- 9199518483

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

लाशें


अधजली लाशें
सड़ी लाशें
गली लाशें
लाशें ही लाशें
घाटों पर
न जाने किनकी लाशें
वो
जिन्होंने अपनों को खोया
लेकिन
नहीं जुटा पाए
चिता की लकड़ियां
नहीं जुटा पाए
पंडे की फ़ीस
मां गंगा ने
उन्हें दे दिया आसरा
आंसू की चंद बूंदों के साथ
मां को सौंप आए
अपनों की लाशें
इन लाशों के
ईद-गिर्द भटक रहा था
मोहन का मन
धड़क रहा था
सोनिया का दिल
बेचैन था
गबरू का दिमाग
मोहन, सोनिया, गबरू
न जाने कितने नाम
तैर रहे थे
गंगा की धारा में
लेकिन
इन्हें कोई शिकायत न थी शायद
मोहन, सोनिया, गबरू
जिन्होंने मौत से बदतर
जिंदगी देख रखी थी
उन्हें तो इन ठहरी लहरों में
थोड़ा सुकून ही था
लेकिन
कमजोरों और लाचारों को
कहां नसीब होता है ये सुकून
उनकी सड़ाती गंधाती लाशें भी
एक सवाल की तरह
मंडराने लगती हैं
मुसीबत बन जाती हैं
परेशान हो उठता है
एक घाट
एक शहर
एक सूबा
लाशें मौन
लेकिन
हलचल महसूस होती है
लखनऊ से दिल्ली तलक
लाशों का दर्द
सिमट आता है एक रिपोर्टर के माइक में
जिंदा हो उठती हैं लाशें
समाचार चैनलों की स्क्रीन पर
जो आंसू सूख चुके होते हैं
वो उतर आते हैं
एंकर की आंखों में
चिंता लाशों की
चिंता गांवों की
चिंता घाटों की
चिंता गंगा की
इन चिंताओं का विस्तार
हर पल के साथ होता है
टीवी की दुनिया में
समाचार के जगत में
आप महसूस करना चाहें
तो कर लें
न कर पाएं तो
इनकी बला से
ये तो लाशों को इंसाफ़
दिलाने की लड़ाई है
जिंदा लोगों के इंसाफ़ की लड़ाई
इतनी आसान कहां।
---- पशुपति शर्मा

रविवार, 4 जनवरी 2015

पीके पर 'पीके' ही कर रहे हैं हंगामा


पिछले कई दिनों से फिल्म पीके को लेकर विवाद चल रहा है। खूब हो हंगामा भी हो रहा है। शायद जो लोग हंगामा कर रहे हैं, उन्हें ये उम्मीद हो कि उन्हें भी बैठे-बिठाए 'पीके' का नाम मिल जाए, क्योंकि होश में तो ऐसी फिल्म पर हंगामा मुमकिन नहीं लगता। हंगामेबाजों को ये भी नसीब नहीं हो पा रहा, इसका उन्हें जरूर अफ़सोस होगा। हां, वो फिल्म की बिन मांगी पब्लिसिटी जरूर कर रहे हैं, जिसके लिए फिल्म की टीम को उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
फेस बुक पर कई साथियों ने प्रतिक्रिया दी कि अब पीके की तारीफ और उसकी आलोचना करने पर आपके सांप्रदायिक, गैर-सांप्रदायिक आदि तमगे जुड़ेंगे, फिल्म की कलात्मकता या उसके कला पक्ष की चर्चा कम होगी। ऐसा ही हो रहा है। रॉन्ग नंबर ही ज्यादा डायल हो गए हैं और रॉन्ग नंबर के ठेकेदार ही दबंगई से न्यूज रूम के स्टूडियो तक 'कांय-कांय' कर रहे हैं। खैर पीके पर सियासत करने वालों, हंगामा करने वालों को उन्हें ये फिल्म मुबारक।
पीके की कथावस्तु की बात करें तो इसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जो हमारी आम साइकी में न हो। मंदिर से जूते चोरी, भगवान को चढ़ावा, आस्था के बिचौलिये इन सब पर तंज कसा जाता रहा है, नुक्कड़ से लेकर बड़े पर्दे तक। पीके में इसे एक साथ जमा कर सूत्र में पिरोने की कोशिश भर की गई है, जो कई मौकों पर फूहड़ सी बन पड़ी है। हिंदुस्तान एक हिंदू बहुल राष्ट्र है, हिंदू धर्म ने आलोचना का स्पेस दिया है और फिल्म ने उसका बखूबी इस्तेमाल किया है। इस पर हंगामेबाज हिंदुओं का फर्क करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने अपनी हरकतों से इसे शर्म का विषय बना लिया है। फिल्म में इस्लाम, ईसाई और सिखों के कुछ दृश्य मानो इसलिए जोड़ दिए गए हैं, ताकि एक संतुलन दिखे। जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। एक वक्त में एक तबके पर भी तंज कसते तो कोई ऐतराज न था।
निर्देशक या कथाकार ने दूसरे ग्रह के प्राणी को इस संदेश को देने के लिए क्यों चुना, ये भी समझ से परे है। एक बड़े कान और दूसरे हाथ पकड़कर मन पढ़ने की शक्ति के अलावा पीके में ऐसी कोई खूबी नहीं थी, जिससे दूसरे ग्रह के प्राणी को बुलाने की जरूरत आन पड़ी हो। फिल्म कई तरह के सरलीकरण का शिकार हो गई है। बोली के लिहाज से 'लालू स्टाइल' या 'बिहारी स्टाइल' का चुनाव कर निर्देशक ने बतौर अभिनेता आमिर खान की चुनौती कम ही कर दी। इसके अलावा जब हाथ पकड़ कर ही बोली सीखनी थी तो कुछ और बोलियां भी केरेक्टर पर आजमाई जा सकती थीं। क्षेपक के तौर पर सेक्स को भी हास्य का विषय बनाया गया है। हिलने वाली कार या कंडोम वाले दृश्यों का इस्तेमाल भी एक दूसरे तरह का सरलीकरण है, जिसके विकल्प निर्देशक को तलाशने चाहिए थे। लॉकेट का गायब होना और फिर चोर के पकड़े जाने पर वापसी के दौरान बम विस्फोट जैसे दृश्य अति नाटकीय हैं।
अभिनय के लिहाज से आमिर खान अपनी पुरानी फिल्मों से एक कदम आगे बढ़ते नज़र नहीं आते। अनुष्का शर्मा जरूर अपनी भूमिका में असर पैदा कर पाईं हैं। बतौर रिपोर्टर, एंकर उन्होंने अपने किरदार को जी लिया है। नृत्य की बात करें तो पीके और संजय दत्त दोनों के स्टेप्स अच्छे लगते हैं। फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में निराश करती हुई टुकड़ों-टुकड़ों में ही अपना स्पेस तलाशती है ।
पशुपति शर्मा