सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

लाशें


अधजली लाशें
सड़ी लाशें
गली लाशें
लाशें ही लाशें
घाटों पर
न जाने किनकी लाशें
वो
जिन्होंने अपनों को खोया
लेकिन
नहीं जुटा पाए
चिता की लकड़ियां
नहीं जुटा पाए
पंडे की फ़ीस
मां गंगा ने
उन्हें दे दिया आसरा
आंसू की चंद बूंदों के साथ
मां को सौंप आए
अपनों की लाशें
इन लाशों के
ईद-गिर्द भटक रहा था
मोहन का मन
धड़क रहा था
सोनिया का दिल
बेचैन था
गबरू का दिमाग
मोहन, सोनिया, गबरू
न जाने कितने नाम
तैर रहे थे
गंगा की धारा में
लेकिन
इन्हें कोई शिकायत न थी शायद
मोहन, सोनिया, गबरू
जिन्होंने मौत से बदतर
जिंदगी देख रखी थी
उन्हें तो इन ठहरी लहरों में
थोड़ा सुकून ही था
लेकिन
कमजोरों और लाचारों को
कहां नसीब होता है ये सुकून
उनकी सड़ाती गंधाती लाशें भी
एक सवाल की तरह
मंडराने लगती हैं
मुसीबत बन जाती हैं
परेशान हो उठता है
एक घाट
एक शहर
एक सूबा
लाशें मौन
लेकिन
हलचल महसूस होती है
लखनऊ से दिल्ली तलक
लाशों का दर्द
सिमट आता है एक रिपोर्टर के माइक में
जिंदा हो उठती हैं लाशें
समाचार चैनलों की स्क्रीन पर
जो आंसू सूख चुके होते हैं
वो उतर आते हैं
एंकर की आंखों में
चिंता लाशों की
चिंता गांवों की
चिंता घाटों की
चिंता गंगा की
इन चिंताओं का विस्तार
हर पल के साथ होता है
टीवी की दुनिया में
समाचार के जगत में
आप महसूस करना चाहें
तो कर लें
न कर पाएं तो
इनकी बला से
ये तो लाशों को इंसाफ़
दिलाने की लड़ाई है
जिंदा लोगों के इंसाफ़ की लड़ाई
इतनी आसान कहां।
---- पशुपति शर्मा