बुधवार, 27 मई 2015

मम्मा की डायरी- कुछ पन्ने यूं हीं

17 मई की संध्या। इंडिया हैबिटेट सेंटर का केसोरिना हॉल। जब हम पहुंचे तो हॉल में गिनती के लोग। देखते ही देखते हॉल में बच्चों की शैतानियां शुरू हो गईं। मम्मियों की आंखें लाल होने लगीं और इस सबके बीच सज गया मंच- मम्मा की डायरी पर बातों के लिए। नताशा ने संचालन का जिम्मा उठाया और लेखिका अनु सिंह चौधरी ने बातों की भूमिका बांधी। एक सवाल के साथ- मैं मां न होती तो न जाने क्या होती?
औपचारिक शुरुआत दिल्ली यूनिवर्सिटी के कुछ स्टुडेंट्स की बनाई फिल्म- आओगी ना मां - से हुई। संवाद के तौर तरीके चिट्ठी पत्री से बदल कर ईमेल तक पहुंचे। इस दौरान बेटी रिद्धिमा की शैतानी बढ़ी, सामने बैठे शख़्स ने नाराज़गी जाहिर की, अर्चना राजहंस ने रिद्धि को बातों में फंसाया और हम कार्यक्रम में मशगूल होने की कोशिश करते रहे।
नताशा ने पब्लिक प्लेटफॉर्म पर पर्सनल राइटिंग के चलन का जिक्र किया, उसके तमाम ख़तरों के साथ। इस सवाल के साथ कि कहीं ऐसे लेखन के जरिए माता-पिता के साथ डिसकनेक्ट को 'हील' करने की कोशिश तो नहीं। पत्रकार मंजीत ठाकुर ने मां की 'कड़ियल' छवि की अंतर्कथा शेयर की। विनीता ने अपनी मां और उनकी सास के रिश्तों से सबक लेते हुए अपनी बेटी के लिए एक प्रण का किस्सा साझा किया। उन्होंने कहा कि बेटी पर कभी हाथ न उठाने का संकल्प तो ले लिया लेकिन इसके लिए उन्हें कई बार बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा।

वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी ने इस चुटकी के साथ बात शुरू की कि पत्रकारों को अब पढ़ने-लिखने की फुरसत कहां? उन्होंने कहा- मां एकतरफा प्रेम करती है। यही एकतरफा प्रेम तमाम रिश्तों के सुधरने, बनने की नींव होता है। इंद्र कुमार गुजराल से बातचीत का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि पाकिस्तान के साथ बातचीत में भी ऐसे एकतरफा प्रेम की अहमियत है। उन्होंने मां को मेडिटेशन गुरु बताया, जिनका मंत्र था- जाहे विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए।
मनीषा पांडेय ने स्त्री के जन्म देने की प्राकृतिक ताकत पर स्त्री के अधिकार की वकालत के साथ अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा कि महिलाओं को मां होने के लिए शादी करने की शर्त से निजात मिलनी चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक कविता भी सुनाई, जिसके जरिए अजन्मे बच्चों की मां की टीस हॉल में पसर गयी। तूलिका ने अपने पुराने दिनों की वो यादें साझा की, जो उनके लड़की होने से जुड़ीं थीं- कैसे दिल्ली आने के लिए सैकड़ों सवालों के जवाब देने पड़े, कैसे भाई न होने की वजह से रिश्ता ठुकरा दिया गया... आदि-आदि।
नीलम ने कहा कि वो अनु की किताब पढ़ने के बाद एक दिन तक 'साइलेंट मोड' में चली गईं थीं। फिल्म देखने पर 'गिल्ट' का एहसास 'मम्मा की डायरी' पढ़ते हुए ताजा हो गया। प्रियंका अपनी मां के साथ कार्यक्रम में पहुंचीं थीं। उन्होंने किताब की आख़िरी लाइनों का ज़िक्र किया- जो है बस यही पल है... ज़िंदगी डूबते-डूबते बच जाती है... बच्चों की वजह से...
रमा ने अपनी 'नालायकी' के इजहार के साथ बात शुरू की। बच्चों और पति की मौजूदगी में उन सारी बातों का जिक्र किया जो वो बकायदा नोट बना कर ले आईं थीं। उन्होंने कहा कि शादी से पहले आप चाह कर भी बच्चे नहीं ले सकतीं और शादी के बाद आप चाह कर भी बच्चे न लेने का फ़ैसला नहीं कर सकतीं। गृहस्थी में बच्चा प्रेम को अपडेट कर देता है। पति संजय की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि पहले बच्चे को तीन-तीन घंटों तक गोद में खिलाने वाले पिता भी दूसरे बच्चे के वक़्त थोड़े बदल से जाते हैं। उन्होंने कहा कि बच्चों की ज़िम्मेदारी को लेकर पलायनवादी रवैया पुरुष या स्त्री किसी का नहीं होना चाहिए।
नताशा ने इस टिप्पणी के साथ चर्चा को आगे बढ़ाया कि 'नाइस-नाइस' खेलने का वक़्त नहीं है। प्रीति ने कहा कि सत्तर के दशक के बच्चों के लिए मां त्याग की मूर्ति हुआ करती थी, वो दीवार जैसी फ़िल्मों का दौर था, जहां सारे ऐशो-आराम एक तरफ और मां दूसरी तरफ। उन्होंने कहा कि जब पहली बार उन्होंने स्लीवलेस महिलाओं को सुट्टा मारते देखा तो हिंदी फिल्मों की 'वैम्प' का ख़याल ही ज़ेहन में आया। 4 साल की शादी के बाद तमाम तानों के दबाव में बच्चा लिया, लेकिन सच कहूं तो मैंने 'मदरहुड' इंज्वॉय नहीं किया। एलएसआर की मनोविज्ञान की स्टुडेंट रहीं प्रीति की स्वीकारोक्ति, कार्यक्रम का चरम ही कहा जाएगा।
अंत में अपनी मर्जी से मां नहीं बनने का विकल्प चुनने वालीं अमृता ने अपनी बातें रखीं। उन्होंने कहा कि इससे उनका मातृत्व कमतर नहीं हो गया। रिश्तेदारों के तमाम बच्चे उनसे वो सब कुछ साझा कर लेते हैं, जो वो शायद अपने मम्मी पापा से भी न करते हों। इक्का -दुक्का कुछ और टिप्पणियां हुईं और कार्यक्रम शोभा की इस गुजारिश के साथ संपन्न हुआ कि हम कुछ और ईमानदार हो जाएं... खुद को बेहतर होने की खिड़की पर खड़ा पाएं।
इस परिचर्चा ने 'मम्मा की डायरी' की खिड़कियां खोलीं... मैं, मेरी पत्नी... उनकी बहन के मन में इस घर में दाखिल होने की तमन्ना जगी। किताब का ऑर्डर किया था, जो ये टिप्पणी लिखते-लिखते दरवाजे से घर में दाखिल हो चुकी है। लेकिन बिना पढ़े भी एक पत्रकार ने (विजय त्रिवेदी के मुताबिक पढ़ने से वास्ता रखना थोड़ा मुश्किल तो है ही ) जो कुछ मन में सहेजा-समेटा वो साझा कर दिया।


पशुपति शर्मा

मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

ये दिल्ली है, ज़रा संभल कर


(आप बीती)


ये आपबीती खास तौर पर उन लोगों के लिए जो दिल्ली और एनसीआर में रहने की वजह से खुद को बिहार की तुलना में खुद ज्यादा महफूज महसूस करते हैं। (बिहार का बाशिंदा होने की वजह से तुलना का क्षेत्र बिहार चुना गया है। ) 14 अप्रैल को मेरे दो भाई (चंदन और विवेक) कुछ काम के सिलसिले में मंगोलपुरी के लिए निकले। उन्होंने बाइक से जाने का प्रस्ताव रखा तो मैंने उसे खारिज कर दिया। मेट्रो से वो पीरागढ़ी पहुंचे और फिर वहां से  पैदल मंगोलपुरी की तरफ बढ़े।

उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि मेट्रो के आसपास मंडराने वाले मोबाइल लुटेरों के एक गिरोह की निगाह उन पर पड़ चुकी है। वो मंगोलपुरी जाने के लिए फ्लाईओवर पर पैदल ही बढ़ रहे थे, तभी पीछे से एक लड़का आया। धक्का मारा और लड़ाई शुरू कर दी। विवेक के साथ हो रहे इस बर्ताव पर चंदन ने टोका तो वो लड़का पीछे हट गया। उसे डर लगा पता नहीं कितने लोग साथ हैं। जब उसे पूरी तरह इस बात की तसल्ली हो गई कि ये दो ही हैं। उसका एक और साथी वहां आ गया। अब धक्का-मुक्की और बदसलूकी का दूसरा दौर शुरू हुआ। दोनों बदमाशों ने दिन दहाड़े शाम के 4 बजे बिहार के पूर्णिया जिले से आए इन दोनों भाईयों से सैमसंग का एक मोबाइल छीना और चंपत हो गए। आगे चलकर शायद उनका कोई साथी आया और बाइक से वो आंखों से ओझल हो गए। आपकी जानकारी भर के लिए दोनों भाइयों को ज्यादा सदमा इसलिए लगा कि मोबाइल की कीमत तकरीबन 27 हज़ार रुपये थी।

मुझे ऑफिस में इस बात की सूचना मिली तो मैं कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गया। फिर न्यूज नेशन के क्राइम रिपोर्टर रुमान उल्लाह खान से बात की। आगे की औपचारिकताएं रुमान के निर्देश पर पूरी की गईं। उनके कहे मुताबिक मंगोलपुरी थाने में एफआईआर दर्ज कर ली गई है और तफ़्तीश के लिए श्रीमान सुभाषजी को आईओ नियुक्त किया गया है।
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घटना एक नज़र में
तारीख- 14 अप्रैल 2015, शाम 4 बजे
FIR NO- 780
थाना- मंगोलपुरी
आईओ- 9871426097, सुभाषजी

घटना- पीरागढ़ी मेट्रो स्टेशन के पास मंगोलपुरी फ्लाईओवर पर मोबाइल लूट।
शिकायतकर्ता- विवेक कुमार
चश्मदीद- चंदन शर्मा

मोबाइल-
सैमसंग N7000 नोट
क़ीमत- 27 हज़ार
IEMI NO-353058056263222
नंबर- 9199518483

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

लाशें


अधजली लाशें
सड़ी लाशें
गली लाशें
लाशें ही लाशें
घाटों पर
न जाने किनकी लाशें
वो
जिन्होंने अपनों को खोया
लेकिन
नहीं जुटा पाए
चिता की लकड़ियां
नहीं जुटा पाए
पंडे की फ़ीस
मां गंगा ने
उन्हें दे दिया आसरा
आंसू की चंद बूंदों के साथ
मां को सौंप आए
अपनों की लाशें
इन लाशों के
ईद-गिर्द भटक रहा था
मोहन का मन
धड़क रहा था
सोनिया का दिल
बेचैन था
गबरू का दिमाग
मोहन, सोनिया, गबरू
न जाने कितने नाम
तैर रहे थे
गंगा की धारा में
लेकिन
इन्हें कोई शिकायत न थी शायद
मोहन, सोनिया, गबरू
जिन्होंने मौत से बदतर
जिंदगी देख रखी थी
उन्हें तो इन ठहरी लहरों में
थोड़ा सुकून ही था
लेकिन
कमजोरों और लाचारों को
कहां नसीब होता है ये सुकून
उनकी सड़ाती गंधाती लाशें भी
एक सवाल की तरह
मंडराने लगती हैं
मुसीबत बन जाती हैं
परेशान हो उठता है
एक घाट
एक शहर
एक सूबा
लाशें मौन
लेकिन
हलचल महसूस होती है
लखनऊ से दिल्ली तलक
लाशों का दर्द
सिमट आता है एक रिपोर्टर के माइक में
जिंदा हो उठती हैं लाशें
समाचार चैनलों की स्क्रीन पर
जो आंसू सूख चुके होते हैं
वो उतर आते हैं
एंकर की आंखों में
चिंता लाशों की
चिंता गांवों की
चिंता घाटों की
चिंता गंगा की
इन चिंताओं का विस्तार
हर पल के साथ होता है
टीवी की दुनिया में
समाचार के जगत में
आप महसूस करना चाहें
तो कर लें
न कर पाएं तो
इनकी बला से
ये तो लाशों को इंसाफ़
दिलाने की लड़ाई है
जिंदा लोगों के इंसाफ़ की लड़ाई
इतनी आसान कहां।
---- पशुपति शर्मा

रविवार, 4 जनवरी 2015

पीके पर 'पीके' ही कर रहे हैं हंगामा


पिछले कई दिनों से फिल्म पीके को लेकर विवाद चल रहा है। खूब हो हंगामा भी हो रहा है। शायद जो लोग हंगामा कर रहे हैं, उन्हें ये उम्मीद हो कि उन्हें भी बैठे-बिठाए 'पीके' का नाम मिल जाए, क्योंकि होश में तो ऐसी फिल्म पर हंगामा मुमकिन नहीं लगता। हंगामेबाजों को ये भी नसीब नहीं हो पा रहा, इसका उन्हें जरूर अफ़सोस होगा। हां, वो फिल्म की बिन मांगी पब्लिसिटी जरूर कर रहे हैं, जिसके लिए फिल्म की टीम को उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
फेस बुक पर कई साथियों ने प्रतिक्रिया दी कि अब पीके की तारीफ और उसकी आलोचना करने पर आपके सांप्रदायिक, गैर-सांप्रदायिक आदि तमगे जुड़ेंगे, फिल्म की कलात्मकता या उसके कला पक्ष की चर्चा कम होगी। ऐसा ही हो रहा है। रॉन्ग नंबर ही ज्यादा डायल हो गए हैं और रॉन्ग नंबर के ठेकेदार ही दबंगई से न्यूज रूम के स्टूडियो तक 'कांय-कांय' कर रहे हैं। खैर पीके पर सियासत करने वालों, हंगामा करने वालों को उन्हें ये फिल्म मुबारक।
पीके की कथावस्तु की बात करें तो इसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जो हमारी आम साइकी में न हो। मंदिर से जूते चोरी, भगवान को चढ़ावा, आस्था के बिचौलिये इन सब पर तंज कसा जाता रहा है, नुक्कड़ से लेकर बड़े पर्दे तक। पीके में इसे एक साथ जमा कर सूत्र में पिरोने की कोशिश भर की गई है, जो कई मौकों पर फूहड़ सी बन पड़ी है। हिंदुस्तान एक हिंदू बहुल राष्ट्र है, हिंदू धर्म ने आलोचना का स्पेस दिया है और फिल्म ने उसका बखूबी इस्तेमाल किया है। इस पर हंगामेबाज हिंदुओं का फर्क करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने अपनी हरकतों से इसे शर्म का विषय बना लिया है। फिल्म में इस्लाम, ईसाई और सिखों के कुछ दृश्य मानो इसलिए जोड़ दिए गए हैं, ताकि एक संतुलन दिखे। जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। एक वक्त में एक तबके पर भी तंज कसते तो कोई ऐतराज न था।
निर्देशक या कथाकार ने दूसरे ग्रह के प्राणी को इस संदेश को देने के लिए क्यों चुना, ये भी समझ से परे है। एक बड़े कान और दूसरे हाथ पकड़कर मन पढ़ने की शक्ति के अलावा पीके में ऐसी कोई खूबी नहीं थी, जिससे दूसरे ग्रह के प्राणी को बुलाने की जरूरत आन पड़ी हो। फिल्म कई तरह के सरलीकरण का शिकार हो गई है। बोली के लिहाज से 'लालू स्टाइल' या 'बिहारी स्टाइल' का चुनाव कर निर्देशक ने बतौर अभिनेता आमिर खान की चुनौती कम ही कर दी। इसके अलावा जब हाथ पकड़ कर ही बोली सीखनी थी तो कुछ और बोलियां भी केरेक्टर पर आजमाई जा सकती थीं। क्षेपक के तौर पर सेक्स को भी हास्य का विषय बनाया गया है। हिलने वाली कार या कंडोम वाले दृश्यों का इस्तेमाल भी एक दूसरे तरह का सरलीकरण है, जिसके विकल्प निर्देशक को तलाशने चाहिए थे। लॉकेट का गायब होना और फिर चोर के पकड़े जाने पर वापसी के दौरान बम विस्फोट जैसे दृश्य अति नाटकीय हैं।
अभिनय के लिहाज से आमिर खान अपनी पुरानी फिल्मों से एक कदम आगे बढ़ते नज़र नहीं आते। अनुष्का शर्मा जरूर अपनी भूमिका में असर पैदा कर पाईं हैं। बतौर रिपोर्टर, एंकर उन्होंने अपने किरदार को जी लिया है। नृत्य की बात करें तो पीके और संजय दत्त दोनों के स्टेप्स अच्छे लगते हैं। फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में निराश करती हुई टुकड़ों-टुकड़ों में ही अपना स्पेस तलाशती है ।
पशुपति शर्मा

शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

ये दाढ़ी कुछ तो कहती है


तीन दिन से तबीयत खराब है, सो दफ्तर जाना हो नहीं पाया। इन तीन दिनों में बहुत पुराने साथियों ने हौले-हौले से अपनी जगह हासिल कर ली। पत्नी को उनसे चिढ़ है और मुझे लगाव। पत्नी को चिढ़ इसलिए कि वो मेरी पर्सनालिटी को बिगाड़ देते हैं, और मुझे प्यार इसलिए कि वो लंबे वक्त तक मेरे व्यक्तित्वका हिस्सा रहे हैं। बात चेहरे पर उग आए उन काले-सफेद बालों के जो एक खिचड़ी से हो गए हैं, ठीक वैसे ही जैसे मन।

हाथ दाढ़ियों पर जाते हैं तो बड़ा सुकून महसूस होता है। इन दाढ़ियों के साथ काफी लंबी यादें जुड़ी हैं। पहली बार जब स्कूल के दिनों में गालों पर इक्का दुक्का बाल उगे तो कैसा महसूस हुआ, ठीक से याद नहीं। हां, जब गाल पर घने और काले बालों ने ठीक-ठाक बसेरा बना लिया तो अच्छा लगने लगा। मां ने कभी मना नहीं किया। पिता, जो बाकियों को बढ़ी दाढ़ी के लिए डांटते-फटकारते रहे थे, उन्होंने कभी-कभार ही चेहरे की रंगत सुधार लेने की नसीहत दी। कुल मुलाकर इन दाढ़ियों पर वैसी आफत नहीं टूटी कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए।

फिर भोपाल पहुंचे। इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दें तो दाढ़ी बदस्तूर गालों पर कायम रही। ये जो कल से कुछ लिखने को जी मचल रहा है, वो कुछ उन्हीं यादों के सहारे भी तो है। इन दाढ़ियों के साथ कई नाटकों की प्रस्तुतियांकीं। दस्तक के हम उम्र साथियों के बीच शायद दाढ़ियों ने समय से पहले मुझे थोड़ा बुजुर्गबना डाला था। बड़ी सी दाढ़ियां तब तक कई बार घुंघराली शक्ल ले लेती। तब चश्मे का फ्रेमभी गोल और बड़ा गोल था। हड्डियों पर मांस को बसेरा बनाने का वक्त मिलता नहीं था। पहली नज़र में बीमार समझ लिए जाने की गुंजाइश रहती थी लेकिन मन था कि कुलांचे मारता रहता। परवाह कहां थी, न मुझे, न दाढ़ियों को।

दिल्ली आए, अखबार के दिनों तक फिर भी दाढ़ी को कभी कभार मौका मिल जाया करता था, अपनी मौजूदगी दर्ज कराने का लेकिन चैनलों की नौकरी ने उसे ये मौके देने भी बंद कर दिए। हां, आप वाकई बीमार पड़ जाएं, हिम्मत न हो तो दो चार दिनों के लिए दाढ़ी से याराना गांठ सकते हैं। कुछ घंटों में इन काले-उजरे बालों की विदाई हो जाएगी, लेकिन अभी तो यही मुझे अरसे बाद कुछ बतियाने का मौका दे रहे हैं।
खुद में खोए, खुद को ढूंढते दाढ़ीदार पशुपति का गुनाह माफ हो तो कुछ तस्वीरें बीच-बीच में चस्पां हैं, ख़ास आपके लिए।
-पशुपति 

सोमवार, 18 अगस्त 2014

'मोनालिसा की आंखों' के नाम एक दोपहर


नूतन डिमरी गैरोला के फेसबुक वॉल से साभार

सईद भाई का बुलावा। कवि गोष्ठी में जाऊँ या न जाऊँ, इसको लेकर असमंजस। गर्दन में दर्द की वजह से पत्नी की ना और सुभाषजी को दे दिया गया वचन। इस ‘हाँ और ना के द्वंद्व के बीच ही सुभाषजी का फोन आया और मैं पतलून और शर्ट डालकर निकल पड़ा। सुभाषजी की 'चौपहिया सेवा' ने ‘ना’ को ‘हाँ’ में तब्दील करने में बड़ी भूमिका निभाई। हम तीन बजते-बजते कवयित्री मीता पन्त के आवास आरके पुरम, सेक्टर 10 निवेदिता कुंज के जी-32 में दाखिल हो गए। वहाँ सुमन केशरी मैम थीं और साथ में पुरुषोत्तम अग्रवाल सर। कमरे में कई और भी लोग थे, लेकिन अग्रवाल सर की मौजूदगी एक सुखद आश्चर्य की तरह थी।

बहरहाल, सवा 3 बजते-बजते कार्यक्रम की शुरुआत हुई। परिचय का औपचारिक सत्र। सीमांत सोहल से आनंद कुमार शुक्ल तक सभी का सईद भाई ने अपने अंदाज में परिचय दिया, परिचय कराया। जहाँ मौका मिला, वहाँ चुहलबाजी से भी परहेज नहीं किया। ये बेतकल्लुफी ही इस तरह की अनौपचारिक गोष्ठियों को कुछ और यादगार बना जाती हैं।

काव्य गोष्ठी की शुरुआत पंखुरी सिन्हा की कविताओं से हुई। एक यायावर की झलक समेटे कुछ कविताएँ। आवाज़ की समस्या के बीच ही वो आगंतुक, अकेली औरत, तानाशाह जैसी कुछ कविताओं का पाठ कर गईं। इसके बाद जेएनयू के शोधार्थी बृजेश कुमार ने मैं एक गांव हूं, दूध और सीट कविताएं सुनाईं। उत्तराखंड से आईं डॉक्टर नूतन डिमरी गैरोला ने भिक्षुणी, प्रत्यंचा और माँ के जरिए अपने अनुभव साझा किए। भारत भूषण अग्रवाल सम्मान से सम्मानित कुमार अनुपम बरसाती में जागरण, जल, काला पानी और अशीर्षक जैसी कविताओं के जरिए श्रोताओं को किसी और ही धरातल पर लेकर चले गए। रमा भारती की कविताओं ने चिनाब और चिनार की खूबसूरत लहरों का एहसास कराया। कर्मनाशा नदी के ईर्द-गिर्द रहने वाले 'राजेश खन्ना' सिद्धेश्वर सिंह ने 'कटी पतंग' के साथ काव्य गोष्ठी को नई 'उड़ान' दी। लकड़ बाज़ार, निर्मल वर्मा के शीर्षकों को कविताओं में इस खूबसूरती से पिरोया कि मन ठहर सा गया और पंखुरी सिन्हा के हस्तक्षेप पर उनका एक मीठा सा जवाब- 'हम सभी अपने-अपने वक्त के राजेश खन्ना हैं’ हमेशा याद रहेगा। अरुण देव ने  'घड़ी के हाथ पर समय का भार' जैसी सुंदर कविता के साथ मन की कई 'खिड़कियां' खोल दीं। उनकी आवाज़ की कशिश कविता को कुछ और मानीखेज बना रही थी।

और अंत में सुमन केशरी। थोड़ा सा 'सईद' बनने की ललक के साथ कविताओं का पाठ शुरू किया। रावण, कबीर-अबीर, तथागत, लोहे के पुतले, बहाने से जीवन जीती है औरत, तमगे, मोनालिसा और ऐसी ही कई कविताएँ। कभी मिथकीय आवरण लिए तो कभी आज का जीवन समेटे- स्त्री मन को छूती हुई, पुरुष मन को झकझोरती हुई छोटे से कमरे में इस वक्त तक कविता रेगिस्तान की रेत पर अपना 'घरौंदा' बना चुकी थीं, जिसमें हम सभी 'टीस भरा सुकून' महसूस कर रहे थे।

ये बिलकुल सही वक़्त था जब सईद भाई ने काव्य गोष्ठी को थोड़ा सा विराम दे दिया। मीता पंत ने तब तक समोसे, बिस्किट, नमकीन की मेज़ सजा डाली थी। समय ऐसा था कि हम ज्यादा इंतज़ार न कर सके और टूट ही पड़े। कुछ साथियों ने चाय की चुस्कियां ली। पुरुषोत्तम अग्रवाल सर ने सईद जी को चाय में देरी पर आंदोलन की धमकी तक दे डाली। इन सबके बीच जेएनयू के कुछ पुराने साथियों से गुफ्तगू।

अब वक्त था सुमन केशरी के काव्य संग्रह 'मोनालिसा की आंखें' पर परिचर्चा का। सुमन केशरी की काव्य यात्रा पर एक नज़र डालने की औपचारिक जिम्मेदारी अरुण देव ने निभाई। अरुण देव के मुताबिक सुमन केशरी की कविताएं विचार के रेडिमेड कपड़े नहीं पहनती। केशरी जी कविता की यात्रा पर हैं, किसी मंजिल पर नहीं पहुंची, ये उनके रचना संसार का एक सुखद पहलू है। अरुण देव जी ने शमशेर बहादुर सिंह के एक लेख का जिक्र किया, और उस लेख में वर्णित कसौटियों पर सुमन केशरी के काव्य संसार को कसना शुरू किया। आधुनिक विकास के अध्येता, देश विदेश के साहित्य से परिचय और हिंदी ऊर्दू की परंपरा का ज्ञान के निकष पर एक महान कवयित्री के संकेतों का जिक्र किया। उन्होंने सुमन केशरी की यात्रा को ज्ञानात्मक संवेदना से संवेदनात्मक ज्ञान की ओर मुखर बताया। उनकी नज़र में सुमन केशरी सचेत स्त्री की दृष्टि से मिथकों को देखती हैं। आलोचनात्मक दृष्टि से मिथकों का सृजनात्मक पाठ तैयार करती हैं। यह सचेत स्त्री सिमोन द बोउवार से प्रभावित नहीं है बल्कि मीरा और महादेवी से अपनी संवेदना ग्रहण करती है।
नूतन डिमरी गैरोला के फेसबुक वॉल से जहां मैं वाया मुकेश जी के पहुंचा।

इस आलेख के बाद विमर्श सवाल जवाब की तरफ बढ़ा। पंखुरी सिन्हा ने केशरी के कर्ण और दिनकर के कर्ण का अंतर पूछा तो वहीं पुरुषोत्तम अग्रवाल ने ऐसे सवालों के उत्तर खुद पाठकों को तलाश करने की नसीहत दे डाली। सिद्धेश्वर सिंह ने कवि को प्रेस कॉन्फ्रेंस की तरह सवाल जवाब के दौर में फंसाने पर चुटकी ली। वहीं नूतन जी ने 'मोनालिसा की आंखें' शीर्षक पर एक मार्मिक सा सवाल पूछ डाला। सुमन केशरी सृजन प्रक्रिया के 'एकांत' में पहुँच गईं। बेहद निजी क्षण। दफ्तर में तमाम लोगों के बीच अधिकारी की डाँट। आंखों में अटके आँसू। और उस दौरान एक कविता का सृजन। मोनालिसा की ये डबडबाई आंखें ही कवयित्री से संवाद करती हैं, बतियाती हैं, अपना दर्द साझा करती हैं। यही वजह है कि जिस मोनालिसा की मुस्कान पर नज़रें टिकती हैं, उस मोनालिसा की आंखों से गुजरती हुई सुमन केशरी एक काव्य यात्रा पर निकल पड़ती हैं।

- पशुपति शर्मा

गुरुवार, 26 जून 2014

मीडिया की निष्पक्षता के अपने-अपने मायने


(विनय स्मृति व्याख्यानमाला-5)


नई दिल्ली के दीन दयाल उपाध्याय मार्ग स्थित जवाहरलाल नेहरू नेशनल यूथ सेंटर पर 22 जून 2014 की दोपहर एक-एक कर पत्रकार साथियों का जुटान शुरू हो गया। विनय तरुण की स्मृति में ये पांचवां आयोजन था। पांच साल पहले विनय के असामयिक निधन से जो साथी सदमे में थे, वो अब विनय की यादों के बहाने साल में एक बार जमा होकर अपना मन टटोलते हैं, कि सादगी और सच्चाई कितनी बाकी है, उस पौधे में थोड़ा पानी डाल लेते हैं। प्रगतिशील मीडियाकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों के संगठन दस्तक की ओर से आयोजित कार्यक्रम के पहले सत्र में साथियों ने  अनौपचारिक तौर पर कुछ बातें शेयर की।

4 बजते-बजते चाय का स्टॉल लग गया, दूसरे सत्र के वक्ताओं के आने का सिलसिला शुरू हो गया और कार्यक्रम अपने औपचारिक चरण की तरफ बढ़ चला। वक्ताओं में सबसे पहले आनंद प्रधान सभागृह में दाखिल हुए। फिर अध्यक्ष महोदय डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल। मंच संचालक पुष्पेंद्र पाल सिंह पहले से मौजूद थे ही, आयोजक आश्वस्त हो गये। चाय की चुस्कियों के बीच मीडिया से जुड़े साथी कुछ निजी और कुछ वैचारिक द्वंद्व शेयर करते रहे। इस बीच सीढ़ियां चढ़ते वयोवृद्ध वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय भी हॉल में दाखिल हुए। लिफ्ट पहली मंजिल पर अटकी तो यूथ सेंटर के कर्मचारियों ने फिर इसकी सुध नहीं ली। दो वक्ता, सतीश के सिंह और भाषा सिंह आने शेष थे लेकिन अध्यक्ष महोदय ने नियत समय पर कार्यक्रम शुरू कर देने का इशारा कर दिया।

साढ़े चार बजते ही दस्तक परिवार की साथी और आयोजन के संयोजक की भूमिका संभाल रहीं शेफाली चतुर्वेदी ने विनय तरुण की यादें शेयर की, अतिथियों का स्वागत किया और मंच माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पुष्पेंद्र पाल सिंह के हवाले कर दिया। मीडिया चुनाव और निष्पक्षता पर औपचारिक परिचर्चा शुरू हो गई। मंच संचालन और आधार वक्तव्य की दोहरी जिम्मेदारी को सहजता से स्वीकार करते हुए पुष्पेंद्र पाल सिंह ने अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि निष्पक्षता के शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो ये पूर्वाग्रह से ग्रस्त हुए बिना, किसी के प्रभाव के दबाव में आए बिना और तटस्थता के साथ अपनी बात रखना है। उन्होंने कहा कि आर्थिक और राजनीतिक दबावों के बीच इस निष्पक्षता को बनाए रखना एक चुनौती है। 2014 के चुनावों के दौरान एक बड़े मीडिया हाउस के मार्केटिंग टीम को जारी सर्कुलर के जरिए उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई। मीडिया हाउस ने अपनी मार्केटिंग टीम और संपादकीय टीम को ये निर्देश दिया कि हर चुनाव क्षेत्र के हर उम्मीदवार में चुनाव के आखिरी दौर तक जीत की उम्मीद कायम रखनी है ताकि विज्ञापन का सिलसिला अंतिम घड़ी तक जारी रहे। जाहिर है इसका पालन किया गया और खबरों के प्रस्तुतिकरण में सभी उम्मीदवारों को लगभग बराबर का स्पेस देकर चुनावी फाइट में अपने फायदे के लिए बनाए रखने का तिकड़म चलता रहा।


पहले वक्ता के तौर पर इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन के व्याख्याता आनंद प्रधान ने विनय तरुण की स्मृति को प्रणाम करते हुए अपनी बात शुरू की। उन्होंने कहा, हिन्दी पत्रकारिता का चरित्र विनय तरुण जैसे एक्टीविस्ट पत्रकार ही बनाते हैं। सामाजिक सक्रियता और पत्रकारिता का तालमेल बना रहना एक सुखद विषय है। मैं निष्पक्षता की यांत्रिक अवधारणा के विरुद्ध हूं। प्रोफेशनलिज्म के नाम पर निष्पक्षता थोपी जा रही है। कोई भी पत्रकार निष्पक्ष नहीं हो सकता, हां रिपोर्टिंग का तौर तरीका जरूर ऑब्जेक्टिव होना चाहिए।

आनंद प्रधान ने परिचर्चा के दौरान 'मीडियाटाइज्ड पॉलिटिक्स' के जुमले के जरिए अपनी बात आगे बढ़ाई। पॉलिटिकल पार्टी और आम लोगों के बीच मीडिया अब मध्यस्थ की भूमिका में आ चुका है। मीडिया इन दोनों के रिश्तों को तय करने में निर्णायक भूमिका निभा रहा है। टेलीविजन पर दिखने वाले नेता, बिना जनाधार के ही रातों रात राष्ट्रीय नेता बन जा रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने चुनावों के दौरान इवेंट कवरेज पर भी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि मीडिया एटेंशन हासिल करने के लिए पार्टियां अब इवेंट क्रिएट करने के फॉर्मूले पर काम कर रही हैं। नेताओं के लुक से लेकर कैमरा एंगल तक सियासी पार्टियों के वॉर रूम में बैठे एक्सपर्ट तय कर रहे हैं। उत्पादित मुद्दों पर प्राइम टाइम चैनलों में बहस हो रही है।

आउटलुक की सहायक संपादक भाषा सिंह ने कहा कि पत्रकार में निष्पक्षता नहीं होनी चाहिए, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी ये पता लगाना है कि मौजूदा चुनावों में पत्रकारों और मीडिया घरानों की पक्षधरता कहां रही। मीडिया कॉरपोरेट पूंजी का जरिया बन चुका है और उनके हितों का असर चुनावी कवरेज पर पड़ना लाजिमी है। चुनाव परिणाम के आने के साथ ही मीडिया हाउसेस की शेयर होल्डिंग बदलती है, खरीद फरोख़्त शुरू हो जाती है। नई सरकार के दागी मंत्रियों पर खामोशी, फेसबुक कमेंट पर गिरफ़्तारियों पर बेशर्म सी चुप्पी ये एक अनकहे नेक्सस का ही नतीजा माना जा सकता है। थ्रेट टू इकॉनॉमिक सेक्युरिटी, नेशनल इंटरेस्ट जैसे नए जुमले उछालकर नई सरकार विरोध के स्वर दबाने का एक टूल बना रही है, जिस पर सवाल न उठना एक खतरनाक संकेत है।

लाइव इंडिया के ग्रुप एडिटर इन चीफ़ सतीश के सिंह ने खुद पर तंज के साथ माहौल को थोड़ा हलका किया। उन्होंने कहा कि गंभीर मुद्दे पर छिछले माध्यम के प्रतिनिधि के तौर पर बात शुरू कर रहा हूं। उन्होंने पक्षधरता में स्वच्छता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि पत्रकार में स्वच्छ निष्पक्षता होनी चाहिए। आनंद प्रधान ने चुनावी कवरेज के जरिए बाय-पोलर पॉलिटिक्स का माहौल बनाने के लिए मीडिया की भूमिका पर जो सवाल उठाये थे, सतीश के सिंह ने उस चर्चा को आगे बढ़ाया। सतीश के सिंह ने कहा कि मीडिया की भूमिका है लेकिन वो सीमित है। अगर ऐसा न होता तो बायपोलर पॉलिटिक्स का तथाकथित मुहावरा पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और ओडिशा में बेअसर न हो जाता। इसी सिलसिले में उन्होंने दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता का भी जिक्र किया। सतीश के सिंह ने कहा कि जिस मीडिया पर मोदी का जरूरत से ज्यादा कवरेज करने का आरोप लग रहा है, उसी मीडिया ने 'महंगे दिन आ गए' की रिपोर्टिंग के जरिए मोदी सरकार पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है। सतीश के सिंह ने सभाकक्ष में मौजूद युवा साथियों से एक पीआईएल के जरिए चुनावी खर्चों पर श्वेत पत्र की मांग करने का सुझाव भी दिया।

वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय ने विनय तरुण की स्मृति को प्रणाम किया। इसके बाद उन्होंने ओशो से किए गए एक सवाल को सामने रखा- सत्य क्या है? इस पर ओशो का जवाब था-'सत्य बताया नहीं जा सकता, उसके रास्ते बताए जा सकते हैं, उसे अनुभव किया जा सकता है।' रामबहादुर राय ने इस जवाब को मौजूदा विषय से जोड़ा- करीब-करीब यही स्थिति निष्पक्षता के साथ भी है। रामबहादुर राय के मुताबिक पत्रकार का काम किसी का झंडा ढोना नहीं है। पत्रकार के लिए पत्रकार होना जरूरी है जबकि मालिक का लक्ष्य उसे एक 'मीडिया' भर बनाने का होता है।

पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के एक धड़े द्वारा मोदी की जीत को नकारने पर रामबहादुर राय ने सवाल उठाए। उन्होंने इस तरह के विश्लेषण पर तिरछी निगाहें डालीं कि 2014 के चुनाव में 69 फ़ीसदी लोगों ने मोदी को रिजेक्ट किया। उन्होंने मोदी की जीत को कॉरपोरेट हाउसेस की जीत बताने पर भी सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि ये अनकहा नियम है कि कॉरपोरेट घराने सत्तारुढ़ दल को ज्यादा पैसा देते हैं और विपक्ष  को कम। रामबहादुर राय ने चुनावों में किए गए खर्च की हेराफेरी पर भी चिंता जाहिर की। उन्होंने इस लिहाज से केजरीवाल को भी ईमानदार मानने से इंकार कर दिया। रामबहादुर राय के मुताबिक बनारस में केजरीवाल ने अपने चुनावी खर्चे का सही-सही ब्यौरा आयोग को नहीं दिया।

डॉक्टर पुरुषोत्तम अग्रवाल ने 50 मिनट की क्लास की अपनी आदत और टेलीविजन के 20 सेकंड में बात रखने के विरोधाभासी चरित्र पर चुटकी के साथ माइक संभाला। उन्होंने मीडिया पर बात करने का हक सिर्फ मीडियाकर्मियों को देने से इंकार कर दिया, क्योंकि इसकी जद में हर व्यक्ति आता है, शहर से गांव तक हर किसी के जीवन को मीडिया प्रभावित करता है। मीडिया की निष्पक्षता को असंभव मानने से इंकार करते हुए उन्होंने राजेंद्र माथुर का जिक्र किया, जिन्होंने वीपी समर्थक होने के बावजूद उनके ख़िलाफ़ लिखे जाने वाले तमाम लेखों को अखबार में जगह दी। न्यूज और व्यूज में फर्क करने की जरूरत को पुरुषोत्तम अग्रवाल ने रेखांकित तो किया लेकिन इस सीमा के साथ कि टेलीविजन में ये इतनी आसानी से मुमकिन नहीं। उन्होंने कहा कि एक वो दौर था जब सेठ- 'अखबार अखबार की तरह चलेगा, और कारोबार कारोबार की तरह' की सोच रखते थे, लेकिन अब अखबार को कारोबार की तरह चलाने का चलन आ गया है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के मुताबिक टेलीविजन की थोथी पकड़ ने लोगों के जीवन में गहरी समस्या पैदा की है। चैनल ने लोगों से उनका एकांत छीन लिया है।

परिचर्चा के बीच में कुछ सवालों का दौर भी चला। कुंदन शशिराज ने एक निजी चैनल की एंकर तनु शर्मा की खुदकुशी की कोशिश और उस पर मीडिया हाउसेस में पसरे सन्नाटे का सवाल भी छेड़ा। सतीश के सिंह ने इस पर मीडिया की सीमाओं का जिक्र किया तो वहीं आनंद प्रधान ने कहा- कुछ सवालों में उनके जवाब भी निहित होते हैं। एबीपी के संदीप ने भी हस्तक्षेप किया।

कुछ और साथी सवालों की बारी का इंतज़ार करते रहे और समय की सीमा को देखते हुए धन्यवाद ज्ञापन के लिए अनुराग द्वारी ने माइक थाम लिया। विनय की यादें, गीत के दो बोल, फिर एक और चाय का बुलावा।

पशुपति शर्मा
8826972867