मेरी छोटी बहन
मुझसे
कुछ पहले ही बड़ी हो गयी थी!
यहाँ जोड़ घटाना भी नहीं आया कि
वहां रोटियां बेलते-बेलते
सीख लिया उसने
दो दूनी चार , चार दूनी आठ
और आठ दूनी सोलह।
चौका बर्तन की बारहखड़ी में
कब १८ की हो गयी
मालूम ही नहीं चला।
उन दिनों मुझे
साइंस में छपा
परमाणु बम का सिद्धांत
समझ में आया ही था कि
उसने फूल, बसंत , प्यार
जीवन , खुशी , आशा, घर
शान्ति , रात और दिन
बिना पढ़े ही जान लिया।
आखिरकार , मैं
ज्यामितीय के काले
वृत्त में जा फंसा ;
उसके हाथ पीले हो गए।
' समय ' तुम्हे
गुजरने की जल्दी क्या थी?
खैर! आज
सालों बाद
उसके दोबारा
जन्म लेने की ख़बर
हाथ लगी है ।
उसकी गोद में अब
उसका बचपन होगा!
-शिरीष खरे की एक और कविता आप सभी के लिए।
शुक्रवार, 9 जनवरी 2009
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2 टिप्पणियां:
भावपूर्ण रचना
सुंदर
ये हर देखने वाले के साथ हो सकता है
यकीनन भाई सुंदर
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