नर्मदा का ताल
लहरों पर संगीत
सागौन में नयी- नई
कोपलों का मौसम
हल्की बूंदा- बांदी से
गीली हुई मिट्टी
सौंधा- सौंधा पहाड़
सूखी - सूखी चिडिया
टिड्डियाँ और
तितलियाँ
पत्ती-पत्ती पर हजारों हजार
खुशियाँ ।
किंतु बिखरा जीवन
दिन , बहुत कम।
इसलिए गाते हैं , नाचते हैं
बूढे आदिवासी लोग और
हिल उठता है पूरा
जंगल।
हर तीज पर
झुंड के झुंड
एका बाँध झूम जाते हैं
पुरखों की आत्मा की शान्ति के वास्ते !
साथ लाते हैं
अपनी-अपनी औलादें
ताकि कल ख़ुद के मरने पर
आत्मा
युवा पीढी के देह दिमाग में
रुके, घुटनों पर
थोड़ा मुडे और
हाथ उठाये
जिन्दा हो जाए
बार - बार , हर साल।
- शिरीष खरे। मुंबई क्राई के साथ जुड़े हैं।
सोमवार, 22 जून 2009
सोमवार, 8 जून 2009
हबीब तनवीर, गिर गया परदा
हबीब तनवीर नहीं रहे, आज सुबह ये समाचार एक टीवी चैनल के जरिये मिला। थोड़ी देर तक मैं हक्का बक्का रह गया , फ़िर उनसे जुडी कुछ यादें , कुछ तस्वीरें जेहन में घूमती रहीं।
भोपाल में पहली बार हबीब दा का नाटक माटी गाड़ी देखा। मानव संग्रहालय मैं शो था , खुले आकाश के नीचे। उस समय रंगकर्म का शौक उफान पर था। उनके कलाकारों का अंदाज देख हैरान रह गया। पुरे नाटक के दौरान हबीब दा लाईट्स वाले के पास बैठे थे। एक ७५ साल का रंगकर्मी और उसके काम का जूनून मेरे लिए काफी प्रेरणादायक था।
इसके बाद चरणदास चोर देखा। हबीब दा के सबसे सफल नाटकों में शुमार है चरण दास चोर। हबीब साहब का जितना नाम सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया। लोग भी खूब उमरते उनका नाटक देखने। नाटकों मैं बात ही कुछ ऐसी थी की कभी पुराने नहीं पड़ते। लोक का ऐसा रस घुला था की जित देखो तित नया।
ये यादें साल १९९८-९९ के बीच की हैं। इस दौरान मैं भोपाल मैं माखनलाल विश्वविद्यालय काम छात्र था। हम एक ग्रुप बना कर नाटक कर रहे थे। शहर में कोई भी एक्टिविटी होती हम लोग पहुँच जाते। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने हबीब साहब के ७५ साल के होने पर एक भव्य आयोजन कराया । ५ दिनों तक भोपाल हबीबमय हो गया। दिन मैं हबीब साहब पर व्याख्यान और रात में नाटक। व्याख्यान में तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन असली जद्दोजहद शुरू होती शाम में । रवींद्र भवन में पाँव रखने की जगह नहीं होती और हमारे पास टिकेट नहीं होते। हमें आख़िर तक इंतज़ार करना पड़ता जब एंट्री ओपन कर दी जाती। इस समारोह में कुछ और नाटक देखे - गाँव के नाम ससुराल , मोर नाम दामाद।
दस्तक के बैनर से हम लोगों ने नाटक तैयार किया- राम सजीवन की प्रेम कथा। बहुत संकोच के साथ हमने दादा के घर कार्ड भिजवाया। हबीब साहेब उन दिनों भोपाल में नहीं थे , हमने भी उनके आने की उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन नाटक शुरू होने से पहले विंग्स में हमें खबर मिली की हबीब सर अपने ग्रुप के साथ आ गए हैं. हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। धड़कन भी बढ़ गयी। नाटक शुरू हुआ, साउंड की कुछ समस्या थी , आवाज़ दर्शकों तक ठीक से नहीं पहुँच पा रही थी , बावजूद इसके उन्होंने पूरा नाटक देखा। हम लोगों से मिले आशीर्वाद दिया और उसके बाद ही वहां से गए।
एक नौसिखुए रंगकर्मी के लिए इस से बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी । खैर , वो दिन गुजर गए लेकिन हबीब साहेब एक अमिट छाप छोड़ गए. इस समय और भी कई बातें जेहन मैं आ रही हैं, लेकिन वो फिर कभी.
दिल्ली आने के बाद उनका एक और नाटक देखा -आगरा बाज़ार. एक ऐसा नाटक जिसका एहसास आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते. नजीर अकबराबादी की कवि़ताओं में न जाने कितने आयाम जोड़ दिए हबीब जी ने. नजीर की पंक्तियों से बात ख़त्म करता हूँ -सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब बांध चलेगा बंजारा.
भोपाल में पहली बार हबीब दा का नाटक माटी गाड़ी देखा। मानव संग्रहालय मैं शो था , खुले आकाश के नीचे। उस समय रंगकर्म का शौक उफान पर था। उनके कलाकारों का अंदाज देख हैरान रह गया। पुरे नाटक के दौरान हबीब दा लाईट्स वाले के पास बैठे थे। एक ७५ साल का रंगकर्मी और उसके काम का जूनून मेरे लिए काफी प्रेरणादायक था।
इसके बाद चरणदास चोर देखा। हबीब दा के सबसे सफल नाटकों में शुमार है चरण दास चोर। हबीब साहब का जितना नाम सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया। लोग भी खूब उमरते उनका नाटक देखने। नाटकों मैं बात ही कुछ ऐसी थी की कभी पुराने नहीं पड़ते। लोक का ऐसा रस घुला था की जित देखो तित नया।
ये यादें साल १९९८-९९ के बीच की हैं। इस दौरान मैं भोपाल मैं माखनलाल विश्वविद्यालय काम छात्र था। हम एक ग्रुप बना कर नाटक कर रहे थे। शहर में कोई भी एक्टिविटी होती हम लोग पहुँच जाते। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने हबीब साहब के ७५ साल के होने पर एक भव्य आयोजन कराया । ५ दिनों तक भोपाल हबीबमय हो गया। दिन मैं हबीब साहब पर व्याख्यान और रात में नाटक। व्याख्यान में तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन असली जद्दोजहद शुरू होती शाम में । रवींद्र भवन में पाँव रखने की जगह नहीं होती और हमारे पास टिकेट नहीं होते। हमें आख़िर तक इंतज़ार करना पड़ता जब एंट्री ओपन कर दी जाती। इस समारोह में कुछ और नाटक देखे - गाँव के नाम ससुराल , मोर नाम दामाद।
दस्तक के बैनर से हम लोगों ने नाटक तैयार किया- राम सजीवन की प्रेम कथा। बहुत संकोच के साथ हमने दादा के घर कार्ड भिजवाया। हबीब साहेब उन दिनों भोपाल में नहीं थे , हमने भी उनके आने की उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन नाटक शुरू होने से पहले विंग्स में हमें खबर मिली की हबीब सर अपने ग्रुप के साथ आ गए हैं. हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। धड़कन भी बढ़ गयी। नाटक शुरू हुआ, साउंड की कुछ समस्या थी , आवाज़ दर्शकों तक ठीक से नहीं पहुँच पा रही थी , बावजूद इसके उन्होंने पूरा नाटक देखा। हम लोगों से मिले आशीर्वाद दिया और उसके बाद ही वहां से गए।
एक नौसिखुए रंगकर्मी के लिए इस से बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी । खैर , वो दिन गुजर गए लेकिन हबीब साहेब एक अमिट छाप छोड़ गए. इस समय और भी कई बातें जेहन मैं आ रही हैं, लेकिन वो फिर कभी.
दिल्ली आने के बाद उनका एक और नाटक देखा -आगरा बाज़ार. एक ऐसा नाटक जिसका एहसास आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते. नजीर अकबराबादी की कवि़ताओं में न जाने कितने आयाम जोड़ दिए हबीब जी ने. नजीर की पंक्तियों से बात ख़त्म करता हूँ -सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब बांध चलेगा बंजारा.
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