वह वहीं थी
पर किसी की नजर उस पर नहीं थी।
कई सारी परछाइयों के बीचोंबीच
एक परछाई सी थी वह।
यह बहुत पहले की बात है
इतनी कि तब दिन की रौशनी नहीं थी।
इतनी कि तब किसी रंग के लिबास में
लिपटी नहीं थी वह।
एक रोज़ सूरज को तो निकलना ही था
उसके निकलते ही पहाड़ों से जा टकराई और
दुनिया के पहले चित्र सी बन गई वह।
उसका शरीर कुदरत का हिस्सा था
जो कई सारे रिक्त स्थानों से भरा था
फिर पता नहीं किसने हांड मांस से भर दिया उसको
उसकी आँखों को किसने आकार दे दिया।
किसने होठ खीच दिए।
किसने गोल माथे को देखकर बिंदी चिपका दी।
फिर माला, सिन्दूर और देखते ही देखते
जिसको जो लगा वो वो
उसके अंगों पर चिपकाता गया।
इन सबके बीच
क्या कोई ऐसा भी था जिसने उसकी आँखों में
उसकी ख़ुशी, उसके सपने, उसकी ख्वाहिश देखी थी ?
जिसने उससे कहा हो कि
अगर यह चीजें तुम्हे भारी लगती हो तो
उतार क्यों नहीं फेंकती
उड़ क्यों नहीं जाना चाहती
जहां चाहे इस जहान में....
तब से अब से
या कब कब से
कितनी कितनी औरतें
सिर्फ इतना भर सुनने के लिए खड़ी रही हैं ?
- शिरीष खरे
Shirish KhareC/0- Child Rights and You189/A, Anand EstateSane Guruji Marg(Near Chinchpokli Station)Mumbai-400011
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
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2 टिप्पणियां:
बहुत ख़ूब
bahut achha laga
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