मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

सूरज का सातवां घोड़ा-प्रेम का सतरंगा एहसास

मध्यवर्ग और प्रेम, मध्यवर्ग और उसकी विडंबनाएं, प्रेम और उसकी विडंबनाएं- जो धर्मवीर भारती के उपन्यास " सूरज का सातवां घोड़ा " की निष्कर्षवादी कहानियों के जरिए सामने आईं, उनमें 5 दशकों के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। मध्यवर्ग के दोस्तों के जमावड़े में आज भी राजनीति के बाद प्रेम ही दूसरा सबसे अहम चर्चा का मुद्दा होता है। आखिर प्रेम की बतरसी में ऐसा क्या आनंद है कि तमाम मुद्दे पीछे छूट जाते हैं? ये सवाल हमारे मन में भी उठता है और यही सवाल उपन्यास में भी रखा गया है- 'जिन्दगी में अधिक से अधिक दस बरस ऐसे होते हैं जब हम प्रेम करते हैं। उन दस बरसों में खाना-पीना, आर्थिक संघर्ष, सामाजिक जीवन, पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना, सिनेमा और साप्ताहिक पत्र, मित्र गोष्ठी इन सबसे जितना समय बचता है, उतने में हम प्रेम करते हैं। फिर इतना महत्व उसे क्यों दिया जाए?' (पृष्ठ संख्या-16)
यहीं हम थोड़ा धोखा खा जाते हैं, दरअसल प्रेम किसी न किसी रूप में हमारी इन सभी क्रियाओं में मौजूद रहता है। आर्थिक संघर्ष में भी प्रेम निहित होता है और सामाजिक जीवन में भी प्रेम अपने अवसर तलाश लेता है। ऐसे में चाहे-अनचाहे प्रेम की गिरफ्त में आप आ ही जाते हैं और उससे बचने के तमाम उपाय बेकार साबित हो जाते हैं। तभी तो माणिक मुल्ला कहते हैं- "प्रेम नामक भावना कोई रहस्यमय, आध्यात्मिक या सर्वथा वैयक्तिक भावना न होकर वास्तव में एक सर्वथा मानवीय सामाजिक भावना है, अतः समाज व्यवस्था से अनुशासित होती है और उसकी नींव आर्थिक संगठन और वर्ग संबंध पर स्थापित होती है।" (पृष्ठ संख्या-18)
ये भी सच है कि "प्रेम में खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे, चाहे चाकू खरबूजे पर, नुकसान हमेशा चाकू का ही होता है। अत: जिसका व्यक्तित्व चाकू की तरह तेज और पैना हो, उसे हर हालत में उस उलझन से बचना चाहिए।" (पृष्ठ संख्या-15) लेकिन कौन है जो इस उलझन से बच पाया है? खास कर वो व्यक्ति जिसका 'व्यक्तित्व चाकू की तरह तेज और पैना' है, वो तो कतई नहीं बच सकता। ये बात माणिक मुल्ला की कहानियों में बार-बार सामने आती है। नायक चाह कर भी जमुना, सत्ती या फिर लिली के सुख-दुख का साझीदार बनने से खुद को रोक नहीं पाता और कहीं न कहीं प्रेम की टीस भरी आह को सीने में दफ्न करने की जद्दोजहद से गुजरता रहता है।
उपन्यास में 'पहली दोपहर' की कहानी जमुना, तन्ना और माणिक के ईर्द-गिर्द घूमती है। महेसर दलाल का बेटा तन्ना पिता की डांट के बाद जमुना से किनारा कर लेता है तो गोत और खानदान की दुहाई देकर जमुना की मां रिश्ते के लिए ना कर देती है। दो प्यार करने वाले दिल टूट जाते हैं और जमुना को माणिक मुल्ला का कंधा रोने-धोने को मिल जाता है। कीर्तन की वजह से जमुना को रात में कुछ तन्हाई मिल जाती है तो गऊग्रास की वजह से माणिक को हर दिन जमुना के पास जाने की 'सजा'। ये करीबियां 'प्रेम' की तरफ बढ़ने लगती हैं- 'जमुना को माणिक चुपचाप देखें और माणिक को जमुना और गाय इन दोनों को'। मध्यवर्ग की इस प्रेम कहानी को पहली दुपहरी में माणिक मुल्ला पाठकों को तपती धरती की तपिश के साथ ही छोड़ देते हैं- "जब मैं जाता तो मुझे लगता कोई कह रहा है माणिक उधर मत जाओ यह बहुत खराब रास्ता है, पर मैं जानता था कि मेरा कुछ बस नहीं है। और धीरे-धीरे मैंने देखा कि न मैं वहां जाये बिना रह सकता था न जमुना आये बिना।" (पृष्ठ संख्या-24)
जमुना के 'नमकीन पुए' कहानी सुनने वालों के लिए हास्य का विषय बहुत देर तक नहीं रह पाते। जब हम इस हकीकत से रूबरू होते हैं कि 90 फीसदी लड़कियां (आज ये आंकड़ा कुछ कम भले ही हो गया हो लेकिन तस्वीर बहुत ज्यादा नहीं बदली है।) जिंदगी के अभाव की वजह से प्रेम से वंचित रह जाती हैं, तो दुख होता है। दूसरों का प्रेम और नाटकीय घटनाएं हमेशा अचरज भरी होती हैं और हास्य पैदा करती हैं। दरअसल प्रेम हमेशा गढ़े हुए मुहावरों की शक्ल में नहीं आता, इसलिए उसमें एक तरह की मूर्खता भी दिखती है और एक तरह का नयापन भी हमेशा बना रहता है।
दूसरी दोपहर, एक अधेड़ किंतु 'पुख्ता' (पानी खाए) मरद के साथ जमुना की शादी और घोड़े की नाल के करिश्मे के नाम रहती है। 'पुत्र' प्राप्ति के लिए जमुना की तपस्या से देवताओं का मन भले न पिघला हो लेकिन रामधन उसका ये 'कष्ट' नहीं देख सका। अब इसे आप प्रेम कहें या कुछ और वो जमुना को तीन दिन तक तांगे में बिठा कर गंगा पार ले गया और जमींदार साहब के यहां 'नौबत' बज उठी। जमींदार साहब की मौत के बाद जमुना ने ' रामधन को एक कोठरी दी और पवित्रता से जीवन व्यतीत करने लगी।' इस कहानी में प्रेम का एक और रूप सामने आया, जहां समाज की 'मर्यादाएं' भी नहीं टूटीं और जमुना की 'गृहस्थी' भी चल पड़ी। "एक ओर नये लोगों का यह रोमानी दृष्टिकोण, यह भावुकता, दूसरी ओर बूढ़ों का यह थोथा आदर्श और झूठी अवैज्ञानिक मर्यादा सिर्फ आधी ईंच बरफ है, जिसने पानी की खूंखार गहराई को छिपा रखा है।" (पृष्ठ संख्या, 35) प्रेम के इस समाजशास्त्रीय 'इफेक्ट' को आप किसी 'वाद' की व्याख्या के जरिए नहीं समझ सकते।
तीसरी दोपहर, माणिक मुल्ला अपनी किस्सागोई में प्रेम के होने की खुशी और न होने की हताशा की कड़ियां जोड़ते चले जाते हैं। माणिक मुल्ला के शब्दों में-"जब मैं प्रेम पर आर्थिक प्रभाव की बात करता हूं तो मेरा मतलब यह रहता है कि वास्तव में आर्थिक ढांचा हमारे मन पर इतना अजब-सा प्रभाव डालता है कि मन की सारी भावनाएं उससे स्वाधीन नहीं हो पातीं और हम जैसे लोग जो न उच्च वर्ग के हैं, न निम्न वर्ग के, उनके यहां रूढ़ियां, परम्पराएं, मर्यादाएं भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिलाकर हम सभी पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र मात्र रह जाते हैं, हमारे अंदर उदार और ऊंचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अजब सी जड़ मूर्च्छना हम पर छा जाती है।" (पृ 38)
एक तरफ महेसर दलाल अपने बेटे तन्ना और जमुना के सच्चे प्रेम को सामाजिक प्रतिष्ठा की भेंट चढ़ा देता है तो दूसरी तरफ वही महेसर दलाल 'बच्चों की फिक्र' में 'बुआ' को घर लाकर बिठा लेता है। विषाक्त परंपराएं ही हैं कि तन्ना 'घरजमाई' बनने को तैयार नहीं होता और महेसर दलाल तन्ना की होने वाली 'सास' के घर रात-रात भर ठहरने का बहाना तलाश लेते हैं। शादी के बाद भी जमुना तन्ना के करीब आना चाहती है लेकिन वो उसे ठुकरा देता है, जबकि महेसर दलाल किसी 'साबुनवाली' पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं। प्रेम और वासना की बारिकियों को धर्मवीर भारती ने बखूबी उपन्यास में उकेरा और मध्यवर्गीय नैतिकता को हर तरफ से कठघरे में खड़ा किया। तमाम नैतिकताओं का बोझ ढोते तन्ना की दोनों टांगे कट जाती हैं, जबकि जमुना रामधन के साथ मस्त है तो महेसर दलाल 'सत्ती' को पाने की जोड़तोड़ में जुटे रहते हैं।
चौथी दोपहर, माणिक मुल्ला और लिली के प्रेम की लफ्फाजी और आदर्शवादी बातें रखी गईं, जो जीवन का यथार्थ या सच नहीं बन पातीं। माणिक मुल्ला लिली को स्वीकार करने का दम नहीं दिखा पाते और लिली भी रो-धोकर अपने विवाह की मजबूरी को स्वीकार कर लेती है। "इस रूमानी प्रेम का महत्व है, पर मुसीबत यह है कि वह कच्चे मन का प्यार होता है। उसमें सपने, इंद्रधनुष और फूल तो काफी मिकदार होते हैं पर वह साहस और परिपक्वता नहीं होती जो इन सपनों और फूलों को स्वस्थ सामाजिक संबंध में बदल सकें।" (पृष्ठ-50) दो टूटे दिल विवाह के बंधन में बंधते हैं- लिली और तन्ना का निकाह इसी विडंबना का हिस्सा है। महानगरों से लेकर कस्बों तक दसवीं और बारहवीं के युवाओं की प्रेम कहानियों के ऐसे 'द एंड' के गवाह हम और आप भी कई बार बन चुके हैं।
पांचवी दोपहर, एक श्रमशीला स्त्री और एक लिजलिजे शख्स की प्रेम कहानी के नाम रहती है। 'पढ़ी लिखी भावुक लिली' और 'अनपढ़ी दमित मनवाली जमुना' के मुकाबले 'स्वाधीन लड़की' का व्यक्तित्व माणिक मुल्ला को अपनी ओर खिंचता है तो लेकिन जब फैसले की घड़ी आती है तो माणिक मुल्ला साहस नही दिखा पाते। बेचारी सत्ती जो अपना सबकुछ माणिक मुल्ला पर न्यौछावर करने को तैयार है, जो माणिक मुल्ला के भरोसे पूरी दुनिया से लड़ने को तैयार है, वही माणिक मुल्ला धोखे से उसे चमन ठाकुर और महेसर दलाल के हाथ सौंप देते हैं। माणिक मुल्ला की सारी कविताई, सारी भावनाएं उस वक्त जवाब दे जाती हैं, जब एक स्त्री अपना सबकुछ दांव पर लगाकर उसकी शरण में चली आती है।
छठी दोपहर, माणिक मुल्ला के अफसोस, उसके पाश्चाताप और उसकी उदासी में गुजरती है। माणिक मुल्ला जैसे 'बौद्धिकों' का कैसा हाल हो जाता है, उसको लेखक ने कुछ यूं बयां किया है- "मुझमें अपने व्यक्तित्व के प्रति एक अनावश्यक मोह, उसकी विकृतियों को भी प्रतिभा का तेज समझने का भ्रम और अपनी असामाजिकता को भी अपनी ईमानदारी समझने का अनावश्यक दम्भ आ गया था।" (पृष्ठ-74) हालांकि सत्ती के जीवित होने की खबर सुनते ही वो 'सामान्य मानव' बन गए। वो तन्ना की नौकरी भी कर लेते हैं और भीख मांगती सत्ती को देख संतोष कर लेते हैं कि वो 'बाल बच्चों सहित प्रसन्न' है।
सातवीं दोपहर, उपन्यासकार 'सूरज का सातवां घोड़ा' के नामकरण के औचित्य को समझाते हुए मध्यवर्ग में व्याप्त हताशा, निराशा के बीच उम्मीद का, सपनों का घोड़ा दौड़ाने की सलाह दे जाते हैं। "वह घोड़ा है भविष्य का घोड़ा, तन्ना, जमुना और सत्ती के नन्हें निष्पाप बच्चों का घोड़ा, जिनकी जिंदगी हमारी जिंदगी से ज्यादा अमन चैन की होगी, ज्यादा पवित्रता की होगी, उसमें ज्यादा प्रकाश और ज्यादा अमृत होगा।" (पृष्ठ-79) लेखने सपने तो बहुत अच्छे बुने लेकिन हकीकत आज भी उतनी ही कड़वी और हताशाजनक है आज भी सत्ती, जमुना और लिली का हश्र पहले सा ही भयावह है, आज भी अनुपमा पाठक अपने ही घर में मार दी जाती है, आज भी घरों की चारदीवारी में पनपता प्रेम अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाता। कभी गले में रस्सी तो कभी पंचायत में सरेआम कत्ल। आपके ईर्द-गिर्द कोई सत्ती, जमुना या लिली दिख जाए तो उसके सपनों के घोड़ों को थोड़ी आजादी देने की कोशिश करो तो जानें।
पशुपति शर्मा
संपर्क-1011, सेक्टर 15, वसुंधरा, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश 201010 (मोबाइल-9868203840)
(नोट- सूरज का सातवां घोड़ा, भारतीय ज्ञानपीठ का 37 वां संस्सकरण के मुताबिक पृष्ठ संख्या दी गई है।)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

बहुत अच्छा प्रयास है आपका, नेट पर हिंदी के विस्तार में फिलहाल हिंदी ब्लॉग का सबसे बड़ा योगदान है और आप इस खजाने को सम्रद्ध कर रहें है , इसके लिए आपका धन्यवाद .

आपसे अनुरोध है की विभिन् हिंदी ब्लॉग पर जाकर अपनी राय भी प्रदान करें ताकि इस अभियान को गति मिलती रहे .
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