युवा साथी विश्वदीपक ने जंतर-मंतर पर चल रहे आंदोलन की एक 'सुबह' को कुछ यूं बयां किया।
कैमरे खामोश थे. और मीडिया वाले ऊंघ रहे थे. कुछ चाय की चुस्कियों से अपनी थकान मिटाने की कोशिश कर रहे थे. तो कुछ चहलकदमी करके पैरो में सिमट आई एकरसता तोड़ रहे थे. सूरज आसमान में चढ़ रहा था. और जिंदगी फुटपाथ पर उतरने लगी थी. सुबह साफ और चमकदार थी. ये अन्ना के आमरण अनशन की पहली सुबह थी।
पिछले चौबीस घंटे से जो 129 लोग आमरण अनशन पर थे उनके चेहरे पर थोड़ी थकान थी. अन्ना अभी तक मंच पर नहीं थे. मंच के नीछे कुछ जाने पहचाने चेहरे मिले. कुछ ने गले लगाकर स्वागत किया तो कुछ ने बस एक मीठी मुस्कान का तोहफा दिया. शायद लगा कि हां, सुबह जानदार है. शायद इसी तरह कोई सुबह आएगी जब भ्रष्टाचार की सियाही मिट जाएगी।
अन्ना के अनशन के समर्थन में बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर के बैनर भी मंच के ऊपर लहरा रहा है. पुलिस की मौजूदगी न के बराबर है। लगता है यूपीए सरकार भी अपरोक्ष रूप से अनशन में शामिल है. वक्त की सुई थोड़ा और आगे खिसकती है. सूरज थोड़ा और ऊपर चढ़ता है.लोगों की आवक जावक थोड़ी और बढ़ती है. कि तभी लोग मंच की तरफ भगाने लगते हैं. पता चलता है कि अन्ना मंच पर आ चुके हैं।
कल के अन्ना और आज के अन्ना में एक महीन सा फर्क नजर आता है. उनकी चमड़ी का रंग थोड़ा और तांबई हो गया है. लेकिन हौसला और पक्का लग रहा है। मंच के पास जाने का हौसला नहीं होता क्योंकि वहां की जगह कैमरों ने छीन ली है. खुद को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहने वाला मीडिया किस तरह अराजक है ये एक बार फिर स्थापित हुआ. हर कोई अन्ना से कुछ एक्सक्लूसिव चाह रहा था. जबकि इसमें कुछ भी एक्सक्लूसिव हो ही नहीं सकता।
कल जब अन्ना ने् अनशन का ऐलान किया था तब करीब दो हजार लोग जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए थे. हर वो आदमी जो किसी भी तरह से इस व्यवस्था के नीचे घुटन महसूस करता है अन्ना के अनशन से राहत महसूस कर रहा है। अन्ना से बातचीत की इच्छा दबाए वापस लौट पड़ता हूं. रास्ते में वो कुछ भी नहीं मिलता जो जाते वक्त मिला था. न वो हौसला और न ही वो उम्मीद। शायह हर यात्रा का अंत ऐसे ही होता है... तो क्या अन्ना की यात्रा का भी यही अंत होगा...?
गुरुवार, 7 अप्रैल 2011
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