स्लमडॉग मिलियनेयर ने इतिहास रच दिया। गोलड्न गोल्ब, बाफ्टा और आखिरकार वो पुरस्कार मिल गया, जिसके इंतजार में भारतीय सिनेमा के कई दशक गुजर गए। सबसे बड़ी कामयाबी ये कि एक भारतीय संगीतकार को एक साथ दो-दो ऑस्कर मिल गए। विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा का डंका बज गया। एक झटके में ए आर रहमान इतिहास रच गए। भारतीय सिनेमा को कुछ ऐसा दे गए जिसे हासिल करने में अब तक बड़े-बड़े भारतीय दिग्गज नाकाम रहे थे। लेकिन इस कामयाबी को जरा ध्यान से परखने की जरूरत है। क्या वाकई स्लमडॉग मिलियनेयर ऐसी उम्दा फिल्म है कि कामयाबी इसके पांव चूमने लगी.. क्या इस फिल्म का संगीत इतना दमदार है कि वो भारतीय फिल्म संगीत के गौरवशाली इतिहास में मील का पत्थर साबित हो गया...
ए आर रहमान की काबिलियत पर कोई शक नही है। वो इस दौर के बेहतरीन संगीतकार हैं। उन्होंने वाकई अच्छी धुनें बनाई हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी को विश्व सिनेमा की बदलती तस्वीर और भारत सिनेमा के लगातार बढ़ते कद से जोड़ कर देखना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा की अपील वैश्विक हुई है। विदेशों में प्रोमोशन और बॉलीवुड के सितारों की बढ़ती लोकप्रियता ने पश्चिम के फिल्मकारों और प्रोड्यूसरों का ध्यान खींचा है। वो भारतीय पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाने की दिशा में गंभीरता से काम करने लगे हैं। कई फिल्में बनीं हैं, और बनने की प्रक्रिया में शामिल हैं। वार्नर ब्रदर्स से लेकर तमाम दूसरी प्रोडक्शन कंपनिया यहां पैसा लगाने में दिलचस्पी ले रही हैं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भारत एक बड़ा बाजार बन कर उभरा है। ये महज इत्तेफाक नहीं है कि स्लमडॉग मिलयनेयर अचानक कामयाब हो गई। इसकी कामयाबी को बाजार की बदलती तस्वीर और विश्व सिनेमा के धरातल पर भारत की मजबूत होती पकड़ के बीच देखना होगा । अचानक ऐसा क्या हुआ कि पश्चिमी फिल्मकारों और आलोचकों को सल्मडॉग मिलयनेयर में वो तमाम खूबियां दिख गईं जो अब तक नजर नहीं आई थी।
इस बात से भी इनकार करना लगभग नामुमकिन है कि अगर ये फिल्म पूरी तरह भारतीय होती तो ऑस्कर में ऐसी कल्पनातीत सफलता मिली होती। धारावी की झुग्गियों पर सुधीर मिश्रा नब्बे के दशक में ही एक अच्छी फिल्म बना चुके हैं लेकिन तब उसका नामलेवा भी कोई नहीं था। फिल्म को रिलीज करवाने में ही उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। कड़ी मशक्कत के बाद दो चार सिनेमाघरों में फिल्म रिलीज भी हुई तो एक सप्ताह में ही उतर गई। ऑस्कर में ले जाने की बात भी दूर थी। पिछले साल की ही बेहतरीन फिल्म तारे जमीं पर आस्कर में प्रवेश पाने में भी नाकाम रही। आखिर क्यों..वो फिल्म हर लिहाज से उम्दा फिल्म थी। तकनीकी तौर से भी फिल्म अच्छी बन पड़ी थी, फिल्म का संगीत उम्दा था, अभिनय, निर्देशन सब कुछ अच्छा था लेकिन पश्चिम के फिल्मकारों, आलोचकों ने इसे दरकिनार कर दिया। ऐसी ही फिल्मों की फेहरिस्त बड़ी है जो दमदार होने के बावजूद ऑस्कर में औधें मुंह गिरती रही हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर का सिक्का चल गया। यहां इस फिल्म को कमतर साबित करने की कोई मंशा नहीं है। लेकिन सवाल उठाना लाजिमी है कि डैनी बॉय़ल का इससे जुड़ा होना इसकी कामयाबी में किस हद तक मददगार है.. स्लमडॉग मिलयेनर एक अच्छी फिल्म है लेकिन अच्छा होना आस्कर में इसकी कामयाबी की वजह नहीं जान पड़ती। ये उस बाजार में फिल्म निर्माण की नई संभावनाओं की तलाश का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से फिल्मों के गोलबाइजेशन की प्रकिया शुरू होती है। यहां से पश्चिमी फिल्मकारों की दिलचस्पी शुरू होती है। उस बाजार पर कब्जा करने की कोशिश की ये पहली सीढ़ी है जहां कामयाबी की अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं।
जरा याद कीजिये 1990 का दशक। भारतीय हुस्नपरियों की कामयाबी का दौर था वो दशक। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्य राय.. लारा दत्ता, डायना हेडन, प्रियंका चोपड़ा, युक्ता मुखी और न जाने कितनी ही सुंदरियां मिस वर्ल्ड और मिस युनिवर्स बन गईं। जैसे पिछले दशक में अचानक भारतीय सुंदरियों के नैन नक्श पश्चिम के सौन्दर्य उपासकों को लुभाने लगे थे। उसी तरह स्लमडॉग में उन्हें अपनी फिल्मों का सुनहरा भविष्य दिखने लगा है। उपभोक्तावाद की फैलती बेल के बीच भारत अब एक बड़े चट्टान की तरह दिखने लगा है, जिस पर बाजार के विस्तार की अपार संभावनाएं है। भारत का विकट सामाजिक समीकरण, रंगीन सांस्कृतिक मिज़ाज पश्चिम के फिल्मकारों को अचानक लुभाने लगा है। क्योंकि वे जानते हैं कि सिनेमा की भाषा बदलने लगी है। अंग्रेजीदां लोगों का एक विशाल तबका हिन्दुस्तान में मौजूद है जो उनकी जरूरतों को बखूबी पूरा कर सकता है।
स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत अच्छा है बेहतरीन नहीं। ए आर रहमान ने इससे कहीं बेहतर धुनें पहले तैयार की हैं। और अगर भारतीय फिल्म संगीत की धारा पर नजर डालें तो स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत कहां ठहरता है। शंकर जयकिशन, मदनमोहन, सलिल चौधुरी, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र नौशाद, गुलाम मोहम्मद, पंचम जैसे दिग्गज संगीतकारों की कालजय़ी धुनें आज भी जुबां पर चढ़ी हुई हैं लेकिन वो ऑस्कर से महरूम रह गईं। हालांकि ऑस्कर में उन्हें ले जाने की इतनी जद्दोजहद भी पहले कभी नहीं की गई। और अगर भारतीय फिल्में वहां गई भी तो हश्र हमेशा बुरा ही हुआ।
स्लमडॉग के परिप्रेक्ष्य में भारतीय फिल्म जगत की व्यग्रता और मीडिया का उन्मादी स्वर भी ध्यान देने के लायक है। ऐसा लगा जैसे हमारी कला तो बस ऑस्कर की मोहताज है। अगर ऑस्कर नहीं मिला तो हम नाकाम। हमारे फिल्मकार हेठे और उनकी कला कच्ची। हैरान करने वाली बात ये भी है कि बॉलावुड का भी एक बड़ा तबका ऑस्कर के लिए तरस रहा था। वो इस अंदाज में बातें कर रहा था जैसे उन्हें अपनी क्षमता पर कोई भरोसा ही न हो। हालांकि एक तबका ऐसा भी था जो दबी जुबां में ही सही लेकिन ये कह जरूर रहा था कि ऑस्कर हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र नहीं है। आखिर हम क्यों ऑस्कर के मोहताज हैं..। जैसे महान फिल्मकार फेलिनी, गोदार और सत्यजीत रे की महानता ऑस्कर की दास नहीं थी उसी तरह आज के दौर की बेहतर फिल्मों को ऑस्कर का मोहताज नहीं होना चाहिये। विश्व सिनेमा में अपनी पहचान बनाना अच्छी बात है लेकिन उस पहचान के लिए अपनी निजता का अर्पण कर देना ठीक नहीं है। जब भी स्लमडॉग की कामयाबी और संगीत पर चर्चा छिड़ी, इस तबके ने तमाम विरोधी स्वरों को कुंठित करार दे दिया। ये कह कर उन्हें खामोश कर दिया कि वो इस कामयाबी को पचा नहीं पा रहे।
स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी भारतीय सिनेमा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। कामयाबी का जश्न मनाना भी वाजिब है। आखिरकार ये एक भारतीय संगीतकार और टेकनीशयन की स्वर्णिम सफलता का वक्त है। ये मुमकिन है कि स्लमडॉग के बाद भारतीय सिनेमा की पैकेजिंग ऑस्कर में बेहतर हो जाय। भारतीय सिनेमा को शायद एक बेहतर प्लैटफॉर्म भी मिल जाए। लेकिन सवाल ये है किक्या ये वक्त के साथ लगातार तरक्की कर रहे भारतीय फिल्म उद्योग में घुसपैठ कर अपनी संभावनाओँ का बाजार विकसित करने की पश्चिमी सोच नहीं है।जय़ हो.. कहने से पहले ये विचार करना होगा कि स्लमडॉग से किसकी जय हो रही है। क्या ये वाकई रहमान की महानता औऱ भारतीय कला की जय है या पश्चिमी फिल्मकारों की सोची समझी रणनीति की जय जय।
देवांशु कुमार
(न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत हैं देवांशु कुमार)
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
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