पगडंडियां अब सड़कों में मिल गई हैं।
वे संकीर्ण थीं,
एक बार में किसी एक राहगीर को ही जगह दे पाती थीं
लेकिन कंधे तो टकराते थे, आखें भी मिलती थीं।
सुबह, दोपहर, शाम और देर रात तक
आने-जाने का सिलसिला चलता था।
पगडंडियां जो गेंहू और अरहर के खेतों से
लुकाछिपी का खेल खेलती थीं,
रेल की पटरियों को पार कर
दूर तलक बाजार के मुहाने तक जाती थीं,
ज्य़ादा महफूज थीं।
अब सड़कें खा गईं हैं इन्हें,
जो पसर गई हैं खेत के पास-पास
और सीधे-सीधे जुड़ गई हैं बाजार से,
गांव से बाहर जाने का ज़रिया बनकर रह गई हैं।
सड़कों पर अब एकतरफा यातायात
है और गांव में उदासी की एकतानता।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
सोमवार, 2 मार्च 2009
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