मैने संस्कृति के जिस बियाबान में तुम्हें छोड़ दिया है,
वहां तुम अपनी जड़ों को तलाशने की बात सोच भी नहीं सकते
इसलिए तुम्हारा स्वर एकालापी हो चला है।
हमारी भाषा में जिसे जड़ता कहते हैं,
वह तुम्हारी पीड़ा की घनीभूत अवस्था है।
मैं क्षितिज के पास गलते सूरज की तरह
तुम्हें हर रोज गलते देखता हूं
तुम्हारी आंखों में उदासी की अबूझ लिपियां
पढ़ने की कोशिश करता हूं,
तुम्हारे स्वरों में अंतर्द्वंद्व की ध्वनियां सुन सकता हूं,
जिसे तुम मुस्कुराहट में कह जाते हो।
-देवांशु कुमार, (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
सोमवार, 2 मार्च 2009
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