सोमवार, 30 अगस्त 2010

शर्म है कि आती नहीं...


ट्रक-टैम्पो भिड़े... (तीन कॉलम, पेज-3), युवा कांग्रेस का चक्का जाम (फोटो सहित 2 कॉलम, पेज नंबर-3), इसी हेडिंग के साथ एक और खबर (3 कॉलम, 5 नंबर पेज), जागरुकता से जनसंख्या पर नियंत्रण संभव (फोटो सहित 2 कॉलम, पेज-4), बाबा स्वामी रामदेव के कार्यक्रम को ले बैठक (2 कॉलम), किसानों को दी खाद व कीटनाशक की जानकारी (फोटो सहित 2 कॉलम)... 29 अगस्त 2010 को भागलपुर से प्रकाशित हिंदुस्तान के पूर्णिया संस्करण में ऐसी ही कई खबरें थीं लेकिन वो खबर नहीं थी जिसे देखने के लिेए हममें से कई साथियों ने अखबार खरीदा और उसके पन्ने पलटते रहे। पूर्णिया में दिवंगत पत्रकार विनय तरूण को श्रद्धांजलि देने के लिए कार्यक्रम हुआ लेकिन कई पत्रकारों को वहां झांकने तक की फुर्सत नहीं मिली। अफसोस कि दैनिक जागरण समेत दूसरे स्थानीय अखबारों से भी ये खबर नदारद रही।

बाकी की बात छोड़ भी दें लेकिन हिंदुस्तान की इस हरकत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। हिंदुस्तान के उप स्थानीय संपादक और साथी इसे कोई अपराध न माने लेकिन एक अपराध हो चुका है, भले ही किसी संविधान में उसकी कोई धारा दर्ज नहीं। पत्रकारों की बात छोड़ भी दें लेकिन एक आम पाठक को भी उस वक्त जरूर कोफ्त होगी जब यह पता चलेगा कि वो दिवंगत पत्रकार कोई और नहीं बल्कि दैनिक हिंदुस्तान, भागलपुर में काम करने वाला एक संपादकीय साथी था। उसकी मौत संस्थान की नौकरी छो़ड़ देने या अखबार से हर तरह का नाता तोड़ देने के बाद नहीं हुई थी... वो ऑफिस पहुंचने की आपाधापी में ही 22 जून 2010 को एक ट्रेन हादसे में मारा गया।

अफसोस हिंदुस्तान के संपादक विनोद बंधु समेत उनके साथ काम करने वाले तमाम साथियों ने इस युवा पत्रकार को महज दो महीने में ही बिलकुल पराया कर दिया, इतना पराया कि उनके लिए श्रद्धांजलि कार्यक्रम में शिरकत करने के लिए दो पल भी न मिले। संपादक महोदय की व्यस्तता का आलम ये रहा कि उन्होंने तमाम स्रोतों से इस कार्यक्रम के आयोजन की सूचना मिलने के बावजूद किसी नुमाइंदे को भेजना जरूरी नहीं समझा।

28 अगस्त 2010 को पूर्णिया के बीबीएम हाईस्कूल में 100 से ज्यादा लोगों का जमावड़ा लगा। दिल्ली, पटना, रांची, जमशेदपुर, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, सहरषा, सुपौल और फारबिसगंज समेत कई जगहों से पत्रकार साथी विनय तरूण को याद करने पहुंचे। कोई 1300 किलोमीटर की यात्रा कर यहां पहुंचा तो किसी ने 300 किलोमीटर का सफर तय किया... कोई मोटरसाइकिल पर हिचकोले खाते 100-125 किलोमीटर चलकर एक सीधे-सादे सच्चे पत्रकार को श्रद्धांजलि देने पहुंचा लेकिन पता नहीं ऐसी क्या बात थी कि हिंदुस्तान के साथी एक से डेढ़ किलोमीटर का फासला भी तय नहीं कर पाए। विनय की याद में आंसू बहते रहे लेकिन इन पत्रकारों ने कलेजा कुछ ऐसा सख्त कर लिया कि ऑफिस में चुनावी जमा खर्च का हिसाब किताब होता रहा। सबसे ज्यादा दुखद बात तो ये है कि ये सब हिंदुस्तान के भागलपुर संस्करण के उप-स्थानीय संपादक विनोद बंधु की मौजूदगी में हुआ। जी हां जिस वक्त पूर्णिया के वयोवृद्ध साहित्यकार भोलानाथ आलोक, पूर्णिया आकाशवाणी के पूर्व केंद्र निदेशक विजयनंदन प्रसाद समेत तमाम पत्रकार, बुद्धिजीवी और घर परिवार के लोग एक कमरे में युवा पत्रकार विनय तरुण की मौत का मातम मना रहे थे, उसी वक्त अपने मातहत विनय तरूण की मौत का गम भुला चुके संपादक विनोद बंधु पूर्णिया में ही मीटिंग कर रहे थे।

संपादक महोदय की संवेदनशीलता का आलम ये रहा कि सुबह 11 बजे से लेकर शाम के 5 बजे तक चलने वाले श्रद्धांजलि समारोह के तीन सत्रों में से किसी एक सत्र के लिए भी वो दो पल का वक्त नहीं निकाल पाए। जितनी देर कार्यक्रम चला, शायद उतनी देर मीटिंग भी चलती रही। अन्यथा यकीन नहीं होता कि कोई अपने साथी को इस तरह भी भुला सकता है। यकीन नहीं होता कि एक संपादक इतना कठोर हृदय भी हो सकता है। यकीन नहीं होता कि दुनिया का दर्द अखबारों के पन्ने पर उकेरने वाली बिरादरी अपने घर के अंदर बह रहे आंसुओं की धारा से इस कदर आंख मूंद सकती है।

कुछ तो बात है कि विनय की स्मृति के कार्यक्रम से संपादक महोदय ने तौबा कर ली। क्या विनोद बंधु इस बात का जवाब दे पाएंगे कि आखिर ऐसा कौन सा डर था कि वो कार्यक्रम में नहीं पहुंचे। भगवान के लिए ये मत कहें कि हमारी हिम्मत नहीं हुई... आपकी हिम्मत तो काबिले तारीफ है कि आपने 28 अगस्त को पहले पूर्णिया के कार्यक्रम में शिरकत न करने की असमर्थता जाहिर की और उसी दिन आप पूर्णिया में एक मीटिंग करने चले आए।

संपादकों का एक दौर वो भी था, जब साथी पत्रकार उनसे प्रेरणा लेते थे। जब हर मुश्किल घड़ी में पत्रकारों को ये लगता था कि संपादक महोदय का हाथ उनके सिर पर है। पता नहीं इस दौर में अपने इस आचरण के जरिए विनोद बंधु कौन सी मिसाल कायम करना चाहते हैं। संपादक महोदय आपने अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर पत्रकारिता की उस धारा को अपमानित किया है, जो सच्चाई, सादगी और ईमानदारी के साथ अब भी बह रही है। ये धारा इतनी पतली भी नहीं हुई कि वो आपको नजर न आए, लेकिन अगर आपने आंखों पर अपनी ठसक, अपनी कामयाबी (झूठी या सच्ची?) का काला चश्मा पहन रखा है तो फिर हम क्या कहें और किससे कहें? सच तो यही है कि ऐसी असंवेदनशीलता देख हमें तो शर्म आती है... आपकी आप जानें।

चंद्रकिशोर जायसवाल
साहित्यकार

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