मंगलवार, 10 जनवरी 2012
नैन नचैया- नाचते रहे नैन !
भारत रंग महोत्सव का दूसरा दिन। अभिमंच सभागार में नैन नचैया। मंच पर पात्रों के साथ ही नैन भी पूरे नाटक के दौरान नाचते ही रहते हैं। रंग विदूषक के नाटकों में जो खिलंदड़ापन होता है, वो इस नाटक में शुरू से अंत तक नजर आता है, पूरी ऊर्जा और रंगमच के तमाम तत्वों के साथ। चेहरे का मेकअप पहले की तुलना में थोड़ा हलका हुआ है, जिससे मंच पर मौजूद हर कलाकार अब पहचाना जा सकता है। उसकी भाव-भंगिमाएं, करतब और हरकतें कुछ और मुखर होकर सामने आती हैं।
नाटक का केंद्रीय पात्र है बेढंग प्रसाद जो बाबा घोटालू बन जाता है। नाटक में बेढंग की याद्दाश्त खो जाती है, लेकिन उसके व्यक्तित्व का मूल प्रेम और प्रेम करने की सतत प्रवृत्ति बरकरार रहती है। बाबा घोटालू का नाटक के अलग-अलग दृश्यों में अलग-अलग नारियों के साथ प्रेम काफी रोमांचक और मजेदार अनुभव से रूबरू कराता है। बाबा घोटालू की भूमिका में रंग विदूषक के वरिष्ठ कलाकार उदय शहाणे हमेशा की तरह दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करते हैं। उदय शहाणे के संवाद और उनके हास्य पंच इतने सटीक हैं, कि लोग हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते हैं।
राजा अटकलपुंजी तक बेढंग की पत्नी सेवनिया की फरियाद पहुंचती है और फिर राजा के आदेश से पूरे राज्य में सघन तलाशी अभियान शुरू होता है। सैनिकों की टुकड़ी जो नाटक को सूत्र में पिरोए रखती है, एक्रोबेटिक्स और लट्ठ के अलग-अलग प्रयोगों से अच्छा समा बांधती है। नाटक में फगुनिया की एंट्री के बाद नया ट्विस्ट आता है। फगुनिया पर बाबा घोटालू, राज्य के सेनापति और महाराजा के मुंहलग्गू हंसतु तीनों का दिल आ जाता है। इसके बाद तेजी से सारा घटनाक्रम बदलता है और बाबा घोटालू की याद्दाश्त वापस आ जाती है और वो सेवनिया के पास फिर पहुंच जाते हैं लेकिन फगुनिया को राजा खुद अपनी सेवा में सु्रक्षित रख लेता है।
कहानी सरल है और उसे पेश उससे भी ज्यादा सरल तरीके से किया गया है। आधुनिक संदर्भों में कुछ और मायनीखेज बनाते हुए। नाटक का निर्देशन-फरीद बज्मी का है, जो लंबे वक्त से रंग-विदूषक से जुड़े रहे हैं। फरीद बज्मी ने कलाकारों को समूह के बीच भी उनकी अलग पहचान देने की कोशिश की है। सैनिकों में कोई भूत से डरता रहता है तो एक सैनिक हमेशा अपनी शेखी बघारता रहता है। वहीं एक सैनिक बोल न पाने की वजह से सैनिकों के बीच ठिठोली का पात्र बना रहता है। हर्ष की महाराजा के तौर पर छोटी किंतु प्रभावी एंट्री है। वहीं अमित रिछारिया भी टुकड़ों-टुकड़ों में नाटक में अपनी मौजूदगी दर्ज करते रहते हैं। संगीत अंजना पुरी का है, जो काफी विविधता लिए हुए है। इसके साथ ही सुरेन्द्र वानखेड़े भी वाद्य यंत्रों के जरिए नाटक को गति देने का काम बखूबी कर गए हैं। रंगविदूषक के लिए सबसे अच्छी बात ये है कि नए कलाकारों की एक टीम फिर बन गई है, जो काफी उम्मीदें जगाती है।
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1 टिप्पणी:
आभार जानकारी देती समीक्षा का
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