मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

'सुन्नर नैका'-तटबंधों को तोड़ती एक प्रेम कथा

सुन्नर नैका। कोसी मइया की धाराओं और उसके प्रवाह की तरह कई तरह की अनिश्चितताओं और आवेग के साथ आगे बढ़ती कथा है। कोसी मइया को लेकर प्रचलित लोक कथाओं की तरह ही सुन्नर नैका की इस कथा में एक नारी की भावनाएं हैं, एक नारी का उद्वेलन है, उसकी तड़प है, उसका गुस्सा है, विद्रोह है और नारी का वो विनाशकारी रूप भी है, जो अपने पर आ जाए तो न तो अपने अस्तित्व की चिंता करती है और न ही उनकी जो हमेशा उन्हें कुछ 'तटबंधों' में बांधने की कोशिश करते हैं।

उपन्यास सुन्नर नैका 'महा-महानगर' दिल्ली के एक ड्राइंग रूम में शुरू होता है लेकिन ये कोसी के कछार में ऐसा रमता है कि उपन्यास के अंत तक ये खयाल ही नहीं रह जाता कि सुरपति राय नाम का कोई शख्स इस उपन्यास में कथावाचक की भूमिका में है और उसकी दो पोतियां अच्छे श्रोता की तरह कहानी में पूरा रच-बस गई हैं।

उपन्यास 14 खंडो में बंटा है और हर खंड कथा को कुछ और गति देता हुआ बड़ी तेजी से किस्सागोई के क्रम को आगे बढ़ाता है। सुरपति राय का 'भसियाना' क्या होता है, इससे पाठक उपन्यास के पहले पेज पर ही रूबरू हो जाते हैं। विश्वंभर, सुरपति राय का भतीजा, अनजाने में ही वो तार छेड़ देता है- जिससे दंता राकस की याद ताजा हो जाती है - "तुम जो कुरसी पर बैठे मुंडा, मरांडी, कोड़ा और सोरेन नामधारी नेताओं को देखती हो, इससे यह भ्रम मत पालना कि वे राज कर रहे हैं। ये तो बस मोहरे हैं, जिन्हें वहां के उद्योगपतियों, कोल माफियाओं और ठेकेदारों ने सामने खड़ा कर रखा है ताकि परदे के पीछे अपनी लूट खसोट जारी रख सकें.... आम आदिवासी आज भी उतना ही गरीब है, उतना ही शोषित जितना राज्य बनने से पहले था, कई लोग तो इन्हें इनसान ही नहीं समझते हैं, पशु समझते हैं या फिर राक्षस...." बस सुरपति राय एक पुराना किस्सा लेकर बैठ जाते हैं। चार सौ साल पुराना किस्सा। राकस चार सौ साल पहले भी राकस था और आज भी राकस है, कैसे और किनकी नजरों में ये कथा में आगे खुलता है।

सुरपति राय की कहानी सुनने से पहले सुरपति के सर्जक से एक छोटी सी मुलाकात करते चलें। उस उपन्यास के लेखक हैं पुष्यमित्र। ये महज संयोग नहीं है कि कि कोसी की ये कथा जिनकी जुबान से निकली है, वो कोसी क्षेत्र के रहने वाले हैं और अपने इलाके से बाहर जाकर पढ़ाई की है। (कामाख्या का 'तंत्र-मंत्र' शायद पुराने जमाने में भी ऐसी ही कोई शिक्षा होता हो।) वो उपन्यास में ही एक जगह लिखते हैं- "काश उसे भी सुन्नैर और सुन्नर की तरह कामाख्या का कालू जादू आता और वे खुद को आधा रघ्घू रामायणी और आधा जेएनयू के किसी प्रोफेसर में बदल सकते ताकि सबकुछ कहना और समझाना आसान होता..." लेखक का ये 'काश' वाकई 'काश' ही रह गया है। वो काला जादू के जरिए रघ्घू रामायणी की आत्मा में तो प्रवेश कर गए हैं लेकिन जेएनयू का कोई प्रोफेसर उनकी आत्मा पर हावी नहीं हो पाया है। यही वजह है कि आधा-आधा का संतुलन जो कथावाचक या लेखक चाहता था, वो इस उपन्यास में नहीं बन पाया है, जो पाठकों के लिए मेरे लिहाज से सुकून की बात ही है। शुरूआती खंडों में दो-चार हिस्से ऐसे जरूर हैं, जो हमें मौजूदा काल-परिवेश से जोड़ते हैं लेकिन कथा आगे बढ़ने के साथ ही वो मूलत: भावना के धरातल पर ही पाठकों को जोड़ती भी है और झकझोरती भी है। रघ्घू रामायणी जेएनयू के किसी प्रोफेसर पर हावी रहता है।

'गीतक्कर-बतक्कर' अपने अंदाज में 'कुपित कोसी मैया' की कथा को रस ले-लेकर कहते हैं। जिंदगी में तमाम परेशानियों के बीच जिंदादिली का जो एहसास कोसी के लोगों में है, वही रस कथा में भी बनाए रखा है- 'जो रस सुन्नैर में है वो सुंदरी में कहां'। 'आठ-दस बैलगाड़ी चर्र-चोयं-चर्र चोयं करती किसी लंबे सफर के लिए चली जा रही थीं'। पोतियां 'गुमेगुम-चुपेचुप'। तीन साल के लिए अपने कलेजे के टुकड़ों- सुन्नर और सुन्नैर को कामाख्या भेजने का कठिन फैसला कमल नायक करते हैं- "वैसे तो कमल नायक नयी सोच का आदमी था, तंत्र-मंत्र पर कम ही भरोसा करता था। मगर इस समस्या ने उसके आत्मविश्वास को काफी कमजोर कर दिया था।"

तीन साल बाद जब दोनों भाई-बहन लौटते हैं तो 'परानपुर हवेली में उत्सव' मनता है। यहां लेखक ने सुन्नर की कद-काठी (सिक्स पैक एब्स) का वर्णन जिन उपमाओं में किया है, वो काफी भदेस है- "सुन्नर तो किबाड़ की चौखट जितना लंबा हो गया है, देह भरा गया है, बांह पर मछलियां उग गई हैं। मोंछ कड़-कड़, चलता है तो धरती कांपती है।" लेकिन उपन्यास में ही दूसरी जगह सुन्नर की देह-दशा का वर्णन करते वक्त लेखक पर जेएनयू वाले प्रोफेसर की छाप नजर आती है- "तभी पीतांबरी पहने सुन्नर नायक आंगन में घुसे। गोरा बदन, गठीला शरीर, पीछे कंधे तक लटक रहे घुंघराले बाल, बदन पर जनेऊ, पांव में खड़ाऊं।"

दादी का काजल लगाना और सुन्नर नायक का उस काजल को पोंछ देना, एक द्वंद्व है परंपरा और आधुनिकता का... जो पूरे उपन्यास में कई मौकों पर नजर आता है। जब तर्क की कसौटी पर दादी का 'काजल' खरा नहीं उतरता तो मां उसे दादी का 'स्नेह' कह सुन्नर को झिड़की लगा जाती हैं। कामाख्या में तीन साल का तंत्र-मंत्र वाकई तंत्र-मंत्र है या शिक्षा-दीक्षा?

राहत अली और कैलाश खेर से मुकाबला करते लक्षमन गवैया की एंट्री। "गजब हुनर दिया है, उस गवैया को भगवान ने। बिरहा गाता है तो महफिल सिसकारी पारने लगती है और मदमाता है तो लोग पगला जाते हैं, उठ-उठकर नाचने लगते हैं।" लक्षमन गवैया को लेकर तरह-तरह के किस्से और फिर उसके द्वारा गीतों के साथ कोसी मइया की लोक कथा का वर्णन उपन्यास का सशक्त पक्ष है। कोसी मइया की इस कहानी में कई ऐसे सूत्र मिलते हैं, जो आगे चलकर सुन्नैर की कहानी में और स्पष्ट होकर सामने आते हैं। कोसी का अपने ससुराल में विद्रोह, ससुराल से भागने पर मायकेवालों का मौन और इन सबके बीच विनाश की पूरी कथा। क्या ये कोसी की उन बेटियों की कहानी नहीं जो विवाह के बाद प्रताड़ना झेलने को विवश हो जाती हैं, और उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती? हां, कोई 'दुलारीदाय' जरूर उम्मीद का एक दीपक जलाती है और अपनी बहन का दर्द साझा करने सामने आती है। कोसी जब अपनी जिंदगी में पीछे मुड़कर देखती है तो क्या पाती है- "सचमुच गांव का गांव असमसान बन गया, हजारों हजार आदमी के प्राण पखेरू उड़ गए। जो बचा उनके पास न घर था और न खाने-पीने का इंतजाम। उनको तो वैसे भी भूख-प्यास से पटपटाकर मरना था। सिसकारी और क्रंदन से आसमान कांप रहा था।" सिसकारी के साथ क्रंदन शब्द का इस्तेमाल भाषा के मूल प्रवाह में थोड़ा अड़चन डालता है लेकिन नारी मन अपनी बात कह जाता है-"जे अपने बंस के अभागन बेटी के पुकार पर खिड़की नै खोललकै से मैरियै गेलै त कोन दुख। धरती के भार घटलै।"

लेखक की स्मृतियों का 'डेविड धवन' लोककथाओं की अतार्किकता को समझाने के लिए इस्तेमाल होता है। "वैसे भी कथा-कहानियों की गुणवत्ता उसके तार्किक होने में थोड़े ही है, कई बार अतार्किक कहानियां लोगों को ज्यादा पसंद आती हैं, क्योंकि उसमें वो कहीं नहीं होते और कथा का संदेश या मर्म उन्हें या उनके अहं को चोट नहीं पहुंचाता।" 'पहाड़ों से आया परदेसी' खंड में उपन्यासकार इस कथन के जरिए पाठकों को 'फैंटेसी' की दुनिया में कुछ और विचरण के लिए तैयार कर लेता है। पुरनिया के दैता तालाब का जिक्र करते-करते वो कहता है- 'भोपाल का बड़ा तालाब भी कहते हैं किसी दैत्य या जिन्न ने ही खोदा था'। बात कोसी क्षेत्र की हो रही है और अचानक से भोपाल का बड़ा तालाब लेखक की अपनी स्मृतियों से कथा में उतर आया है। (लेखक ने एक लंबा समय भोपाल में भी गुजारा है)

'सपनों का देवपुत्र' खंड से सुन्नर नैका कथा के केंद्र में आ जाती है। उसका रूप, लावण्य, सौंदर्य और इन सबके साथ नायक से पहला परचिय। मुलाकात की पहली जगह-तालाब और स्थिति- भींगी-भींगी नायिका। डेविड धवन के साथ ही राजकपूर की यादें भी ताजा हो जाएं तो कोई अचरज नहीं। "पल भर को ये भी नहीं सोचा कि जिसे वह इस तरह देख रही है, वह भला क्या देख रहा है। छाती से जांघ तक के शरीर को सूती के अधोवस्त्र से ढकी एक युवती। .... पानी से भीगा अधोवस्त्र जितना छुपा रहा है, उससे अधिक इशारे कर रहा है। स्तन की गोलाइयां, बदन का कटाव, नितंब का आकार कुछ भी तो नहीं छुपाया जा रहा है।"

तालाब किनारे देवपुत्र से इस एक मुलाकात से नवयौवना सुन्नैर की कल्पना और भावना को पंख लग जाते हैं। भावनाओं का ऐसा आवेग जिसे वो रोक नहीं पाती और कामाख्या से सीखे गुन से पल भर में कलगी बनकर देवपुत्र के घोड़े के सिर में जा फंसती है। कलगी को चुंबन के जरिए देवपुत्र सुन्नैर के यौवन का 'उद्घाटन' कर देता है। ये कौन हैं- धरमपुर से शिवचंद्र ठाकुर के पुत्र और आनंद ठाकुर के भतीजे राघव ठाकुर। आनंद ठाकुर यानी छोटका मौसा का भतीजा। राघव और सुन्नैन के बीच प्रेम का अंकुरण काफी नाटकीय किंतु रोचक। यहां भी नारी की आधुनिक चेतना की एक झलक- "आपको कैसे मालूम है मेरा अपना घर कहां है ? अभी तो यह मुझे भी नहीं मालूम।" बातें प्रेम की और पीड़ा एक लड़की के पूरे जीवन की।

एक तरफ गांव के पानी की समस्या और दूसरी तरफ राघव और सुन्नैर के बीच की प्रेम कथा। नारी मन का द्वंद्व शुरू हो जाता है। सुन्नैर राघव के प्रेम में खिंची धरमपुर पहुंच तो जाती है लेकिन उसका जी बहुत जल्द ही 'पहली नजर के बचकाने प्रेम' से भर जाता है। "वह परानपुर के कुंडों की खुदाई की बातें करना चाहती थी, जबकि राघव आने वाले दिनों की, विवाह और अपने परिवार की योजना बनाना चाहता था। वह न राघव को मना कर पाती और न ही अपने मन को इन चीजों के लिए तैयार कर पाती।" इस मानसिक खींचतान के बीच ही राघव का सुन्नैर को रात के दूसरे पहर अपने कमरे में लेकर जाना। उसके साथ अंतरंग होने की कोशिश और सुन्नैर की बगावत।

उपन्यास में मौसी के बहाने गांवों की महिलाओं का एक और रूप नजर आता है। वो महिलाएं जो भोली दिखती है, उनका अपना अरजा हुआ 'ज्ञान' एक दो पंक्तियों में ही जिंदगी का निचोड़ रख देता है- "इतनी परेशान क्यों हो, मर्द की जात ऐसी ही होती है... आज यही न कमाल किया कि अपना कौमार्य बचा लिया। अब यह सोचो इसे बचाया भी तो किसके लिए एक मर्द के लिए ही न। जो पहली रात को इस गर्व से भर उठेगा कि मैंने ही इस औरत को पहली बार भोगा।" मौसी एक सांस में नारी की जिंदगी के कमशकश और अनुभव को सुन्नैर के सामने कड़वे किंतु सपाट अंदाज में बयां कर देती है-"औरतों का जीवन आदर्शों से नहीं चलता है। बल्कि हर कदम पर उसे समझौते करने पड़ते हैं। इसलिए कहती हूं, नीति और आदर्श के चक्कर में पड़ने से बेहतर समझौता करने और समझौते में अपने लिए अधिक से अधिक हासिल करने का हुनर सीखो।" इस एक रात ने सुन्नैर को और बड़ा बना दिया और वो हर बात से असंबद्ध हो गई।

इसके बाद का घटनाक्रम बड़ी तेजी से आगे बढ़ता है। सुन्नैर के गांववाले कोयले वाले पहाड़ से दंता राकस को कुंड खोदने के लिए बुला लेते हैं। 'कोयले वाले पहाड़' पर भी हिरनी रानी की बेबसी और लाचारगी नजर आती है। हिरनी के मना करने के बावजूद दंता सुन्नर नायक के साथ परानपुर चला आता है और 'मानुष छोकरी मोहनियां' के फेर में पड़ जाता है।

उपन्यास में एक बार फिर सुन्नैर की स्वाभाविक चुहलता से दंता के साथ सहज प्रेम पनपने लगता है। सुन्नैर चींटी बनकर दंता के कमरे में घुस जाती है। सोमाय को बज्र वाली नींद में सुला देती है। दंता की आवाज छीन लेती है। ये कामाख्या का मंतर हो न हो लेकिन प्रेम में तो ऐसा ही होता है। मानुष छोकरी मोहनिया के मंतर के बाद कहां बोली फूटती है। वैसे में तो बस दो ही रास्ते बचते हैं- वहां से भाग निकलो या उसे स्वीकार कर लो। दंता राकस ने वापसी की जिद पकड़ी तो सुन्नर ने टोना करने वाली का पता लगा लिया और फिर सुन्नैर को ही उसे मनाने का आखिरी मौका भी मिला।

अब गांववालों के स्वार्थ का एक और अध्याय शुरू होता है। पानी के लिए महिला की सौदेबाजी होती है। अब सुन्नैर 'परानपुर की बेटी' बन जाती है, क्योंकि वो गांववालों के हित के लिए पांच रातों के नाच गाने के लिए तैयार हो जाती है। दंता को प्रेम के बज्जर बांध में बांधने के हुनर पर भाई की रजामंदी की मुहर लग जाती है। गांववाले इस काम के लिए सुन्नैर की जयजयकार करते हैं। "दंता राकस तो चाहता है कि सुन्नैर नाचे, मगर दंता राकस के हाथों से उसे बचाने वाले पहरेदार और तीरंदाज भी कहां चाहते हैं कि सुन्नैर नहीं नाचे। इस बड़े परिवार और कुल खानदान में कोई क्यों नहीं चाहता कि सुन्नैर नहीं नाचेगी... जैसे सुन्नैर का जन्म नाचने और राकसों को मोहने के लिए ही हुआ है। "

उधर, राकस कुल में भी हिरनी रानी के साथ एक छल होता है। मर्द अपनी बात मनवा लेते हैं और दंता राकस नई बहू लाने दल बल के साथ परानपुर के लिए निकल पड़ता है। "जो इन तालाबों की खुदाई की कहानी जानना चाहता है, या तो बीमार पड़ जाता है या असमय काल कवलित हो जाता है। ऐसा लगता है कि ये कहानियां इसलिए फैलाई जाती होंगी क्योंकि इनके पीछे न सिर्फ दंता राकस बल्कि सुन्नैर नायिका और हिरन्नी रानी की दुखभरी कहानियां छुपी रहती हैं। कोई समाज इन कहानियों को सामने आने नहीं देना चाहता।"

अलग-थलग पड़ी सुन्नैर का एक ही साथी बचता है उसका आईना। "मगर जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, उसके समझ में आता गया कि इस सुंदरता की तारीफ का नशा महज छलावा है। यह नशा उसके जीवन को अंदर से खोखला बनाता जा रहा है। इस सुंदरता ने उसके जीवन की सहजता छीन ली है और उस पर एक असहजता थोप दी है। उसके सारे मित्र छीन लिए और उसे अकेलेपन का उपहार सौंप दिया।" आईना उपन्यास में एक और संवेदनशील हिस्सा है और नारी के अंतर्मन को समझने का एक और जरिया। एक सुंदर स्त्री आईने के सामने घंटों बैठे क्या सोचती है, क्या बातें करती हैं, ये उपन्यास में सरलता से कह दिया गया है। "शराब के नशे में धुत्त एक हजार एक राकसों के अश्लील इशारे-फिकरे, भेदती आंखें, किलकारियां, छूने और बाहों में भर लेने की कोशिशें। उसे हर चीज के बारे में अभी इसी वक्त सोच लेना और उसका कष्ट इसी कमरे में झेल लेना होगा, ताकि रात को जब यह सब होगा तब मुस्करा सके।" ये सब सोचते हुए सुन्नैर की शख्सियत कैसे दो-फाड़ हो चुकी है- ये लेखक ने बड़ी संजीदगी से बयां किया है- "उसकी एक आंख से एक इकलौता आंसू बह निकला, दूसरी आंख सूखी थी क्योंकि वह नैन मटक्का की तरकीब सीखने में व्यस्त थी।"

सुनैर की 'छम्म-छम्म' और राकसों की 'खच्च-खच्च' के सुर में तालाब की खुदाई शुरू हो गई। एक-दो-तीन तालाब खुद गए। सुन्नैर का द्वंद्व बढ़ता गया। वो इस फरेब को और जारी नहीं रखना चाहती। दंता और सुन्नैर के बीच संवाद। रिश्तों की सच्चाई। सुन्नैर दंता के सामने सारा सच उगल देना चाहती है। दंता उस सच को समझते हुए भी उससे अनजान रहना चाहता है। दोनों के दिल और मन एक दूसरे के हो चुके हैं। दंता- "अब मैं भी तुमको जान गया हूं। तुम्हारे साथ बुरा नहीं कर सकता। तुम मेरे घर में खुश नहीं रहोगी। जानता हूं। रोज सोचता हूं। जिस घर में तुम्हारा ब्याह होगा, उसके यहां नौकरी कर लूंगा।.... क्योंकि अब एक दिन भी तुमको नहीं देखा तो..." आंसू पोंछती सुन्नैर के पास भागने के अलावा चारा ही क्या था?

आईने के साथ एक और संवाद। वर के रूप में कौन अच्छा- राघव या दंता। सुन्नर और सुन्नैर में बहस। क्या बनेगी सुन्नैर- धरमपुर के महल की रानी या नौकरानी, या फिर दंता राकस की पटरानी? "बीस गोटेदार साड़ियां और दस भरी सोने के गहने, क्या यही है एक औरत की पूरी जिंदगी की कीमत।"

राघव के मन का द्वंद्व-"खूबसूरत लड़कियां निहारने और मौका मिले तो भोग लेने के लिए होती हैं। मगर शादी के लिए कभी नहीं। वे ऐसे खंडहर की तरह होती हैं जहां सिर्फ भूत बस सकते हैं। उनका कोई दोस्त नहीं होता और ता उम्र उन्हें यही लगता है कि उन्हें और बेहतर जीवन साथी मिल सकता था। यानी उनका कोई भी चयन अंतिम नहीं होता है।" मजाक की ये बातें आज सच साबित हो रही हैं और सुन्नैर ता उम्र राघव को तनाव देते हुए जिएगी। इस तरह के निष्कर्ष पर पात्र का पहुंचना, उस पुरुषवादी सोच का प्रतिबिंब ही है, जहां पुरुष स्त्री को उसके सौंदर्य के खांचे से बाहर नहीं देख पाता। "अब तमाम उम्र सुन्नैर की गुलामी और खुशामद में बीतने वाले हैं। बदले में सुन्नैर से वह सिर्फ एक ही चीज मांगेगा, वह इस राज को राज ही रहने दे कि वह उसे पसंद नहीं करती।"

हिरनी का दर्द- "नबकी माय आयेगी तो तुम्हारा बाप तो भूल ही जायेगा। चांदी के कटोरे में दूध-भात खाकर तुम भी मेरे पास नहीं आओगे?.... जरूर आ जाना बेटा, हमको भी अकेले सोने में डर लगेगा... " सारे पात्रों की व्यथा और पीड़ा आवेग के साथ व्यक्त होने लगती है।

काफी सोच-विचारकर सुन्नैर जो फैसला करती है वो उपन्यास को निर्णायक मोड़ पर पहुंचा देता है। 'पांचवां दिन और पांचवीं रात' में फटाफट कामाख्या का काला जादू चलता है और सबकुछ गड्डमड्ड हो जाता है। पाठक की कल्पना से कहीं तेजी से उपन्यास अंत की ओर बढ़ जाता है।

सुन्नैर और राघव की लाश तालाब में तैर रही है। हिरनी चांदी के कटोरे में बेटे को दूध पिला रही है।

लोग सुन्नर नायक का नाम बड़े उत्साह से लेते हैं, उसी के प्रताप से परानपुर में हरियाली लौटी। कुंड खोदने के लिए कुर्बानी देने वाली सुन्नैर और अपनी जान झोंकने वाले दंता राकस का लोक स्मृतियों से लोप हो जाता है। नारी के विद्रोह के बाद एक बार फिर असमसान सा विनाश और सन्नाटा पसर जाता है।

पुष्यमित्र का ये उपन्यास नारी चेतना का प्रतिबिम्बन करने के साथ ही पुरुष मन की सड़ांध और समाज के सामंती सोच को करीने से बेनकाब करता है, लेकिन किसी को आहत नहीं करता, बल्कि पुरुष मन को भी सहलाता हुआ अपनी बात कहता है। लेखक ने नारी मन के साथ पुरुष के मनोभावों का एक संतुलन बनाने की कोशिश की है लेकिन सुन्नर नैका की सुंदरता को लेकर राघव जिन निष्कर्षों पर पहुंचता है, उसका कोई तार्किक आधार उपन्यास में नहीं बनता। मजाक में कही गई ऐसी बातें उपन्यास में क्यों कर आ गई हैं, ये लेखक को खुद ही सोचना और समझना होगा। बहरहाल, कोसी और सुन्नैर की कथा का ये 'रसभरा' उपन्यास आधुनिक युग के 'राकसों' के ठहरे हुए पानी में 'कंकड़' मारकर हलचल जरूर पैदा करेगा, ऐसा लगता है।

पशुपति शर्मा
(ये समीक्षा संपूर्ण उपन्यास के साथ संविदया के जनवरी-मार्च 2012 के अंक में प्रकाशित है।)

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

aapki samiksha padh kar pustak padhne ka mann hua aur aap logon ke liye achcha bhi laga.............



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neelu ने कहा…

aapki samiksha padh kar pustak padhne ka mann hua aur aap logon ke liye achcha bhi laga.............



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