वो लड़की
जो जानती नहीं थी
मेरा नाम तक
क्या अब भी
इंतज़ार करती खड़ी होगी
अपनी छत पर !
उसकी गली में
एक कमरा था ,
जिसे छोड़े महीनों हुए !
हर जगह
इस तरह अपने को
कितनी- कितनी बार
अधूरा ही छोड़ आए हैं हम !
यह शहर वह शहर है
जहाँ खाने और
कमाने के बीच जीना
लोगों की आदत है ,
ठिकाने बदलना एक
जरूरत ...
या मजबूरी !
जहाँ चाँद
रेड लाइट के ठीक
उपर है
और रात अभी
बाकी है
वहां ऐसे किसी
रिश्ते को निबाहना
सचमुच, बड़ा मुश्किल है।
(ये कविता शिरीष खरे की है जो इन दिनों मुंबई में हैं। )
शुक्रवार, 26 दिसंबर 2008
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1 टिप्पणी:
अगर आप अब भी छत पर खड़े होकर इंतज़ार करते होंगे, तो कोई आपका इंतज़ार ज़रूर करता होगा। आप तो बड़े ब्लॉगिये निकले, जनाब.. गुडलक
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