एक मजदूर
३० दिन तक करता जी-तोड़ मिहनत
कि महीने के आख़िर में
मिलेंगे कुछ पैसे
जिससे खरीदेगा
वो घर का राशन
जिससे खरीदेगा
वो बच्चों के कपड़े
जिससे खरीदेगा
वो माँ-बाप की दवाई
जिससे चुकाएगा
वो मकान का किराया
जिससे चुकायेगा
वो थोड़ा सा पुराना कर्ज
जिससे चुकायेगा
वो दोस्तों का हाथ-पैंचा ।
लेकिन
हवेलियों में रहने वाले
लम्बी गाड़ियों में घूमने वाले
मस्ती में चूर मालिकों को
ये 30 दिन भी पड़ते हैं कम
उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं कि
इसके बाद का हर दिन
मजदूर के लिए
एक सदी से कम नहीं होता
वो तिल - तिल मरता है
हर पल अपनी मजूरी के इंतज़ार में।
टूट जाता है उसका सपना
जो वो खरीदा करता है
महीने की आख़िरी रात
हाथ में कुछ पैसे
और आँखों में प्यारी नींद लिए
अपनी पत्नी के साथ
लेटे हुए अपने बिस्तर पर।
(-ये कविता २२ दिसम्बर २००८ की सुबह लिखी गयी। )
रविवार, 21 दिसंबर 2008
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4 टिप्पणियां:
yun na todo sapne---kavi ki apni dard to isme hai hi---lakin ye dard sab ki ho gayi lagti hai. jaise 'drohkal' film kisi ek jagah ki bat nahin karti. ye pure aatankwad ki kahani kahti hai. tum na todo sapne, aise hi sab ke sapne hain.--- good...........
भावनाओं का सटीक अभिव्यक्तिकरण,
सभी की भावनाओं और पीड़ा को समझा है आपने।
धन्यवाद......
MAHINE KI AKHIRI RAT
HANTH ME KUCHH PAISE
ANKHON ME NIND LIYE
APNI PATNI KE SATH...
APNE AAM ADAMI KI SACHCHI TASVIR PESH KAR DI HAI..DHANYABAD
और कमाल तो ये है कि मज़दूर से इतना सब छीन लेने के बाद भी ये नए किस्म ज़मींदार ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो..... जैसे मज़दूरी मांगकर आप ही अपराध कर रहे हों..... पशुपति भाई मुझे कभी समझ नहीं आया कि शोषण का ये सदियों पुराना हथियार कैसे भोथरा नहीं होता...
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