"छापक पेड़ त पतवल गहबर हो। तारि ढाढि़ हरिनिया हरिना बाट जोहत हो। ,यानी पलाश के पेड़ के नीचे हिरनी अपने हिरन की राह देख रही है। हिरन ने अपनी हिरनी से पूछा- क्या तुम्हारा चरहा सूख गया या पानी के बिना तुम्हारा चेहरा मुरझा गया है। हिरनी बोली- न मेरा चरहा सूखा न पानी के बिन मेरा चेहरा मुरझाया। आज राजा जी छट्ठी है वे तुम्हें मार डालेंगे।। कौशल्या रानी मचिया पर बैठी थीं। उनसे हिरनी ने प्रार्थना की. रानी मांस तो रसोई में पक रहा है, हमें खाल दे दो। मैं पेड़ से खाल लटका लूंगी और खाल देख-देखकर मन को समझा लूंगी कि मेरा हिरन अभी जीवित है। रानी बोली-हिरनी तू अपने घर जा। हिरन की खाल से मैं अपने राम के लिए खंजड़ी मढ़वाऊंगी तो मेरे राम उससे खेलेंगे।"
एक मशहूर पत्रकार और बौद्धिक(मुद्राराक्षस) ने इस लोककथा और सौहर के सहारे राम को खंडित करने का प्रयास किया है। विचार के केन्द्र में बीजेपी और राम हैं लेकिन आत्मा लेख की यह है कि राम महल वालों के देवता हैं । यानी बूर्जुआ। उन्हें दलितों, गरीबों से कोई मतलब नहीं था। उन्होंने लिखा है-'काश भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद के लोग यह समझ पाते कि यह दर्द किसका है और क्यों कर है तो निश्चय़ ही इस देश के करोड़ों लोगों की तकलीफ में वे सीधे हिस्सेदारी करते। वे यह भी समझते कि राम के प्रति पेरियार के क्षोभ की वजह क्या हो सकती है।' बड़ा दिलचस्प विचार है। लेखक के मुताबिक पिछड़ों, जनजातियों और दलितों में राम तुच्छ हैं। अवध क्षेत्र में बच्चे की छट्ठी पर गाए जाने वाले इस सौहर के सहारे उन्होंने राम के पूरे व्यक्तित्व को ही खंडित कर दिया। सबसे पहली बात तो यह कि अवध के किस क्षेत्र में यह सौहर गाया जाता है उसका पता नहीं। लेकिन उन्होंने गजब के आत्मविश्वास के साथ पूरे अवध की महिलाओं के मन की बात जान ली। ये भी समझ गए कि राम सिर्फ उच्च जातियों के देवता है, आदर्श हैं।
चलिए ये मान भी लिया कि सौहर में घोर दुख झलकता है। लेकिन इस सौहर और लोककथा का राम से क्या? उनकी माता ने हिरनी से कहा कि हिरन की खाल से खंजड़ी मढ़वाकर वो राम को देंगी, राम उससे खेलेंगे। चूंकि राम की माता को हिरनी का दर्द नजर नहीं आया इसलिए लेखक के मुताबिक राम भी बेदर्द हो गए। क्या यह बताना भी जरूरी है राम इसलिए राम नहीं थे कि कौशल्या उनकी माता थीं और दशरथ उनके पिता। चारों भाइयों में राम विशिष्ट थे और पूर्ण थे इसलिए वो महामानव हुए। उनकी विमाता कैकयी ने राम के लिए वनवास मांगा तो राम ने क्या किया ये कहने और स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि केवट, शबरी और अहिल्या के लिए उन्होंने क्या किया था।राम के मन में पिछड़ों के लिए कोई दर्द नहीं था इसीलिए जब वो केवट से विदाई ले रहे थे तो उन्होंने कहा- तुम मम प्रिय भरत हि सम भ्राता। क्या राम का दोष इसलिए था कि वो राजा के महल में पैदा हुए। बुद्ध बनने से पहले उनके पिता शुद्धोदन ने उन्हें तमाम राजसी प्रवृतियों की ओर धकेलने की कोशिश की तो क्या उनके पिता की ख्वाहिशों के लिए उन्हें कुसूरवार ठहरा दिय़ा जाए। बुद्ध का अपना अलग और महान व्यक्तित्व था।
सबसे बड़ी बात ये है कि इन लोकगीतों के गाये जाने का इतिहास क्या है और आज के समय अर्थ क्या है, इसका पता लगाना बेहद मुश्किल है। अगर राम के प्रति अवध की महिलाओं में इतना ही विकार है तो अपने बच्चे की छट्ठी पर वो इस दर्द भऱे सौहर को गाती क्यों हैं। इस सौहर का एक अर्थ तो ये भी हो सकता है कि तमाम माताएं ऐसी ही खंजड़ी अपने बच्चों के लिए मढ़वाना चाहती हों।राम के प्रति घृणा का सौहर इतने अच्छे मौके पर गाये जाने का कोई औचित्य नहीं दिखता।बचपन से आज तक जिस समाज में रहते आए हैं उसी समाज में राम के प्रति अगाध आस्था देखी है। उस समाज में गरीब. दलित, पिछड़े सभी शुमार हैं। बल्कि उनके मन में राम के प्रति अनंत आस्था देखी है। श्रद्धा की वो गहराई देखी है जो अगड़ों में नहीं नजर आती । पिछड़े तबके की औरतों को सैकड़ों बार राम के गीत गाते देखा और सुना है।
दरअसल इस दृष्टांत से सिर्फ यही समझ में आता है कि इन दिनों राम को जबरन उच्चवर्गीय समाज तक सीमित करने की घिनौनी कोशिश की जा रही है। किसी न किसी बहाने राम को हेठा साबित करने का फैशन सा चल पड़ा है। जब राम सेतु का मुद्दा छिड़ा, तब भी एक खास वर्ग ने राम सेतु को तुरंत नष्ट करने की वकालत की थी क्योंकि अत्यंत वैज्ञानिक विचारों से लैस इन बौद्धिकों के लिए राम तो काल्पनिक पात्र हैं। उनका कोई इतिहास नहीं मिलता। लेकिन उन्हें कौन समझाए कि भारत की संस्कृति और जीवन शैली तो इन्ही काल्पनिक पात्रों और कथानकों के सहारे जीवन ग्रहण करती रही है। तमाम कमियों और वर्णव्यवस्था की खामियों के बावजूद इस देश का सौन्दर्य बचा हुआ है तो उसकी वजह आध्यात्मिकता है। हमारी संस्कृति का खंभा वही है। लॉर्ड मैकाले ने जब हिन्दुस्तान का दौरा किया तो उन्हें इस समाज को गुलाम बनाने में यहां का आध्यात्म सबसे बड़ा रोड़ा दिखा था। क्योंकि मैकाले ने महसूस कर लिया था कि लोग अंदरूनी तौर पर इसी आध्यात्म से शक्ति पाते हैं।
बहरहाल आगे राजनीति का जिक्र करते हुए मुद्राराक्षस ने लिखा कि भाजपा और कांग्रेस ने इस पूरे क्षेत्र में अपनी जड़े सुखा लीं क्योंकि वो उन तमाम हिरनियों का दर्द नहीं देख सकी और काशीराम के आंदोलन ने जड़े जमाईं। दो दशकों में ही वो इस पूरे क्षेत्र के नायक बन कर उभर गए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि कांशीराम का आंदोलन फैला और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ताकतवर बन कर उभऱी। लेकिन पिछले चुनाव की बात को दरकिनार कर दें तो क्या यह बताना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान राजनीति कितनी उथल पुथल भऱी रही है। मुलायम सिंह और मायावती ने सत्ता का सफर तय किया तो इसकी वजह लोगों में राम के प्रति नाराजगी या घृणा नहीं बल्कि सामाजिक, और जातीय समीकरण हैं। अभी मायावती ने सत्ता कैसे हासिल की यह भी सब जानते हैं। उन्हें बहुजन से सर्वजन का नारा देना पड़ा। और दिलचस्प बात ये भी है कि मायावती ऐसी तमाम हिरनियों का दर्द कितना महसूस करती रही हैं यह भी किसी से छिपा नहीं है। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने भी पीड़ितों का दर्द महसूस किया था लेकिन पंद्रह साल तक राज्य को चूसने के बाद जब जनता का मोहभंग हुआ तो पिछले चुनाव में उन्हें दर्द हो गया। वो भी पीड़ितों के मसीहा बन कर उभरे थे लेकिन जब पीड़ितों ने महसूस कर लिया कि उनकी पीड़ा से लालू प्रसाद का कोई सरोकार नहीं तो उन्होंने खुद को उनसे दूर कर लिया। सत्ता राम से नहीं बल्कि काम से चलती है। जब बीजेपी ने राम के बूते सत्ता हासिल की और फिर लंबी तान कर सो गई तो जनता उन्हें दोबारा क्यों मौका देती।
हैरान करने वाली बात ये भी है कि राम के खिलाफ आग उगलने वाले तमाम लोगों और संगठनों ने राम को बीजेपी का देवता बना दिया है। ऐसा लगता है जैसे राम की पहचान बीजेपी से है। अगर चंद सनकी हिंदू संगठन राम के नाम पर हंगामा करते हैं तो क्या इसमें राम का दोष है॥ उनकी छोटी सोच और उनके राष्ट्रवाद का सिद्धांत बेहद संकीर्ण है। अगर वो अपने मकसद के लिए राम के नाम का बेजा इस्तेमाल करते हैं तो इससे राम छोटे नहीं हो जाते। राम एक जीवनशैली हैं। एक आदर्श जीवनशैली। कमियां तो शायद उनके व्यक्तित्व में भी निकाली जा सकती हैं लेकिन राम के आदर्श इतने महान हैं कि कमियों की कोई जगह नहीं। वो हमारे दिल में इसलिए नहीं है कि कौशल्या उनकी माता थीं बल्कि इसलिए हैं कि उन्होंने माता, पिता, पत्नी, सखा, शत्रु के साथ आदर्श संबंध की मिसाल पेश की थी। वो महान इसलिए हैं कि उन्होंने खुद त्याग कर दूसरों को सुख देने में एक बार भी विचार नहीं किया था। उन्हें सिर्फ इसलिए खंडित करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिये कि वो महल में पैदा हुए। वो सदियों से करोड़ों दिलों में बसे हैं और आने वाली सदियों तक बसे रहेंगे। बेहतर यही है कि हमारा समाज उनके जीवन से कुछ सीखे। हम जिस हिंसक दौर में जी रहे हैं उसमें राम प्रासंगिक ही नहीं अनिवार्य भी हैं।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
( 205/2, कीर्ति अपार्टमेंटमयुर विहार फेज-1 नई दिल्ली-91 फोन-९८१८४४२६९०)
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
स्लमडॉग मिलयनेयर में किसकी जय
स्लमडॉग मिलियनेयर ने इतिहास रच दिया। गोलड्न गोल्ब, बाफ्टा और आखिरकार वो पुरस्कार मिल गया, जिसके इंतजार में भारतीय सिनेमा के कई दशक गुजर गए। सबसे बड़ी कामयाबी ये कि एक भारतीय संगीतकार को एक साथ दो-दो ऑस्कर मिल गए। विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा का डंका बज गया। एक झटके में ए आर रहमान इतिहास रच गए। भारतीय सिनेमा को कुछ ऐसा दे गए जिसे हासिल करने में अब तक बड़े-बड़े भारतीय दिग्गज नाकाम रहे थे। लेकिन इस कामयाबी को जरा ध्यान से परखने की जरूरत है। क्या वाकई स्लमडॉग मिलियनेयर ऐसी उम्दा फिल्म है कि कामयाबी इसके पांव चूमने लगी.. क्या इस फिल्म का संगीत इतना दमदार है कि वो भारतीय फिल्म संगीत के गौरवशाली इतिहास में मील का पत्थर साबित हो गया...
ए आर रहमान की काबिलियत पर कोई शक नही है। वो इस दौर के बेहतरीन संगीतकार हैं। उन्होंने वाकई अच्छी धुनें बनाई हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी को विश्व सिनेमा की बदलती तस्वीर और भारत सिनेमा के लगातार बढ़ते कद से जोड़ कर देखना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा की अपील वैश्विक हुई है। विदेशों में प्रोमोशन और बॉलीवुड के सितारों की बढ़ती लोकप्रियता ने पश्चिम के फिल्मकारों और प्रोड्यूसरों का ध्यान खींचा है। वो भारतीय पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाने की दिशा में गंभीरता से काम करने लगे हैं। कई फिल्में बनीं हैं, और बनने की प्रक्रिया में शामिल हैं। वार्नर ब्रदर्स से लेकर तमाम दूसरी प्रोडक्शन कंपनिया यहां पैसा लगाने में दिलचस्पी ले रही हैं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भारत एक बड़ा बाजार बन कर उभरा है। ये महज इत्तेफाक नहीं है कि स्लमडॉग मिलयनेयर अचानक कामयाब हो गई। इसकी कामयाबी को बाजार की बदलती तस्वीर और विश्व सिनेमा के धरातल पर भारत की मजबूत होती पकड़ के बीच देखना होगा । अचानक ऐसा क्या हुआ कि पश्चिमी फिल्मकारों और आलोचकों को सल्मडॉग मिलयनेयर में वो तमाम खूबियां दिख गईं जो अब तक नजर नहीं आई थी।
इस बात से भी इनकार करना लगभग नामुमकिन है कि अगर ये फिल्म पूरी तरह भारतीय होती तो ऑस्कर में ऐसी कल्पनातीत सफलता मिली होती। धारावी की झुग्गियों पर सुधीर मिश्रा नब्बे के दशक में ही एक अच्छी फिल्म बना चुके हैं लेकिन तब उसका नामलेवा भी कोई नहीं था। फिल्म को रिलीज करवाने में ही उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। कड़ी मशक्कत के बाद दो चार सिनेमाघरों में फिल्म रिलीज भी हुई तो एक सप्ताह में ही उतर गई। ऑस्कर में ले जाने की बात भी दूर थी। पिछले साल की ही बेहतरीन फिल्म तारे जमीं पर आस्कर में प्रवेश पाने में भी नाकाम रही। आखिर क्यों..वो फिल्म हर लिहाज से उम्दा फिल्म थी। तकनीकी तौर से भी फिल्म अच्छी बन पड़ी थी, फिल्म का संगीत उम्दा था, अभिनय, निर्देशन सब कुछ अच्छा था लेकिन पश्चिम के फिल्मकारों, आलोचकों ने इसे दरकिनार कर दिया। ऐसी ही फिल्मों की फेहरिस्त बड़ी है जो दमदार होने के बावजूद ऑस्कर में औधें मुंह गिरती रही हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर का सिक्का चल गया। यहां इस फिल्म को कमतर साबित करने की कोई मंशा नहीं है। लेकिन सवाल उठाना लाजिमी है कि डैनी बॉय़ल का इससे जुड़ा होना इसकी कामयाबी में किस हद तक मददगार है.. स्लमडॉग मिलयेनर एक अच्छी फिल्म है लेकिन अच्छा होना आस्कर में इसकी कामयाबी की वजह नहीं जान पड़ती। ये उस बाजार में फिल्म निर्माण की नई संभावनाओं की तलाश का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से फिल्मों के गोलबाइजेशन की प्रकिया शुरू होती है। यहां से पश्चिमी फिल्मकारों की दिलचस्पी शुरू होती है। उस बाजार पर कब्जा करने की कोशिश की ये पहली सीढ़ी है जहां कामयाबी की अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं।
जरा याद कीजिये 1990 का दशक। भारतीय हुस्नपरियों की कामयाबी का दौर था वो दशक। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्य राय.. लारा दत्ता, डायना हेडन, प्रियंका चोपड़ा, युक्ता मुखी और न जाने कितनी ही सुंदरियां मिस वर्ल्ड और मिस युनिवर्स बन गईं। जैसे पिछले दशक में अचानक भारतीय सुंदरियों के नैन नक्श पश्चिम के सौन्दर्य उपासकों को लुभाने लगे थे। उसी तरह स्लमडॉग में उन्हें अपनी फिल्मों का सुनहरा भविष्य दिखने लगा है। उपभोक्तावाद की फैलती बेल के बीच भारत अब एक बड़े चट्टान की तरह दिखने लगा है, जिस पर बाजार के विस्तार की अपार संभावनाएं है। भारत का विकट सामाजिक समीकरण, रंगीन सांस्कृतिक मिज़ाज पश्चिम के फिल्मकारों को अचानक लुभाने लगा है। क्योंकि वे जानते हैं कि सिनेमा की भाषा बदलने लगी है। अंग्रेजीदां लोगों का एक विशाल तबका हिन्दुस्तान में मौजूद है जो उनकी जरूरतों को बखूबी पूरा कर सकता है।
स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत अच्छा है बेहतरीन नहीं। ए आर रहमान ने इससे कहीं बेहतर धुनें पहले तैयार की हैं। और अगर भारतीय फिल्म संगीत की धारा पर नजर डालें तो स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत कहां ठहरता है। शंकर जयकिशन, मदनमोहन, सलिल चौधुरी, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र नौशाद, गुलाम मोहम्मद, पंचम जैसे दिग्गज संगीतकारों की कालजय़ी धुनें आज भी जुबां पर चढ़ी हुई हैं लेकिन वो ऑस्कर से महरूम रह गईं। हालांकि ऑस्कर में उन्हें ले जाने की इतनी जद्दोजहद भी पहले कभी नहीं की गई। और अगर भारतीय फिल्में वहां गई भी तो हश्र हमेशा बुरा ही हुआ।
स्लमडॉग के परिप्रेक्ष्य में भारतीय फिल्म जगत की व्यग्रता और मीडिया का उन्मादी स्वर भी ध्यान देने के लायक है। ऐसा लगा जैसे हमारी कला तो बस ऑस्कर की मोहताज है। अगर ऑस्कर नहीं मिला तो हम नाकाम। हमारे फिल्मकार हेठे और उनकी कला कच्ची। हैरान करने वाली बात ये भी है कि बॉलावुड का भी एक बड़ा तबका ऑस्कर के लिए तरस रहा था। वो इस अंदाज में बातें कर रहा था जैसे उन्हें अपनी क्षमता पर कोई भरोसा ही न हो। हालांकि एक तबका ऐसा भी था जो दबी जुबां में ही सही लेकिन ये कह जरूर रहा था कि ऑस्कर हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र नहीं है। आखिर हम क्यों ऑस्कर के मोहताज हैं..। जैसे महान फिल्मकार फेलिनी, गोदार और सत्यजीत रे की महानता ऑस्कर की दास नहीं थी उसी तरह आज के दौर की बेहतर फिल्मों को ऑस्कर का मोहताज नहीं होना चाहिये। विश्व सिनेमा में अपनी पहचान बनाना अच्छी बात है लेकिन उस पहचान के लिए अपनी निजता का अर्पण कर देना ठीक नहीं है। जब भी स्लमडॉग की कामयाबी और संगीत पर चर्चा छिड़ी, इस तबके ने तमाम विरोधी स्वरों को कुंठित करार दे दिया। ये कह कर उन्हें खामोश कर दिया कि वो इस कामयाबी को पचा नहीं पा रहे।
स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी भारतीय सिनेमा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। कामयाबी का जश्न मनाना भी वाजिब है। आखिरकार ये एक भारतीय संगीतकार और टेकनीशयन की स्वर्णिम सफलता का वक्त है। ये मुमकिन है कि स्लमडॉग के बाद भारतीय सिनेमा की पैकेजिंग ऑस्कर में बेहतर हो जाय। भारतीय सिनेमा को शायद एक बेहतर प्लैटफॉर्म भी मिल जाए। लेकिन सवाल ये है किक्या ये वक्त के साथ लगातार तरक्की कर रहे भारतीय फिल्म उद्योग में घुसपैठ कर अपनी संभावनाओँ का बाजार विकसित करने की पश्चिमी सोच नहीं है।जय़ हो.. कहने से पहले ये विचार करना होगा कि स्लमडॉग से किसकी जय हो रही है। क्या ये वाकई रहमान की महानता औऱ भारतीय कला की जय है या पश्चिमी फिल्मकारों की सोची समझी रणनीति की जय जय।
देवांशु कुमार
(न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत हैं देवांशु कुमार)
ए आर रहमान की काबिलियत पर कोई शक नही है। वो इस दौर के बेहतरीन संगीतकार हैं। उन्होंने वाकई अच्छी धुनें बनाई हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी को विश्व सिनेमा की बदलती तस्वीर और भारत सिनेमा के लगातार बढ़ते कद से जोड़ कर देखना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा की अपील वैश्विक हुई है। विदेशों में प्रोमोशन और बॉलीवुड के सितारों की बढ़ती लोकप्रियता ने पश्चिम के फिल्मकारों और प्रोड्यूसरों का ध्यान खींचा है। वो भारतीय पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाने की दिशा में गंभीरता से काम करने लगे हैं। कई फिल्में बनीं हैं, और बनने की प्रक्रिया में शामिल हैं। वार्नर ब्रदर्स से लेकर तमाम दूसरी प्रोडक्शन कंपनिया यहां पैसा लगाने में दिलचस्पी ले रही हैं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भारत एक बड़ा बाजार बन कर उभरा है। ये महज इत्तेफाक नहीं है कि स्लमडॉग मिलयनेयर अचानक कामयाब हो गई। इसकी कामयाबी को बाजार की बदलती तस्वीर और विश्व सिनेमा के धरातल पर भारत की मजबूत होती पकड़ के बीच देखना होगा । अचानक ऐसा क्या हुआ कि पश्चिमी फिल्मकारों और आलोचकों को सल्मडॉग मिलयनेयर में वो तमाम खूबियां दिख गईं जो अब तक नजर नहीं आई थी।
इस बात से भी इनकार करना लगभग नामुमकिन है कि अगर ये फिल्म पूरी तरह भारतीय होती तो ऑस्कर में ऐसी कल्पनातीत सफलता मिली होती। धारावी की झुग्गियों पर सुधीर मिश्रा नब्बे के दशक में ही एक अच्छी फिल्म बना चुके हैं लेकिन तब उसका नामलेवा भी कोई नहीं था। फिल्म को रिलीज करवाने में ही उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। कड़ी मशक्कत के बाद दो चार सिनेमाघरों में फिल्म रिलीज भी हुई तो एक सप्ताह में ही उतर गई। ऑस्कर में ले जाने की बात भी दूर थी। पिछले साल की ही बेहतरीन फिल्म तारे जमीं पर आस्कर में प्रवेश पाने में भी नाकाम रही। आखिर क्यों..वो फिल्म हर लिहाज से उम्दा फिल्म थी। तकनीकी तौर से भी फिल्म अच्छी बन पड़ी थी, फिल्म का संगीत उम्दा था, अभिनय, निर्देशन सब कुछ अच्छा था लेकिन पश्चिम के फिल्मकारों, आलोचकों ने इसे दरकिनार कर दिया। ऐसी ही फिल्मों की फेहरिस्त बड़ी है जो दमदार होने के बावजूद ऑस्कर में औधें मुंह गिरती रही हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर का सिक्का चल गया। यहां इस फिल्म को कमतर साबित करने की कोई मंशा नहीं है। लेकिन सवाल उठाना लाजिमी है कि डैनी बॉय़ल का इससे जुड़ा होना इसकी कामयाबी में किस हद तक मददगार है.. स्लमडॉग मिलयेनर एक अच्छी फिल्म है लेकिन अच्छा होना आस्कर में इसकी कामयाबी की वजह नहीं जान पड़ती। ये उस बाजार में फिल्म निर्माण की नई संभावनाओं की तलाश का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से फिल्मों के गोलबाइजेशन की प्रकिया शुरू होती है। यहां से पश्चिमी फिल्मकारों की दिलचस्पी शुरू होती है। उस बाजार पर कब्जा करने की कोशिश की ये पहली सीढ़ी है जहां कामयाबी की अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं।
जरा याद कीजिये 1990 का दशक। भारतीय हुस्नपरियों की कामयाबी का दौर था वो दशक। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्य राय.. लारा दत्ता, डायना हेडन, प्रियंका चोपड़ा, युक्ता मुखी और न जाने कितनी ही सुंदरियां मिस वर्ल्ड और मिस युनिवर्स बन गईं। जैसे पिछले दशक में अचानक भारतीय सुंदरियों के नैन नक्श पश्चिम के सौन्दर्य उपासकों को लुभाने लगे थे। उसी तरह स्लमडॉग में उन्हें अपनी फिल्मों का सुनहरा भविष्य दिखने लगा है। उपभोक्तावाद की फैलती बेल के बीच भारत अब एक बड़े चट्टान की तरह दिखने लगा है, जिस पर बाजार के विस्तार की अपार संभावनाएं है। भारत का विकट सामाजिक समीकरण, रंगीन सांस्कृतिक मिज़ाज पश्चिम के फिल्मकारों को अचानक लुभाने लगा है। क्योंकि वे जानते हैं कि सिनेमा की भाषा बदलने लगी है। अंग्रेजीदां लोगों का एक विशाल तबका हिन्दुस्तान में मौजूद है जो उनकी जरूरतों को बखूबी पूरा कर सकता है।
स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत अच्छा है बेहतरीन नहीं। ए आर रहमान ने इससे कहीं बेहतर धुनें पहले तैयार की हैं। और अगर भारतीय फिल्म संगीत की धारा पर नजर डालें तो स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत कहां ठहरता है। शंकर जयकिशन, मदनमोहन, सलिल चौधुरी, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र नौशाद, गुलाम मोहम्मद, पंचम जैसे दिग्गज संगीतकारों की कालजय़ी धुनें आज भी जुबां पर चढ़ी हुई हैं लेकिन वो ऑस्कर से महरूम रह गईं। हालांकि ऑस्कर में उन्हें ले जाने की इतनी जद्दोजहद भी पहले कभी नहीं की गई। और अगर भारतीय फिल्में वहां गई भी तो हश्र हमेशा बुरा ही हुआ।
स्लमडॉग के परिप्रेक्ष्य में भारतीय फिल्म जगत की व्यग्रता और मीडिया का उन्मादी स्वर भी ध्यान देने के लायक है। ऐसा लगा जैसे हमारी कला तो बस ऑस्कर की मोहताज है। अगर ऑस्कर नहीं मिला तो हम नाकाम। हमारे फिल्मकार हेठे और उनकी कला कच्ची। हैरान करने वाली बात ये भी है कि बॉलावुड का भी एक बड़ा तबका ऑस्कर के लिए तरस रहा था। वो इस अंदाज में बातें कर रहा था जैसे उन्हें अपनी क्षमता पर कोई भरोसा ही न हो। हालांकि एक तबका ऐसा भी था जो दबी जुबां में ही सही लेकिन ये कह जरूर रहा था कि ऑस्कर हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र नहीं है। आखिर हम क्यों ऑस्कर के मोहताज हैं..। जैसे महान फिल्मकार फेलिनी, गोदार और सत्यजीत रे की महानता ऑस्कर की दास नहीं थी उसी तरह आज के दौर की बेहतर फिल्मों को ऑस्कर का मोहताज नहीं होना चाहिये। विश्व सिनेमा में अपनी पहचान बनाना अच्छी बात है लेकिन उस पहचान के लिए अपनी निजता का अर्पण कर देना ठीक नहीं है। जब भी स्लमडॉग की कामयाबी और संगीत पर चर्चा छिड़ी, इस तबके ने तमाम विरोधी स्वरों को कुंठित करार दे दिया। ये कह कर उन्हें खामोश कर दिया कि वो इस कामयाबी को पचा नहीं पा रहे।
स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी भारतीय सिनेमा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। कामयाबी का जश्न मनाना भी वाजिब है। आखिरकार ये एक भारतीय संगीतकार और टेकनीशयन की स्वर्णिम सफलता का वक्त है। ये मुमकिन है कि स्लमडॉग के बाद भारतीय सिनेमा की पैकेजिंग ऑस्कर में बेहतर हो जाय। भारतीय सिनेमा को शायद एक बेहतर प्लैटफॉर्म भी मिल जाए। लेकिन सवाल ये है किक्या ये वक्त के साथ लगातार तरक्की कर रहे भारतीय फिल्म उद्योग में घुसपैठ कर अपनी संभावनाओँ का बाजार विकसित करने की पश्चिमी सोच नहीं है।जय़ हो.. कहने से पहले ये विचार करना होगा कि स्लमडॉग से किसकी जय हो रही है। क्या ये वाकई रहमान की महानता औऱ भारतीय कला की जय है या पश्चिमी फिल्मकारों की सोची समझी रणनीति की जय जय।
देवांशु कुमार
(न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत हैं देवांशु कुमार)
शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009
VOE- वॉइस ऑफ इम्पलॉइ-1
वॉइस ऑफ इंडिया में प्रबंधन की मनमानी जारी है। कई कर्मचारियों को नौकरी से जबरन निकाल दिया गया है। प्रबंधन की अपनी स्टाइल है और उस स्टाइल के तहत लोगों से इस्तीफा मांगा जा रहा है। इसमें काफी कुछ आपत्तिजनक है, लेकिन फिर भी सब कुछ बर्दाश्त किया जा रहा है।
प्रबंधन से अपील बस इतनी है कि वो कम से कम एक तार्किक तरीके से पेश आए।
- पहली अपील तो ये कि जिन लोगों को आप नौकरी से निकाल रहे हैं, उनका फौरन हिसाब करें। उन्हें फुल एंड फायनल का चेक फौरन सौंपा जाए।
- आखिर जिस शख्स की नौकरी जा रही है, वो क्यों एक, दो या चार महीने तक इंतजार करे? वो इंतजार भी कर सकता है लेकिन आप ऐसी शर्त कैसे किसी पर थोप सकते हैं?
- आपके संस्थान के माहौल से तंग आकर जो लोग नौकरी छोड़ गए हैं उनका फुल एंड फाइनल करने में आखिर इतनी देर क्यों की जा रही है?
- सुनने में आया है कि कुछ पत्रकार साथियों को वीओआई ऑफिस में घुसने से रोक दिया गया है। ये निहायत आपत्तिजनक है, इसका विरोध किया जाना चाहिए।
- हम जहां हैं वहीं से ऐसे तालिबानी रवैये का विरोध कर सकते हैं।
पत्रकार साथी जो हमेशा दूसरों के हितों की लड़ाई लड़ने का दंभ भरते हैं ऐसे मौकों पर क्यों गम खा जाते हैं?
ये लड़ाई किसी एक साथी की नहीं हम सभी की है.... कम से कम हम उन साथियों को अपना नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं जो वीओआई प्रबंधन की मनमानी का शिकार हो रहे हैं।
प्रबंधन से अपील बस इतनी है कि वो कम से कम एक तार्किक तरीके से पेश आए।
- पहली अपील तो ये कि जिन लोगों को आप नौकरी से निकाल रहे हैं, उनका फौरन हिसाब करें। उन्हें फुल एंड फायनल का चेक फौरन सौंपा जाए।
- आखिर जिस शख्स की नौकरी जा रही है, वो क्यों एक, दो या चार महीने तक इंतजार करे? वो इंतजार भी कर सकता है लेकिन आप ऐसी शर्त कैसे किसी पर थोप सकते हैं?
- आपके संस्थान के माहौल से तंग आकर जो लोग नौकरी छोड़ गए हैं उनका फुल एंड फाइनल करने में आखिर इतनी देर क्यों की जा रही है?
- सुनने में आया है कि कुछ पत्रकार साथियों को वीओआई ऑफिस में घुसने से रोक दिया गया है। ये निहायत आपत्तिजनक है, इसका विरोध किया जाना चाहिए।
- हम जहां हैं वहीं से ऐसे तालिबानी रवैये का विरोध कर सकते हैं।
पत्रकार साथी जो हमेशा दूसरों के हितों की लड़ाई लड़ने का दंभ भरते हैं ऐसे मौकों पर क्यों गम खा जाते हैं?
ये लड़ाई किसी एक साथी की नहीं हम सभी की है.... कम से कम हम उन साथियों को अपना नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं जो वीओआई प्रबंधन की मनमानी का शिकार हो रहे हैं।
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