वह वहीं थी
पर किसी की नजर उस पर नहीं थी।
कई सारी परछाइयों के बीचोंबीच
एक परछाई सी थी वह।
यह बहुत पहले की बात है
इतनी कि तब दिन की रौशनी नहीं थी।
इतनी कि तब किसी रंग के लिबास में
लिपटी नहीं थी वह।
एक रोज़ सूरज को तो निकलना ही था
उसके निकलते ही पहाड़ों से जा टकराई और
दुनिया के पहले चित्र सी बन गई वह।
उसका शरीर कुदरत का हिस्सा था
जो कई सारे रिक्त स्थानों से भरा था
फिर पता नहीं किसने हांड मांस से भर दिया उसको
उसकी आँखों को किसने आकार दे दिया।
किसने होठ खीच दिए।
किसने गोल माथे को देखकर बिंदी चिपका दी।
फिर माला, सिन्दूर और देखते ही देखते
जिसको जो लगा वो वो
उसके अंगों पर चिपकाता गया।
इन सबके बीच
क्या कोई ऐसा भी था जिसने उसकी आँखों में
उसकी ख़ुशी, उसके सपने, उसकी ख्वाहिश देखी थी ?
जिसने उससे कहा हो कि
अगर यह चीजें तुम्हे भारी लगती हो तो
उतार क्यों नहीं फेंकती
उड़ क्यों नहीं जाना चाहती
जहां चाहे इस जहान में....
तब से अब से
या कब कब से
कितनी कितनी औरतें
सिर्फ इतना भर सुनने के लिए खड़ी रही हैं ?
- शिरीष खरे
Shirish KhareC/0- Child Rights and You189/A, Anand EstateSane Guruji Marg(Near Chinchpokli Station)Mumbai-400011
शनिवार, 26 दिसंबर 2009
शुक्रवार, 27 नवंबर 2009
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं
नायकों का हमेशा सम्मान होता है और देश के आत्माभिमान के लिए यह जरूरी भी है। लेकिन जब नायक आलोचना से परे हो जाते हैं या यूं कहा जाए कि आलोचना से परे कर दिये जाते हैं, तब उनकी अभ्यर्थना होने लगती है। वे नायक से महानायक और महानायक से अवतार हो जाते हैं। जैसे ही कोई नायक अवतार का दर्जा पाता है । देश अंधभक्ति में डूब जाता है। उसकी शख्सियत का कमजोर पहलू भी वंदना और अभिनंदन के शोर में अनसुना रह जाता है। वह महानतम हो जाता है, जैसा कि अभी सचिन तेंदुलकर के साथ हो रहा है। वे अब हमारे लिए महानतम हैं। हमारे देश ने उन्हें क्रिकेट का भगवान बना दिया है। उनकी छोटी सी आलोचना से हम तिलमिला जाते हैं। पिछले बीस वर्षों से वे क्रिकेट खेल रहे हैं। फिलहाल जिस मुकाम पर खड़े हैं वहां से उनके लिए हर रोज एक नयी मंजिल का रास्ता खुलता हैं। उनके बनाए रनों से कीर्तिमानों का एक शिखऱ सा खड़ा होता जा रहा है। लेकिन य़ह जरूरी नहीं कि जिसने कीर्तिमानों का पहाड़ खड़ा किया, वही महानतम है। उन्हें महानतम कहने से पहले क्रिकेट के इतिहास की सूक्ष्म पड़ताल जरूरी है। मौजूदा समय के शोर में दब चुके इतिहास के महानायकों से सचिन की भिड़ंत करानी होगी। तेंदुलकर को डब्ल्यूजी ग्रेस, सर डॉन ब्रैडमेन, सर गारफील्ड सोबर्स, एवॉटन वीक्स, वॉरेल, वॉलकॉट, वॉली हैमंड,ग्रीम पोलक, सर लेन हटन, सुनील गावस्कर, विवियन रिचर्ड्स और ब्रायन लारा के बरक्स देखना होगा। इस कड़ी में कई और नाम जोड़े जा सकते हैं। लेकिन ऐसा करना जरूरी नहीं है। तेंदुलकर उस दौर में क्रिकेट खेलने आए जब सुनील गावस्कर एक बेजोड़ करियर को अलविदा कह चुके थे। 1989 में पाकिस्तान के दौरे से उनके अंतरराष्ट्रीय करियर की शुरुआत हुई । शुरुआत धमाकेदार थी। सोलह वर्ष की उम्र में एक सुनहरे भविष्य की चमक साफ नजर आ रही थीं। सचिन बढ़ते चले गए। इंग्लैंड में टेस्ट क्रिकेट का पहला शतक लगाया। फिर शतकों का सिलसिला सा चल पड़ा जो अब तक जारी है और जब वे विदा होंगे तो शायद रनों की अभेद्य दीवार खड़ी होगी। लेकिन बल्लेबाज सिर्फ इसलिए महानतम नहीं होता कि उसने अपने जीवन में सबसे ज्यादा शतक लगाए या सबसे ज्यादा रन बनाए। सर डॉन ब्रैडमेन इसके अपवाद हैं। उनका बल्ला तो शायद मैदान पर गेंदबाजों को रौंदने के लिए ही बना था। बावन टेस्ट मैचों में उन्होंने जिस रफ्तार से और जिस अंदाज से रन बनाए वो इतिहास है। बल्लेबाजी के हर पैमाने को वे तोड़ते चले गए और नये पैमाने बनाते गए। सबसे बड़ी बात यह कि उनसे जब भी टीम ने उम्मीद की, वे उस उम्मीद से कहीं ज्यादा देकर गए। वे आज भी क्रिकेट की दुनिया के अपराजेय़ योद्धा हैं । सचिन ने भी अपनी जिन्दगी में बड़ी पारियां खेलीं हैं। अब तक तैतालीस शतक लगा चुके हैं लेकिन कोई तिहरा शतक नहीं लगाया है। उनका सर्वश्रेष्ठ दो सौ अड़तालीस बाग्लांदेश के खिलाफ है और फिर दो सौ बयालीस ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ। उन्होंने इतने लंबे करियर में सिर्फ चार डबल सेंचुरी लगाई है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि सचिन किसी भी एक श्रृखंला में दो से ज्यादा शतक नहीं लगा सके और पांच सौ रनों का आंकड़ा तक नहीं छू सके। (यह बात हैरान करती हैं)। जब भी महान बल्लेबाजों की बात छिड़ती है तो ऐसे बल्लेबाजों की लंबी चौड़ी सूची तैयार हो जाती हैं जिन्होंने अपने बल्ले की धमक से कई श्रृंखलाओं में सामने खड़ी टीम पर राज किया है । ब्रैडमेन के अलावा सोबर्स,ग्रीम पोलक, लेन हटन, रिचर्ड्स,गावस्कर लारा, कई नाम ऐसे हैं जिन्होंने अपनी बेहतरीन पारियों से सामने वाली टीम को पानी पिलाया है। और पूरी श्रृंखला में रनों का दरिया बहा दिया है। 1976 में विवियन रिचर्ड्स ने इंग्लैंड के खिलाफ चार मैचों में एक सौ अठारह के औसत से आठ सौ उनत्तीस रन बनाए। जिसमें तीन शतक शामिल हैं। उनका सर्वश्रेष्ठ स्कोर दो सौ इक्य़ानवे था। वेस्टइंडीज के ही थ्री ड्बल्यूज के नाम से मशहूर बल्लेबाज़ों में से एक वॉलकॉट ने 1954-55 में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ पांच मैचों में आठ सौ सत्ताइस रन बनाए,जिसमें पांच शतक भी शामिल थे । सोबर्स और लारा तो इस मामले में शहंशाह हैं। सोबर्स ने एक श्रृंखंला में एक बार आठ सौ से ज्यादा, दो बार सात सौ से ज्यादा, दो बार छह सौ से ज्यादा और दो बार-पांच सौ से ज्यादा रन बनाए हैं। जबकि लारा ने 1994-95 में इंग्लैंड के खिलाफ पांच मैचों की श्रृंखला में सात सौ अट्ठानवे रन बनाए जिसमें उनकी तीन सौ पचहत्तर रनों की महान पारी भी शामिल थी। कुला मिलाकर लारा ने एक श्रृंखला में दो बार सात सौ रनों का आंकड़ा पार किया है। दो बार सात सौ के करीब पहुंचे हैं और तीन बार पाच सौ रनों को पार किया है। इस मामले में गावस्कर सचिन से मीलों आगे हैं । गावस्कर दो बार सात सौ का आंकड़ा और कई बार एक ही सीरीज में पांच सौ से छह सौ रनों के पार जा चुके हैं । जबकि द्रविड़ दो बार छह सौ का आंकड़ा पार कर चुके हैं। जबकि सचिन का किसी एक श्रृंखला में अब तक का सर्वाधिक स्कोर चार सौ तिरानवे है। 2007-08 में आस्ट्रेलिया में उन्होंने दो शतकों के साथ ये रन बनाए थे। ऐसे भारतीय बल्लेबाजों की सूची भी बड़ी है जिन्होने अपने बल्ले के जोर से किसी खास श्रृंखला पर अपना झंडा लहराया है। ये तर्क भी जायज है कि सिर्फ एक सीरीज में रनों का अंबार लगा देना महानता का पैमाना नहीं है। लेकिन हर महान बल्लेबाज ने ऐसा किया है तो फिर पैमाना बनता है। दिलचस्प है कि सचिन अपने करियर में ऐसा कोई कारनामा करने से चूक गए हैं। सचिन को मास्टर ब्लास्टर का तमगा तो हासिल है लेकिन जरा सच पर गौर फऱमाइंये। टेस्ट क्रिकेट में एक दिन में सबसे बड़ा स्कोर करने वाले सौ खिलाड़िय़ों की सूची से सचिन गायब हैं। डॉन ब्रैडमैन ने एक ही दिन में तिहरा शतक लगा दिया था। इस सूची में ब्रैडमेन, लारा, रिचर्ड्स, वॉली हैमंड, सोबर्स जैसों की पारियां भरी पड़ी हैं। वीरेन्द्र सहवाग भी यहां अपनी जगह बना चुके हैं। हैरानी की बात ये है कि भारतीय बल्लेबाजों की सूची भी उन्हें जगह नहीं देती। एक दिन में सर्वाधिक रन की छह पारियों में चार वीरू के नाम हैं, एक द्रविड़ के नाम और एक पारी किसी और बल्ले से निकली है। वनडे का भी कुछ यही हाल है। सबसे तेज शतक लगाने वाले बल्लेबाजों में सचिन छब्बीसवें पायदान पर हैं। फिर सचिन मास्टर ब्लास्टर कैसे हुए? ये आकंड़े साबित करते हैं कि टेस्ट क्रिकेट में भले ही सचिन ने खूब शतक लगाए लेकिन गेंदबाज़ों पर वैसा दबदबा कभी कायम नहीं कर सके जैसा ऊपरोक्त बल्लेबाज़ों ने किया है। साथ ही महानता के हगामे में कुछ ऐसी बातें उनके खाते में जुड़ गई हैं जिन पर उनका हक नहीं है। सचिन ने क्रिकेट के दोनों ही फॉरेमैट में रनों का पहाड़ खड़ा कर दिया है। लेकिन उनके जीवन में ऐसे बेशुमार मौके आए जब वे उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे। जब भी देश ने सचिन में एक उत्तरदायी बल्लेबाज की छवि देखनी चाही, वे धड़ाम से गिरे । और भारत के करोड़ों क्रिकेट दीवानों के चेहरे पर नाकामी का तमाचा पड़ा। सचिन ने कई मौकों पर देश को जीत का रास्ता दिखाया या इज्जत बचाई लेकिन इतने लंबे करियर में ऐसे मौके बहुत कम आए। वे रन बनाते गए। टीम को सम्मानजनक स्कोर तक भी ले गए। ऐसा कभी कभार ही हुआ, जब उन्होंने अपने बूते मैदान पर उतरकर फतह दिलाई। शारजाह की दो पारियां और बीस साल के के सफऱ में उनकी गिनी चुनी पारिय़ां अपवाद हैं। जब माइक आर्थर्टन ने हाल में ये कहा कि सचिन को महानतम कहना ठीक नहीं तो तमाम न्यूज चैनल बौखला गए। उन्होंने इतिहास के कुछ पन्नों को पलट कर सचिन की क्षमता का आकलन किया था और ये पूछा था कि जब बॉडीलाइन सीरीज हुई या जब लोग बिना हेलमेट के बल्लेबाजी करते थे, तब सचिन होते तो उनका प्रदर्शन कैसा होता। वैसे इस तर्क में कोई दम नहीं है कि ऐसा होता तो क्या होता। लेकिन यह सवाल दिलचस्प जरूर है । जब हम उन्हें महानतम कहते हैं तो इतिहास में हमें झांकना होगा। क्रिकेट के मुश्किल दौर के ताप में सचिन को जलना होगा। एक ऐसी अग्निपरीक्षा के सवालों से जूझना होगा जिनका सामना उन्होंने किया ही नहीं। जब आर्थर्टन ऐसा कह रहे हैं तो इस सच से पर्दा उठाना भी जरूरी है कि सचिन ने अपने जीवन में क्रिकेट के महानतम गेंदबाज़ों को नहीं खेला। यहां तेज गेंदबाजों का जिक्र हो रहा है। शेन वार्न उसके अपवाद हैं। सचिन का उदय हुआ तो वेस्ट इंडीज के खौफनाक गेदबाजों का करियर अस्त हो चुका था। होल्डिंग, क्राफ्ट, गार्नर, एंडी रॉबर्ट्स और मार्शल का उन्होंने अपने जीवन में कभी सामना नहीं किया। वसीम अकरम और वकार को उनके उफान पर नहीं झेला क्योंकि 1989 की श्रृंखला के बाद 1999 तक भारत-पाक के बीच कोई टेस्ट सीरीज नहीं खेली गई। इसके बावजूद टेस्ट क्रिकेट में पाकिस्तान के खिलाफ उनका औसत महज पैंतीस का है।ऑस्ट्रेलिया के डेनिस लिली, ज्यॉफ थॉमसन की छाय़ा भी उनके बल्ले पर नहीं पड़ी। रिचर्ड हेडली, बॉथम, इमरान को उनके ढलान पर खेला। हालांकि उन्होंने डोनाल्ड, मैक्ग्रा ब्रेट ली और शोएब अख्तर को झेला लेकिन गिनी चुनी पारियों को छोड़कर कभी उन पर दबदबा कायम नहीं कर सके । (जिस तरह से गावस्कर ने वेस्टइंडीज के महानतम गेंदबाजों पर किया था)। सबसे बड़ी बात यह कि इनमें से मैक्ग्रा और शायद ली को छोड़कर शोएब और डोनाल्ड उस कोटि के गेंदबाज हैं ही नहीं जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। आर्थर्टन का तर्क भी कुछ इसी लाइन पर था। यह कोई साजिश नहीं कि विस्डन ने लंबे समय तक इतिहास की सौ महानतम पारियों में सचिन की किसी टेस्ट पारी को शुमार नहीं किया था। जबकि इस लिस्ट में ब्रैडमेन, सोबर्स, वॉली हैमंड, सर लेन हटन गावस्कर, लारा, रिचर्ड्स समेत तमाम लोगों की कई पारियां शामिल हैं। अगर ये पक्षपात या ज्यादती थी तब भी इतने लंबे करियर में उनकी पांच पारियां तो ऐसी होनी ही चाहिये थी जिनकी चमक के आगे विस्डन की सूची बनाने वालों की आखें चुंधिया जातीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सचिन ने टेस्ट क्रिकेट में बेशुमार रन बनाए। पर मैदान पर विपक्ष को उस तरह से ध्वस्त नहीं कर सके, जिस तरह से ब्रैडमेन,सोबर्स, लारा, वॉली हैमंड, जैसे बल्लेबाजों ने कई मर्तबा किया। उन्होंने अपने जीवन में ऐसी गिनी चुनी टेस्ट पारियां खेली हैं जिसमें शुरू से आखिर तक उनके बल्ले ने आग उगली। उन्होंने आक्रामक शॉट्स भी खेले तो बहुत संभल कर। उन्होंने हमेशा अपनी पारी को सलीके से गढ़ने की कोशिश की। उन पारियों में झंझा का वेग नहीं था और शायद झरने का प्रवाह भी नहीं। टेस्ट की कई पारिय़ों में उन्होंने आक्रामक होने की कोशिश की तो उन्हें पवेलियन लौटना पड़ा। रनों के अंबार के साथ उनके क्रिकेट करियर का एक पक्ष इतना चमकीला है कि दूसरे महान बल्लेबाज़ों की आभा फीकी पड़ने का भ्रम होने लगा है। बेशक वे रनों और शतकों के शिखर पर हैं। उनकी बल्लेबाजी में निरंतरता भी है लेकिन एक बहुत बड़ा खालीपन हैं जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। सचिन रिकॉर्ड की सबसे ऊंची चोटी पर जरूर खड़े हैं, सबसे दुर्गम चोटी पर कतई नहीं। यहां उनकी प्रतिभा पर शक नहीं किया जा रहा। इतने महान करियर को गढ़ने वाला बल्लेबाज जाहिर तौर पर असाधारण होगा लेकिन उन्हें महानतम कहना जरा जल्दबाजी है । य़ह उन बल्लेबाज़ों के साथ ज्यादती भी है जिन्होंने कभी अपने बल्ले से क्रिकेट के मैदान पर राज किया है। हम सचिन की मुक्त कंठ से तारीफ करें लेकिन उन्हें भगवान न बनाएं तो बेहतर क्योंकि क्योकि क्रिकेट के इस तथाकथित भगवान की वंदना अब कर्कश शोर में तब्दील हो गई हैं।
देवांशु कुमार झा
फोन-9818442690
प्रोड्यूर-न्यूज 24
देवांशु कुमार झा
फोन-9818442690
प्रोड्यूर-न्यूज 24
रविवार, 22 नवंबर 2009
मिल गया शंभुजी का मोबाइल
आप लोगों को एक अच्छी खबर। पुलिस पर मीडिया के दबाव का असर हुआ। शंभुजी का मोबाइल मिल गया है। पुलिसवालों ने उस शख्स का पता भी लगा लिया है, जिसने शंभुजी के साथ लूटपाट की। अब कोर्ट से कानूनी कार्रवाई के बाद शंभुजी अपना मोबाइल वापस ले सकते हैं। आपको याद ही होगा कि न्यूज २४ के प्रोड्यूसर शंभुजी के साथ हाल ही में कुछ गुंडों ने कैब में लूटपाट की थी। बहरहाल, गनीमत है कि पुलिस ने उन बदमाशों को ढूंढ निकाला।
रविवार, 15 नवंबर 2009
क्या कोई इस स्टोरी को फॉलो करेगा ?
(अपने साथी शंभु झा के साथ कैब में मारपीट हुई, लूट हुई। एक पत्रकार खबर बना और फिर बात आई गई हो गई। आदतन यहां भी कोई फॉलोअप नहीं है और शायद होगा भी नहीं। हर शख्स की तरह शंभु झा भी अकेले ही कभी कभार थाने का चक्कर लगा पाए तो लगाएंगे, वरना बात गुम हो जाएगी। हो सका या इस पर कोई कार्रवाई हुई तो आपको सूचना दूंगा। लेकिन तब तक देबांशु झा ने जो पैकेज लिखा था, उसे कुछ कांटछांट के साथ आपके साथ शेयर कर रहा हूं। घटना हम सभी के रिकॉर्ड के लिए भी और उस हकीकत से रूबरू होते रहने के लिए भी, जो मीडिया में रहते हुए हमें कचोटती है, कचोटनी चाहिए।)
न्यूज 24 में बतौर प्रोड्यूसर काम करने वाले शंभु झा १२ नवंबर की रात के साढ़े दस बजे डीएनडी फ्लाईवे पर घर जाने के लिए कैब का इतजार कर रहे थे। तभी उनके पास नीले रंग की एक मारुति कार आकर रुकी। शंभु कैब समझ कर उस कार में सवार हो गए। ये शंभु की सबसे बड़ी गलती साबित हुई, क्योंकि उन्हें मालूम नहीं था, जिस कार में वो बैठे हैं, उसकी स्टेयरिंग लुटेरे के हाथों में हैं।
कार में सवार लोग शंभु को जबरन एक्सप्रेस वे की ओर ले गए। कनपटी पर पिस्तौल सटा दी। और चुप रहने को कहा, जब भी शंभु कुछ कहना चाहते, पीछे बैठा शख्स उनके चेहरे पर पिस्तौल की बट से वार करता। गाड़ी में सवार गुंडे शंभु को देर तक घुमाते रहे। गालीगलौज करते रहे, पीटते रहे। उनके पैसे, मोबाइल छीन लिये। अंगूठी उतार ली। और एक्सप्रेस वे की सुनसान सड़क पर चलती गाड़ी से जबरन उतर जाने को कहा।
ये कहानी उस दिन की है, जब मायावती मेट्रो को हरी झंडी दिखाने नोएडा आई थीं। दिन के उजाले में जब मेट्रो के उदघाटन के लिए सूबे की सीएम मायावती यहां आई थी तब पुलिस की चौकसी थी। चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात थी। क्या मजाल कि परिंदा भी पर मार जाए। मायावती के जाते ही पुलिस अपने मांद में घुस गई। नोएडा शहर एक बार फिर अपनी रफ्तार पर लौट आया। रात के अंधेरा, सर्दी का मौसम और रिमझिम बारिश में भला सड़क पर चलने वालों की सुरक्षा से यूपी पुलिस को क्या लेना देना। नोएडा की कानून व्यवस्था पर गुंडे चढ़ बैठे और एक पत्रकार को लिफ्ट देने के बहाने लूटा, बुरी तरह से मारपीट की। बल्कि न्यूज 24 का ये पत्रकार खुशकिस्मत था कि गुंडों ने उसकी जान बख्श दी। वर्ना एक्सप्रेस वे की इस बेवा सड़क पर शंभु के साथ कुछ भी हो सकता था।
हम यूपी पुलिस से पूछना चाहते हैं कि आखिर क्या वजह है दिल्ली की चौहद्दी पार होते ही कानून व्यवस्था भगवान भरोसे हो जाती है। जिस शहर को यूपी की सीएम सिंगापुर बनाने का ख्वाब देखती है, वहां गुंडे, लुटेरे, बेलगाम क्यों घूमते हैं। इस चमकते शहर की काली हकीकत यही है कि यहां कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है। दिन के किसी भी पहर में यहां य़हां कोई लुट सकता है, किसी का कत्ल हो सकता है किसी का अपहरण हो सकता है और आप पुलिस से सिर्फ रिपोर्ट लिखने भर की उम्मीद कर सकते हैं।
(रिपोर्टर-जीतेन्द्र शर्मा, कॉपी- देवांशु झा)
न्यूज 24 में बतौर प्रोड्यूसर काम करने वाले शंभु झा १२ नवंबर की रात के साढ़े दस बजे डीएनडी फ्लाईवे पर घर जाने के लिए कैब का इतजार कर रहे थे। तभी उनके पास नीले रंग की एक मारुति कार आकर रुकी। शंभु कैब समझ कर उस कार में सवार हो गए। ये शंभु की सबसे बड़ी गलती साबित हुई, क्योंकि उन्हें मालूम नहीं था, जिस कार में वो बैठे हैं, उसकी स्टेयरिंग लुटेरे के हाथों में हैं।
कार में सवार लोग शंभु को जबरन एक्सप्रेस वे की ओर ले गए। कनपटी पर पिस्तौल सटा दी। और चुप रहने को कहा, जब भी शंभु कुछ कहना चाहते, पीछे बैठा शख्स उनके चेहरे पर पिस्तौल की बट से वार करता। गाड़ी में सवार गुंडे शंभु को देर तक घुमाते रहे। गालीगलौज करते रहे, पीटते रहे। उनके पैसे, मोबाइल छीन लिये। अंगूठी उतार ली। और एक्सप्रेस वे की सुनसान सड़क पर चलती गाड़ी से जबरन उतर जाने को कहा।
ये कहानी उस दिन की है, जब मायावती मेट्रो को हरी झंडी दिखाने नोएडा आई थीं। दिन के उजाले में जब मेट्रो के उदघाटन के लिए सूबे की सीएम मायावती यहां आई थी तब पुलिस की चौकसी थी। चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात थी। क्या मजाल कि परिंदा भी पर मार जाए। मायावती के जाते ही पुलिस अपने मांद में घुस गई। नोएडा शहर एक बार फिर अपनी रफ्तार पर लौट आया। रात के अंधेरा, सर्दी का मौसम और रिमझिम बारिश में भला सड़क पर चलने वालों की सुरक्षा से यूपी पुलिस को क्या लेना देना। नोएडा की कानून व्यवस्था पर गुंडे चढ़ बैठे और एक पत्रकार को लिफ्ट देने के बहाने लूटा, बुरी तरह से मारपीट की। बल्कि न्यूज 24 का ये पत्रकार खुशकिस्मत था कि गुंडों ने उसकी जान बख्श दी। वर्ना एक्सप्रेस वे की इस बेवा सड़क पर शंभु के साथ कुछ भी हो सकता था।
हम यूपी पुलिस से पूछना चाहते हैं कि आखिर क्या वजह है दिल्ली की चौहद्दी पार होते ही कानून व्यवस्था भगवान भरोसे हो जाती है। जिस शहर को यूपी की सीएम सिंगापुर बनाने का ख्वाब देखती है, वहां गुंडे, लुटेरे, बेलगाम क्यों घूमते हैं। इस चमकते शहर की काली हकीकत यही है कि यहां कानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है। दिन के किसी भी पहर में यहां य़हां कोई लुट सकता है, किसी का कत्ल हो सकता है किसी का अपहरण हो सकता है और आप पुलिस से सिर्फ रिपोर्ट लिखने भर की उम्मीद कर सकते हैं।
(रिपोर्टर-जीतेन्द्र शर्मा, कॉपी- देवांशु झा)
बुधवार, 23 सितंबर 2009
खुदा का शुक्र है , तबादला रद्द हो गया
दोस्तों, दीदी जीजाजी बेंगलोर से वापस ट्रेन में बैठ चुके हैं। कोशिशों की कामयाबी की खुशी के साथ। हेड ऑफिस में एक डी जी एम् साहेब ऐसे मिले जिन्होंने इस मामले में आगे बढ़कर दिलचस्पी ली और तबादला रद्द करवा दिया।
चलिए इसी बहाने एक बार फ़िर ये विश्वास पुख्ता हुआ कि सिस्टम में अभी कुछ अच्छे लोग बचे हैं, जो भावनाओं, मुसीबतों को समझते हैं और फैसले लेने का हौसला भी रखते हैं ।
आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने इस मुसीबत में सहानुभूति दिखाई और हमारा हौसला बनाये रखा।
चलिए इसी बहाने एक बार फ़िर ये विश्वास पुख्ता हुआ कि सिस्टम में अभी कुछ अच्छे लोग बचे हैं, जो भावनाओं, मुसीबतों को समझते हैं और फैसले लेने का हौसला भी रखते हैं ।
आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने इस मुसीबत में सहानुभूति दिखाई और हमारा हौसला बनाये रखा।
रविवार, 20 सितंबर 2009
ये दुनिया ऐसी क्यूं है ?
मैं जिस समय ये टिप्पणी लिख रहा हूं, दीदी और जीजाजी बैंगलुरू की ट्रिप पर हैं बल्कि पटना से बैंगलुरू जाने वाली ट्रेन में हैं। दोनों एक अजीब सी ऊहा-पोह में हैं। पिछले तीन महीनों तक निराशा और हताशा का एक लंबा दौर झेलने के बाद एक उम्मीद के साथ ट्रेन पर सवार हुए हैं कि शायद अब काम हो जाए।
बात दीदी-जीजाजी की है और आप सभी से शेयर कर रहा हूं। वजह ये एक उदाहरण है कि कैसे हिंदुस्तान का सिस्टम काम कर रहा है। कैसे एक सच्चे और ईमानदार आदमी की कहीं कोई सुनने वाला नहीं। बस एक सिस्टम चल रहा है-अफसरों की ठसक के साथ। इस सिस्टम में आप इंसाफ की उम्मीद लगाएं तो सौ में से ९० मर्तबा आपको निराशा हाथ लगे तो कोई अचरज नहीं।
दरअसल अभी पिछले एक साल पहले या उससे भी कुछ पहले जीजा का एक बहुत भारी एक्सिडेंट हो गया था। तब से उनकी एक टांग में तकलीफ है और वो स्टिक लेकर चलते हैं। कैनरा बैंक में मैनेजर हैं और करीब २५ साल से इस संस्थान की सेवा कर रहे हैं। लेकिन मुश्किल की घड़ी में इस संस्थान ने उनके साथ जो सलूक किया उसे देखकर हैरानी होती है।
मामला उनके ट्रांसफर से जुड़ा है। जीजाजी की ऐसी हालत नहीं या यूं कहूं कि वो इस शारीरिक और मानसिक स्थिति में नहीं कि घर-परिवार से दूर रह सकें लेकिन बैंक के अफसरान अपनी जिद्द पर अड़ें हैं। उनका ट्रांसफर पटना से कोलकाता कर दिया गया है। उन्होंने अपना ट्रांसफर रद्द करवाने के लिए जीतोड़ कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं। यूनियन की तरफ से कोशिश की गई। अफसरों से विनती आरजू की गई लेकिन सब बेकार। आप सोच सकते हैं पिछले तीन महीने में हर दिन हमारे पूरे परिवार ने किस तरह की मनस्थिति में गुजारा है।
मैं एक मीडिया संस्थान में हूं तो जीजा और दीदी को मुझसे भी कुछ उम्मीदें थीं, लेकिन हम तो परकटे परिंदे हैं। खैर इस परिंदे की जितनी उड़ान हो सकती थी, कोशिश की। सीनियर पत्रकारों से बात की लेकिन उन्होंने एक तरह से हाथ खड़ा कर दिया। बहुत सीनियर पत्रकारों तक मैंने दरख्वास्त नहीं लगाई। कुछ संकोच वश और कुछ नाउम्मीदी में।
खैर इस बीच मेरे एक मित्र जो कांग्रेस की युवा शाखा में सक्रिय हैं उनसे बात की। एक संपर्क सूत्र मिला। योगेन्द्र पति त्रिपाठी, कैनरा बैंक में निदेशक हैं। पेशे से शिक्षक हैं और बेहद मिलनसार। बात कुछ आगे बढ़ी, उम्मीदें भी प्रबल हुईं। करीब एक-डेढ महीने तक हमलोग त्रिपाठीजी के संपर्क में रहे और लगातार हमें ये दिलासा मिली कि ट्रांसफर रूक जाएगा।
शरीर से आंशिक रूप से लाचार एक शख्स के साथ हमदर्दी की उम्मीद हमें भी थी और योगेन्द्र पति त्रिपाठी जी को भी। इस बीच यूनियन की ओर से कैनरा बैंक में निदेशक एस के कोहली से भी बात होती रही। सब कुछ पटरी पर आ रहा था । पटना के जीएम ने हेड ऑफिस बैंगलुरू ये आवेदन भी भेजा कि जितेंद्र कुमार शर्मा (कैनरा बैंक की पटना सिटी ब्रांच के मैनेजर, जीजाजी) की जगह किसी और को कोलकाता भेजा जा सकता है। लेकिन जीएम बैंगुलूरु श्रीनाथ जी ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनकी नाक ऊंची रहनी चाहिए थी। इंसान की सारी मजबूरी से ज्यादा बड़ी होती है एक अफसर की जिद्द, इसका एहसास ऐसे ही मौकों पर तो एक आम आदमी को होता है। वरना उसे अपने आम आदमी होने का अफसोस ही क्यों कर होता?
अब दीदी जीजी आखिरी उम्मीद में ट्रेन का सफर कर रहे हैं, मुझे उम्मीद कम है लेकिन दुआ यही करता हूं कि दो पल के लिए ही सही श्रीनाथ साहब की इंसानियत जाग जाए, इतने में एक परिवार का सुकून बना रह जाएगा। वरना रोजी-रोटी के लिए सिस्टम का ये सितम भी झेलना ही है।
बात दीदी-जीजाजी की है और आप सभी से शेयर कर रहा हूं। वजह ये एक उदाहरण है कि कैसे हिंदुस्तान का सिस्टम काम कर रहा है। कैसे एक सच्चे और ईमानदार आदमी की कहीं कोई सुनने वाला नहीं। बस एक सिस्टम चल रहा है-अफसरों की ठसक के साथ। इस सिस्टम में आप इंसाफ की उम्मीद लगाएं तो सौ में से ९० मर्तबा आपको निराशा हाथ लगे तो कोई अचरज नहीं।
दरअसल अभी पिछले एक साल पहले या उससे भी कुछ पहले जीजा का एक बहुत भारी एक्सिडेंट हो गया था। तब से उनकी एक टांग में तकलीफ है और वो स्टिक लेकर चलते हैं। कैनरा बैंक में मैनेजर हैं और करीब २५ साल से इस संस्थान की सेवा कर रहे हैं। लेकिन मुश्किल की घड़ी में इस संस्थान ने उनके साथ जो सलूक किया उसे देखकर हैरानी होती है।
मामला उनके ट्रांसफर से जुड़ा है। जीजाजी की ऐसी हालत नहीं या यूं कहूं कि वो इस शारीरिक और मानसिक स्थिति में नहीं कि घर-परिवार से दूर रह सकें लेकिन बैंक के अफसरान अपनी जिद्द पर अड़ें हैं। उनका ट्रांसफर पटना से कोलकाता कर दिया गया है। उन्होंने अपना ट्रांसफर रद्द करवाने के लिए जीतोड़ कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं। यूनियन की तरफ से कोशिश की गई। अफसरों से विनती आरजू की गई लेकिन सब बेकार। आप सोच सकते हैं पिछले तीन महीने में हर दिन हमारे पूरे परिवार ने किस तरह की मनस्थिति में गुजारा है।
मैं एक मीडिया संस्थान में हूं तो जीजा और दीदी को मुझसे भी कुछ उम्मीदें थीं, लेकिन हम तो परकटे परिंदे हैं। खैर इस परिंदे की जितनी उड़ान हो सकती थी, कोशिश की। सीनियर पत्रकारों से बात की लेकिन उन्होंने एक तरह से हाथ खड़ा कर दिया। बहुत सीनियर पत्रकारों तक मैंने दरख्वास्त नहीं लगाई। कुछ संकोच वश और कुछ नाउम्मीदी में।
खैर इस बीच मेरे एक मित्र जो कांग्रेस की युवा शाखा में सक्रिय हैं उनसे बात की। एक संपर्क सूत्र मिला। योगेन्द्र पति त्रिपाठी, कैनरा बैंक में निदेशक हैं। पेशे से शिक्षक हैं और बेहद मिलनसार। बात कुछ आगे बढ़ी, उम्मीदें भी प्रबल हुईं। करीब एक-डेढ महीने तक हमलोग त्रिपाठीजी के संपर्क में रहे और लगातार हमें ये दिलासा मिली कि ट्रांसफर रूक जाएगा।
शरीर से आंशिक रूप से लाचार एक शख्स के साथ हमदर्दी की उम्मीद हमें भी थी और योगेन्द्र पति त्रिपाठी जी को भी। इस बीच यूनियन की ओर से कैनरा बैंक में निदेशक एस के कोहली से भी बात होती रही। सब कुछ पटरी पर आ रहा था । पटना के जीएम ने हेड ऑफिस बैंगलुरू ये आवेदन भी भेजा कि जितेंद्र कुमार शर्मा (कैनरा बैंक की पटना सिटी ब्रांच के मैनेजर, जीजाजी) की जगह किसी और को कोलकाता भेजा जा सकता है। लेकिन जीएम बैंगुलूरु श्रीनाथ जी ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनकी नाक ऊंची रहनी चाहिए थी। इंसान की सारी मजबूरी से ज्यादा बड़ी होती है एक अफसर की जिद्द, इसका एहसास ऐसे ही मौकों पर तो एक आम आदमी को होता है। वरना उसे अपने आम आदमी होने का अफसोस ही क्यों कर होता?
अब दीदी जीजी आखिरी उम्मीद में ट्रेन का सफर कर रहे हैं, मुझे उम्मीद कम है लेकिन दुआ यही करता हूं कि दो पल के लिए ही सही श्रीनाथ साहब की इंसानियत जाग जाए, इतने में एक परिवार का सुकून बना रह जाएगा। वरना रोजी-रोटी के लिए सिस्टम का ये सितम भी झेलना ही है।
शनिवार, 18 जुलाई 2009
हमारे लेखक को माफ कर दो
बहुत आसान होता है किसी की गलती पर उसे दम भर कोस लेना। ऐसा करते हुए कई बार 'न्यायकर्ताओं' को उस हद का भी पता नहीं होता, जिसके बाद अपराध की 'सजा' भी अपराध हो जाती है। मुझे अफसोस होता है कि अपने ही साथ के लोगों को महज एक गलती के लिए हम कितना पराया बना देते हैं। उसे इतना ज्यादा प्रताड़ित करना शुरू कर देते हैं कि उसका खुद पर से यकीन ही डगमगाने लगता है।
इंसान की फितरत ही है गलती करना... उसमें न तो कोई उम्र कमाल दिखा सकती है... न कामयाबी की बुलंदियां... न अरजा हुआ अनुभव। सब कुछ होने के बाद भी गलतियां करना भी हमारा एक मौलिक अधिकार ही है। गलतियों का एहसास कराना और बात है और गलतियों को एक मुद्दा बनाकर किसी का हौसला तोड़ना और बात?
उदयप्रकाशजी ने भाई साहब की स्मृति में दिए गए सम्मान को लेने की भूल की। भूल ये कि आपने इसे योगी आदित्यनाथ के हाथों से ले लिया। जाहिर है योगी आदित्यनाथ की शख्सियत को लेकर कुछ लोगों को गंभीर आपत्तियां है और इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर हम वाकई समाज में कोई बदलाव चाहते हैं उसकी सूरत बदलना चाहते हैं तो इसे बहुत सारे खांचों में बांट कर नहीं देख सकते। हो सकता है उदयजी की सोहबत में आदित्यनाथ जैसे लोगों में भी कुछ बदलाव आ जाए। लेकिन हम तो इसी बात से डरे रहते हैं कि कहीं योगी आदित्यनाथ ही आपको अपने रंग में न रंग ले। बस इसी चक्कर में हमेशा दूर से ही ऐसे लोगों को धिक्कारते रहते हैं। कोई सच्ची कोशिश भी नहीं होती इन लोगों से संवाद की।
उदयजी आपसे मुलाकात के दौरान हुई चर्चा में यही बात उठी थी... बार-बार हम सभी ने जोर दिया था कि जो भी आपको इस समय महसूस हो रहा हो उसे ईमानदारी से लिखें... इसमें कोई रणनीतिक एजेंडे की दरकार नहीं। अच्छा लगा कि आपने भी उसी तरह सच्चे दिल से सच को कबूल किया। माफी मांगी तो जरूर लेकिन उन सारी बातों के जिक्र के साथ जो आपके दिलो-दिमाग में उमड़ घुमड़ रहे थे।
शायद आपकी इस स्वीकारोक्ति के बाद सहृदय आलोचकों और दोस्तों ने राहत की सांस ली होगी। उन्हें ये लगा होगा कि जो साथी सुबह को अपना रास्ता भूल गया था वो शाम को घर लौट आया। और अगर अब भी उन्हें आपके व्यक्तित्व को लेकर शक है, अब भी आप से उनके गिले शिकवे दूर नहीं हों तो फिर क्या किया जा सकता है?
हां, हम सभी को आप जैसे लोगों से कई उम्मीदें होती हैं। क्योंकि जो हम खुद नहीं कर पाते उसका ठेका हम आप जैसे लोगों को दे देते हैं। बड़ा अच्छा लगता है ये कहते हुए देखो वो उदय प्रकाश हैं-एक मिसाल हैं... बड़े लेखक हैं... और जो भी उपमाएं जोड़नी होती है जोड़ देते हैं। मूर्ति पूजा का विरोध भले ही हम सदियों से करते रहे हों लेकिन आज भी मंदिरों की लालसा नहीं मरी... और जब मंदिर बनेंगे तो उसमें विराजने के लिए कोई भगवान तो चाहिए न। तो फिर कोई उदय प्रकाश क्यों नहीं?
वो चाहे न चाहे, उसे लेना ही होगा ये ठेका। उसे धारण करनी ही होगी हमारी दी गई ये जिम्मेदारी। और अगर उसने चू-चपड़ की तो फिर पंचायत बैठेगी... हो जाएगा हुक्का पानी बंद। हमें हर तरकीब आती है... हमने किसी को बुलंदियों पर बैठाया हो तो उसकी कब्र खोदकर दफनाने में भी महारथ हासिल है हमें। आखिर इस तरह का दंभ क्यों? आखिर क्यों हम कभी-कभी पुलिस की भूमिका में आ जाते हैं और पुलिस वालों के तरह ही डंडे की चोट पर अपनी बात मनवाने की जिद्द पर अड़ जाते हैं?
हमारे लेखक ने अपनी गलती मान ली है... उसने मान लिया है कि उससे भूल हुई है। अब इस मुद्दे को यहीं विराम देकर सभी को आगे की सुध लेनी चाहिए। यहां दो कहावतें याद आ रही हैं उनका भी जिक्र कर ही देता हूं-पहली-
काजर की कोठरी में कैसे भी सयानो जाएएक लीक काजल की लागि है पे लागि है
उदय प्रकाश के पूरे व्यक्तित्व पर इस प्रकरण पर मचे बवाल से एक धब्बा तो लग ही गया जिसे धुलने में लंबा वक्त लगेगा।लेकिन वहीं दूसरी तरफ रहीम का दोहा खुद ही मन में उदय प्रकाश जी के प्रति एक ऐसा भाव भर देता है कि किसी शिकायत की जगह ही नहीं बचती।
रहिमन जो नर उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटत रहत भुजंग।
उदयजी जो बातें मेरे मन में आ रही थी, वो मैंने भी लिख दी हैं। ये मेरा भी अंतिम ड्राफ्ट नहीं है।
चलते-चलते सभी सुधी पाठकों, आलोचकों और लेखकों से मैं उदय प्रकाशजी की तरफ से माफी मांगता हूं... इसलिए भी कि मेरे सामने उन्होंने आप सभी से माफी मांगने की बात कही है... वो खुद ही काफी परेशान हैं... हमें उन्हें इन पलों में और परेशान करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए। एक लेखक को उसके पथ पर चलने दीजिए... उसकी अपनी गति और अपनी चाल से... वो भटका भी तो बहुत कुछ दे कर ही जाएगा।
इंसान की फितरत ही है गलती करना... उसमें न तो कोई उम्र कमाल दिखा सकती है... न कामयाबी की बुलंदियां... न अरजा हुआ अनुभव। सब कुछ होने के बाद भी गलतियां करना भी हमारा एक मौलिक अधिकार ही है। गलतियों का एहसास कराना और बात है और गलतियों को एक मुद्दा बनाकर किसी का हौसला तोड़ना और बात?
उदयप्रकाशजी ने भाई साहब की स्मृति में दिए गए सम्मान को लेने की भूल की। भूल ये कि आपने इसे योगी आदित्यनाथ के हाथों से ले लिया। जाहिर है योगी आदित्यनाथ की शख्सियत को लेकर कुछ लोगों को गंभीर आपत्तियां है और इसे पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता। लेकिन कभी-कभी मुझे लगता है कि अगर हम वाकई समाज में कोई बदलाव चाहते हैं उसकी सूरत बदलना चाहते हैं तो इसे बहुत सारे खांचों में बांट कर नहीं देख सकते। हो सकता है उदयजी की सोहबत में आदित्यनाथ जैसे लोगों में भी कुछ बदलाव आ जाए। लेकिन हम तो इसी बात से डरे रहते हैं कि कहीं योगी आदित्यनाथ ही आपको अपने रंग में न रंग ले। बस इसी चक्कर में हमेशा दूर से ही ऐसे लोगों को धिक्कारते रहते हैं। कोई सच्ची कोशिश भी नहीं होती इन लोगों से संवाद की।
उदयजी आपसे मुलाकात के दौरान हुई चर्चा में यही बात उठी थी... बार-बार हम सभी ने जोर दिया था कि जो भी आपको इस समय महसूस हो रहा हो उसे ईमानदारी से लिखें... इसमें कोई रणनीतिक एजेंडे की दरकार नहीं। अच्छा लगा कि आपने भी उसी तरह सच्चे दिल से सच को कबूल किया। माफी मांगी तो जरूर लेकिन उन सारी बातों के जिक्र के साथ जो आपके दिलो-दिमाग में उमड़ घुमड़ रहे थे।
शायद आपकी इस स्वीकारोक्ति के बाद सहृदय आलोचकों और दोस्तों ने राहत की सांस ली होगी। उन्हें ये लगा होगा कि जो साथी सुबह को अपना रास्ता भूल गया था वो शाम को घर लौट आया। और अगर अब भी उन्हें आपके व्यक्तित्व को लेकर शक है, अब भी आप से उनके गिले शिकवे दूर नहीं हों तो फिर क्या किया जा सकता है?
हां, हम सभी को आप जैसे लोगों से कई उम्मीदें होती हैं। क्योंकि जो हम खुद नहीं कर पाते उसका ठेका हम आप जैसे लोगों को दे देते हैं। बड़ा अच्छा लगता है ये कहते हुए देखो वो उदय प्रकाश हैं-एक मिसाल हैं... बड़े लेखक हैं... और जो भी उपमाएं जोड़नी होती है जोड़ देते हैं। मूर्ति पूजा का विरोध भले ही हम सदियों से करते रहे हों लेकिन आज भी मंदिरों की लालसा नहीं मरी... और जब मंदिर बनेंगे तो उसमें विराजने के लिए कोई भगवान तो चाहिए न। तो फिर कोई उदय प्रकाश क्यों नहीं?
वो चाहे न चाहे, उसे लेना ही होगा ये ठेका। उसे धारण करनी ही होगी हमारी दी गई ये जिम्मेदारी। और अगर उसने चू-चपड़ की तो फिर पंचायत बैठेगी... हो जाएगा हुक्का पानी बंद। हमें हर तरकीब आती है... हमने किसी को बुलंदियों पर बैठाया हो तो उसकी कब्र खोदकर दफनाने में भी महारथ हासिल है हमें। आखिर इस तरह का दंभ क्यों? आखिर क्यों हम कभी-कभी पुलिस की भूमिका में आ जाते हैं और पुलिस वालों के तरह ही डंडे की चोट पर अपनी बात मनवाने की जिद्द पर अड़ जाते हैं?
हमारे लेखक ने अपनी गलती मान ली है... उसने मान लिया है कि उससे भूल हुई है। अब इस मुद्दे को यहीं विराम देकर सभी को आगे की सुध लेनी चाहिए। यहां दो कहावतें याद आ रही हैं उनका भी जिक्र कर ही देता हूं-पहली-
काजर की कोठरी में कैसे भी सयानो जाएएक लीक काजल की लागि है पे लागि है
उदय प्रकाश के पूरे व्यक्तित्व पर इस प्रकरण पर मचे बवाल से एक धब्बा तो लग ही गया जिसे धुलने में लंबा वक्त लगेगा।लेकिन वहीं दूसरी तरफ रहीम का दोहा खुद ही मन में उदय प्रकाश जी के प्रति एक ऐसा भाव भर देता है कि किसी शिकायत की जगह ही नहीं बचती।
रहिमन जो नर उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चंदन विष व्यापत नहीं, लपटत रहत भुजंग।
उदयजी जो बातें मेरे मन में आ रही थी, वो मैंने भी लिख दी हैं। ये मेरा भी अंतिम ड्राफ्ट नहीं है।
चलते-चलते सभी सुधी पाठकों, आलोचकों और लेखकों से मैं उदय प्रकाशजी की तरफ से माफी मांगता हूं... इसलिए भी कि मेरे सामने उन्होंने आप सभी से माफी मांगने की बात कही है... वो खुद ही काफी परेशान हैं... हमें उन्हें इन पलों में और परेशान करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए। एक लेखक को उसके पथ पर चलने दीजिए... उसकी अपनी गति और अपनी चाल से... वो भटका भी तो बहुत कुछ दे कर ही जाएगा।
सोमवार, 22 जून 2009
जीवन बहे रे बहे
नर्मदा का ताल
लहरों पर संगीत
सागौन में नयी- नई
कोपलों का मौसम
हल्की बूंदा- बांदी से
गीली हुई मिट्टी
सौंधा- सौंधा पहाड़
सूखी - सूखी चिडिया
टिड्डियाँ और
तितलियाँ
पत्ती-पत्ती पर हजारों हजार
खुशियाँ ।
किंतु बिखरा जीवन
दिन , बहुत कम।
इसलिए गाते हैं , नाचते हैं
बूढे आदिवासी लोग और
हिल उठता है पूरा
जंगल।
हर तीज पर
झुंड के झुंड
एका बाँध झूम जाते हैं
पुरखों की आत्मा की शान्ति के वास्ते !
साथ लाते हैं
अपनी-अपनी औलादें
ताकि कल ख़ुद के मरने पर
आत्मा
युवा पीढी के देह दिमाग में
रुके, घुटनों पर
थोड़ा मुडे और
हाथ उठाये
जिन्दा हो जाए
बार - बार , हर साल।
- शिरीष खरे। मुंबई क्राई के साथ जुड़े हैं।
लहरों पर संगीत
सागौन में नयी- नई
कोपलों का मौसम
हल्की बूंदा- बांदी से
गीली हुई मिट्टी
सौंधा- सौंधा पहाड़
सूखी - सूखी चिडिया
टिड्डियाँ और
तितलियाँ
पत्ती-पत्ती पर हजारों हजार
खुशियाँ ।
किंतु बिखरा जीवन
दिन , बहुत कम।
इसलिए गाते हैं , नाचते हैं
बूढे आदिवासी लोग और
हिल उठता है पूरा
जंगल।
हर तीज पर
झुंड के झुंड
एका बाँध झूम जाते हैं
पुरखों की आत्मा की शान्ति के वास्ते !
साथ लाते हैं
अपनी-अपनी औलादें
ताकि कल ख़ुद के मरने पर
आत्मा
युवा पीढी के देह दिमाग में
रुके, घुटनों पर
थोड़ा मुडे और
हाथ उठाये
जिन्दा हो जाए
बार - बार , हर साल।
- शिरीष खरे। मुंबई क्राई के साथ जुड़े हैं।
सोमवार, 8 जून 2009
हबीब तनवीर, गिर गया परदा
हबीब तनवीर नहीं रहे, आज सुबह ये समाचार एक टीवी चैनल के जरिये मिला। थोड़ी देर तक मैं हक्का बक्का रह गया , फ़िर उनसे जुडी कुछ यादें , कुछ तस्वीरें जेहन में घूमती रहीं।
भोपाल में पहली बार हबीब दा का नाटक माटी गाड़ी देखा। मानव संग्रहालय मैं शो था , खुले आकाश के नीचे। उस समय रंगकर्म का शौक उफान पर था। उनके कलाकारों का अंदाज देख हैरान रह गया। पुरे नाटक के दौरान हबीब दा लाईट्स वाले के पास बैठे थे। एक ७५ साल का रंगकर्मी और उसके काम का जूनून मेरे लिए काफी प्रेरणादायक था।
इसके बाद चरणदास चोर देखा। हबीब दा के सबसे सफल नाटकों में शुमार है चरण दास चोर। हबीब साहब का जितना नाम सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया। लोग भी खूब उमरते उनका नाटक देखने। नाटकों मैं बात ही कुछ ऐसी थी की कभी पुराने नहीं पड़ते। लोक का ऐसा रस घुला था की जित देखो तित नया।
ये यादें साल १९९८-९९ के बीच की हैं। इस दौरान मैं भोपाल मैं माखनलाल विश्वविद्यालय काम छात्र था। हम एक ग्रुप बना कर नाटक कर रहे थे। शहर में कोई भी एक्टिविटी होती हम लोग पहुँच जाते। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने हबीब साहब के ७५ साल के होने पर एक भव्य आयोजन कराया । ५ दिनों तक भोपाल हबीबमय हो गया। दिन मैं हबीब साहब पर व्याख्यान और रात में नाटक। व्याख्यान में तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन असली जद्दोजहद शुरू होती शाम में । रवींद्र भवन में पाँव रखने की जगह नहीं होती और हमारे पास टिकेट नहीं होते। हमें आख़िर तक इंतज़ार करना पड़ता जब एंट्री ओपन कर दी जाती। इस समारोह में कुछ और नाटक देखे - गाँव के नाम ससुराल , मोर नाम दामाद।
दस्तक के बैनर से हम लोगों ने नाटक तैयार किया- राम सजीवन की प्रेम कथा। बहुत संकोच के साथ हमने दादा के घर कार्ड भिजवाया। हबीब साहेब उन दिनों भोपाल में नहीं थे , हमने भी उनके आने की उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन नाटक शुरू होने से पहले विंग्स में हमें खबर मिली की हबीब सर अपने ग्रुप के साथ आ गए हैं. हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। धड़कन भी बढ़ गयी। नाटक शुरू हुआ, साउंड की कुछ समस्या थी , आवाज़ दर्शकों तक ठीक से नहीं पहुँच पा रही थी , बावजूद इसके उन्होंने पूरा नाटक देखा। हम लोगों से मिले आशीर्वाद दिया और उसके बाद ही वहां से गए।
एक नौसिखुए रंगकर्मी के लिए इस से बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी । खैर , वो दिन गुजर गए लेकिन हबीब साहेब एक अमिट छाप छोड़ गए. इस समय और भी कई बातें जेहन मैं आ रही हैं, लेकिन वो फिर कभी.
दिल्ली आने के बाद उनका एक और नाटक देखा -आगरा बाज़ार. एक ऐसा नाटक जिसका एहसास आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते. नजीर अकबराबादी की कवि़ताओं में न जाने कितने आयाम जोड़ दिए हबीब जी ने. नजीर की पंक्तियों से बात ख़त्म करता हूँ -सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब बांध चलेगा बंजारा.
भोपाल में पहली बार हबीब दा का नाटक माटी गाड़ी देखा। मानव संग्रहालय मैं शो था , खुले आकाश के नीचे। उस समय रंगकर्म का शौक उफान पर था। उनके कलाकारों का अंदाज देख हैरान रह गया। पुरे नाटक के दौरान हबीब दा लाईट्स वाले के पास बैठे थे। एक ७५ साल का रंगकर्मी और उसके काम का जूनून मेरे लिए काफी प्रेरणादायक था।
इसके बाद चरणदास चोर देखा। हबीब दा के सबसे सफल नाटकों में शुमार है चरण दास चोर। हबीब साहब का जितना नाम सुना था उससे कहीं बढ़कर पाया। लोग भी खूब उमरते उनका नाटक देखने। नाटकों मैं बात ही कुछ ऐसी थी की कभी पुराने नहीं पड़ते। लोक का ऐसा रस घुला था की जित देखो तित नया।
ये यादें साल १९९८-९९ के बीच की हैं। इस दौरान मैं भोपाल मैं माखनलाल विश्वविद्यालय काम छात्र था। हम एक ग्रुप बना कर नाटक कर रहे थे। शहर में कोई भी एक्टिविटी होती हम लोग पहुँच जाते। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने हबीब साहब के ७५ साल के होने पर एक भव्य आयोजन कराया । ५ दिनों तक भोपाल हबीबमय हो गया। दिन मैं हबीब साहब पर व्याख्यान और रात में नाटक। व्याख्यान में तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन असली जद्दोजहद शुरू होती शाम में । रवींद्र भवन में पाँव रखने की जगह नहीं होती और हमारे पास टिकेट नहीं होते। हमें आख़िर तक इंतज़ार करना पड़ता जब एंट्री ओपन कर दी जाती। इस समारोह में कुछ और नाटक देखे - गाँव के नाम ससुराल , मोर नाम दामाद।
दस्तक के बैनर से हम लोगों ने नाटक तैयार किया- राम सजीवन की प्रेम कथा। बहुत संकोच के साथ हमने दादा के घर कार्ड भिजवाया। हबीब साहेब उन दिनों भोपाल में नहीं थे , हमने भी उनके आने की उम्मीद छोड़ दी थी। लेकिन नाटक शुरू होने से पहले विंग्स में हमें खबर मिली की हबीब सर अपने ग्रुप के साथ आ गए हैं. हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। धड़कन भी बढ़ गयी। नाटक शुरू हुआ, साउंड की कुछ समस्या थी , आवाज़ दर्शकों तक ठीक से नहीं पहुँच पा रही थी , बावजूद इसके उन्होंने पूरा नाटक देखा। हम लोगों से मिले आशीर्वाद दिया और उसके बाद ही वहां से गए।
एक नौसिखुए रंगकर्मी के लिए इस से बढ़कर खुशी की बात और क्या हो सकती थी । खैर , वो दिन गुजर गए लेकिन हबीब साहेब एक अमिट छाप छोड़ गए. इस समय और भी कई बातें जेहन मैं आ रही हैं, लेकिन वो फिर कभी.
दिल्ली आने के बाद उनका एक और नाटक देखा -आगरा बाज़ार. एक ऐसा नाटक जिसका एहसास आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते. नजीर अकबराबादी की कवि़ताओं में न जाने कितने आयाम जोड़ दिए हबीब जी ने. नजीर की पंक्तियों से बात ख़त्म करता हूँ -सब ठाठ पड़ा रह जायेगा जब बांध चलेगा बंजारा.
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
जरनैल ये तूने क्या किया?
जरनैल सिंह
तुम भी अजीब आदमी हो
भरी महफिल में
देश के गृहमंत्री पर जूता चला दिया?
किस युग में जीते हो
जरनैल?
क्या तुम्हें नहीं मालूम
यहां सब कुछ सोच समझ कर
किया जाता है
प्यार ही नहीं, गुस्सा भी
समर्थन ही नहीं, विरोध भी
और तुम हो
कि भावना में बह जाते हो?
वाकई अजीब हो जरनैल
तुम्हें इस बात का भी एहसास नहीं
कि तुम एक पत्रकार हो
पत्रकार जो कहीं नौकरी करता है
पत्रकार जिसकी कुछ मर्यादाएं तय हैं
पत्रकार जो निष्पक्ष कहा जाता है
लेकिन तुम तो
किसी मुद्दे पर भावनात्मक हो जाते हो
उबल पड़ते हो
जूता पहनकर पीसी में चले जाते हो
और गुस्सा आने पर
चला भी देते हो जूता
आखिर कैसे पत्रकार हो तुम?
जरनैल सिंह
क्या तुमने अपने मालिक से पूछा था?
क्या तुमने अपने संपादक को बताया था
कि तुम पीसी में चलाने वाले हो जूता?
नहीं न
तो अब उनसे सुनो
पत्रकारिता का पाठ
उनसे सीखो
पत्रकारिता की मर्यादा
उनसे सीखो
कैसे किया जाता है कलम का इस्तेमाल
उनसे सीखो
कैसे जलते मुद्दों पर साधी जाती है गुम्मी
उनसे सीखो
कैसे बरती जाती है खामोशी
और अगर नहीं सीख सकते
तो फिर तैयार हो जाओ
क्योंकि
वो अब बताएंगे
तुम्हें तुम्हारी औकात
वो बताएंगे
एक पत्रकार की हैसियत
गृहमंत्री ने माफ कर दिया तो क्या
वो देंगे तुम्हें
तुम्हारे 'जुल्म' की सजा?
आखिर वो कैसे बनने दे सकते हैं
तुम्हें एक मिसाल
मिसाल
एक गुस्से की
मिसाल
एक बेचारगी की
मिसाल
एक पीड़ित के दर्द की
मिसाल
मुद्दे उठाने की तड़प की
आखिर
उन्हें भी तो साबित करनी है
अपनी वफादारी
उन्हें भी तो बताना है कि
उन्हें फिक्र है पत्रकारिता की
पत्रकारों की
और सबसे ज्यादा इस
बात की फिक्र कि
हिंदुस्तान इराक नहीं
यहां विरोध के दूसरे तरीके
आजमाए जा सकते हैं
लेकिन
यहां नहीं पैदा हो सकता कोई
मुंतजर अल जैदी?
बहुत बोल रहा हूं न
क्या करूं
जब से तुम्हारे जूते को देखा है
वो काटने को दौड़ रहा है
मुझे गुस्सा आ रहा है कि
मालिकों और संपादकों का पाठ
पढ़ने से पहले
काश ! तुमने पढ़ लिया होता
तुलसी को
काश ! तुमने जान लिया होता कि
समरथ का कोई दोष नहीं होता
या तुमने
धूमिल से लोकतंत्र में जीना ही सीख लिया होता
कमर झुका कर
टूटने से बचा ही लिया होता खुद को...
बहरहाल
अब जब तुमने जूता चला ही दिया
जब तुमने हंगामा खड़ा कर ही दिया
तो बस
पत्रकारों के लिए
इतना और करना
इस जूते पर किसी
ब्रांड की मोहर मत लगने देना
किसी को मत खरीदने देना
अपना गुस्सा
अपनी तड़प
अपनी बेचारगी
अपना हौसला
और
लड़ने की ताकत।
- १० अप्रैल २००९
तुम भी अजीब आदमी हो
भरी महफिल में
देश के गृहमंत्री पर जूता चला दिया?
किस युग में जीते हो
जरनैल?
क्या तुम्हें नहीं मालूम
यहां सब कुछ सोच समझ कर
किया जाता है
प्यार ही नहीं, गुस्सा भी
समर्थन ही नहीं, विरोध भी
और तुम हो
कि भावना में बह जाते हो?
वाकई अजीब हो जरनैल
तुम्हें इस बात का भी एहसास नहीं
कि तुम एक पत्रकार हो
पत्रकार जो कहीं नौकरी करता है
पत्रकार जिसकी कुछ मर्यादाएं तय हैं
पत्रकार जो निष्पक्ष कहा जाता है
लेकिन तुम तो
किसी मुद्दे पर भावनात्मक हो जाते हो
उबल पड़ते हो
जूता पहनकर पीसी में चले जाते हो
और गुस्सा आने पर
चला भी देते हो जूता
आखिर कैसे पत्रकार हो तुम?
जरनैल सिंह
क्या तुमने अपने मालिक से पूछा था?
क्या तुमने अपने संपादक को बताया था
कि तुम पीसी में चलाने वाले हो जूता?
नहीं न
तो अब उनसे सुनो
पत्रकारिता का पाठ
उनसे सीखो
पत्रकारिता की मर्यादा
उनसे सीखो
कैसे किया जाता है कलम का इस्तेमाल
उनसे सीखो
कैसे जलते मुद्दों पर साधी जाती है गुम्मी
उनसे सीखो
कैसे बरती जाती है खामोशी
और अगर नहीं सीख सकते
तो फिर तैयार हो जाओ
क्योंकि
वो अब बताएंगे
तुम्हें तुम्हारी औकात
वो बताएंगे
एक पत्रकार की हैसियत
गृहमंत्री ने माफ कर दिया तो क्या
वो देंगे तुम्हें
तुम्हारे 'जुल्म' की सजा?
आखिर वो कैसे बनने दे सकते हैं
तुम्हें एक मिसाल
मिसाल
एक गुस्से की
मिसाल
एक बेचारगी की
मिसाल
एक पीड़ित के दर्द की
मिसाल
मुद्दे उठाने की तड़प की
आखिर
उन्हें भी तो साबित करनी है
अपनी वफादारी
उन्हें भी तो बताना है कि
उन्हें फिक्र है पत्रकारिता की
पत्रकारों की
और सबसे ज्यादा इस
बात की फिक्र कि
हिंदुस्तान इराक नहीं
यहां विरोध के दूसरे तरीके
आजमाए जा सकते हैं
लेकिन
यहां नहीं पैदा हो सकता कोई
मुंतजर अल जैदी?
बहुत बोल रहा हूं न
क्या करूं
जब से तुम्हारे जूते को देखा है
वो काटने को दौड़ रहा है
मुझे गुस्सा आ रहा है कि
मालिकों और संपादकों का पाठ
पढ़ने से पहले
काश ! तुमने पढ़ लिया होता
तुलसी को
काश ! तुमने जान लिया होता कि
समरथ का कोई दोष नहीं होता
या तुमने
धूमिल से लोकतंत्र में जीना ही सीख लिया होता
कमर झुका कर
टूटने से बचा ही लिया होता खुद को...
बहरहाल
अब जब तुमने जूता चला ही दिया
जब तुमने हंगामा खड़ा कर ही दिया
तो बस
पत्रकारों के लिए
इतना और करना
इस जूते पर किसी
ब्रांड की मोहर मत लगने देना
किसी को मत खरीदने देना
अपना गुस्सा
अपनी तड़प
अपनी बेचारगी
अपना हौसला
और
लड़ने की ताकत।
- १० अप्रैल २००९
गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
वोदाफोन का लीगल नोटिस
वोदाफोन ने मुझे एक लीगल नोटिस भेजा है। ये नोटिस कंपनी के मनमाने बिल का भुगतान न करने की वजह से भेजा गया है। वोदाफोन ने जनवरी और फरवरी में डाउनलोडिंग के नाम पर अनाप-शनाप चार्ज किया है। मेरा एक नंबर ९९९९०३१३८० है जो इन दिनों बंद पड़ा है। गनीमत से नंबर बंद होने की वजह मोबाइल का गुम हो जाना है, वरना बिल और भी लंबा हो सकता था। कंपनी के मनमाने रवैये की वजह से मैंने इसे दोबारा हासिल करने की कोशिश भी नहीं की है।
दरअसल वोदाफोन ने वोदा लाइव के नाम से एक सर्विस दे रखी है। इस पर चार्ज बहुत ही मामूली है १० पैसे प्रति मिनट (कारपोरेट कनेक्शन) । ये सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन कंपनी ने कुछ और साइट्स से गुप्त गठबंधन कर रखा है। और वहां आपने क्लिक किया नहीं कि अनाप शनाप चार्ज लगने शुरू हो जाते हैं। ऐसा ही हुआ है मेरे इस नंबर के साथ भी। गाने डाउनलोड करने के नाम पर कंपनी ने ९९ रुपये के हिसाब से चार्ज किया है और उसका तरीका समझ से परे है।
आखिर कोई कंपनी खुद १० पैसे लेकर किसी को उसी सर्विस पर करीब एक हजार गुना ज्यादा चार्ज करने की सुविधा कैसे दे सकती है?
इस पर मैंने कंपनी में शिकायत की तो उनका एक तैयार मेल आ गया कि हम इस बारे में कुछ नहीं कर सकते।
वोदाफोन कस्टमर केयर वालों से बात की तो उनका कहना था कि ये चार्जेज हमारी कंपनी ने नहीं किए हैं ये थर्ड पार्टी पेमेन्ट है।
मैंने वोदाफोन से यही अपील की थी कि
१।थर्ड पार्टी का पेमेन्ट मेरी ओर से आपको करने का हक किसने दिया?
2।आखिर आज जब क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड से मोबाइल के थ्रू ही कई सारी परचेजिंग हो जाती है तो आपने इस तरह के बिल का भुगतान करने का ठेका क्यों उठा रखा है?
3-क्यों नहीं थर्ड पार्टी को खुद ब खुद पेमेन्ट लेने को कहा जाता है?
लेकिन कंपनी है कि कोई जवाब देने की बजाय चुप्पी साध लेती है। ये सारा गोरखधंधा महज इसलिए कि उस साइट से कंपनी को अच्छा खासा हिस्सा कमीशन के तौर पर हासिल हो जाता है।
और अब मुझे डराने धमकाने के लिए उन्होंने अपनी लीगल कंपनी से एक नोटिस भेज दिया है। इस नोटिस का जवाब भेजने के लिए मैंने भी एक वकील से बात कर ली है और जल्द ही इसका जवाब दे दिया जाएगा।
बहरहाल, वोदाफोन जैसी कंपनियों के इस धंधे के खिलाफ और क्या किया जा सकता है इस पर आप सभी के सुझाव चाहूंगा। और कंपनियों की इस 'लीगल गुंडागर्दी' से निपटने के लिए आप सभी का सहयोग भी अपेक्षित है।
दरअसल वोदाफोन ने वोदा लाइव के नाम से एक सर्विस दे रखी है। इस पर चार्ज बहुत ही मामूली है १० पैसे प्रति मिनट (कारपोरेट कनेक्शन) । ये सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन कंपनी ने कुछ और साइट्स से गुप्त गठबंधन कर रखा है। और वहां आपने क्लिक किया नहीं कि अनाप शनाप चार्ज लगने शुरू हो जाते हैं। ऐसा ही हुआ है मेरे इस नंबर के साथ भी। गाने डाउनलोड करने के नाम पर कंपनी ने ९९ रुपये के हिसाब से चार्ज किया है और उसका तरीका समझ से परे है।
आखिर कोई कंपनी खुद १० पैसे लेकर किसी को उसी सर्विस पर करीब एक हजार गुना ज्यादा चार्ज करने की सुविधा कैसे दे सकती है?
इस पर मैंने कंपनी में शिकायत की तो उनका एक तैयार मेल आ गया कि हम इस बारे में कुछ नहीं कर सकते।
वोदाफोन कस्टमर केयर वालों से बात की तो उनका कहना था कि ये चार्जेज हमारी कंपनी ने नहीं किए हैं ये थर्ड पार्टी पेमेन्ट है।
मैंने वोदाफोन से यही अपील की थी कि
१।थर्ड पार्टी का पेमेन्ट मेरी ओर से आपको करने का हक किसने दिया?
2।आखिर आज जब क्रेडिट कार्ड और डेबिट कार्ड से मोबाइल के थ्रू ही कई सारी परचेजिंग हो जाती है तो आपने इस तरह के बिल का भुगतान करने का ठेका क्यों उठा रखा है?
3-क्यों नहीं थर्ड पार्टी को खुद ब खुद पेमेन्ट लेने को कहा जाता है?
लेकिन कंपनी है कि कोई जवाब देने की बजाय चुप्पी साध लेती है। ये सारा गोरखधंधा महज इसलिए कि उस साइट से कंपनी को अच्छा खासा हिस्सा कमीशन के तौर पर हासिल हो जाता है।
और अब मुझे डराने धमकाने के लिए उन्होंने अपनी लीगल कंपनी से एक नोटिस भेज दिया है। इस नोटिस का जवाब भेजने के लिए मैंने भी एक वकील से बात कर ली है और जल्द ही इसका जवाब दे दिया जाएगा।
बहरहाल, वोदाफोन जैसी कंपनियों के इस धंधे के खिलाफ और क्या किया जा सकता है इस पर आप सभी के सुझाव चाहूंगा। और कंपनियों की इस 'लीगल गुंडागर्दी' से निपटने के लिए आप सभी का सहयोग भी अपेक्षित है।
बुधवार, 1 अप्रैल 2009
वीओआई- कब मिलेगी दूसरी किश्त
वीओआई- वॉइस ऑफ इम्प्लॉई
वॉइस ऑफ इंडिया चैनल की धांधली बदस्तूर जारी है। कंपनी अपने यहां काम करने वाले कर्मचारियों तक को नहीं बख्श रही है। महीनों सैलरी के लिए इंतजार नहीं करने को तैयार पत्रकारों ने वीओआई को इस्तीफा दिया तो उनके साथ प्रबंधन ने एग्रीमेंट (कोई और विकल्प प्रबंधन ने छोड़ा ही नहीं) का नाटक किया। मेहनताना जो बन रहा था उसके भुगतान के लिए कंपनी ने कर्मचारियों से जबरन मोहलत ले ली और पांच किश्तों में भुगतान का एग्रीमेंट हुआ।
नाराज कर्मचारियों के तेवर देख जैसे-तैसे कंपनी ने फरवरी माह के आखिर में पहली किश्त का भुगतान तो कर दिया लेकिन अब दूसरी किश्त के लिए फिर कर्मचारियों को चक्कर पे चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।
कई दिनों तक वीओआई ऑफिस के चक्कर लगाने के बाद आखिरकार अब कर्मचारी अदालत में जाने पर विचार कर रहे हैं। इस जंग में कई पत्रकार साथी शामिल हैं। कुछ साथी जो अब तक अपने बकाया भुगतान का इंतजार कर रहे हैं वो भी अब अदालत का दरवाजा खटखटाने का इरादा कर चुके हैं।
आखिर कब तक प्रबंधन का झांसा चलता रहेगा?
आखिर कब तक लोग कंपनी की मनमानी झेलते रहेंगे?
आखिर कहीं तो होगी सुनवाई?
आखिर कभी तो मिलेगा इंसाफ?
वीओआई प्रबंधन के खिलाफ पत्रकार साथियों की इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाना ही होगा और आप सभी से अपील है कि आवाज से आवाज मिलाएं।
वॉइस ऑफ इंडिया चैनल की धांधली बदस्तूर जारी है। कंपनी अपने यहां काम करने वाले कर्मचारियों तक को नहीं बख्श रही है। महीनों सैलरी के लिए इंतजार नहीं करने को तैयार पत्रकारों ने वीओआई को इस्तीफा दिया तो उनके साथ प्रबंधन ने एग्रीमेंट (कोई और विकल्प प्रबंधन ने छोड़ा ही नहीं) का नाटक किया। मेहनताना जो बन रहा था उसके भुगतान के लिए कंपनी ने कर्मचारियों से जबरन मोहलत ले ली और पांच किश्तों में भुगतान का एग्रीमेंट हुआ।
नाराज कर्मचारियों के तेवर देख जैसे-तैसे कंपनी ने फरवरी माह के आखिर में पहली किश्त का भुगतान तो कर दिया लेकिन अब दूसरी किश्त के लिए फिर कर्मचारियों को चक्कर पे चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।
कई दिनों तक वीओआई ऑफिस के चक्कर लगाने के बाद आखिरकार अब कर्मचारी अदालत में जाने पर विचार कर रहे हैं। इस जंग में कई पत्रकार साथी शामिल हैं। कुछ साथी जो अब तक अपने बकाया भुगतान का इंतजार कर रहे हैं वो भी अब अदालत का दरवाजा खटखटाने का इरादा कर चुके हैं।
आखिर कब तक प्रबंधन का झांसा चलता रहेगा?
आखिर कब तक लोग कंपनी की मनमानी झेलते रहेंगे?
आखिर कहीं तो होगी सुनवाई?
आखिर कभी तो मिलेगा इंसाफ?
वीओआई प्रबंधन के खिलाफ पत्रकार साथियों की इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाना ही होगा और आप सभी से अपील है कि आवाज से आवाज मिलाएं।
बुधवार, 25 मार्च 2009
विस्थापन पर दो कविताएं
१- मेलघाट
जो तिनका-तिनका जोड़कर
जिंदगी बुनते थे
वो बिखर गए।
गांव-गांव
टूट-टूटकर
ठांव-ठांव बन गए।
अब उम्मीद से
उसकी उम्र
और छांव-छांव से
पता पूछना
बेकार है।
२
मुंबई
मुंबई का चांद
अकेला होता है।
उस रात
बहुत अकेला था चांद
खुले आसमान में
चंद तारों के साथ
अकेला और
देर तक लटका था चांद।
बेकरार चांद
उस रात
सोना नहीं चाहता था।
वह जानता था
उसकी एक झपकी से
उजियाला होगा और
शहर के हजारों चांद टूट जाएंगे।
शहर के हजारों घर रोशनी खो देंगे
वह अपने ठिकानों से लापता होंगे।
उस रात
चांद
हजारों ख्वाबों को तोड़ने की तैयारियां
देख रहा था।
- ये दोनों कविताएं शिरीष खरे की है, जो इन दिनों क्राई, मुंबई के साथ काम कर रहे हैं।
जो तिनका-तिनका जोड़कर
जिंदगी बुनते थे
वो बिखर गए।
गांव-गांव
टूट-टूटकर
ठांव-ठांव बन गए।
अब उम्मीद से
उसकी उम्र
और छांव-छांव से
पता पूछना
बेकार है।
२
मुंबई
मुंबई का चांद
अकेला होता है।
उस रात
बहुत अकेला था चांद
खुले आसमान में
चंद तारों के साथ
अकेला और
देर तक लटका था चांद।
बेकरार चांद
उस रात
सोना नहीं चाहता था।
वह जानता था
उसकी एक झपकी से
उजियाला होगा और
शहर के हजारों चांद टूट जाएंगे।
शहर के हजारों घर रोशनी खो देंगे
वह अपने ठिकानों से लापता होंगे।
उस रात
चांद
हजारों ख्वाबों को तोड़ने की तैयारियां
देख रहा था।
- ये दोनों कविताएं शिरीष खरे की है, जो इन दिनों क्राई, मुंबई के साथ काम कर रहे हैं।
सोमवार, 23 मार्च 2009
मॉडर्न महाजन-3
लंबे अरसे बाद इस सीरीज में एक कड़ी और जोड़ रहा हूं। ताजा मामला एचएसबीसी के क्रेडिट कार्ड के साथ जुड़ा है। ये बातें आपसे इसलिए भी शेयर कर लेता हूं ताकि मेरीबीती से आप कुछ सतर्क हो जाएं।
एचएसबीसी कार्ड के साथ मेरा रिश्ता बड़ा अजीबो-गरीब रहा है। मैं क्रेडिट कार्ड के चक्कर में तब नया-नया ही फंस रहा था। शादी तय हो चुकी थी इसलिए हाथ तंग था और पैसों की जरूरत। ऐसे में एचएसबीसी क्रेडिट कार्ड वालों ने फोन किया तो मैं ना नहीं कर सका।
इस कार्ड की शुरुआती लिमिट पचास हजार के करीब थी, जो बैंक वालों ने मुझसे कोई सलाह मशविरा किए बगैर, बड़े ही मनमाने तरीके से घटाकर ११ हजार के आसपास कर दी। मैंने सोचा चलो पिंड छुटा नहीं कुछ हलका तो हुआ ही।
खैर बात आई गई हो गई और फिलहाल इस क्रेडिट कार्ड का लिमिट १५ हजार है, वो भी बैंक ने खुद ही अतिरिक्त कृपा दिखाते हुए एकतरफा फैसला लिया।
एकतरफा फैसला लेने का बैंक का ये सिलसिला यहीं नहीं रुका। हाल ही में मुझे कुछ शॉपिंग करनी थी मैंने ये कार्ड यूज करना चाहा। मैंने करीब ५४०० का पेंमेंट करना चाहा तो बैंक वालों ने डिनाय कर दिया। इसके बाद सेकेंड टाइम में ४३०० का पेमेंट करना चाहा तो पेमेंट हो गया।
इसके बाद मैंने जब भी कार्ड यूज करना चाहा, बैंक वालों ने डिनाय कर दिया। मुझे डिनायल का कोई कारण समझ में नहीं आया। और न ही पेमेंट के लिए मैसेज कर ग्राहक को बार-बार रिमाइंड कराने वाले बैंक अधिकारियों ने ये जरूरी समझा कि मेरे कार्ड पर लगी पाबंदी की सूचना मुझे देते।
बहरहाल सबसे हैरान करने वाला तथ्य तो ये है कि करीब ४०० रुपये के ओवरयूज के लिए बैंक ने ५०० रुपये चार्ज कर दिया।
सवाल ये है कि
१- जब बैंक ने डिनाय ही किया तो मुझे महज ४०० रुपये ज्यादा निकालने की सुविधा ही क्यों दी?
२- दूसरा सवाल ४०० रुपये के ओवरयूज पर ५०० का फाइन कहां तक जायज है?
३- इस तरह के फैसले लेने के बाद बैंक ग्राहक को सूचना भेजने की जहमत क्यों नहीं उठाते?
मैंने जैसे ही क्रेडिट कार्ड का बिल देखा मेरा माथा ठनक गया। मैंने जब फोन कर कस्टमर केयर वालों से अपना गुस्सा जाहिर किया तो उन्होंने एहसान जताते हुए फाइन को कम कर १२५ रुपये कर दिया। मैं जानता था कि ये भी बिलुकल नाजायज है लेकिन क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल की कुछ तो सजा मिलनी ही चाहिए न।
आखिर मॉडर्न महाजन के पैंतरों से आप और हम कैसे वाकिफ होंगे... इसी तरह तो....
एचएसबीसी कार्ड के साथ मेरा रिश्ता बड़ा अजीबो-गरीब रहा है। मैं क्रेडिट कार्ड के चक्कर में तब नया-नया ही फंस रहा था। शादी तय हो चुकी थी इसलिए हाथ तंग था और पैसों की जरूरत। ऐसे में एचएसबीसी क्रेडिट कार्ड वालों ने फोन किया तो मैं ना नहीं कर सका।
इस कार्ड की शुरुआती लिमिट पचास हजार के करीब थी, जो बैंक वालों ने मुझसे कोई सलाह मशविरा किए बगैर, बड़े ही मनमाने तरीके से घटाकर ११ हजार के आसपास कर दी। मैंने सोचा चलो पिंड छुटा नहीं कुछ हलका तो हुआ ही।
खैर बात आई गई हो गई और फिलहाल इस क्रेडिट कार्ड का लिमिट १५ हजार है, वो भी बैंक ने खुद ही अतिरिक्त कृपा दिखाते हुए एकतरफा फैसला लिया।
एकतरफा फैसला लेने का बैंक का ये सिलसिला यहीं नहीं रुका। हाल ही में मुझे कुछ शॉपिंग करनी थी मैंने ये कार्ड यूज करना चाहा। मैंने करीब ५४०० का पेंमेंट करना चाहा तो बैंक वालों ने डिनाय कर दिया। इसके बाद सेकेंड टाइम में ४३०० का पेमेंट करना चाहा तो पेमेंट हो गया।
इसके बाद मैंने जब भी कार्ड यूज करना चाहा, बैंक वालों ने डिनाय कर दिया। मुझे डिनायल का कोई कारण समझ में नहीं आया। और न ही पेमेंट के लिए मैसेज कर ग्राहक को बार-बार रिमाइंड कराने वाले बैंक अधिकारियों ने ये जरूरी समझा कि मेरे कार्ड पर लगी पाबंदी की सूचना मुझे देते।
बहरहाल सबसे हैरान करने वाला तथ्य तो ये है कि करीब ४०० रुपये के ओवरयूज के लिए बैंक ने ५०० रुपये चार्ज कर दिया।
सवाल ये है कि
१- जब बैंक ने डिनाय ही किया तो मुझे महज ४०० रुपये ज्यादा निकालने की सुविधा ही क्यों दी?
२- दूसरा सवाल ४०० रुपये के ओवरयूज पर ५०० का फाइन कहां तक जायज है?
३- इस तरह के फैसले लेने के बाद बैंक ग्राहक को सूचना भेजने की जहमत क्यों नहीं उठाते?
मैंने जैसे ही क्रेडिट कार्ड का बिल देखा मेरा माथा ठनक गया। मैंने जब फोन कर कस्टमर केयर वालों से अपना गुस्सा जाहिर किया तो उन्होंने एहसान जताते हुए फाइन को कम कर १२५ रुपये कर दिया। मैं जानता था कि ये भी बिलुकल नाजायज है लेकिन क्रेडिट कार्ड के इस्तेमाल की कुछ तो सजा मिलनी ही चाहिए न।
आखिर मॉडर्न महाजन के पैंतरों से आप और हम कैसे वाकिफ होंगे... इसी तरह तो....
शुक्रवार, 20 मार्च 2009
कविता क्यों और कैसे ?
वर्ल्ड पोएट्री डे पर याद आई कविता
सदियों पहले..एक परिंदे की दर्द भऱी आवाज में ढल कर तुम किसी की रूह में उतरीं..एक डाकू..जिसने उस दर्द को महसूस किया और उस दर्द के पेट से तुम पैदा हुई..डाकू महर्षि बन गया और दर्द कविता.. यूं तो अंजान ताकतों की प्रार्थना का रहस्य..भी कविता है लेकिन..वाल्मीकि..ही तुम्हारे पिता थे...और फिर मेघ की भाषा में तुम्हें कालिदास ने बात करने की कला सिखलाई..तुम्हें रंगीनियों से संवारा.. और सीता की तकलीफ भवभूति की कलम से उभरी..तुम्हारी रंगीनियों ने पहली बार करुणा और अंधकार की भाषा भवभूति से सीखी..
तुम चलती रही..बहती रही..भास, दण्डी..श्रीहर्ष..और न जाने कितनी ही जुबां से संवरती रही.शंकर.. कुमारिल ने तुम्हें दर्शन के जेवर पहनाये..तुम्हारी धारा..उत्तर से दक्षिण की ओर बहने लगी..सुदूर..तमिलनाडु में तुम्हें एक नया कलेवर मिला..
एक वक्त ऐसा भी आया जब धारा कुछ रुक सी गई.. लेकिन फिर अमीर खुसरो..की जुबां में तुम ताजा हो उठीं..और राम तुम्हारे हाथों कुछ और संवर से गए.. तुलसी की कलम से.. कूष्ण की शख्सियत को सूर ने तुम्हारे सहारे से एक नई चांदनी से भर दिया..कबीर ने तुम्हें तोड़ना फोड़ना सिखाया..तुम खुद अपनी राह बनाकर चलने की कला उस फकीर से सीख गईं.. नानक की भाषा में तुम कई विरोधों को साथ लेकर चलीं.. और जयदेव..चैतन्य.. कम्ब..पंपा तुम्हें रोशन करते गए..
सदियां बीतीं..भाषा बदलती रहीं.. फारसी में बेदिल की कलम से तुम खिल उठी.. तो मीर के शेर और नज्म तुम्हें खुदा के करीब ले गए.. गालिब की पीड़ा और दर्द में तुम पिघल सी गई....और टैगोर ने तुम्हें झरने का प्रवाह दिया..पश्चिम को पूर्व से मिला दिया..बंकिम ने तुम्हें मुक्ति की चाह दी..और भारती के स्वरों में तुमने विद्रोह करना सीखा....प्रसाद के सहारे तुमने इस संस्कृति की धारा में फिर से डुबकी लगाई... निराला के प्रचंड ओज में तुम्हारे बंधन टूट गए तुम परंपरा और आधुनिकता के बीच भिड़ंत करती रहीं..
जीवनानंद ने तुम्हें नई छवियां दीं..तो मुक्तिबोध ने तुम्हें अंधकार से प्रकाश में जाने की छटपटाहट...नागार्जुन ने तुम्हें भदेस होना सिखलाया और अज्ञेय की भाषा में अभिजात्य हो गईं..
अब तुम्हारे स्वर कुछ बदले हुए हैं.. तुम्हारी शैली भी बदल गई है.. तुम्हारी पहचान मुश्किल है.. तुम कविता हो या कुछ और कहना आसां नहीं.. लेकिन जीवन जब भी गम...खुशी.हार जीत के लम्हों से गुजरता है तुम सांस लेती हो..जब भी बादल गरजते हैं.. झरने बहते हैं.. नदियां उफनती हैं.. चिड़ियां चहचहाती हैं..किसान खेतों में काम करते हैं.. बच्चे जिद करते हैं...मां रोती है..और पिता मुस्कराते हैं तुम मौजूद रहती हो.. और शायद किसी न किसी भाषा, जुबां में इस धरती के जीवित रहने तक तुम भी सांस लेती रहोगी.. क्योंकि जीवन एक कविता ही है...
- देबांशु कुमार (न्यूज २४ में कार्यरत प्रोड्यूसर)
सदियों पहले..एक परिंदे की दर्द भऱी आवाज में ढल कर तुम किसी की रूह में उतरीं..एक डाकू..जिसने उस दर्द को महसूस किया और उस दर्द के पेट से तुम पैदा हुई..डाकू महर्षि बन गया और दर्द कविता.. यूं तो अंजान ताकतों की प्रार्थना का रहस्य..भी कविता है लेकिन..वाल्मीकि..ही तुम्हारे पिता थे...और फिर मेघ की भाषा में तुम्हें कालिदास ने बात करने की कला सिखलाई..तुम्हें रंगीनियों से संवारा.. और सीता की तकलीफ भवभूति की कलम से उभरी..तुम्हारी रंगीनियों ने पहली बार करुणा और अंधकार की भाषा भवभूति से सीखी..
तुम चलती रही..बहती रही..भास, दण्डी..श्रीहर्ष..और न जाने कितनी ही जुबां से संवरती रही.शंकर.. कुमारिल ने तुम्हें दर्शन के जेवर पहनाये..तुम्हारी धारा..उत्तर से दक्षिण की ओर बहने लगी..सुदूर..तमिलनाडु में तुम्हें एक नया कलेवर मिला..
एक वक्त ऐसा भी आया जब धारा कुछ रुक सी गई.. लेकिन फिर अमीर खुसरो..की जुबां में तुम ताजा हो उठीं..और राम तुम्हारे हाथों कुछ और संवर से गए.. तुलसी की कलम से.. कूष्ण की शख्सियत को सूर ने तुम्हारे सहारे से एक नई चांदनी से भर दिया..कबीर ने तुम्हें तोड़ना फोड़ना सिखाया..तुम खुद अपनी राह बनाकर चलने की कला उस फकीर से सीख गईं.. नानक की भाषा में तुम कई विरोधों को साथ लेकर चलीं.. और जयदेव..चैतन्य.. कम्ब..पंपा तुम्हें रोशन करते गए..
सदियां बीतीं..भाषा बदलती रहीं.. फारसी में बेदिल की कलम से तुम खिल उठी.. तो मीर के शेर और नज्म तुम्हें खुदा के करीब ले गए.. गालिब की पीड़ा और दर्द में तुम पिघल सी गई....और टैगोर ने तुम्हें झरने का प्रवाह दिया..पश्चिम को पूर्व से मिला दिया..बंकिम ने तुम्हें मुक्ति की चाह दी..और भारती के स्वरों में तुमने विद्रोह करना सीखा....प्रसाद के सहारे तुमने इस संस्कृति की धारा में फिर से डुबकी लगाई... निराला के प्रचंड ओज में तुम्हारे बंधन टूट गए तुम परंपरा और आधुनिकता के बीच भिड़ंत करती रहीं..
जीवनानंद ने तुम्हें नई छवियां दीं..तो मुक्तिबोध ने तुम्हें अंधकार से प्रकाश में जाने की छटपटाहट...नागार्जुन ने तुम्हें भदेस होना सिखलाया और अज्ञेय की भाषा में अभिजात्य हो गईं..
अब तुम्हारे स्वर कुछ बदले हुए हैं.. तुम्हारी शैली भी बदल गई है.. तुम्हारी पहचान मुश्किल है.. तुम कविता हो या कुछ और कहना आसां नहीं.. लेकिन जीवन जब भी गम...खुशी.हार जीत के लम्हों से गुजरता है तुम सांस लेती हो..जब भी बादल गरजते हैं.. झरने बहते हैं.. नदियां उफनती हैं.. चिड़ियां चहचहाती हैं..किसान खेतों में काम करते हैं.. बच्चे जिद करते हैं...मां रोती है..और पिता मुस्कराते हैं तुम मौजूद रहती हो.. और शायद किसी न किसी भाषा, जुबां में इस धरती के जीवित रहने तक तुम भी सांस लेती रहोगी.. क्योंकि जीवन एक कविता ही है...
- देबांशु कुमार (न्यूज २४ में कार्यरत प्रोड्यूसर)
बुधवार, 18 मार्च 2009
उसकी मां
दिल्ली की
सर्द रात और
क्नॉट प्लेस पर
रोता बच्चा
भीख मांगता, खेलता
भटक आया इस
फुटपाथ पर।
डरा, सहमा वह नन्हा
दो खुली आंखों से
खोजता अपनी मां को।
आसमान में तारे और
एक बड़ा सा चांद
उग आया।
बच्चा टकटकी लगाए
कुछ देर देखता है और
फिर स्ट्रीट लाइट के
नीचे झरे
पत्तों के ढेर इकट्ठा कर
नरम बिस्तर बना
सो जाता है।
सुबह तक
हो सकता है
उसे उसकी मां मिल जाए!
- शिरीष खरे (क्राई, मुंबई में कार्यरत)
सर्द रात और
क्नॉट प्लेस पर
रोता बच्चा
भीख मांगता, खेलता
भटक आया इस
फुटपाथ पर।
डरा, सहमा वह नन्हा
दो खुली आंखों से
खोजता अपनी मां को।
आसमान में तारे और
एक बड़ा सा चांद
उग आया।
बच्चा टकटकी लगाए
कुछ देर देखता है और
फिर स्ट्रीट लाइट के
नीचे झरे
पत्तों के ढेर इकट्ठा कर
नरम बिस्तर बना
सो जाता है।
सुबह तक
हो सकता है
उसे उसकी मां मिल जाए!
- शिरीष खरे (क्राई, मुंबई में कार्यरत)
सोमवार, 16 मार्च 2009
गोंडनी मां
काम से लौटी
थकी, एक अधेड़ गोंडनी
अपने चौथे बच्चे को
बेधड़क दूध पिला रही है।
देवदूत, परियां और
उनके किस्से
श्लोक, आयतें और
आश्वासन
सब झूठे हैं
स्तनों से बहा
खून का स्वाद
चोखा है।
'तीस रूपैया'
दिहाडी के साथ मिली
ठेकेदार की
अश्लील फब्तियों से
अनजान है बच्चा।
नींद में
उसकी मुस्कान
नदी की रेत पर
चांदनी सी फैली है।
धरती पर बैठी
देखती मां
बेतहाशा चूमती है
उसके सारे दुख और
सपने!
- शिरीष खरे ( क्राई में कार्यरत, मुंबई)
थकी, एक अधेड़ गोंडनी
अपने चौथे बच्चे को
बेधड़क दूध पिला रही है।
देवदूत, परियां और
उनके किस्से
श्लोक, आयतें और
आश्वासन
सब झूठे हैं
स्तनों से बहा
खून का स्वाद
चोखा है।
'तीस रूपैया'
दिहाडी के साथ मिली
ठेकेदार की
अश्लील फब्तियों से
अनजान है बच्चा।
नींद में
उसकी मुस्कान
नदी की रेत पर
चांदनी सी फैली है।
धरती पर बैठी
देखती मां
बेतहाशा चूमती है
उसके सारे दुख और
सपने!
- शिरीष खरे ( क्राई में कार्यरत, मुंबई)
सोमवार, 2 मार्च 2009
वसंत
गांव को जाती हुई पगडंडी पर
सर्दी की सुस्त परछाई को
कल शाम घिसटते देखा था मैंने।
पेड़ से लटक रहे थे
आधे हरे, आधे पीले पत्ते उदास।
पेड़ ने ज्यों देखा
अपना पीला बीमार चेहरा,
उद्धत होकर झाड़ दिये सब पत्ते।
पत्ते उड़ते रहे खेत में,
मैदान में कहते रहे अपनी व्यथा।
डालियां कांपती रहीं देर तक,
हिल-हिल कर वसंत को बुलाती रहीं।
-देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
सर्दी की सुस्त परछाई को
कल शाम घिसटते देखा था मैंने।
पेड़ से लटक रहे थे
आधे हरे, आधे पीले पत्ते उदास।
पेड़ ने ज्यों देखा
अपना पीला बीमार चेहरा,
उद्धत होकर झाड़ दिये सब पत्ते।
पत्ते उड़ते रहे खेत में,
मैदान में कहते रहे अपनी व्यथा।
डालियां कांपती रहीं देर तक,
हिल-हिल कर वसंत को बुलाती रहीं।
-देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
पिता
मैने संस्कृति के जिस बियाबान में तुम्हें छोड़ दिया है,
वहां तुम अपनी जड़ों को तलाशने की बात सोच भी नहीं सकते
इसलिए तुम्हारा स्वर एकालापी हो चला है।
हमारी भाषा में जिसे जड़ता कहते हैं,
वह तुम्हारी पीड़ा की घनीभूत अवस्था है।
मैं क्षितिज के पास गलते सूरज की तरह
तुम्हें हर रोज गलते देखता हूं
तुम्हारी आंखों में उदासी की अबूझ लिपियां
पढ़ने की कोशिश करता हूं,
तुम्हारे स्वरों में अंतर्द्वंद्व की ध्वनियां सुन सकता हूं,
जिसे तुम मुस्कुराहट में कह जाते हो।
-देवांशु कुमार, (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
वहां तुम अपनी जड़ों को तलाशने की बात सोच भी नहीं सकते
इसलिए तुम्हारा स्वर एकालापी हो चला है।
हमारी भाषा में जिसे जड़ता कहते हैं,
वह तुम्हारी पीड़ा की घनीभूत अवस्था है।
मैं क्षितिज के पास गलते सूरज की तरह
तुम्हें हर रोज गलते देखता हूं
तुम्हारी आंखों में उदासी की अबूझ लिपियां
पढ़ने की कोशिश करता हूं,
तुम्हारे स्वरों में अंतर्द्वंद्व की ध्वनियां सुन सकता हूं,
जिसे तुम मुस्कुराहट में कह जाते हो।
-देवांशु कुमार, (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
पगडंडियां और सड़कें
पगडंडियां अब सड़कों में मिल गई हैं।
वे संकीर्ण थीं,
एक बार में किसी एक राहगीर को ही जगह दे पाती थीं
लेकिन कंधे तो टकराते थे, आखें भी मिलती थीं।
सुबह, दोपहर, शाम और देर रात तक
आने-जाने का सिलसिला चलता था।
पगडंडियां जो गेंहू और अरहर के खेतों से
लुकाछिपी का खेल खेलती थीं,
रेल की पटरियों को पार कर
दूर तलक बाजार के मुहाने तक जाती थीं,
ज्य़ादा महफूज थीं।
अब सड़कें खा गईं हैं इन्हें,
जो पसर गई हैं खेत के पास-पास
और सीधे-सीधे जुड़ गई हैं बाजार से,
गांव से बाहर जाने का ज़रिया बनकर रह गई हैं।
सड़कों पर अब एकतरफा यातायात
है और गांव में उदासी की एकतानता।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
वे संकीर्ण थीं,
एक बार में किसी एक राहगीर को ही जगह दे पाती थीं
लेकिन कंधे तो टकराते थे, आखें भी मिलती थीं।
सुबह, दोपहर, शाम और देर रात तक
आने-जाने का सिलसिला चलता था।
पगडंडियां जो गेंहू और अरहर के खेतों से
लुकाछिपी का खेल खेलती थीं,
रेल की पटरियों को पार कर
दूर तलक बाजार के मुहाने तक जाती थीं,
ज्य़ादा महफूज थीं।
अब सड़कें खा गईं हैं इन्हें,
जो पसर गई हैं खेत के पास-पास
और सीधे-सीधे जुड़ गई हैं बाजार से,
गांव से बाहर जाने का ज़रिया बनकर रह गई हैं।
सड़कों पर अब एकतरफा यातायात
है और गांव में उदासी की एकतानता।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
बुधवार, 25 फ़रवरी 2009
हिरन की खाल की खंजड़ी और राम कथा
"छापक पेड़ त पतवल गहबर हो। तारि ढाढि़ हरिनिया हरिना बाट जोहत हो। ,यानी पलाश के पेड़ के नीचे हिरनी अपने हिरन की राह देख रही है। हिरन ने अपनी हिरनी से पूछा- क्या तुम्हारा चरहा सूख गया या पानी के बिना तुम्हारा चेहरा मुरझा गया है। हिरनी बोली- न मेरा चरहा सूखा न पानी के बिन मेरा चेहरा मुरझाया। आज राजा जी छट्ठी है वे तुम्हें मार डालेंगे।। कौशल्या रानी मचिया पर बैठी थीं। उनसे हिरनी ने प्रार्थना की. रानी मांस तो रसोई में पक रहा है, हमें खाल दे दो। मैं पेड़ से खाल लटका लूंगी और खाल देख-देखकर मन को समझा लूंगी कि मेरा हिरन अभी जीवित है। रानी बोली-हिरनी तू अपने घर जा। हिरन की खाल से मैं अपने राम के लिए खंजड़ी मढ़वाऊंगी तो मेरे राम उससे खेलेंगे।"
एक मशहूर पत्रकार और बौद्धिक(मुद्राराक्षस) ने इस लोककथा और सौहर के सहारे राम को खंडित करने का प्रयास किया है। विचार के केन्द्र में बीजेपी और राम हैं लेकिन आत्मा लेख की यह है कि राम महल वालों के देवता हैं । यानी बूर्जुआ। उन्हें दलितों, गरीबों से कोई मतलब नहीं था। उन्होंने लिखा है-'काश भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद के लोग यह समझ पाते कि यह दर्द किसका है और क्यों कर है तो निश्चय़ ही इस देश के करोड़ों लोगों की तकलीफ में वे सीधे हिस्सेदारी करते। वे यह भी समझते कि राम के प्रति पेरियार के क्षोभ की वजह क्या हो सकती है।' बड़ा दिलचस्प विचार है। लेखक के मुताबिक पिछड़ों, जनजातियों और दलितों में राम तुच्छ हैं। अवध क्षेत्र में बच्चे की छट्ठी पर गाए जाने वाले इस सौहर के सहारे उन्होंने राम के पूरे व्यक्तित्व को ही खंडित कर दिया। सबसे पहली बात तो यह कि अवध के किस क्षेत्र में यह सौहर गाया जाता है उसका पता नहीं। लेकिन उन्होंने गजब के आत्मविश्वास के साथ पूरे अवध की महिलाओं के मन की बात जान ली। ये भी समझ गए कि राम सिर्फ उच्च जातियों के देवता है, आदर्श हैं।
चलिए ये मान भी लिया कि सौहर में घोर दुख झलकता है। लेकिन इस सौहर और लोककथा का राम से क्या? उनकी माता ने हिरनी से कहा कि हिरन की खाल से खंजड़ी मढ़वाकर वो राम को देंगी, राम उससे खेलेंगे। चूंकि राम की माता को हिरनी का दर्द नजर नहीं आया इसलिए लेखक के मुताबिक राम भी बेदर्द हो गए। क्या यह बताना भी जरूरी है राम इसलिए राम नहीं थे कि कौशल्या उनकी माता थीं और दशरथ उनके पिता। चारों भाइयों में राम विशिष्ट थे और पूर्ण थे इसलिए वो महामानव हुए। उनकी विमाता कैकयी ने राम के लिए वनवास मांगा तो राम ने क्या किया ये कहने और स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि केवट, शबरी और अहिल्या के लिए उन्होंने क्या किया था।राम के मन में पिछड़ों के लिए कोई दर्द नहीं था इसीलिए जब वो केवट से विदाई ले रहे थे तो उन्होंने कहा- तुम मम प्रिय भरत हि सम भ्राता। क्या राम का दोष इसलिए था कि वो राजा के महल में पैदा हुए। बुद्ध बनने से पहले उनके पिता शुद्धोदन ने उन्हें तमाम राजसी प्रवृतियों की ओर धकेलने की कोशिश की तो क्या उनके पिता की ख्वाहिशों के लिए उन्हें कुसूरवार ठहरा दिय़ा जाए। बुद्ध का अपना अलग और महान व्यक्तित्व था।
सबसे बड़ी बात ये है कि इन लोकगीतों के गाये जाने का इतिहास क्या है और आज के समय अर्थ क्या है, इसका पता लगाना बेहद मुश्किल है। अगर राम के प्रति अवध की महिलाओं में इतना ही विकार है तो अपने बच्चे की छट्ठी पर वो इस दर्द भऱे सौहर को गाती क्यों हैं। इस सौहर का एक अर्थ तो ये भी हो सकता है कि तमाम माताएं ऐसी ही खंजड़ी अपने बच्चों के लिए मढ़वाना चाहती हों।राम के प्रति घृणा का सौहर इतने अच्छे मौके पर गाये जाने का कोई औचित्य नहीं दिखता।बचपन से आज तक जिस समाज में रहते आए हैं उसी समाज में राम के प्रति अगाध आस्था देखी है। उस समाज में गरीब. दलित, पिछड़े सभी शुमार हैं। बल्कि उनके मन में राम के प्रति अनंत आस्था देखी है। श्रद्धा की वो गहराई देखी है जो अगड़ों में नहीं नजर आती । पिछड़े तबके की औरतों को सैकड़ों बार राम के गीत गाते देखा और सुना है।
दरअसल इस दृष्टांत से सिर्फ यही समझ में आता है कि इन दिनों राम को जबरन उच्चवर्गीय समाज तक सीमित करने की घिनौनी कोशिश की जा रही है। किसी न किसी बहाने राम को हेठा साबित करने का फैशन सा चल पड़ा है। जब राम सेतु का मुद्दा छिड़ा, तब भी एक खास वर्ग ने राम सेतु को तुरंत नष्ट करने की वकालत की थी क्योंकि अत्यंत वैज्ञानिक विचारों से लैस इन बौद्धिकों के लिए राम तो काल्पनिक पात्र हैं। उनका कोई इतिहास नहीं मिलता। लेकिन उन्हें कौन समझाए कि भारत की संस्कृति और जीवन शैली तो इन्ही काल्पनिक पात्रों और कथानकों के सहारे जीवन ग्रहण करती रही है। तमाम कमियों और वर्णव्यवस्था की खामियों के बावजूद इस देश का सौन्दर्य बचा हुआ है तो उसकी वजह आध्यात्मिकता है। हमारी संस्कृति का खंभा वही है। लॉर्ड मैकाले ने जब हिन्दुस्तान का दौरा किया तो उन्हें इस समाज को गुलाम बनाने में यहां का आध्यात्म सबसे बड़ा रोड़ा दिखा था। क्योंकि मैकाले ने महसूस कर लिया था कि लोग अंदरूनी तौर पर इसी आध्यात्म से शक्ति पाते हैं।
बहरहाल आगे राजनीति का जिक्र करते हुए मुद्राराक्षस ने लिखा कि भाजपा और कांग्रेस ने इस पूरे क्षेत्र में अपनी जड़े सुखा लीं क्योंकि वो उन तमाम हिरनियों का दर्द नहीं देख सकी और काशीराम के आंदोलन ने जड़े जमाईं। दो दशकों में ही वो इस पूरे क्षेत्र के नायक बन कर उभर गए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि कांशीराम का आंदोलन फैला और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ताकतवर बन कर उभऱी। लेकिन पिछले चुनाव की बात को दरकिनार कर दें तो क्या यह बताना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान राजनीति कितनी उथल पुथल भऱी रही है। मुलायम सिंह और मायावती ने सत्ता का सफर तय किया तो इसकी वजह लोगों में राम के प्रति नाराजगी या घृणा नहीं बल्कि सामाजिक, और जातीय समीकरण हैं। अभी मायावती ने सत्ता कैसे हासिल की यह भी सब जानते हैं। उन्हें बहुजन से सर्वजन का नारा देना पड़ा। और दिलचस्प बात ये भी है कि मायावती ऐसी तमाम हिरनियों का दर्द कितना महसूस करती रही हैं यह भी किसी से छिपा नहीं है। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने भी पीड़ितों का दर्द महसूस किया था लेकिन पंद्रह साल तक राज्य को चूसने के बाद जब जनता का मोहभंग हुआ तो पिछले चुनाव में उन्हें दर्द हो गया। वो भी पीड़ितों के मसीहा बन कर उभरे थे लेकिन जब पीड़ितों ने महसूस कर लिया कि उनकी पीड़ा से लालू प्रसाद का कोई सरोकार नहीं तो उन्होंने खुद को उनसे दूर कर लिया। सत्ता राम से नहीं बल्कि काम से चलती है। जब बीजेपी ने राम के बूते सत्ता हासिल की और फिर लंबी तान कर सो गई तो जनता उन्हें दोबारा क्यों मौका देती।
हैरान करने वाली बात ये भी है कि राम के खिलाफ आग उगलने वाले तमाम लोगों और संगठनों ने राम को बीजेपी का देवता बना दिया है। ऐसा लगता है जैसे राम की पहचान बीजेपी से है। अगर चंद सनकी हिंदू संगठन राम के नाम पर हंगामा करते हैं तो क्या इसमें राम का दोष है॥ उनकी छोटी सोच और उनके राष्ट्रवाद का सिद्धांत बेहद संकीर्ण है। अगर वो अपने मकसद के लिए राम के नाम का बेजा इस्तेमाल करते हैं तो इससे राम छोटे नहीं हो जाते। राम एक जीवनशैली हैं। एक आदर्श जीवनशैली। कमियां तो शायद उनके व्यक्तित्व में भी निकाली जा सकती हैं लेकिन राम के आदर्श इतने महान हैं कि कमियों की कोई जगह नहीं। वो हमारे दिल में इसलिए नहीं है कि कौशल्या उनकी माता थीं बल्कि इसलिए हैं कि उन्होंने माता, पिता, पत्नी, सखा, शत्रु के साथ आदर्श संबंध की मिसाल पेश की थी। वो महान इसलिए हैं कि उन्होंने खुद त्याग कर दूसरों को सुख देने में एक बार भी विचार नहीं किया था। उन्हें सिर्फ इसलिए खंडित करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिये कि वो महल में पैदा हुए। वो सदियों से करोड़ों दिलों में बसे हैं और आने वाली सदियों तक बसे रहेंगे। बेहतर यही है कि हमारा समाज उनके जीवन से कुछ सीखे। हम जिस हिंसक दौर में जी रहे हैं उसमें राम प्रासंगिक ही नहीं अनिवार्य भी हैं।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
( 205/2, कीर्ति अपार्टमेंटमयुर विहार फेज-1 नई दिल्ली-91 फोन-९८१८४४२६९०)
एक मशहूर पत्रकार और बौद्धिक(मुद्राराक्षस) ने इस लोककथा और सौहर के सहारे राम को खंडित करने का प्रयास किया है। विचार के केन्द्र में बीजेपी और राम हैं लेकिन आत्मा लेख की यह है कि राम महल वालों के देवता हैं । यानी बूर्जुआ। उन्हें दलितों, गरीबों से कोई मतलब नहीं था। उन्होंने लिखा है-'काश भारतीय जनता पार्टी या विश्व हिन्दू परिषद के लोग यह समझ पाते कि यह दर्द किसका है और क्यों कर है तो निश्चय़ ही इस देश के करोड़ों लोगों की तकलीफ में वे सीधे हिस्सेदारी करते। वे यह भी समझते कि राम के प्रति पेरियार के क्षोभ की वजह क्या हो सकती है।' बड़ा दिलचस्प विचार है। लेखक के मुताबिक पिछड़ों, जनजातियों और दलितों में राम तुच्छ हैं। अवध क्षेत्र में बच्चे की छट्ठी पर गाए जाने वाले इस सौहर के सहारे उन्होंने राम के पूरे व्यक्तित्व को ही खंडित कर दिया। सबसे पहली बात तो यह कि अवध के किस क्षेत्र में यह सौहर गाया जाता है उसका पता नहीं। लेकिन उन्होंने गजब के आत्मविश्वास के साथ पूरे अवध की महिलाओं के मन की बात जान ली। ये भी समझ गए कि राम सिर्फ उच्च जातियों के देवता है, आदर्श हैं।
चलिए ये मान भी लिया कि सौहर में घोर दुख झलकता है। लेकिन इस सौहर और लोककथा का राम से क्या? उनकी माता ने हिरनी से कहा कि हिरन की खाल से खंजड़ी मढ़वाकर वो राम को देंगी, राम उससे खेलेंगे। चूंकि राम की माता को हिरनी का दर्द नजर नहीं आया इसलिए लेखक के मुताबिक राम भी बेदर्द हो गए। क्या यह बताना भी जरूरी है राम इसलिए राम नहीं थे कि कौशल्या उनकी माता थीं और दशरथ उनके पिता। चारों भाइयों में राम विशिष्ट थे और पूर्ण थे इसलिए वो महामानव हुए। उनकी विमाता कैकयी ने राम के लिए वनवास मांगा तो राम ने क्या किया ये कहने और स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है। यह बताने की भी जरूरत नहीं है कि केवट, शबरी और अहिल्या के लिए उन्होंने क्या किया था।राम के मन में पिछड़ों के लिए कोई दर्द नहीं था इसीलिए जब वो केवट से विदाई ले रहे थे तो उन्होंने कहा- तुम मम प्रिय भरत हि सम भ्राता। क्या राम का दोष इसलिए था कि वो राजा के महल में पैदा हुए। बुद्ध बनने से पहले उनके पिता शुद्धोदन ने उन्हें तमाम राजसी प्रवृतियों की ओर धकेलने की कोशिश की तो क्या उनके पिता की ख्वाहिशों के लिए उन्हें कुसूरवार ठहरा दिय़ा जाए। बुद्ध का अपना अलग और महान व्यक्तित्व था।
सबसे बड़ी बात ये है कि इन लोकगीतों के गाये जाने का इतिहास क्या है और आज के समय अर्थ क्या है, इसका पता लगाना बेहद मुश्किल है। अगर राम के प्रति अवध की महिलाओं में इतना ही विकार है तो अपने बच्चे की छट्ठी पर वो इस दर्द भऱे सौहर को गाती क्यों हैं। इस सौहर का एक अर्थ तो ये भी हो सकता है कि तमाम माताएं ऐसी ही खंजड़ी अपने बच्चों के लिए मढ़वाना चाहती हों।राम के प्रति घृणा का सौहर इतने अच्छे मौके पर गाये जाने का कोई औचित्य नहीं दिखता।बचपन से आज तक जिस समाज में रहते आए हैं उसी समाज में राम के प्रति अगाध आस्था देखी है। उस समाज में गरीब. दलित, पिछड़े सभी शुमार हैं। बल्कि उनके मन में राम के प्रति अनंत आस्था देखी है। श्रद्धा की वो गहराई देखी है जो अगड़ों में नहीं नजर आती । पिछड़े तबके की औरतों को सैकड़ों बार राम के गीत गाते देखा और सुना है।
दरअसल इस दृष्टांत से सिर्फ यही समझ में आता है कि इन दिनों राम को जबरन उच्चवर्गीय समाज तक सीमित करने की घिनौनी कोशिश की जा रही है। किसी न किसी बहाने राम को हेठा साबित करने का फैशन सा चल पड़ा है। जब राम सेतु का मुद्दा छिड़ा, तब भी एक खास वर्ग ने राम सेतु को तुरंत नष्ट करने की वकालत की थी क्योंकि अत्यंत वैज्ञानिक विचारों से लैस इन बौद्धिकों के लिए राम तो काल्पनिक पात्र हैं। उनका कोई इतिहास नहीं मिलता। लेकिन उन्हें कौन समझाए कि भारत की संस्कृति और जीवन शैली तो इन्ही काल्पनिक पात्रों और कथानकों के सहारे जीवन ग्रहण करती रही है। तमाम कमियों और वर्णव्यवस्था की खामियों के बावजूद इस देश का सौन्दर्य बचा हुआ है तो उसकी वजह आध्यात्मिकता है। हमारी संस्कृति का खंभा वही है। लॉर्ड मैकाले ने जब हिन्दुस्तान का दौरा किया तो उन्हें इस समाज को गुलाम बनाने में यहां का आध्यात्म सबसे बड़ा रोड़ा दिखा था। क्योंकि मैकाले ने महसूस कर लिया था कि लोग अंदरूनी तौर पर इसी आध्यात्म से शक्ति पाते हैं।
बहरहाल आगे राजनीति का जिक्र करते हुए मुद्राराक्षस ने लिखा कि भाजपा और कांग्रेस ने इस पूरे क्षेत्र में अपनी जड़े सुखा लीं क्योंकि वो उन तमाम हिरनियों का दर्द नहीं देख सकी और काशीराम के आंदोलन ने जड़े जमाईं। दो दशकों में ही वो इस पूरे क्षेत्र के नायक बन कर उभर गए। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि कांशीराम का आंदोलन फैला और उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ताकतवर बन कर उभऱी। लेकिन पिछले चुनाव की बात को दरकिनार कर दें तो क्या यह बताना जरूरी है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पंद्रह वर्षों के दौरान राजनीति कितनी उथल पुथल भऱी रही है। मुलायम सिंह और मायावती ने सत्ता का सफर तय किया तो इसकी वजह लोगों में राम के प्रति नाराजगी या घृणा नहीं बल्कि सामाजिक, और जातीय समीकरण हैं। अभी मायावती ने सत्ता कैसे हासिल की यह भी सब जानते हैं। उन्हें बहुजन से सर्वजन का नारा देना पड़ा। और दिलचस्प बात ये भी है कि मायावती ऐसी तमाम हिरनियों का दर्द कितना महसूस करती रही हैं यह भी किसी से छिपा नहीं है। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने भी पीड़ितों का दर्द महसूस किया था लेकिन पंद्रह साल तक राज्य को चूसने के बाद जब जनता का मोहभंग हुआ तो पिछले चुनाव में उन्हें दर्द हो गया। वो भी पीड़ितों के मसीहा बन कर उभरे थे लेकिन जब पीड़ितों ने महसूस कर लिया कि उनकी पीड़ा से लालू प्रसाद का कोई सरोकार नहीं तो उन्होंने खुद को उनसे दूर कर लिया। सत्ता राम से नहीं बल्कि काम से चलती है। जब बीजेपी ने राम के बूते सत्ता हासिल की और फिर लंबी तान कर सो गई तो जनता उन्हें दोबारा क्यों मौका देती।
हैरान करने वाली बात ये भी है कि राम के खिलाफ आग उगलने वाले तमाम लोगों और संगठनों ने राम को बीजेपी का देवता बना दिया है। ऐसा लगता है जैसे राम की पहचान बीजेपी से है। अगर चंद सनकी हिंदू संगठन राम के नाम पर हंगामा करते हैं तो क्या इसमें राम का दोष है॥ उनकी छोटी सोच और उनके राष्ट्रवाद का सिद्धांत बेहद संकीर्ण है। अगर वो अपने मकसद के लिए राम के नाम का बेजा इस्तेमाल करते हैं तो इससे राम छोटे नहीं हो जाते। राम एक जीवनशैली हैं। एक आदर्श जीवनशैली। कमियां तो शायद उनके व्यक्तित्व में भी निकाली जा सकती हैं लेकिन राम के आदर्श इतने महान हैं कि कमियों की कोई जगह नहीं। वो हमारे दिल में इसलिए नहीं है कि कौशल्या उनकी माता थीं बल्कि इसलिए हैं कि उन्होंने माता, पिता, पत्नी, सखा, शत्रु के साथ आदर्श संबंध की मिसाल पेश की थी। वो महान इसलिए हैं कि उन्होंने खुद त्याग कर दूसरों को सुख देने में एक बार भी विचार नहीं किया था। उन्हें सिर्फ इसलिए खंडित करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिये कि वो महल में पैदा हुए। वो सदियों से करोड़ों दिलों में बसे हैं और आने वाली सदियों तक बसे रहेंगे। बेहतर यही है कि हमारा समाज उनके जीवन से कुछ सीखे। हम जिस हिंसक दौर में जी रहे हैं उसमें राम प्रासंगिक ही नहीं अनिवार्य भी हैं।
देवांशु कुमार (न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत)
( 205/2, कीर्ति अपार्टमेंटमयुर विहार फेज-1 नई दिल्ली-91 फोन-९८१८४४२६९०)
सोमवार, 23 फ़रवरी 2009
स्लमडॉग मिलयनेयर में किसकी जय
स्लमडॉग मिलियनेयर ने इतिहास रच दिया। गोलड्न गोल्ब, बाफ्टा और आखिरकार वो पुरस्कार मिल गया, जिसके इंतजार में भारतीय सिनेमा के कई दशक गुजर गए। सबसे बड़ी कामयाबी ये कि एक भारतीय संगीतकार को एक साथ दो-दो ऑस्कर मिल गए। विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा का डंका बज गया। एक झटके में ए आर रहमान इतिहास रच गए। भारतीय सिनेमा को कुछ ऐसा दे गए जिसे हासिल करने में अब तक बड़े-बड़े भारतीय दिग्गज नाकाम रहे थे। लेकिन इस कामयाबी को जरा ध्यान से परखने की जरूरत है। क्या वाकई स्लमडॉग मिलियनेयर ऐसी उम्दा फिल्म है कि कामयाबी इसके पांव चूमने लगी.. क्या इस फिल्म का संगीत इतना दमदार है कि वो भारतीय फिल्म संगीत के गौरवशाली इतिहास में मील का पत्थर साबित हो गया...
ए आर रहमान की काबिलियत पर कोई शक नही है। वो इस दौर के बेहतरीन संगीतकार हैं। उन्होंने वाकई अच्छी धुनें बनाई हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी को विश्व सिनेमा की बदलती तस्वीर और भारत सिनेमा के लगातार बढ़ते कद से जोड़ कर देखना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा की अपील वैश्विक हुई है। विदेशों में प्रोमोशन और बॉलीवुड के सितारों की बढ़ती लोकप्रियता ने पश्चिम के फिल्मकारों और प्रोड्यूसरों का ध्यान खींचा है। वो भारतीय पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाने की दिशा में गंभीरता से काम करने लगे हैं। कई फिल्में बनीं हैं, और बनने की प्रक्रिया में शामिल हैं। वार्नर ब्रदर्स से लेकर तमाम दूसरी प्रोडक्शन कंपनिया यहां पैसा लगाने में दिलचस्पी ले रही हैं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भारत एक बड़ा बाजार बन कर उभरा है। ये महज इत्तेफाक नहीं है कि स्लमडॉग मिलयनेयर अचानक कामयाब हो गई। इसकी कामयाबी को बाजार की बदलती तस्वीर और विश्व सिनेमा के धरातल पर भारत की मजबूत होती पकड़ के बीच देखना होगा । अचानक ऐसा क्या हुआ कि पश्चिमी फिल्मकारों और आलोचकों को सल्मडॉग मिलयनेयर में वो तमाम खूबियां दिख गईं जो अब तक नजर नहीं आई थी।
इस बात से भी इनकार करना लगभग नामुमकिन है कि अगर ये फिल्म पूरी तरह भारतीय होती तो ऑस्कर में ऐसी कल्पनातीत सफलता मिली होती। धारावी की झुग्गियों पर सुधीर मिश्रा नब्बे के दशक में ही एक अच्छी फिल्म बना चुके हैं लेकिन तब उसका नामलेवा भी कोई नहीं था। फिल्म को रिलीज करवाने में ही उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। कड़ी मशक्कत के बाद दो चार सिनेमाघरों में फिल्म रिलीज भी हुई तो एक सप्ताह में ही उतर गई। ऑस्कर में ले जाने की बात भी दूर थी। पिछले साल की ही बेहतरीन फिल्म तारे जमीं पर आस्कर में प्रवेश पाने में भी नाकाम रही। आखिर क्यों..वो फिल्म हर लिहाज से उम्दा फिल्म थी। तकनीकी तौर से भी फिल्म अच्छी बन पड़ी थी, फिल्म का संगीत उम्दा था, अभिनय, निर्देशन सब कुछ अच्छा था लेकिन पश्चिम के फिल्मकारों, आलोचकों ने इसे दरकिनार कर दिया। ऐसी ही फिल्मों की फेहरिस्त बड़ी है जो दमदार होने के बावजूद ऑस्कर में औधें मुंह गिरती रही हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर का सिक्का चल गया। यहां इस फिल्म को कमतर साबित करने की कोई मंशा नहीं है। लेकिन सवाल उठाना लाजिमी है कि डैनी बॉय़ल का इससे जुड़ा होना इसकी कामयाबी में किस हद तक मददगार है.. स्लमडॉग मिलयेनर एक अच्छी फिल्म है लेकिन अच्छा होना आस्कर में इसकी कामयाबी की वजह नहीं जान पड़ती। ये उस बाजार में फिल्म निर्माण की नई संभावनाओं की तलाश का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से फिल्मों के गोलबाइजेशन की प्रकिया शुरू होती है। यहां से पश्चिमी फिल्मकारों की दिलचस्पी शुरू होती है। उस बाजार पर कब्जा करने की कोशिश की ये पहली सीढ़ी है जहां कामयाबी की अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं।
जरा याद कीजिये 1990 का दशक। भारतीय हुस्नपरियों की कामयाबी का दौर था वो दशक। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्य राय.. लारा दत्ता, डायना हेडन, प्रियंका चोपड़ा, युक्ता मुखी और न जाने कितनी ही सुंदरियां मिस वर्ल्ड और मिस युनिवर्स बन गईं। जैसे पिछले दशक में अचानक भारतीय सुंदरियों के नैन नक्श पश्चिम के सौन्दर्य उपासकों को लुभाने लगे थे। उसी तरह स्लमडॉग में उन्हें अपनी फिल्मों का सुनहरा भविष्य दिखने लगा है। उपभोक्तावाद की फैलती बेल के बीच भारत अब एक बड़े चट्टान की तरह दिखने लगा है, जिस पर बाजार के विस्तार की अपार संभावनाएं है। भारत का विकट सामाजिक समीकरण, रंगीन सांस्कृतिक मिज़ाज पश्चिम के फिल्मकारों को अचानक लुभाने लगा है। क्योंकि वे जानते हैं कि सिनेमा की भाषा बदलने लगी है। अंग्रेजीदां लोगों का एक विशाल तबका हिन्दुस्तान में मौजूद है जो उनकी जरूरतों को बखूबी पूरा कर सकता है।
स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत अच्छा है बेहतरीन नहीं। ए आर रहमान ने इससे कहीं बेहतर धुनें पहले तैयार की हैं। और अगर भारतीय फिल्म संगीत की धारा पर नजर डालें तो स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत कहां ठहरता है। शंकर जयकिशन, मदनमोहन, सलिल चौधुरी, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र नौशाद, गुलाम मोहम्मद, पंचम जैसे दिग्गज संगीतकारों की कालजय़ी धुनें आज भी जुबां पर चढ़ी हुई हैं लेकिन वो ऑस्कर से महरूम रह गईं। हालांकि ऑस्कर में उन्हें ले जाने की इतनी जद्दोजहद भी पहले कभी नहीं की गई। और अगर भारतीय फिल्में वहां गई भी तो हश्र हमेशा बुरा ही हुआ।
स्लमडॉग के परिप्रेक्ष्य में भारतीय फिल्म जगत की व्यग्रता और मीडिया का उन्मादी स्वर भी ध्यान देने के लायक है। ऐसा लगा जैसे हमारी कला तो बस ऑस्कर की मोहताज है। अगर ऑस्कर नहीं मिला तो हम नाकाम। हमारे फिल्मकार हेठे और उनकी कला कच्ची। हैरान करने वाली बात ये भी है कि बॉलावुड का भी एक बड़ा तबका ऑस्कर के लिए तरस रहा था। वो इस अंदाज में बातें कर रहा था जैसे उन्हें अपनी क्षमता पर कोई भरोसा ही न हो। हालांकि एक तबका ऐसा भी था जो दबी जुबां में ही सही लेकिन ये कह जरूर रहा था कि ऑस्कर हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र नहीं है। आखिर हम क्यों ऑस्कर के मोहताज हैं..। जैसे महान फिल्मकार फेलिनी, गोदार और सत्यजीत रे की महानता ऑस्कर की दास नहीं थी उसी तरह आज के दौर की बेहतर फिल्मों को ऑस्कर का मोहताज नहीं होना चाहिये। विश्व सिनेमा में अपनी पहचान बनाना अच्छी बात है लेकिन उस पहचान के लिए अपनी निजता का अर्पण कर देना ठीक नहीं है। जब भी स्लमडॉग की कामयाबी और संगीत पर चर्चा छिड़ी, इस तबके ने तमाम विरोधी स्वरों को कुंठित करार दे दिया। ये कह कर उन्हें खामोश कर दिया कि वो इस कामयाबी को पचा नहीं पा रहे।
स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी भारतीय सिनेमा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। कामयाबी का जश्न मनाना भी वाजिब है। आखिरकार ये एक भारतीय संगीतकार और टेकनीशयन की स्वर्णिम सफलता का वक्त है। ये मुमकिन है कि स्लमडॉग के बाद भारतीय सिनेमा की पैकेजिंग ऑस्कर में बेहतर हो जाय। भारतीय सिनेमा को शायद एक बेहतर प्लैटफॉर्म भी मिल जाए। लेकिन सवाल ये है किक्या ये वक्त के साथ लगातार तरक्की कर रहे भारतीय फिल्म उद्योग में घुसपैठ कर अपनी संभावनाओँ का बाजार विकसित करने की पश्चिमी सोच नहीं है।जय़ हो.. कहने से पहले ये विचार करना होगा कि स्लमडॉग से किसकी जय हो रही है। क्या ये वाकई रहमान की महानता औऱ भारतीय कला की जय है या पश्चिमी फिल्मकारों की सोची समझी रणनीति की जय जय।
देवांशु कुमार
(न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत हैं देवांशु कुमार)
ए आर रहमान की काबिलियत पर कोई शक नही है। वो इस दौर के बेहतरीन संगीतकार हैं। उन्होंने वाकई अच्छी धुनें बनाई हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी को विश्व सिनेमा की बदलती तस्वीर और भारत सिनेमा के लगातार बढ़ते कद से जोड़ कर देखना होगा। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा की अपील वैश्विक हुई है। विदेशों में प्रोमोशन और बॉलीवुड के सितारों की बढ़ती लोकप्रियता ने पश्चिम के फिल्मकारों और प्रोड्यूसरों का ध्यान खींचा है। वो भारतीय पृष्ठभूमि पर फिल्में बनाने की दिशा में गंभीरता से काम करने लगे हैं। कई फिल्में बनीं हैं, और बनने की प्रक्रिया में शामिल हैं। वार्नर ब्रदर्स से लेकर तमाम दूसरी प्रोडक्शन कंपनिया यहां पैसा लगाने में दिलचस्पी ले रही हैं। आर्थिक मंदी के इस दौर में भारत एक बड़ा बाजार बन कर उभरा है। ये महज इत्तेफाक नहीं है कि स्लमडॉग मिलयनेयर अचानक कामयाब हो गई। इसकी कामयाबी को बाजार की बदलती तस्वीर और विश्व सिनेमा के धरातल पर भारत की मजबूत होती पकड़ के बीच देखना होगा । अचानक ऐसा क्या हुआ कि पश्चिमी फिल्मकारों और आलोचकों को सल्मडॉग मिलयनेयर में वो तमाम खूबियां दिख गईं जो अब तक नजर नहीं आई थी।
इस बात से भी इनकार करना लगभग नामुमकिन है कि अगर ये फिल्म पूरी तरह भारतीय होती तो ऑस्कर में ऐसी कल्पनातीत सफलता मिली होती। धारावी की झुग्गियों पर सुधीर मिश्रा नब्बे के दशक में ही एक अच्छी फिल्म बना चुके हैं लेकिन तब उसका नामलेवा भी कोई नहीं था। फिल्म को रिलीज करवाने में ही उन्हें एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। कड़ी मशक्कत के बाद दो चार सिनेमाघरों में फिल्म रिलीज भी हुई तो एक सप्ताह में ही उतर गई। ऑस्कर में ले जाने की बात भी दूर थी। पिछले साल की ही बेहतरीन फिल्म तारे जमीं पर आस्कर में प्रवेश पाने में भी नाकाम रही। आखिर क्यों..वो फिल्म हर लिहाज से उम्दा फिल्म थी। तकनीकी तौर से भी फिल्म अच्छी बन पड़ी थी, फिल्म का संगीत उम्दा था, अभिनय, निर्देशन सब कुछ अच्छा था लेकिन पश्चिम के फिल्मकारों, आलोचकों ने इसे दरकिनार कर दिया। ऐसी ही फिल्मों की फेहरिस्त बड़ी है जो दमदार होने के बावजूद ऑस्कर में औधें मुंह गिरती रही हैं। लेकिन स्लमडॉग मिलयनेयर का सिक्का चल गया। यहां इस फिल्म को कमतर साबित करने की कोई मंशा नहीं है। लेकिन सवाल उठाना लाजिमी है कि डैनी बॉय़ल का इससे जुड़ा होना इसकी कामयाबी में किस हद तक मददगार है.. स्लमडॉग मिलयेनर एक अच्छी फिल्म है लेकिन अच्छा होना आस्कर में इसकी कामयाबी की वजह नहीं जान पड़ती। ये उस बाजार में फिल्म निर्माण की नई संभावनाओं की तलाश का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जहां से फिल्मों के गोलबाइजेशन की प्रकिया शुरू होती है। यहां से पश्चिमी फिल्मकारों की दिलचस्पी शुरू होती है। उस बाजार पर कब्जा करने की कोशिश की ये पहली सीढ़ी है जहां कामयाबी की अपार संभावनाएं दिखने लगी हैं।
जरा याद कीजिये 1990 का दशक। भारतीय हुस्नपरियों की कामयाबी का दौर था वो दशक। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्य राय.. लारा दत्ता, डायना हेडन, प्रियंका चोपड़ा, युक्ता मुखी और न जाने कितनी ही सुंदरियां मिस वर्ल्ड और मिस युनिवर्स बन गईं। जैसे पिछले दशक में अचानक भारतीय सुंदरियों के नैन नक्श पश्चिम के सौन्दर्य उपासकों को लुभाने लगे थे। उसी तरह स्लमडॉग में उन्हें अपनी फिल्मों का सुनहरा भविष्य दिखने लगा है। उपभोक्तावाद की फैलती बेल के बीच भारत अब एक बड़े चट्टान की तरह दिखने लगा है, जिस पर बाजार के विस्तार की अपार संभावनाएं है। भारत का विकट सामाजिक समीकरण, रंगीन सांस्कृतिक मिज़ाज पश्चिम के फिल्मकारों को अचानक लुभाने लगा है। क्योंकि वे जानते हैं कि सिनेमा की भाषा बदलने लगी है। अंग्रेजीदां लोगों का एक विशाल तबका हिन्दुस्तान में मौजूद है जो उनकी जरूरतों को बखूबी पूरा कर सकता है।
स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत अच्छा है बेहतरीन नहीं। ए आर रहमान ने इससे कहीं बेहतर धुनें पहले तैयार की हैं। और अगर भारतीय फिल्म संगीत की धारा पर नजर डालें तो स्लमडॉग मिलयनेयर का संगीत कहां ठहरता है। शंकर जयकिशन, मदनमोहन, सलिल चौधुरी, एसडी बर्मन, सी रामचंद्र नौशाद, गुलाम मोहम्मद, पंचम जैसे दिग्गज संगीतकारों की कालजय़ी धुनें आज भी जुबां पर चढ़ी हुई हैं लेकिन वो ऑस्कर से महरूम रह गईं। हालांकि ऑस्कर में उन्हें ले जाने की इतनी जद्दोजहद भी पहले कभी नहीं की गई। और अगर भारतीय फिल्में वहां गई भी तो हश्र हमेशा बुरा ही हुआ।
स्लमडॉग के परिप्रेक्ष्य में भारतीय फिल्म जगत की व्यग्रता और मीडिया का उन्मादी स्वर भी ध्यान देने के लायक है। ऐसा लगा जैसे हमारी कला तो बस ऑस्कर की मोहताज है। अगर ऑस्कर नहीं मिला तो हम नाकाम। हमारे फिल्मकार हेठे और उनकी कला कच्ची। हैरान करने वाली बात ये भी है कि बॉलावुड का भी एक बड़ा तबका ऑस्कर के लिए तरस रहा था। वो इस अंदाज में बातें कर रहा था जैसे उन्हें अपनी क्षमता पर कोई भरोसा ही न हो। हालांकि एक तबका ऐसा भी था जो दबी जुबां में ही सही लेकिन ये कह जरूर रहा था कि ऑस्कर हमारी श्रेष्ठता का प्रमाण-पत्र नहीं है। आखिर हम क्यों ऑस्कर के मोहताज हैं..। जैसे महान फिल्मकार फेलिनी, गोदार और सत्यजीत रे की महानता ऑस्कर की दास नहीं थी उसी तरह आज के दौर की बेहतर फिल्मों को ऑस्कर का मोहताज नहीं होना चाहिये। विश्व सिनेमा में अपनी पहचान बनाना अच्छी बात है लेकिन उस पहचान के लिए अपनी निजता का अर्पण कर देना ठीक नहीं है। जब भी स्लमडॉग की कामयाबी और संगीत पर चर्चा छिड़ी, इस तबके ने तमाम विरोधी स्वरों को कुंठित करार दे दिया। ये कह कर उन्हें खामोश कर दिया कि वो इस कामयाबी को पचा नहीं पा रहे।
स्लमडॉग मिलयनेयर की कामयाबी भारतीय सिनेमा का महत्वपूर्ण पड़ाव है। कामयाबी का जश्न मनाना भी वाजिब है। आखिरकार ये एक भारतीय संगीतकार और टेकनीशयन की स्वर्णिम सफलता का वक्त है। ये मुमकिन है कि स्लमडॉग के बाद भारतीय सिनेमा की पैकेजिंग ऑस्कर में बेहतर हो जाय। भारतीय सिनेमा को शायद एक बेहतर प्लैटफॉर्म भी मिल जाए। लेकिन सवाल ये है किक्या ये वक्त के साथ लगातार तरक्की कर रहे भारतीय फिल्म उद्योग में घुसपैठ कर अपनी संभावनाओँ का बाजार विकसित करने की पश्चिमी सोच नहीं है।जय़ हो.. कहने से पहले ये विचार करना होगा कि स्लमडॉग से किसकी जय हो रही है। क्या ये वाकई रहमान की महानता औऱ भारतीय कला की जय है या पश्चिमी फिल्मकारों की सोची समझी रणनीति की जय जय।
देवांशु कुमार
(न्यूज २४ में बतौर प्रोड्यूसर कार्यरत हैं देवांशु कुमार)
शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009
VOE- वॉइस ऑफ इम्पलॉइ-1
वॉइस ऑफ इंडिया में प्रबंधन की मनमानी जारी है। कई कर्मचारियों को नौकरी से जबरन निकाल दिया गया है। प्रबंधन की अपनी स्टाइल है और उस स्टाइल के तहत लोगों से इस्तीफा मांगा जा रहा है। इसमें काफी कुछ आपत्तिजनक है, लेकिन फिर भी सब कुछ बर्दाश्त किया जा रहा है।
प्रबंधन से अपील बस इतनी है कि वो कम से कम एक तार्किक तरीके से पेश आए।
- पहली अपील तो ये कि जिन लोगों को आप नौकरी से निकाल रहे हैं, उनका फौरन हिसाब करें। उन्हें फुल एंड फायनल का चेक फौरन सौंपा जाए।
- आखिर जिस शख्स की नौकरी जा रही है, वो क्यों एक, दो या चार महीने तक इंतजार करे? वो इंतजार भी कर सकता है लेकिन आप ऐसी शर्त कैसे किसी पर थोप सकते हैं?
- आपके संस्थान के माहौल से तंग आकर जो लोग नौकरी छोड़ गए हैं उनका फुल एंड फाइनल करने में आखिर इतनी देर क्यों की जा रही है?
- सुनने में आया है कि कुछ पत्रकार साथियों को वीओआई ऑफिस में घुसने से रोक दिया गया है। ये निहायत आपत्तिजनक है, इसका विरोध किया जाना चाहिए।
- हम जहां हैं वहीं से ऐसे तालिबानी रवैये का विरोध कर सकते हैं।
पत्रकार साथी जो हमेशा दूसरों के हितों की लड़ाई लड़ने का दंभ भरते हैं ऐसे मौकों पर क्यों गम खा जाते हैं?
ये लड़ाई किसी एक साथी की नहीं हम सभी की है.... कम से कम हम उन साथियों को अपना नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं जो वीओआई प्रबंधन की मनमानी का शिकार हो रहे हैं।
प्रबंधन से अपील बस इतनी है कि वो कम से कम एक तार्किक तरीके से पेश आए।
- पहली अपील तो ये कि जिन लोगों को आप नौकरी से निकाल रहे हैं, उनका फौरन हिसाब करें। उन्हें फुल एंड फायनल का चेक फौरन सौंपा जाए।
- आखिर जिस शख्स की नौकरी जा रही है, वो क्यों एक, दो या चार महीने तक इंतजार करे? वो इंतजार भी कर सकता है लेकिन आप ऐसी शर्त कैसे किसी पर थोप सकते हैं?
- आपके संस्थान के माहौल से तंग आकर जो लोग नौकरी छोड़ गए हैं उनका फुल एंड फाइनल करने में आखिर इतनी देर क्यों की जा रही है?
- सुनने में आया है कि कुछ पत्रकार साथियों को वीओआई ऑफिस में घुसने से रोक दिया गया है। ये निहायत आपत्तिजनक है, इसका विरोध किया जाना चाहिए।
- हम जहां हैं वहीं से ऐसे तालिबानी रवैये का विरोध कर सकते हैं।
पत्रकार साथी जो हमेशा दूसरों के हितों की लड़ाई लड़ने का दंभ भरते हैं ऐसे मौकों पर क्यों गम खा जाते हैं?
ये लड़ाई किसी एक साथी की नहीं हम सभी की है.... कम से कम हम उन साथियों को अपना नैतिक समर्थन तो दे ही सकते हैं जो वीओआई प्रबंधन की मनमानी का शिकार हो रहे हैं।
शनिवार, 17 जनवरी 2009
ख़त्म हुआ इंतज़ार
१, २, ३ नहीं पूरे ४५ दिनों के इंतज़ार के बाद आखिरकार आ ही गयी नवम्बर की सैलरी।
राजेश भाई की शिकायत बिल्कुल जायज है कि हम लोगों का ये इंतज़ार ही कई सारी समस्याओं को जन्म दे जाता है। हम हमेशा ये सोचते रह जाते हैं कि कल हो सकता है सब कुछ बदल जाए लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा।
१. ख़ुद राजेश भाई का ही इंतज़ार ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा।
२. कुछ ऐसा ही आलम है हमारे एक और साथी नीरज कुमार का भी। उसे सैलरी मांगने की सजा मिली. वीओआई प्रबंधन ने उसे नौकरी से निकाल दिया। हद तो ये है कि तमाम हो हंगामे के बावजूद उसे अदालत की तरह तारीख पे तारीख दी जा रही है। कंपनी चार पाँच महीनो में चंद हजार रूपये भी नहीं जुटा पा रही है ताकि नीरज का फाइनल पेमेंट किया जा सके।
जाहिर है कि ये सवाल परेशानियों का नहीं नीयत का है।
बात और भी होगी, बातें कई हैं जेहन में, लेकिन सब आहिस्ता आहिस्ता...
जैसे प्यार आहिस्ता आहिस्ता वैसे ही गुस्सा भी आहिस्ता आहिस्ता...
राजेश भाई की शिकायत बिल्कुल जायज है कि हम लोगों का ये इंतज़ार ही कई सारी समस्याओं को जन्म दे जाता है। हम हमेशा ये सोचते रह जाते हैं कि कल हो सकता है सब कुछ बदल जाए लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा।
१. ख़ुद राजेश भाई का ही इंतज़ार ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा।
२. कुछ ऐसा ही आलम है हमारे एक और साथी नीरज कुमार का भी। उसे सैलरी मांगने की सजा मिली. वीओआई प्रबंधन ने उसे नौकरी से निकाल दिया। हद तो ये है कि तमाम हो हंगामे के बावजूद उसे अदालत की तरह तारीख पे तारीख दी जा रही है। कंपनी चार पाँच महीनो में चंद हजार रूपये भी नहीं जुटा पा रही है ताकि नीरज का फाइनल पेमेंट किया जा सके।
जाहिर है कि ये सवाल परेशानियों का नहीं नीयत का है।
बात और भी होगी, बातें कई हैं जेहन में, लेकिन सब आहिस्ता आहिस्ता...
जैसे प्यार आहिस्ता आहिस्ता वैसे ही गुस्सा भी आहिस्ता आहिस्ता...
सोमवार, 12 जनवरी 2009
इंतजार
कर रहा हूं इंतजार
सैलरी का
न जाने कब आ जाए
या
न भी आए
लेकिन इंतजार तो
नाम ही है इसी बला का...
अगर पता ही होता समय
तो क्यों करता कोई इंतजार?
इंतजार भी गजब की चीज है
कितनी खीझ होती है
कितना गुस्सा आता है
कितनी बेचैनी होती है
लेकिन सब जज्ब कर
हम करते रहते हैं इंतजार।
मैं भी कर रहा हूं
अभी तो कुछ दिन और...
कहीं
शायद
भूले-भटके
खत्म ही हो जाए इंतजार
अपनी मेहनत के पैसे
मालिक की मेहरबानी से
आ ही जाएं मेरे एकाउंट में।
सैलरी का
न जाने कब आ जाए
या
न भी आए
लेकिन इंतजार तो
नाम ही है इसी बला का...
अगर पता ही होता समय
तो क्यों करता कोई इंतजार?
इंतजार भी गजब की चीज है
कितनी खीझ होती है
कितना गुस्सा आता है
कितनी बेचैनी होती है
लेकिन सब जज्ब कर
हम करते रहते हैं इंतजार।
मैं भी कर रहा हूं
अभी तो कुछ दिन और...
कहीं
शायद
भूले-भटके
खत्म ही हो जाए इंतजार
अपनी मेहनत के पैसे
मालिक की मेहरबानी से
आ ही जाएं मेरे एकाउंट में।
शुक्रवार, 9 जनवरी 2009
गोद में बचपन
मेरी छोटी बहन
मुझसे
कुछ पहले ही बड़ी हो गयी थी!
यहाँ जोड़ घटाना भी नहीं आया कि
वहां रोटियां बेलते-बेलते
सीख लिया उसने
दो दूनी चार , चार दूनी आठ
और आठ दूनी सोलह।
चौका बर्तन की बारहखड़ी में
कब १८ की हो गयी
मालूम ही नहीं चला।
उन दिनों मुझे
साइंस में छपा
परमाणु बम का सिद्धांत
समझ में आया ही था कि
उसने फूल, बसंत , प्यार
जीवन , खुशी , आशा, घर
शान्ति , रात और दिन
बिना पढ़े ही जान लिया।
आखिरकार , मैं
ज्यामितीय के काले
वृत्त में जा फंसा ;
उसके हाथ पीले हो गए।
' समय ' तुम्हे
गुजरने की जल्दी क्या थी?
खैर! आज
सालों बाद
उसके दोबारा
जन्म लेने की ख़बर
हाथ लगी है ।
उसकी गोद में अब
उसका बचपन होगा!
-शिरीष खरे की एक और कविता आप सभी के लिए।
मुझसे
कुछ पहले ही बड़ी हो गयी थी!
यहाँ जोड़ घटाना भी नहीं आया कि
वहां रोटियां बेलते-बेलते
सीख लिया उसने
दो दूनी चार , चार दूनी आठ
और आठ दूनी सोलह।
चौका बर्तन की बारहखड़ी में
कब १८ की हो गयी
मालूम ही नहीं चला।
उन दिनों मुझे
साइंस में छपा
परमाणु बम का सिद्धांत
समझ में आया ही था कि
उसने फूल, बसंत , प्यार
जीवन , खुशी , आशा, घर
शान्ति , रात और दिन
बिना पढ़े ही जान लिया।
आखिरकार , मैं
ज्यामितीय के काले
वृत्त में जा फंसा ;
उसके हाथ पीले हो गए।
' समय ' तुम्हे
गुजरने की जल्दी क्या थी?
खैर! आज
सालों बाद
उसके दोबारा
जन्म लेने की ख़बर
हाथ लगी है ।
उसकी गोद में अब
उसका बचपन होगा!
-शिरीष खरे की एक और कविता आप सभी के लिए।
रविवार, 4 जनवरी 2009
स्टाइलशीटिया
पाश क्या तुम्हें पता है की दुनिया बदल रही है?
क्या तुम जानते हो पत्रकारिता के इस जगत में
सबसे खतरनाक क्या है?
सबसे खतरनाक है...
न जानना ख़बर को बस करसर घुमाना
आना और मशीन की तरह जुट जाना
सही-ग़लत भूल, वर्तनी दोहराना
फुट्टे से नाप कर
सिंगल, डीसी बनाना
ख़ुद कुछ न आए , दूसरों को सिखाना
न बोलना , न सोचना , बस आदेश बजाना
बॉस के हर अच्छे बेहूदे मजाक पर मुंह फाड़ हँसना
अठन्नी बचाने के नाम पर , हजारों का नुकसान कराना
काम के बोझ से मर जाने के नखरे कर, दूसरों पर लदवाना
घोड़े की तरह आँख के दोनों ओर तख्ती लगवा लेना
चुतियापे को स्वीकार करना , चूतियों को सर नवाना
हर प्रश्न , हर मौलिक विचार की जड़ों में मट्ठा डाल देना
अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर , सप्रयास दबाना
वास्तविक काम को स्टाइलशीट की तलवार से
चुपचाप कटते देखना
नए खून को स्टाइलशीट के रेफ्रीजरेटर में
ठंडा होते महसूस करना
बौद्धिक विद्रोह को स्टाइलशीट के रोलर तले
कुचलने में मददगार होना
ख़ुद स्वयं को मरते देखना और आंखे फेर लेना
हाँ ! सबसे खतरनाक है
एक पत्रकार का स्टाइलशीटिया हो जाना।
(ये कविता साथी राजेश डोबरियाल ने तब लिखी थी, जब वो अमर-उजाला अखबार में काम कर रहे थे. ये कविता मेरे हाथ लगी, मैंने इसे अनायास, कारवां में अनाम छापी. ये कविता मेरे लघु शोध का भी हिस्सा बनी. और अब राजेशजी की अनुमति से उनके नाम के साथ. )
क्या तुम जानते हो पत्रकारिता के इस जगत में
सबसे खतरनाक क्या है?
सबसे खतरनाक है...
न जानना ख़बर को बस करसर घुमाना
आना और मशीन की तरह जुट जाना
सही-ग़लत भूल, वर्तनी दोहराना
फुट्टे से नाप कर
सिंगल, डीसी बनाना
ख़ुद कुछ न आए , दूसरों को सिखाना
न बोलना , न सोचना , बस आदेश बजाना
बॉस के हर अच्छे बेहूदे मजाक पर मुंह फाड़ हँसना
अठन्नी बचाने के नाम पर , हजारों का नुकसान कराना
काम के बोझ से मर जाने के नखरे कर, दूसरों पर लदवाना
घोड़े की तरह आँख के दोनों ओर तख्ती लगवा लेना
चुतियापे को स्वीकार करना , चूतियों को सर नवाना
हर प्रश्न , हर मौलिक विचार की जड़ों में मट्ठा डाल देना
अंतरात्मा की आवाज़ को अनसुना कर , सप्रयास दबाना
वास्तविक काम को स्टाइलशीट की तलवार से
चुपचाप कटते देखना
नए खून को स्टाइलशीट के रेफ्रीजरेटर में
ठंडा होते महसूस करना
बौद्धिक विद्रोह को स्टाइलशीट के रोलर तले
कुचलने में मददगार होना
ख़ुद स्वयं को मरते देखना और आंखे फेर लेना
हाँ ! सबसे खतरनाक है
एक पत्रकार का स्टाइलशीटिया हो जाना।
(ये कविता साथी राजेश डोबरियाल ने तब लिखी थी, जब वो अमर-उजाला अखबार में काम कर रहे थे. ये कविता मेरे हाथ लगी, मैंने इसे अनायास, कारवां में अनाम छापी. ये कविता मेरे लघु शोध का भी हिस्सा बनी. और अब राजेशजी की अनुमति से उनके नाम के साथ. )
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