मंगलवार, 29 मार्च 2011

खेल को 'खेल' रहने दो


जो तुमसे बना है

उसे झुकाओ मत

जरा सम्मान दो

थोड़ी तारीफ करो।


वो हमसे अलग नहीं

रूप-रंग एक है

खेल भी है एक

इसे बस खेल रहने दो

युद्ध न बनाओ।


ये नेताओं की रोटी है

उन्हें ही हज़म होती है

अगर खेल से बात बनती है

तो खेलो

भावना के मैदान पर।


जीत की जिद बेकार है

और दो दिन का है

हार का मातम

काश ऐसा हो

एक दूसरे का दिल जीतें

भारत और पाकिस्तान

प्रेम का रिश्ता हो आबाद

गले मिलें

दिल्ली और इस्लामाबाद।


भारत-पाक 'युद्ध' के बीच कविताई के ये बोल एक टीवी चैनल पर सुनाई दें तो थोड़ा अचरज होता है। थोड़ी हैरानी होती है, लेकिन एक सुखद एहसास भी होता है। भीड़ के शोर में कहीं कोई आवाज तो है, जिसमें किसी पत्रकार के एहसास और उसके तर्क सांसें ले रहे हैं। मोहाली में मुंबई की 'टीस' निकाल रहे टीवी शोज के बीच 29 मार्च (विश्वकप की सबसे बड़ी जंग से एक दिन पहले) को सीएनईबी ने एक कार्यक्रम पेश किया- खेल को खेल ही रहने दो, उससे खिलवाड़ मत करो। ये वाकई साहस का काम है। ये साहस टीआरपी की दौड़ में न होने की वजह से है या फिर अपनी अलग पहचान की तलाश की वजह से... वजह चाहे जो भी हो कार्यक्रम काबिले तारीफ जरूर है।

कहां मिसाइलें दागी जा रहीं हैं, रणभेरी बज रही है... तोप और टैंकर निकल गए हैं और कहां एक चैनल प्राइम टाइम में दिल्ली और इस्लामाबाद के दिल मिलाने की बात कर रहा है। कहते हैं भीड़ की एक साइक्लॉजी होती है, जिसमें सारे सही और गलत काम होते चले जाते हैं और किसी को कोई अपराध बोध नहीं होता। यही वजह है कि ज्यादातर बड़े चैनलों में मोहाली का मैच 'महासंग्राम' बन चुका है और खिलाड़ी 'योद्धा'। शब्दावली लगभग एक सी है, उन्माद लगभग एक सा है, अपराधबोध लगभग सभी जगह सिरे से नदारद।


बहरहाल सीएनईबी ने मंगलवार की रात 8.30 से 9.30 के बीच एक ऐसा शो प्रसारित किया, जिसे कम से कम मीडियाकर्मी मीडिया की संजीदगी की मिसाल के तौर पर पेश कर सकेंगे। भारत-पाक मैच को खेल भावना के तौर पर देखने की वकालत करते इस शो में वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन और सीएनईबी के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी देवांशु झा ने बड़े संतुलित तरीके से दर्शकों के मानस को झकझोरा। सत्येंद्र रंजन ने बेहद वाजिब सवाल उठाया कि पिछले 3-4 दिनों से जो उन्माद फैलाया जा रहा है, कल मैच के बाद अगर उसकी परिणति किसी हिंसक घटना के रूप में हुई तो उसका जिम्मेदार कौन होगा ?


सत्येंद्र रंजन ने मीडिया की दिक्कतों का भी हवाला दिया और कहा कि जब क्रिेकेट पर लगातार कवरेज होगी तो अलग-अलग एंगल निकालने ही होंगे। ऐसे में कब पत्रकारीय मर्यादा की सीमाएं दरक जाती हैं, पता ही नहीं चलता। जाहिर है, जब मनुष्य की आदिम हिंसा भड़कती है तो वो बढ़ती ही चली जाती है। तीर, तलवार से तोप तक पहुंचती है और फिर बम गोला बारूद से होती हुई मिसाइल हमले शुरू कर देती है। अभी क्रिकेट के पिच पर परमाणु बम फटने बाकी हैं। सचिन के शतकों के शतक के साथ हो सकता है, मोहाली की पिच पर जापान का रेडिएशन भी पसर जाए।


शो के दौरान देवांशु झा ने दोस्ती की पिच पर 'हरी घास' के बेहद संवेदनशील जुमले का इस्तेमाल किया। वाकई खून के लाल रंग के बीच दोस्ती की हरी घास आंखों को काफी सुकून दे जाती है। देवांशु झा ने कहा कि क्रिकेट को हमारी कुंठा निकालने का मौका नहीं समझना चाहिए। उनका सवाल बेहद वाजिब है कि मैदान में क्रिकेट खेल रहे शाहिद आफरीदी किस ब्रिगेड में शामिल हैं, उमर गुल फौज की किस आर्टिलरी का हिस्सा हैं?

हालांकि अभी दो दिन पहले तक सीएनईबी की जुबान पर भी दबे सुर में ही सही रण के शोले सुलग जरूर रहे थे... आप खुद देखिए चैनल पर प्रसारित इन पंक्तियों में कैसे 'सब के सब के मारे जाने' की धमकी छिपी है....

रण में जब तुम उतरोगे

मन डोल डोल जाएगा

सब व्यूह छिन्न हो जाएंगे

सब के सब मारे जाएंगे

गनीमत ये है कि 'युद्ध' के अंत से पहले चैनल की चेतना जाग गई... उन्हें ये एहसास हो गया कि बाजार की भाषा और भाव तो हर दिन हावी रहते हैं एक दिन अंतरात्मा की आवाज सुनने में क्या हर्ज है... एक दिन दोस्ती का तराना गुनगुनाने से क्यों गुरेज करें?

पशुपति शर्मा

रविवार, 13 मार्च 2011

हिन्दी को मांजो... रगड़ो... बदलो... और चला दो


('हिन्दी बदलेगी तो चलेगी!' विषय पर 12 मार्च की शाम दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुई परिचर्चा पर एक रिपोर्ट।)

12 मार्च की शाम, इंडिया हैबिटेट सेंटर के एम्फी थियेटर में हिन्दी को बदलने और बदल कर चलाने की फिक्र में हिन्दी जगत के सुधी पाठक, लेखक और शुभचिंतकों की जमात जमा हुई। कार्यक्रम की शुरुआत वैशाली माथुर की चंद लाइनों से हुईं। वैशाली ने हिन्दी के 'महानुभावों' का स्वागत करते हुए कार्यक्रम का संचालन पेंगुइन हिन्दी के संपादक सत्यानंद निरुपम को सौंप कर अपना 'पिंड' छुड़ाया।

सत्यानंद निरुपम ने माइक थामते ही एक 'सत्यनुमा' सवाल दागा या यूं कहें कि एक बयान दे डाला कि - 'हिंदी जैसे चल रही है, वैसे नहीं चल सकती।' दूसरी बात उन्होंने कही कि हिन्दी के साथ कई दिक्कतें हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। सत्यानंद निरुपम के मुताबिक हिंदी के सबसे बड़े हितैषी अकादमिक क्षेत्र के लोग हैं। इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर भी चिंता जाहिर की कि हिन्दी में कोई ऐसी पत्रिका क्यों नहीं जिसे एक लाख लोग खरीद कर पढ़ते हों। परिचर्चा के दौरान बीच-बीच में निरुपम कुछ ऐसे ही 'तराने' छेड़ते रहे जिससे 'हिन्दी मन' उद्वेलित होता रहा। जाहिर है उनके हर बयान से सहमति और असहमति दोनों की पर्याप्त गुंजाइश थी और शायद यही निरुपम का मकसद भी था। बहस चल निकली और बड़ी गर्मजोशी के साथ चलती रही।

दिल्ली विश्वविद्यालय के व्याख्याता आशुतोष कुमार ने पहली पंक्ति में हिन्दी साहित्य का हिन्दी समाज से रिश्ता तोड़ डाला। उनकी माने तो अब साहित्य और समाज में वो जान-पहचान नहीं रही जो इस भाषा की जान भी थी और पहचान भी। इसके लिए उन्होंने रामचंद्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास को अकादमिक क्षेत्र का बुनियादी ग्रंथ बनाए जाने को जिम्मेदार ठहराया। आशुतोष कुमार के मुताबिक रामचंद्र शुक्ल के इतिहास ने खड़ी बोली की परंपरा को हिन्दी के इतिहास से बाहर निकाल दिया। दूसरी तरफ बोलियों के 'क्लासिकल' साहित्य को इतिहास में समाहित किया लेकिन आधुनिक साहित्य को सिरे से खारिज कर दिया। इससे हिन्दी भाषा की रवानगी और उसका सहज विकास बाधित हुआ। इसके साथ ही आशुतोष ने अखबारी हिन्दी में 'ग्लोबिश भाषा' के बनते या बिगड़ते स्वरूप को समझने और गंभीरता से देखने की जरूरत पर जोर दिया। उनका धाराप्रवाह विचार कुछ देर और प्रवाहित हो सकता था लेकिन निरुपम ने 'रुकावट के लिए खेद है' के अंदाज में दखल दे दिया।

इसके बाद बारी लेखिका नूर जहीर की आई। नूर ने भाषा को मजहब से जोड़ने को लेकर अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि मजहब के साथ जुड़कर दोनों ही भाषाओं का नुकसान हुआ है। आज दोनों भाषाओं के पैरोकार अंग्रेजी के करीब जाने में हिचक महसूस नहीं करते लेकिन एक-दूसरे से 'भाषाई दुश्मनी' बखूबी निभा रहे हैं। उन्होंने कहा कि उर्दू जबान में 'सेक्रेटरी' का इस्तेमाल तो हो सकता है लेकिन 'सचिव' से तौबा कर ली गई है। हालांकि उन्होंने इसके लिए 'राजनीति' से ज्यादा व्यक्तिगत 'ईगो' को जिम्मेदार बताया।

कवयित्री अनामिका ने अपने छोटे से भाषण में प्रेशर कुकर की एक सीटी में पकने वाली 'भाषा की खिचड़ी' सिझाई और उसे सुपाच्य बना कर लोगों के गले से नीचे 'ससार' दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दी में जितने भी भाषा के शब्द 'फेटे' जा सकते हैं, फेटे जाने चाहिए। उन्होंने अपने वक्तव्य में भी 'टुईयां', 'ठस्सा' और 'धड़का' जैसे शब्द फेटे और भाषा की ताकत का एहसास कराया। सबसे अच्छी बात ये रही कि उन्होंने भाषा को लेकर, बोली को लेकर मन का 'धड़का' खत्म करने की वकालत की। वाकई अगर ये धड़का खत्म हो गया तो फिर हिन्दी और हिन्दीवालों की कई सारी दिक्कतें खुद ब खुद हल हो जाएंगी।

'सराय' के साथ लंबे वक्त से जुड़े रविकांत ने हिन्दी भाषा की शब्दावली को लेकर अपनी राय रखी। उन्होंने कहा कि कंप्यूटर जैसे नए क्षेत्रों के लिए अपनी जबान की शब्दावली होनी ही चाहिए। उन्होंने 'इनबॉक्स' के लिए 'आई डाक' और 'आउट बॉक्स' के लिए 'गई डाक' जैसे शब्द बनाने, तलाशने और तराशने के अपने अनुभव साझा किए। हालांकि दीर्घा में मौजूद फिल्मकार के विक्रम सिंह को उनका ये प्रयोग 'दकियानूसी' लगा। के विक्रम सिंह ने ये सवाल उठाया कि आखिर हिन्दी वालों को 'इन बॉक्स' और 'आउट बॉक्स' से परेशानी क्यों होती है? जाहिर है, विक्रम सिंह जैसे लोगों का एक वर्ग है जो ये मानता है कि अगर चलने के लिए हिन्दी को बदलना है तो उसे ऐसे 'शब्दों' या 'बदलावों' से परहेज क्यों?

आखिर में हिन्दी के 'एलिट' मीडियाकर्मी रवीश कुमार (आपकी स्वीकारोक्ति है) ने 'हिन्दी में अंग्रेजी झाड़ने' का अपना अनुभव भी साझा किया और मीडिया में हिन्दी को बतौर भाषा बरतने को लेकर अपनी चिंता भी जाहिर भी की। 'जापान में कुदरत का डबल अटैक' जब टेलीविजन की स्क्रीन पर नजर आता है तो हिन्दी जबान और उसकी संवेदनात्मक, भावात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता को भी 'दिल का डबल अटैक' पड़ता है, लेकिन ये बात कोई समझने को तैयार नहीं। 'माइग्रेशन' के साथ भाषा में बन रही खिचड़ी का सौंधापन रवीश कुमार को भी पसंद है लेकिन जब ये भाषा 'संघर्ष' के बजाय 'समझौते पर समझौते' करने लगती है तो उनका मन कहीं कचोटता जरूर है।

मंच पर आसीन 'महानुभावों' के बोल चुकने के बाद दीर्घा में बैठे महानुभावों की बारी आई। इनमें वरिष्ठ पत्रकार अजीत राय की टिप्पणी विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। अजीत राय का दर्द ये है कि हिन्दी में नाट्य समीक्षा, फिल्म समीझा की कोई कद्र नहीं है। इसके साथ ही वो ये कहना भी नहीं भूलते- "अगर मैंने हिन्दी में किए अपने काम की तुलना में 5 फीसदी काम भी अंग्रेजी में किया होता तो आज यहां नहीं होता... आज आपका भाषण नहीं सुन रहा होता... कहीं और होता....।" हिन्दी वाले की 'कहीं ओर चले जाने की ललक' भी लगता है हिन्दी का थोड़ा बहुत नुकसान तो कर ही रही है।

खैर! बहस दो जाम साथ लगाने की अर्जी के साथ खत्म हो गई। एक जाम शायद उस सवाल के नाम की कि जब बहस हिन्दी पर हो रही है तो मंच के पीछे लगे बोर्ड पर हिन्दी का कोई शब्द क्यों नहीं? और दूसरा जाम 'बदलने का सबक' सीखने के लिए। आखिर अंग्रेजी के साथ चलने के लिए हिन्दी को कुछ नए 'दस्तूर' भी तो सीखने होंगे। वरना हिन्दी पट्टी में किसी संगोष्ठी के बाद खुले तौर पर जाम का न्यौता कहां मिल पाता है?

- पशुपति शर्मा