शनिवार, 18 अक्तूबर 2014

ये दाढ़ी कुछ तो कहती है


तीन दिन से तबीयत खराब है, सो दफ्तर जाना हो नहीं पाया। इन तीन दिनों में बहुत पुराने साथियों ने हौले-हौले से अपनी जगह हासिल कर ली। पत्नी को उनसे चिढ़ है और मुझे लगाव। पत्नी को चिढ़ इसलिए कि वो मेरी पर्सनालिटी को बिगाड़ देते हैं, और मुझे प्यार इसलिए कि वो लंबे वक्त तक मेरे व्यक्तित्वका हिस्सा रहे हैं। बात चेहरे पर उग आए उन काले-सफेद बालों के जो एक खिचड़ी से हो गए हैं, ठीक वैसे ही जैसे मन।

हाथ दाढ़ियों पर जाते हैं तो बड़ा सुकून महसूस होता है। इन दाढ़ियों के साथ काफी लंबी यादें जुड़ी हैं। पहली बार जब स्कूल के दिनों में गालों पर इक्का दुक्का बाल उगे तो कैसा महसूस हुआ, ठीक से याद नहीं। हां, जब गाल पर घने और काले बालों ने ठीक-ठाक बसेरा बना लिया तो अच्छा लगने लगा। मां ने कभी मना नहीं किया। पिता, जो बाकियों को बढ़ी दाढ़ी के लिए डांटते-फटकारते रहे थे, उन्होंने कभी-कभार ही चेहरे की रंगत सुधार लेने की नसीहत दी। कुल मुलाकर इन दाढ़ियों पर वैसी आफत नहीं टूटी कि उनका अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाए।

फिर भोपाल पहुंचे। इक्का-दुक्का मौकों को छोड़ दें तो दाढ़ी बदस्तूर गालों पर कायम रही। ये जो कल से कुछ लिखने को जी मचल रहा है, वो कुछ उन्हीं यादों के सहारे भी तो है। इन दाढ़ियों के साथ कई नाटकों की प्रस्तुतियांकीं। दस्तक के हम उम्र साथियों के बीच शायद दाढ़ियों ने समय से पहले मुझे थोड़ा बुजुर्गबना डाला था। बड़ी सी दाढ़ियां तब तक कई बार घुंघराली शक्ल ले लेती। तब चश्मे का फ्रेमभी गोल और बड़ा गोल था। हड्डियों पर मांस को बसेरा बनाने का वक्त मिलता नहीं था। पहली नज़र में बीमार समझ लिए जाने की गुंजाइश रहती थी लेकिन मन था कि कुलांचे मारता रहता। परवाह कहां थी, न मुझे, न दाढ़ियों को।

दिल्ली आए, अखबार के दिनों तक फिर भी दाढ़ी को कभी कभार मौका मिल जाया करता था, अपनी मौजूदगी दर्ज कराने का लेकिन चैनलों की नौकरी ने उसे ये मौके देने भी बंद कर दिए। हां, आप वाकई बीमार पड़ जाएं, हिम्मत न हो तो दो चार दिनों के लिए दाढ़ी से याराना गांठ सकते हैं। कुछ घंटों में इन काले-उजरे बालों की विदाई हो जाएगी, लेकिन अभी तो यही मुझे अरसे बाद कुछ बतियाने का मौका दे रहे हैं।
खुद में खोए, खुद को ढूंढते दाढ़ीदार पशुपति का गुनाह माफ हो तो कुछ तस्वीरें बीच-बीच में चस्पां हैं, ख़ास आपके लिए।
-पशुपति