रविवार, 4 जनवरी 2015

पीके पर 'पीके' ही कर रहे हैं हंगामा


पिछले कई दिनों से फिल्म पीके को लेकर विवाद चल रहा है। खूब हो हंगामा भी हो रहा है। शायद जो लोग हंगामा कर रहे हैं, उन्हें ये उम्मीद हो कि उन्हें भी बैठे-बिठाए 'पीके' का नाम मिल जाए, क्योंकि होश में तो ऐसी फिल्म पर हंगामा मुमकिन नहीं लगता। हंगामेबाजों को ये भी नसीब नहीं हो पा रहा, इसका उन्हें जरूर अफ़सोस होगा। हां, वो फिल्म की बिन मांगी पब्लिसिटी जरूर कर रहे हैं, जिसके लिए फिल्म की टीम को उनका शुक्रिया अदा करना चाहिए।
फेस बुक पर कई साथियों ने प्रतिक्रिया दी कि अब पीके की तारीफ और उसकी आलोचना करने पर आपके सांप्रदायिक, गैर-सांप्रदायिक आदि तमगे जुड़ेंगे, फिल्म की कलात्मकता या उसके कला पक्ष की चर्चा कम होगी। ऐसा ही हो रहा है। रॉन्ग नंबर ही ज्यादा डायल हो गए हैं और रॉन्ग नंबर के ठेकेदार ही दबंगई से न्यूज रूम के स्टूडियो तक 'कांय-कांय' कर रहे हैं। खैर पीके पर सियासत करने वालों, हंगामा करने वालों को उन्हें ये फिल्म मुबारक।
पीके की कथावस्तु की बात करें तो इसमें ऐसा कुछ भी नहीं, जो हमारी आम साइकी में न हो। मंदिर से जूते चोरी, भगवान को चढ़ावा, आस्था के बिचौलिये इन सब पर तंज कसा जाता रहा है, नुक्कड़ से लेकर बड़े पर्दे तक। पीके में इसे एक साथ जमा कर सूत्र में पिरोने की कोशिश भर की गई है, जो कई मौकों पर फूहड़ सी बन पड़ी है। हिंदुस्तान एक हिंदू बहुल राष्ट्र है, हिंदू धर्म ने आलोचना का स्पेस दिया है और फिल्म ने उसका बखूबी इस्तेमाल किया है। इस पर हंगामेबाज हिंदुओं का फर्क करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने अपनी हरकतों से इसे शर्म का विषय बना लिया है। फिल्म में इस्लाम, ईसाई और सिखों के कुछ दृश्य मानो इसलिए जोड़ दिए गए हैं, ताकि एक संतुलन दिखे। जिसकी कोई जरूरत नहीं थी। एक वक्त में एक तबके पर भी तंज कसते तो कोई ऐतराज न था।
निर्देशक या कथाकार ने दूसरे ग्रह के प्राणी को इस संदेश को देने के लिए क्यों चुना, ये भी समझ से परे है। एक बड़े कान और दूसरे हाथ पकड़कर मन पढ़ने की शक्ति के अलावा पीके में ऐसी कोई खूबी नहीं थी, जिससे दूसरे ग्रह के प्राणी को बुलाने की जरूरत आन पड़ी हो। फिल्म कई तरह के सरलीकरण का शिकार हो गई है। बोली के लिहाज से 'लालू स्टाइल' या 'बिहारी स्टाइल' का चुनाव कर निर्देशक ने बतौर अभिनेता आमिर खान की चुनौती कम ही कर दी। इसके अलावा जब हाथ पकड़ कर ही बोली सीखनी थी तो कुछ और बोलियां भी केरेक्टर पर आजमाई जा सकती थीं। क्षेपक के तौर पर सेक्स को भी हास्य का विषय बनाया गया है। हिलने वाली कार या कंडोम वाले दृश्यों का इस्तेमाल भी एक दूसरे तरह का सरलीकरण है, जिसके विकल्प निर्देशक को तलाशने चाहिए थे। लॉकेट का गायब होना और फिर चोर के पकड़े जाने पर वापसी के दौरान बम विस्फोट जैसे दृश्य अति नाटकीय हैं।
अभिनय के लिहाज से आमिर खान अपनी पुरानी फिल्मों से एक कदम आगे बढ़ते नज़र नहीं आते। अनुष्का शर्मा जरूर अपनी भूमिका में असर पैदा कर पाईं हैं। बतौर रिपोर्टर, एंकर उन्होंने अपने किरदार को जी लिया है। नृत्य की बात करें तो पीके और संजय दत्त दोनों के स्टेप्स अच्छे लगते हैं। फिल्म टुकड़ों-टुकड़ों में निराश करती हुई टुकड़ों-टुकड़ों में ही अपना स्पेस तलाशती है ।
पशुपति शर्मा