गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

अंधा युग- रह रह कर दोहराता है!



दिल्ली के फिरोज शाह कोटला में 'अंधा युग' एक बार फिर खुद को दोहरा रहा है। पचास साल बाद एक बार फिर किले में गूंज रहे हैं वो संवाद, जो अंदर तक झकझोर कर रख देते हैं। महाभारत के युद्ध के अट्ठारहवें दिन के घटनाक्रम को धर्मवीर भारती ने जिस रूप में पिरोया है, वो हर देश-काल में अपने मायने तलाश लेता है... आज के इस दौर में भी। आज भी जब सत्ता अपने मद में अक्सरां 'अंधी' हो जाती है और सरकार के 'महारथी' अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा की तरह या तो अपने 'पागलपन' में 'हत्यारे' की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं, या फिर बिना विचारे अपने सारे 'ब्रह्मास्त्र' विरोधियों पर छोड़ देते हैं।

ये महज इत्तफाक ही था, कि 18 अक्टूबर, मंगलवार की संध्या दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित दर्शक दीर्घा में मौजूद थीं, और मंच से 'शासकों' के 'दोमुंहेपन' और सत्ता की 'मदांधता' पर ऐसे संवाद गूंज रहे थे, जो एक साथ कई संदर्भों में चोट कर रहे थे। सत्ता को उसकी 'मर्यादा' का पाठ पढ़ाया जा रहा था। हालांकि मुख्यमंत्री के लिए ये उत्सव है-"इस वर्ष कोटला फिरोजशाह में ऐतिहासिक परिवेश में महाभारत पर आधारित महान नाटक अंधायुग हम सभी के लिए एक अत्यंत उत्साहजनक घटना... उत्सव की बेला है यह।" (मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का संदेश, ब्रोशर से) वाकई अंधायुग सत्ता के 'अंधेपन' का 'उत्सव' है! इसमें क्या संदेह रह जाता है।

नाटक देखते हुए, कई बार हालिया टीम अन्ना का आंदोलन और उस दौरान देश की सरकार का रवैया भी समानांतर मन में कई तरह की हलचल पैदा करता रहा। ये तो एक बानगी है, देश में ऐसे कई आंदोलन चल रहे हैं और कमोबेश हर जगह सरकार की भूमिका और उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही रही है। शायद नाटक के निर्देशक भानु भारती का ये कथन कि उन्होंने नाटक को मौजूदा परिस्थितियों में और प्रासंगिक बनाने की कोशिश की है, इन्हीं प्रसंगों में कुछ और मायने तलाशता है।

नाटक में 'महाराज' धृतराष्ट्र का एक संवाद आता है कि वो अपनी वैयक्तिकता में इस कदर उलझे कि उन्हें न तो बाह्य मानदंडों का खयाल रह गया और न ही वो उन शब्दों के मायने समझ पाए जो 'संजय' उनके सामने बार-बार दोहरा रहे थे। सत्ता को इस बात का एहसास होने में काफी वक्त लग जाता है कि वैयक्तिक सीमाओं से बाहर भी 'सत्य' होता है। धृतराष्ट्र की भूमिका निभा रहे मोहन महर्षि ने अपने अभिनय, भंगिमाओं और हरकतों से अपनी छटपटाहट और हार की वजहों को लेकर चल रहे आत्ममंथन को दर्शकों तक काफी बेहतर तरीके से संप्रेषित किया है।

कोटला के किले में जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, पात्रों का अंतर्द्वंद्व भी तीर्वतर होता जाता है। बिलकुल मध्य से कोरस गान, मंच के दाईं तरफ धृतराष्ट्र का महल और बाईं तरफ वो 'स्पेस' जहां अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य अपनी इस हार से बौखलाए, पगलाए से छटपटा रहे हैं। पिता द्रोण की धोखे से हुई हत्या के बाद अश्वत्थामा ने सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया, उसके लिए बस एक ही लक्ष्य है- पाण्डवों का समूल नाश, और इसके लिए वो किसी भी हद तक जा सकता है। अश्वत्थामा की भूमिका निभा रहे टीकम जोशी ने बदले की आग में जलते एक शख्स के मनोभावों को बखूबी निभाया है।

अश्वत्थामा के द्वारा संजय पर हमला, एक वृद्ध याचक का 'वध', और पांडव शिविर पर हमला। ये सारे मनोभाव और परिस्थितियां धीरे-धीरे उद्धाटित होती हैं। एक तरफ जहां, धृतराष्ट्र सैनिकों को सहला कर युद्ध की पीड़ा को महसूस कर व्यथित हो उठते हैं तो वहीं पुत्रमोह में गांधारी अश्वत्थामा के कुकृत्यों का विवरण बड़े 'रस' से सुनती रहती हैं। उन्हें इसमें विदुर की ओर से पैदा किया गया कोई व्यवधान रास नहीं आता।

गांधारी की भूमिका में उत्तरा बावकर को देखना, वाकई उस मां से होकर गुजरना है, जो युद्ध की इस बेला में अपनी हार स्वीकार नहीं कर पाती, अपने बेटे दुर्योधन को मरते हुए देखना नहीं चाहती, अपने घर आए बेटे युयुत्सु को आशीष के दो वचन नहीं सुना सकती और अंतत: उस कृष्ण को भी शापित कर देती है जिस पर पुत्र से भी ज्यादा मोह है। कृष्ण और गांधारी के बीच के संवाद में ओमपुरी की आवाज और उत्तरा बावकर के जवाब, सिहरन पैदा कर जाते हैं।

नाटक, हर पल, हर क्षण सत्ता के मद और उसके द्वारा निर्मित 'युद्ध' की परिस्थितियों पर नरम-नरम चोट करता है। इस तनाव पूर्ण परिस्थितियों में भी दो प्रहरी (मौजूदा पुलिस और प्रशासन) की विवशता कटु हास्य पैदा करती है। दाएं से बाएं और बाएं से दाएं... दाएं से बाएं और बाये से दाएं... वाकई सत्ता ने यही काम तो प्रहरियों के जिम्मे छोड़ रखा है। नाटक के एक अन्य दृश्य में युयुत्सु प्रहरियों के हथियार से आत्महत्या कर लेता है। उस वक्त प्रहरी कहते हैं- जो अस्त्र-शस्त्र दुश्मनों के लिए थे, वो अब खुद अपनों के बीच तन गए हैं, चलो अच्छा हुआ ये अस्त्र जो हमारे पास थे आज कुछ काम तो आए।

नाटक समाप्त होता है... वहां जहां आशाओं के दीप जल रहे हैं। नाटक में हिस्सा ले रहे सभी कलाकार एक एक कर मंच के अलग-अलग कोनों से हाथ में दीप लिए आते हैं। दीवाली से पहले कोटला में एक दीपोत्सव मनता है। इस वक्त वृद्ध याचक का एक संवाद फिर मन में उठता है- हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है... लेकिन क्या वाकई इस क्षण में हम इतिहास बदलने को तैयार हैं या फिर, रह-रह कर दोहराएंगे एक और 'अंधा युग'।

पशुपति शर्मा

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

देश जागा ! ...तो मर गई सरकार !


देश के जागने पर सरकार के मरने का एहसास क्या होता है ? ये रामलीला मैदान में बैठे अन्ना हजारे और उनके लाखों समर्थकों से पूछिए। ये बात उन करोड़ों लोगों से पूछिए जो देश भर में 'अन्ना नहीं आंधी है... देश का दूसरा गांधी है...' के नारे लगा रहे हैं। ये बात उन छोटे-छोटे बच्चों से पूछिए जो 'ट्विंकल ट्विंकल लिट्ल स्टार.... खत्म हो ये भ्रष्टाचार' के बोल गुनगुना रहे हैं...! इससे पहले, कम से कम आज की युवा पीढ़ी को ये एहसास इतना तीव्रतर हो कर नस्तर की तरह नहीं चुभ रहा था कि सरकार मर चुकी है... और वो 'लोकतंत्र की चिता' पर अपनी 'अय्याशी का कबाब' सेंक रही है। हद तो ये है कि बकायदा ये 'कबाब' रामलीला मैदान में भूखे बैठे अन्ना की फिक्र छोड़कर प्रधानमंत्री की इफ्तार पार्टी में चबाया जा रहा है और लोकतंत्र का ठेका संभाले सांसदों में इसका स्वाद लेने की होड़ मची है ।

सत्ता पक्ष ने लोकतंत्र की मौत का इंतजाम किया और उसका मर्सिया पढ़ने की बारी आई तो बाकी पार्टियों को भी अपने साथ कर लिया। पहले टीम अन्ना के साथ सलमान खुर्शीद और प्रणब मुखर्जी ने जनलोकपाल पर मीटिंग-मीटिंग का नाटक खेला, सरकार के रटे-रटाए जुमले दोहराए, झूठे-सच्चे वादे किए और महज 24 घंटे में उन वादों को ऑल पार्टी मीटिंग में चाय कॉफी के साथ गटक लिया। टीम अन्ना को कह दिया कि जो मांग आप कर रहे हैं, ये मुमकिन नहीं है। एक पल में देश के लाखों करोड़ों लोगों के मन में जो उम्मीद जगी थी, सरकार में जो भरोसा जगा था, उसको लोकतंत्र के तमाम तकाजों के साथ ही कब्र में दफना दिया।


सरकार की पहली मौत

इस सरकार की धड़कन उस दिन बंद हो गई, जब पीएम को लोकपाल के दायरे से बाहर कर दिया गया। उस सरकार को जिंदा कैसे माना जा सकता है जो अपने आका को जांच से बचाने की जुगाड़ करती दिखे।
सरकार की दूसरी मौत

सरकार दूसरी बार तब मरी जब मनीष तिवारी जैसे प्रवक्ता को लड़ाई के मोर्चे पर आगे किया । लोकतांत्रिक व्यवस्था में समर्थन-विरोध की परंपरा को कुचलते हुए मनीष तिवारी ने अन्ना हजारे पर ओछे आरोप लगाए।

सरकार की तीसरी मौत

सरकार की तीसरी बार मौत तब हुई जब उसने अन्ना हजारे को अनशन की जगह देने से इंकार कर दिया। सरकार ने दिल्ली पुलिस के जरिए अन्ना पर 22 नाजायज शर्तें थोप दीं। उस सरकार को कैसे जिंदा माना जाए जिसमें अपना विरोध सहने का माद्दा ना हो।

सरकार की चौथी मौत

सरकार की चौथी मौत तिहाड़ जेल में हुई । सरकार ने अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेज दिया। वो सरकार जो अपने जननायकों से ऐसा बर्ताव करे, उसे जिंदा कैसे माना जाए।

सरकार की पांचवीं मौत

सरकार की पांचवी मौत तब हुई जब सरकार के तीन-तीन मंत्री चिदंबरम, सिब्बल और अंबिका सोनी देश को अन्ना की गिरफ्तारी की मजबूरियां बताने लगे। जब देश के गृहमंत्री ये झूठ बोलने लगे कि उन्हें नहीं मालूम कि इस पूरे मामले में दिल्ली पुलिस क्या करती रही और अन्ना को गिरफ्तार कर कहां रखा गया। उस सरकार को जिंदा कैसे माना जाए जो देश में इतनी बड़ी उथल-पुथल से आंखें मूंदें बैठी हो।

सरकार की छठी मौत

सरकार की सांसें छठी बार तब थमीं, जब अन्ना हजारे ने तिहाड़ जेल से बाहर आने से ही मना कर दिया। जो सरकार सुबह अन्ना को देश की शांति के लिए खतरा बना कर गिरफ्तार करवा रही थी, वही सरकार शाम होने तक रिरियाती रही और अन्ना तिहाड़ जेल में ही अनशन पर डट गए।

सरकार की सातवीं मौत

सातवीं बार सरकार दिल्ली ही नहीं देश भर के कई शहरों की सड़कों पर मरी। देश भर में लोग अन्ना के समर्थन में उतर आए। सरकार के खिलाफ नारे लगने शुरू हो गए। अन्ना के समर्थन में उमड़े जनसैलाब के आगे सरकार पूरी तरह दम तोड़ गई ।

सरकार की आठवीं मौत

अन्ना के अनशन के आठवें दिन सिर्फ सरकार ही नहीं संसदीय सिस्टम की मौत हो गई। तीन दिन की छुट्टियों में पघुराए सांसद जब संसद भवन पहुंचे तो जनलोकपाल और अन्ना के अनशन पर चर्चा के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे और किसी ने भी खुलकर कोई स्टैंड नहीं लिया।

सरकार की नौवीं मौत

सरकार की नौवीं मौत तब हुई जब टीम अन्ना के साथ सरकार विश्वासघात और छल पर उतर आई। सरकार ने पहले दिन जो मुहजबानी वादे किए, उसे दूसरे दिन लिख कर देने से साफ मना कर दिया। ये सरकार पर भरोसे की आखिरी मौत थी...

सरकार की दसवीं मौत

सरकार की दसवीं पर शोक संवेदना व्यक्त करने के लिए आप भी आमंत्रित हैं.... तारीख आप खुद तय कर लें... ये महज एहसास का सवाल है....

पशुपति शर्मा/बजरंग झा
(अन्ना के आंदोलन पर प्रकाशित पत्रिका 'अनायास अन्ना' से उद्धृत)

बुधवार, 13 जुलाई 2011

मेट्रो ये तो बताए पचास रुपये का गुनाह क्या है ?

जिस समय सरकार देश से चार आने को विदा कर रही थी, और भारी मन से आठ आने की जान बख्स रही थी, उसी वक्त देश की राजधानी की एक बड़ी कॉरपोरेट फर्म बड़े चुपके से पचास रूपये के नोट को उसकी औकात बता रही थी। सरकार ने चवन्नी को अलविदा किया तो अखबारों में खबरें भी आईं, फीचर भी छपे ... यहां तक कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी बड़े तामझाम के साथ चवन्नी की विदाई का गम या जश्न जो भी समझें, महसूस कराया। लेकिन ये क्या दिल्ली मेट्रो की छोटी से छोटी खबर को अखबार की लीड बना कर परोसने वाले मीडिया ने इस बात का जिक्र तक नहीं किया कि अब जेब में पचास रूपये का नोट लेकर मेट्रो स्मार्ट कार्ड रिचार्ज कराने पहुंच रहे लोगों को काउंटर से बैरंग लौटाया जा रहा है।

जी हां, दिहाड़ी मजदूर जो पचास रूपये का कूपन रिचार्ज करा कर दो चार दफा बिना लाइन में लगे मेट्रो का आरामदायक सफर कर लेता था, उसकी जेब में अगर सौ रूपये का नोट नहीं हो तो उसे लंबी लाइन में लग कर टोकन लेना पड़ेगा। लोग भले ही पूरे सफर एसी का मजा लेते रहें लेकिन वो बेचारा ये सोच कर ही पसीने-पसीने होते रहेगा कि दस रूपये के सफर में एक रूपये की जो बचत हो पाती, वो आज नहीं हो पाई।

यही आलम उन छात्रों का भी होगा, जो यार दोस्तों से सौ-पचास उधार लेकर कहीं घूम आने के लिए मेट्रो का इस्तेमाल किया करते थे। मैं उन रईसपुत्रों की बात नहीं कर रहा, जिनके लिए एक दिन में हजार दो हजार खर्च कर देना कोई बड़ी बात नहीं है। मैं तो यूपी और बिहार से आने वाले ऐसे छात्रों की बात कर रहा हूं जो घर से अगले ड्राफ्ट के इंतजार में बड़ी मुश्किल से अपनी जरूरतें पूरी कर पाते हैं। इन सभी जरूरतमंदों की जरूरत से बेफिक्र एसी वाली मेट्रो के एसी में पघुराते अधिकारियों ने ये फैसला कर लिया कि अब पचास रूपये से स्मार्ट कूपन रिचार्ज नहीं होगा।

महीने में अपने पतियों के साथ एक बार घर से बाहर निकलने वाली गृहणियों के लिए भी मेट्रो का ये फैसला किसी झटके से कम नहीं। घर के बजट से जोड़-जाड़ के, पति से लड़-झगड़ कर उन्होंने अपना मेट्रो कार्ड बनवाया था, जिसे वो सहेज कर रखतीं। घूमना-फिरना होता तो अपना कार्ड लेकर चलतीं और पचास रूपये रिचार्ज करवा कर घर तक लौट आतीं। पचास रूपये के रिचार्ज कूपन की अहमियत क्या होती है, मेट्रो अधिकारियों को एक बार इन महिलाओं से भी पूछ कर देख लेना चाहिए था। ऐसी न जाने कितनी महिलाएं होंगी, जो पहली दफा मेट्रो काउंटर पर हाथ से लिखी नई नोटिस देखकर मायूस होकर लौटीं होंगी... इसका हिसाब मेट्रो के पास कतई नहीं होगा। हां, उनसे आप पूछें न पूछें, आनंदविहार से वैशाली तक मेट्रो चालू होते ही पहले दिन कितने और लोगों ने मेट्रो का खजाना भरा, ये आंकड़ा वो आपके बिना पूछे भी मुहैया करा देंगे।

कोई मेट्रो अधिकारियों से ये पूछेगा कि आखिर क्या सोच कर उन्होंने मेट्रो स्मार्ट कार्ड के रिचार्ज वैल्यू से पचास रूपये को विदा कर दिया? जो मेट्रो दस-दस रूपये के कूपन काउंटर से बेच रहा है, उसे एक मुसाफिर के पचास रूपये के रिचार्ज को नकारने का अधिकार किसने दिया ? वो मुसाफिर जिसने सौ रुपये में पहली बार मेट्रो स्मार्ट कार्ड खरीदा था, उसकी अनुमति के बिना उसका पचास का रिचार्ज क्यों बंद किया गया? क्या ये उपभोक्ताओं के अधिकार का हनन नहीं ? क्या ये मानवाधिकारों के हनन का मुद्दा नहीं ? क्या ये देश की अर्थव्यवस्था में प्रचलित नोटों को मनमाने तरीके से अपमानित और अवमूल्यित करने की साजिश नहीं ?

लेकिन मेट्रो के सौ गुनाह भी माफ हैं... क्योंकि ई श्रीधरन जैसे काबिल लोगों ने रिकॉर्ड समय में मेट्रो का काम पूरा कर इसे विश्वस्तरीय उपलब्धि बना दिया है। ऐसे ग्लोबल उत्साह में किसी आम आदमी की मायूसी से उपजे सवालों पर चर्चा करना ही गुनाह है। कम से कम हमारे मीडिया में ऐसे सवालों के लिए कोई नहीं जगह नहीं, क्योंकि मेट्रो के पीआर अधिकारियों ने सब कुछ इतनी खूबसूरती से मैनेज कर रखा है कि मेट्रो मतलब... सुहाना ही सुहाना... मेट्रो मतलब खजाना ही खजाना.... ऐसे में आठ आने के सौ गुना मूल्य वाले पचास के नोट को मेट्रो स्मार्ट कार्ड काउंटर से बेआबरू होकर लौट आना पड़े तो किसी को मायूस नहीं होना चाहिए... लोगों को तो बस इस बात पर खुश होते रहना चाहिए कि मेट्रो ने पचास के नोट को इतनी इज्जत बख्स रखी है कि वो अकेले नहीं, एक हमसफर के साथ आए और सौ रुपये का रिचार्ज करा कर लौट जाए।

गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

ये दाग दाग उजाला

युवा साथी विश्वदीपक ने जंतर-मंतर पर चल रहे आंदोलन की एक 'सुबह' को कुछ यूं बयां किया।

कैमरे खामोश थे. और मीडिया वाले ऊंघ रहे थे. कुछ चाय की चुस्कियों से अपनी थकान मिटाने की कोशिश कर रहे थे. तो कुछ चहलकदमी करके पैरो में सिमट आई एकरसता तोड़ रहे थे. सूरज आसमान में चढ़ रहा था. और जिंदगी फुटपाथ पर उतरने लगी थी. सुबह साफ और चमकदार थी. ये अन्ना के आमरण अनशन की पहली सुबह थी।

पिछले चौबीस घंटे से जो 129 लोग आमरण अनशन पर थे उनके चेहरे पर थोड़ी थकान थी. अन्ना अभी तक मंच पर नहीं थे. मंच के नीछे कुछ जाने पहचाने चेहरे मिले. कुछ ने गले लगाकर स्वागत किया तो कुछ ने बस एक मीठी मुस्कान का तोहफा दिया. शायद लगा कि हां, सुबह जानदार है. शायद इसी तरह कोई सुबह आएगी जब भ्रष्टाचार की सियाही मिट जाएगी।

अन्ना के अनशन के समर्थन में बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर के बैनर भी मंच के ऊपर लहरा रहा है. पुलिस की मौजूदगी न के बराबर है। लगता है यूपीए सरकार भी अपरोक्ष रूप से अनशन में शामिल है. वक्त की सुई थोड़ा और आगे खिसकती है. सूरज थोड़ा और ऊपर चढ़ता है.लोगों की आवक जावक थोड़ी और बढ़ती है. कि तभी लोग मंच की तरफ भगाने लगते हैं. पता चलता है कि अन्ना मंच पर आ चुके हैं।

कल के अन्ना और आज के अन्ना में एक महीन सा फर्क नजर आता है. उनकी चमड़ी का रंग थोड़ा और तांबई हो गया है. लेकिन हौसला और पक्का लग रहा है। मंच के पास जाने का हौसला नहीं होता क्योंकि वहां की जगह कैमरों ने छीन ली है. खुद को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहने वाला मीडिया किस तरह अराजक है ये एक बार फिर स्थापित हुआ. हर कोई अन्ना से कुछ एक्सक्लूसिव चाह रहा था. जबकि इसमें कुछ भी एक्सक्लूसिव हो ही नहीं सकता।

कल जब अन्ना ने् अनशन का ऐलान किया था तब करीब दो हजार लोग जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए थे. हर वो आदमी जो किसी भी तरह से इस व्यवस्था के नीचे घुटन महसूस करता है अन्ना के अनशन से राहत महसूस कर रहा है। अन्ना से बातचीत की इच्छा दबाए वापस लौट पड़ता हूं. रास्ते में वो कुछ भी नहीं मिलता जो जाते वक्त मिला था. न वो हौसला और न ही वो उम्मीद। शायह हर यात्रा का अंत ऐसे ही होता है... तो क्या अन्ना की यात्रा का भी यही अंत होगा...?

मंगलवार, 29 मार्च 2011

खेल को 'खेल' रहने दो


जो तुमसे बना है

उसे झुकाओ मत

जरा सम्मान दो

थोड़ी तारीफ करो।


वो हमसे अलग नहीं

रूप-रंग एक है

खेल भी है एक

इसे बस खेल रहने दो

युद्ध न बनाओ।


ये नेताओं की रोटी है

उन्हें ही हज़म होती है

अगर खेल से बात बनती है

तो खेलो

भावना के मैदान पर।


जीत की जिद बेकार है

और दो दिन का है

हार का मातम

काश ऐसा हो

एक दूसरे का दिल जीतें

भारत और पाकिस्तान

प्रेम का रिश्ता हो आबाद

गले मिलें

दिल्ली और इस्लामाबाद।


भारत-पाक 'युद्ध' के बीच कविताई के ये बोल एक टीवी चैनल पर सुनाई दें तो थोड़ा अचरज होता है। थोड़ी हैरानी होती है, लेकिन एक सुखद एहसास भी होता है। भीड़ के शोर में कहीं कोई आवाज तो है, जिसमें किसी पत्रकार के एहसास और उसके तर्क सांसें ले रहे हैं। मोहाली में मुंबई की 'टीस' निकाल रहे टीवी शोज के बीच 29 मार्च (विश्वकप की सबसे बड़ी जंग से एक दिन पहले) को सीएनईबी ने एक कार्यक्रम पेश किया- खेल को खेल ही रहने दो, उससे खिलवाड़ मत करो। ये वाकई साहस का काम है। ये साहस टीआरपी की दौड़ में न होने की वजह से है या फिर अपनी अलग पहचान की तलाश की वजह से... वजह चाहे जो भी हो कार्यक्रम काबिले तारीफ जरूर है।

कहां मिसाइलें दागी जा रहीं हैं, रणभेरी बज रही है... तोप और टैंकर निकल गए हैं और कहां एक चैनल प्राइम टाइम में दिल्ली और इस्लामाबाद के दिल मिलाने की बात कर रहा है। कहते हैं भीड़ की एक साइक्लॉजी होती है, जिसमें सारे सही और गलत काम होते चले जाते हैं और किसी को कोई अपराध बोध नहीं होता। यही वजह है कि ज्यादातर बड़े चैनलों में मोहाली का मैच 'महासंग्राम' बन चुका है और खिलाड़ी 'योद्धा'। शब्दावली लगभग एक सी है, उन्माद लगभग एक सा है, अपराधबोध लगभग सभी जगह सिरे से नदारद।


बहरहाल सीएनईबी ने मंगलवार की रात 8.30 से 9.30 के बीच एक ऐसा शो प्रसारित किया, जिसे कम से कम मीडियाकर्मी मीडिया की संजीदगी की मिसाल के तौर पर पेश कर सकेंगे। भारत-पाक मैच को खेल भावना के तौर पर देखने की वकालत करते इस शो में वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन और सीएनईबी के वरिष्ठ संपादकीय सहयोगी देवांशु झा ने बड़े संतुलित तरीके से दर्शकों के मानस को झकझोरा। सत्येंद्र रंजन ने बेहद वाजिब सवाल उठाया कि पिछले 3-4 दिनों से जो उन्माद फैलाया जा रहा है, कल मैच के बाद अगर उसकी परिणति किसी हिंसक घटना के रूप में हुई तो उसका जिम्मेदार कौन होगा ?


सत्येंद्र रंजन ने मीडिया की दिक्कतों का भी हवाला दिया और कहा कि जब क्रिेकेट पर लगातार कवरेज होगी तो अलग-अलग एंगल निकालने ही होंगे। ऐसे में कब पत्रकारीय मर्यादा की सीमाएं दरक जाती हैं, पता ही नहीं चलता। जाहिर है, जब मनुष्य की आदिम हिंसा भड़कती है तो वो बढ़ती ही चली जाती है। तीर, तलवार से तोप तक पहुंचती है और फिर बम गोला बारूद से होती हुई मिसाइल हमले शुरू कर देती है। अभी क्रिकेट के पिच पर परमाणु बम फटने बाकी हैं। सचिन के शतकों के शतक के साथ हो सकता है, मोहाली की पिच पर जापान का रेडिएशन भी पसर जाए।


शो के दौरान देवांशु झा ने दोस्ती की पिच पर 'हरी घास' के बेहद संवेदनशील जुमले का इस्तेमाल किया। वाकई खून के लाल रंग के बीच दोस्ती की हरी घास आंखों को काफी सुकून दे जाती है। देवांशु झा ने कहा कि क्रिकेट को हमारी कुंठा निकालने का मौका नहीं समझना चाहिए। उनका सवाल बेहद वाजिब है कि मैदान में क्रिकेट खेल रहे शाहिद आफरीदी किस ब्रिगेड में शामिल हैं, उमर गुल फौज की किस आर्टिलरी का हिस्सा हैं?

हालांकि अभी दो दिन पहले तक सीएनईबी की जुबान पर भी दबे सुर में ही सही रण के शोले सुलग जरूर रहे थे... आप खुद देखिए चैनल पर प्रसारित इन पंक्तियों में कैसे 'सब के सब के मारे जाने' की धमकी छिपी है....

रण में जब तुम उतरोगे

मन डोल डोल जाएगा

सब व्यूह छिन्न हो जाएंगे

सब के सब मारे जाएंगे

गनीमत ये है कि 'युद्ध' के अंत से पहले चैनल की चेतना जाग गई... उन्हें ये एहसास हो गया कि बाजार की भाषा और भाव तो हर दिन हावी रहते हैं एक दिन अंतरात्मा की आवाज सुनने में क्या हर्ज है... एक दिन दोस्ती का तराना गुनगुनाने से क्यों गुरेज करें?

पशुपति शर्मा

रविवार, 13 मार्च 2011

हिन्दी को मांजो... रगड़ो... बदलो... और चला दो


('हिन्दी बदलेगी तो चलेगी!' विषय पर 12 मार्च की शाम दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में हुई परिचर्चा पर एक रिपोर्ट।)

12 मार्च की शाम, इंडिया हैबिटेट सेंटर के एम्फी थियेटर में हिन्दी को बदलने और बदल कर चलाने की फिक्र में हिन्दी जगत के सुधी पाठक, लेखक और शुभचिंतकों की जमात जमा हुई। कार्यक्रम की शुरुआत वैशाली माथुर की चंद लाइनों से हुईं। वैशाली ने हिन्दी के 'महानुभावों' का स्वागत करते हुए कार्यक्रम का संचालन पेंगुइन हिन्दी के संपादक सत्यानंद निरुपम को सौंप कर अपना 'पिंड' छुड़ाया।

सत्यानंद निरुपम ने माइक थामते ही एक 'सत्यनुमा' सवाल दागा या यूं कहें कि एक बयान दे डाला कि - 'हिंदी जैसे चल रही है, वैसे नहीं चल सकती।' दूसरी बात उन्होंने कही कि हिन्दी के साथ कई दिक्कतें हैं, जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। सत्यानंद निरुपम के मुताबिक हिंदी के सबसे बड़े हितैषी अकादमिक क्षेत्र के लोग हैं। इसके साथ ही उन्होंने इस बात पर भी चिंता जाहिर की कि हिन्दी में कोई ऐसी पत्रिका क्यों नहीं जिसे एक लाख लोग खरीद कर पढ़ते हों। परिचर्चा के दौरान बीच-बीच में निरुपम कुछ ऐसे ही 'तराने' छेड़ते रहे जिससे 'हिन्दी मन' उद्वेलित होता रहा। जाहिर है उनके हर बयान से सहमति और असहमति दोनों की पर्याप्त गुंजाइश थी और शायद यही निरुपम का मकसद भी था। बहस चल निकली और बड़ी गर्मजोशी के साथ चलती रही।

दिल्ली विश्वविद्यालय के व्याख्याता आशुतोष कुमार ने पहली पंक्ति में हिन्दी साहित्य का हिन्दी समाज से रिश्ता तोड़ डाला। उनकी माने तो अब साहित्य और समाज में वो जान-पहचान नहीं रही जो इस भाषा की जान भी थी और पहचान भी। इसके लिए उन्होंने रामचंद्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास को अकादमिक क्षेत्र का बुनियादी ग्रंथ बनाए जाने को जिम्मेदार ठहराया। आशुतोष कुमार के मुताबिक रामचंद्र शुक्ल के इतिहास ने खड़ी बोली की परंपरा को हिन्दी के इतिहास से बाहर निकाल दिया। दूसरी तरफ बोलियों के 'क्लासिकल' साहित्य को इतिहास में समाहित किया लेकिन आधुनिक साहित्य को सिरे से खारिज कर दिया। इससे हिन्दी भाषा की रवानगी और उसका सहज विकास बाधित हुआ। इसके साथ ही आशुतोष ने अखबारी हिन्दी में 'ग्लोबिश भाषा' के बनते या बिगड़ते स्वरूप को समझने और गंभीरता से देखने की जरूरत पर जोर दिया। उनका धाराप्रवाह विचार कुछ देर और प्रवाहित हो सकता था लेकिन निरुपम ने 'रुकावट के लिए खेद है' के अंदाज में दखल दे दिया।

इसके बाद बारी लेखिका नूर जहीर की आई। नूर ने भाषा को मजहब से जोड़ने को लेकर अपनी चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि मजहब के साथ जुड़कर दोनों ही भाषाओं का नुकसान हुआ है। आज दोनों भाषाओं के पैरोकार अंग्रेजी के करीब जाने में हिचक महसूस नहीं करते लेकिन एक-दूसरे से 'भाषाई दुश्मनी' बखूबी निभा रहे हैं। उन्होंने कहा कि उर्दू जबान में 'सेक्रेटरी' का इस्तेमाल तो हो सकता है लेकिन 'सचिव' से तौबा कर ली गई है। हालांकि उन्होंने इसके लिए 'राजनीति' से ज्यादा व्यक्तिगत 'ईगो' को जिम्मेदार बताया।

कवयित्री अनामिका ने अपने छोटे से भाषण में प्रेशर कुकर की एक सीटी में पकने वाली 'भाषा की खिचड़ी' सिझाई और उसे सुपाच्य बना कर लोगों के गले से नीचे 'ससार' दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दी में जितने भी भाषा के शब्द 'फेटे' जा सकते हैं, फेटे जाने चाहिए। उन्होंने अपने वक्तव्य में भी 'टुईयां', 'ठस्सा' और 'धड़का' जैसे शब्द फेटे और भाषा की ताकत का एहसास कराया। सबसे अच्छी बात ये रही कि उन्होंने भाषा को लेकर, बोली को लेकर मन का 'धड़का' खत्म करने की वकालत की। वाकई अगर ये धड़का खत्म हो गया तो फिर हिन्दी और हिन्दीवालों की कई सारी दिक्कतें खुद ब खुद हल हो जाएंगी।

'सराय' के साथ लंबे वक्त से जुड़े रविकांत ने हिन्दी भाषा की शब्दावली को लेकर अपनी राय रखी। उन्होंने कहा कि कंप्यूटर जैसे नए क्षेत्रों के लिए अपनी जबान की शब्दावली होनी ही चाहिए। उन्होंने 'इनबॉक्स' के लिए 'आई डाक' और 'आउट बॉक्स' के लिए 'गई डाक' जैसे शब्द बनाने, तलाशने और तराशने के अपने अनुभव साझा किए। हालांकि दीर्घा में मौजूद फिल्मकार के विक्रम सिंह को उनका ये प्रयोग 'दकियानूसी' लगा। के विक्रम सिंह ने ये सवाल उठाया कि आखिर हिन्दी वालों को 'इन बॉक्स' और 'आउट बॉक्स' से परेशानी क्यों होती है? जाहिर है, विक्रम सिंह जैसे लोगों का एक वर्ग है जो ये मानता है कि अगर चलने के लिए हिन्दी को बदलना है तो उसे ऐसे 'शब्दों' या 'बदलावों' से परहेज क्यों?

आखिर में हिन्दी के 'एलिट' मीडियाकर्मी रवीश कुमार (आपकी स्वीकारोक्ति है) ने 'हिन्दी में अंग्रेजी झाड़ने' का अपना अनुभव भी साझा किया और मीडिया में हिन्दी को बतौर भाषा बरतने को लेकर अपनी चिंता भी जाहिर भी की। 'जापान में कुदरत का डबल अटैक' जब टेलीविजन की स्क्रीन पर नजर आता है तो हिन्दी जबान और उसकी संवेदनात्मक, भावात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता को भी 'दिल का डबल अटैक' पड़ता है, लेकिन ये बात कोई समझने को तैयार नहीं। 'माइग्रेशन' के साथ भाषा में बन रही खिचड़ी का सौंधापन रवीश कुमार को भी पसंद है लेकिन जब ये भाषा 'संघर्ष' के बजाय 'समझौते पर समझौते' करने लगती है तो उनका मन कहीं कचोटता जरूर है।

मंच पर आसीन 'महानुभावों' के बोल चुकने के बाद दीर्घा में बैठे महानुभावों की बारी आई। इनमें वरिष्ठ पत्रकार अजीत राय की टिप्पणी विशेष तौर पर उल्लेखनीय है। अजीत राय का दर्द ये है कि हिन्दी में नाट्य समीक्षा, फिल्म समीझा की कोई कद्र नहीं है। इसके साथ ही वो ये कहना भी नहीं भूलते- "अगर मैंने हिन्दी में किए अपने काम की तुलना में 5 फीसदी काम भी अंग्रेजी में किया होता तो आज यहां नहीं होता... आज आपका भाषण नहीं सुन रहा होता... कहीं और होता....।" हिन्दी वाले की 'कहीं ओर चले जाने की ललक' भी लगता है हिन्दी का थोड़ा बहुत नुकसान तो कर ही रही है।

खैर! बहस दो जाम साथ लगाने की अर्जी के साथ खत्म हो गई। एक जाम शायद उस सवाल के नाम की कि जब बहस हिन्दी पर हो रही है तो मंच के पीछे लगे बोर्ड पर हिन्दी का कोई शब्द क्यों नहीं? और दूसरा जाम 'बदलने का सबक' सीखने के लिए। आखिर अंग्रेजी के साथ चलने के लिए हिन्दी को कुछ नए 'दस्तूर' भी तो सीखने होंगे। वरना हिन्दी पट्टी में किसी संगोष्ठी के बाद खुले तौर पर जाम का न्यौता कहां मिल पाता है?

- पशुपति शर्मा

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

सूरज का सातवां घोड़ा-प्रेम का सतरंगा एहसास

मध्यवर्ग और प्रेम, मध्यवर्ग और उसकी विडंबनाएं, प्रेम और उसकी विडंबनाएं- जो धर्मवीर भारती के उपन्यास " सूरज का सातवां घोड़ा " की निष्कर्षवादी कहानियों के जरिए सामने आईं, उनमें 5 दशकों के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा है। मध्यवर्ग के दोस्तों के जमावड़े में आज भी राजनीति के बाद प्रेम ही दूसरा सबसे अहम चर्चा का मुद्दा होता है। आखिर प्रेम की बतरसी में ऐसा क्या आनंद है कि तमाम मुद्दे पीछे छूट जाते हैं? ये सवाल हमारे मन में भी उठता है और यही सवाल उपन्यास में भी रखा गया है- 'जिन्दगी में अधिक से अधिक दस बरस ऐसे होते हैं जब हम प्रेम करते हैं। उन दस बरसों में खाना-पीना, आर्थिक संघर्ष, सामाजिक जीवन, पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना, सिनेमा और साप्ताहिक पत्र, मित्र गोष्ठी इन सबसे जितना समय बचता है, उतने में हम प्रेम करते हैं। फिर इतना महत्व उसे क्यों दिया जाए?' (पृष्ठ संख्या-16)
यहीं हम थोड़ा धोखा खा जाते हैं, दरअसल प्रेम किसी न किसी रूप में हमारी इन सभी क्रियाओं में मौजूद रहता है। आर्थिक संघर्ष में भी प्रेम निहित होता है और सामाजिक जीवन में भी प्रेम अपने अवसर तलाश लेता है। ऐसे में चाहे-अनचाहे प्रेम की गिरफ्त में आप आ ही जाते हैं और उससे बचने के तमाम उपाय बेकार साबित हो जाते हैं। तभी तो माणिक मुल्ला कहते हैं- "प्रेम नामक भावना कोई रहस्यमय, आध्यात्मिक या सर्वथा वैयक्तिक भावना न होकर वास्तव में एक सर्वथा मानवीय सामाजिक भावना है, अतः समाज व्यवस्था से अनुशासित होती है और उसकी नींव आर्थिक संगठन और वर्ग संबंध पर स्थापित होती है।" (पृष्ठ संख्या-18)
ये भी सच है कि "प्रेम में खरबूजा चाहे चाकू पर गिरे, चाहे चाकू खरबूजे पर, नुकसान हमेशा चाकू का ही होता है। अत: जिसका व्यक्तित्व चाकू की तरह तेज और पैना हो, उसे हर हालत में उस उलझन से बचना चाहिए।" (पृष्ठ संख्या-15) लेकिन कौन है जो इस उलझन से बच पाया है? खास कर वो व्यक्ति जिसका 'व्यक्तित्व चाकू की तरह तेज और पैना' है, वो तो कतई नहीं बच सकता। ये बात माणिक मुल्ला की कहानियों में बार-बार सामने आती है। नायक चाह कर भी जमुना, सत्ती या फिर लिली के सुख-दुख का साझीदार बनने से खुद को रोक नहीं पाता और कहीं न कहीं प्रेम की टीस भरी आह को सीने में दफ्न करने की जद्दोजहद से गुजरता रहता है।
उपन्यास में 'पहली दोपहर' की कहानी जमुना, तन्ना और माणिक के ईर्द-गिर्द घूमती है। महेसर दलाल का बेटा तन्ना पिता की डांट के बाद जमुना से किनारा कर लेता है तो गोत और खानदान की दुहाई देकर जमुना की मां रिश्ते के लिए ना कर देती है। दो प्यार करने वाले दिल टूट जाते हैं और जमुना को माणिक मुल्ला का कंधा रोने-धोने को मिल जाता है। कीर्तन की वजह से जमुना को रात में कुछ तन्हाई मिल जाती है तो गऊग्रास की वजह से माणिक को हर दिन जमुना के पास जाने की 'सजा'। ये करीबियां 'प्रेम' की तरफ बढ़ने लगती हैं- 'जमुना को माणिक चुपचाप देखें और माणिक को जमुना और गाय इन दोनों को'। मध्यवर्ग की इस प्रेम कहानी को पहली दुपहरी में माणिक मुल्ला पाठकों को तपती धरती की तपिश के साथ ही छोड़ देते हैं- "जब मैं जाता तो मुझे लगता कोई कह रहा है माणिक उधर मत जाओ यह बहुत खराब रास्ता है, पर मैं जानता था कि मेरा कुछ बस नहीं है। और धीरे-धीरे मैंने देखा कि न मैं वहां जाये बिना रह सकता था न जमुना आये बिना।" (पृष्ठ संख्या-24)
जमुना के 'नमकीन पुए' कहानी सुनने वालों के लिए हास्य का विषय बहुत देर तक नहीं रह पाते। जब हम इस हकीकत से रूबरू होते हैं कि 90 फीसदी लड़कियां (आज ये आंकड़ा कुछ कम भले ही हो गया हो लेकिन तस्वीर बहुत ज्यादा नहीं बदली है।) जिंदगी के अभाव की वजह से प्रेम से वंचित रह जाती हैं, तो दुख होता है। दूसरों का प्रेम और नाटकीय घटनाएं हमेशा अचरज भरी होती हैं और हास्य पैदा करती हैं। दरअसल प्रेम हमेशा गढ़े हुए मुहावरों की शक्ल में नहीं आता, इसलिए उसमें एक तरह की मूर्खता भी दिखती है और एक तरह का नयापन भी हमेशा बना रहता है।
दूसरी दोपहर, एक अधेड़ किंतु 'पुख्ता' (पानी खाए) मरद के साथ जमुना की शादी और घोड़े की नाल के करिश्मे के नाम रहती है। 'पुत्र' प्राप्ति के लिए जमुना की तपस्या से देवताओं का मन भले न पिघला हो लेकिन रामधन उसका ये 'कष्ट' नहीं देख सका। अब इसे आप प्रेम कहें या कुछ और वो जमुना को तीन दिन तक तांगे में बिठा कर गंगा पार ले गया और जमींदार साहब के यहां 'नौबत' बज उठी। जमींदार साहब की मौत के बाद जमुना ने ' रामधन को एक कोठरी दी और पवित्रता से जीवन व्यतीत करने लगी।' इस कहानी में प्रेम का एक और रूप सामने आया, जहां समाज की 'मर्यादाएं' भी नहीं टूटीं और जमुना की 'गृहस्थी' भी चल पड़ी। "एक ओर नये लोगों का यह रोमानी दृष्टिकोण, यह भावुकता, दूसरी ओर बूढ़ों का यह थोथा आदर्श और झूठी अवैज्ञानिक मर्यादा सिर्फ आधी ईंच बरफ है, जिसने पानी की खूंखार गहराई को छिपा रखा है।" (पृष्ठ संख्या, 35) प्रेम के इस समाजशास्त्रीय 'इफेक्ट' को आप किसी 'वाद' की व्याख्या के जरिए नहीं समझ सकते।
तीसरी दोपहर, माणिक मुल्ला अपनी किस्सागोई में प्रेम के होने की खुशी और न होने की हताशा की कड़ियां जोड़ते चले जाते हैं। माणिक मुल्ला के शब्दों में-"जब मैं प्रेम पर आर्थिक प्रभाव की बात करता हूं तो मेरा मतलब यह रहता है कि वास्तव में आर्थिक ढांचा हमारे मन पर इतना अजब-सा प्रभाव डालता है कि मन की सारी भावनाएं उससे स्वाधीन नहीं हो पातीं और हम जैसे लोग जो न उच्च वर्ग के हैं, न निम्न वर्ग के, उनके यहां रूढ़ियां, परम्पराएं, मर्यादाएं भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिलाकर हम सभी पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हम यंत्र मात्र रह जाते हैं, हमारे अंदर उदार और ऊंचे सपने खत्म हो जाते हैं और एक अजब सी जड़ मूर्च्छना हम पर छा जाती है।" (पृ 38)
एक तरफ महेसर दलाल अपने बेटे तन्ना और जमुना के सच्चे प्रेम को सामाजिक प्रतिष्ठा की भेंट चढ़ा देता है तो दूसरी तरफ वही महेसर दलाल 'बच्चों की फिक्र' में 'बुआ' को घर लाकर बिठा लेता है। विषाक्त परंपराएं ही हैं कि तन्ना 'घरजमाई' बनने को तैयार नहीं होता और महेसर दलाल तन्ना की होने वाली 'सास' के घर रात-रात भर ठहरने का बहाना तलाश लेते हैं। शादी के बाद भी जमुना तन्ना के करीब आना चाहती है लेकिन वो उसे ठुकरा देता है, जबकि महेसर दलाल किसी 'साबुनवाली' पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देते हैं। प्रेम और वासना की बारिकियों को धर्मवीर भारती ने बखूबी उपन्यास में उकेरा और मध्यवर्गीय नैतिकता को हर तरफ से कठघरे में खड़ा किया। तमाम नैतिकताओं का बोझ ढोते तन्ना की दोनों टांगे कट जाती हैं, जबकि जमुना रामधन के साथ मस्त है तो महेसर दलाल 'सत्ती' को पाने की जोड़तोड़ में जुटे रहते हैं।
चौथी दोपहर, माणिक मुल्ला और लिली के प्रेम की लफ्फाजी और आदर्शवादी बातें रखी गईं, जो जीवन का यथार्थ या सच नहीं बन पातीं। माणिक मुल्ला लिली को स्वीकार करने का दम नहीं दिखा पाते और लिली भी रो-धोकर अपने विवाह की मजबूरी को स्वीकार कर लेती है। "इस रूमानी प्रेम का महत्व है, पर मुसीबत यह है कि वह कच्चे मन का प्यार होता है। उसमें सपने, इंद्रधनुष और फूल तो काफी मिकदार होते हैं पर वह साहस और परिपक्वता नहीं होती जो इन सपनों और फूलों को स्वस्थ सामाजिक संबंध में बदल सकें।" (पृष्ठ-50) दो टूटे दिल विवाह के बंधन में बंधते हैं- लिली और तन्ना का निकाह इसी विडंबना का हिस्सा है। महानगरों से लेकर कस्बों तक दसवीं और बारहवीं के युवाओं की प्रेम कहानियों के ऐसे 'द एंड' के गवाह हम और आप भी कई बार बन चुके हैं।
पांचवी दोपहर, एक श्रमशीला स्त्री और एक लिजलिजे शख्स की प्रेम कहानी के नाम रहती है। 'पढ़ी लिखी भावुक लिली' और 'अनपढ़ी दमित मनवाली जमुना' के मुकाबले 'स्वाधीन लड़की' का व्यक्तित्व माणिक मुल्ला को अपनी ओर खिंचता है तो लेकिन जब फैसले की घड़ी आती है तो माणिक मुल्ला साहस नही दिखा पाते। बेचारी सत्ती जो अपना सबकुछ माणिक मुल्ला पर न्यौछावर करने को तैयार है, जो माणिक मुल्ला के भरोसे पूरी दुनिया से लड़ने को तैयार है, वही माणिक मुल्ला धोखे से उसे चमन ठाकुर और महेसर दलाल के हाथ सौंप देते हैं। माणिक मुल्ला की सारी कविताई, सारी भावनाएं उस वक्त जवाब दे जाती हैं, जब एक स्त्री अपना सबकुछ दांव पर लगाकर उसकी शरण में चली आती है।
छठी दोपहर, माणिक मुल्ला के अफसोस, उसके पाश्चाताप और उसकी उदासी में गुजरती है। माणिक मुल्ला जैसे 'बौद्धिकों' का कैसा हाल हो जाता है, उसको लेखक ने कुछ यूं बयां किया है- "मुझमें अपने व्यक्तित्व के प्रति एक अनावश्यक मोह, उसकी विकृतियों को भी प्रतिभा का तेज समझने का भ्रम और अपनी असामाजिकता को भी अपनी ईमानदारी समझने का अनावश्यक दम्भ आ गया था।" (पृष्ठ-74) हालांकि सत्ती के जीवित होने की खबर सुनते ही वो 'सामान्य मानव' बन गए। वो तन्ना की नौकरी भी कर लेते हैं और भीख मांगती सत्ती को देख संतोष कर लेते हैं कि वो 'बाल बच्चों सहित प्रसन्न' है।
सातवीं दोपहर, उपन्यासकार 'सूरज का सातवां घोड़ा' के नामकरण के औचित्य को समझाते हुए मध्यवर्ग में व्याप्त हताशा, निराशा के बीच उम्मीद का, सपनों का घोड़ा दौड़ाने की सलाह दे जाते हैं। "वह घोड़ा है भविष्य का घोड़ा, तन्ना, जमुना और सत्ती के नन्हें निष्पाप बच्चों का घोड़ा, जिनकी जिंदगी हमारी जिंदगी से ज्यादा अमन चैन की होगी, ज्यादा पवित्रता की होगी, उसमें ज्यादा प्रकाश और ज्यादा अमृत होगा।" (पृष्ठ-79) लेखने सपने तो बहुत अच्छे बुने लेकिन हकीकत आज भी उतनी ही कड़वी और हताशाजनक है आज भी सत्ती, जमुना और लिली का हश्र पहले सा ही भयावह है, आज भी अनुपमा पाठक अपने ही घर में मार दी जाती है, आज भी घरों की चारदीवारी में पनपता प्रेम अपने अंजाम तक नहीं पहुंच पाता। कभी गले में रस्सी तो कभी पंचायत में सरेआम कत्ल। आपके ईर्द-गिर्द कोई सत्ती, जमुना या लिली दिख जाए तो उसके सपनों के घोड़ों को थोड़ी आजादी देने की कोशिश करो तो जानें।
पशुपति शर्मा
संपर्क-1011, सेक्टर 15, वसुंधरा, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश 201010 (मोबाइल-9868203840)
(नोट- सूरज का सातवां घोड़ा, भारतीय ज्ञानपीठ का 37 वां संस्सकरण के मुताबिक पृष्ठ संख्या दी गई है।)

सोमवार, 17 जनवरी 2011

रूपम पाठक और हमारी उदासीनता का अर्थ


पिछले हफ्ते अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की अपनी सहयोगियों के साथ मैं पूर्णिया गई हुई थी। वहां हमारी मुलाकात भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी पर हमला करने वाली रूपम पाठक की माताजी और उनके साथ हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप में बंद पत्रकार नवलेश पाठक की पत्नी रोमा पाठक से हुई। हम रूपम पाठक और नवलेश पाठक से मिलना चाहते थे, लेकिन प्रशासन ने मिलने नहीं दिया। प्रदर्शन का यह नतीजा जरूर हुआ कि नवलेश पाठक के पास उसकी पत्नी गरम कपड़े पहुंचा सकीं। एक हफ्ते से बंद उस पत्रकार को कड़ाके की ठंड में गरम कपड़ों से वंचित रखा गया था। दूसरे दिन रोमा पाठक को एक हफ्ते बाद पहली बार अपने पति से मुलाकात का मौका मिला, लेकिन रूपम पाठक को अपनी मां और वकील से मिलने नहीं दिया गया। हमने मुख्यमंत्री सचिवालय से संपर्क किया और उसके बाद रूपम को अपने वकील से मिलने की अनुमति भी मिल गई। विधायक पर हमले के बाद उसे बहुत बुरी तरह से मारा गया था। एफआईआर के अनुसार, एक हजार लोगों ने उसे मारा, लेकिन उसे किसी प्रकार की चिकित्सा सेवा नहीं दी गई। वह भी ऐसे प्रांत में, जहां कई-कई कत्ल के आरोपी नेताओं का जेल जाने के रास्ते में स्वास्थ्य खराब होता रहा है और उन्हें तुरंत अच्छे अस्पतालों में पहुंचाया जाता रहा है, लेकिन रूपम पाठक की किस्मत में मरहम-पट्टी भी नहीं लिखी थी।

बाद में आम लोगों से मिलने पर लगा कि उनमें एक गहरी निराशा और उदासीनता थी, वे नहीं मानते कि इस मामले में कुछ होगा। निराशा इसलिए कि बड़े लोगों के तमाम पाप बहुत आसानी से माफ हो जाते है। राजनैतिक दलों के नेताओं के पीछे शासन-प्रशासन की पूरी ताकत खड़ी हो जाती है। उनके तमाम अपराधों पर पर्दा डाल दिया जाता है। पकड़े भी जाते हैं तो जल्दी छूट भी जाते हैं। उनके मरने पर भी उनकी ताकत कम नहीं होती और जिनको वह जिन्दा रहकर परेशान करते हैं, उनका उत्पीड़न उनके मरने के बाद भी जारी रहता है। राजनीति, आन्दोलन और न्याय के लिए संघर्ष के प्रति आम लोगों में उदासीनता पैदा करने का बीड़ा तो समस्त पूंजीवादी मीडिया, तमाम बुद्धिजीवियों और इस वैश्वीकरण के दौर में पनप रहे तमाम संगठनों और संस्थाओं ने उठा रखा है। इन दोनों प्रतिक्रियाओं के बीच फंसे लोग यह जान भी नहीं पाते है कि उनकी उदासीनता ही उनकी निराशा का एक बहुत बड़ा कारण है। अगर वह विरोध करना भूल जाएंगे, या अगर उनका विरोध असली दुनिया में नहीं केवल ‘वचरुअल’ दुनिया तक सीमित रह जाएगा। वे इंटरनेट पर, ज्ञापनों पर हस्ताक्षर करके या ट्विटर पर अपने आक्रोश को व्यक्त करके या फेसबुक पर अपनी टिप्पणी करके संतुष्ट हो जाएंगे कि उन्होंने कुछ कर दिया या टीवी चैनल के सवाल के जवाब में ‘हां’ या ‘न’ का एसएमएस करके अगर उन्हें तसल्ली हो जाएगी तो निश्चित ही अन्याय और अपराध का बोलबाला रहेगा।

लोग चाहे कितने ही निराश और उदासीन बना दिए गए हों, उन्होंने अपनी संवेदनशीलता नहीं खोई है। जब रूपम पाठक द्वारा विधायक पर किए गए जानलेवा हमले की तस्वीर टीवी के स्क्रीन पर देखने के बाद, हिंसा और कानून को अपने हाथ लेने की प्रक्रिया को बिल्कुल अनुचित मानने वाले लोग भी एक ही सवाल कर रहे थे, आखिर इस सामान्य-सी दिखने वाली, अधेड़ उम्र की औरत ने ऐसा कदम क्यों उठाया? यह जानते हुए कि वह पकड़ी जाएगी, मारी भी जाएगी, बन्द कर दी जाएगी, उसने ऐसा क्यों किया? इन तमाम सवालों ने रूपम पाठक के प्रति न चाहते हुए भी एक हमदर्दी की भावना पैदा कर दी, जिसका अहसास मुङो उस पूरे सफर के दौरान हुआ जो मुङो पूर्णिया तक ले गई। कानपुर स्टेशन पर कोहरे के कहर को बर्दाश्त करने वाले रेल-कर्मियों को जब पता चला कि मैं क्यों और कहां जा रही हूं, तो उन्होंने पूर्णिया जाने वाली ट्रेन की जानकारी बड़ी तत्परता से दी। ट्रेन में मेरा आरक्षण नहीं था, लेकिन मुसाफिरों ने मुङो पहले बैठने और फिर लेटने की जगह दी।

पूर्णिया पहुंचने के बाद पता चला कि मामला तो वाकई में काफी गड़बड़ था। वह पहले ही पूर्णिया के पुलिस अधिकारी को एक पत्र लिखकर इस बात की शिकायत कर चुकी थी कि विधायक और उनके एक सहयोगी द्वारा उसका यौन शोषण किया जा रहा था। तमाम प्रयासों के बावजूद वह कभी उस अधिकारी से मिल नहीं पाई। 28 मई को रूपम की एफआईआर पूर्णिया के एक थाने में दर्ज हुई। उसमें उसने विधायक और उसके सहयोगी के खिलाफ बलात्कार और यौन शोषण करने का आरोप लगाया, जिसने कभी एफआईआर दर्ज कराने की कोशिश की होगी, वही इस तथ्य की अहमियत समझ सकता है। अगर तभी समय रहते कुछ हो जाता, तो शायद यह नौबत ही न आती।
सुभाषिनी सहगल अली, लेखिका एडवा की अध्यक्षा
(दैनिक हिंदुस्तान का संपादकीय पेज, 18 जनवरी 2011)

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

हत्या से उपजे सवाल



बिहार में पूर्णिया से भारतीय जनता पार्टी के विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या का पूरा विवरण तो जांच के बाद ही सामने आएगा, लेकिन पहली नजर में जो बातें सामने आई हैं, वे हमारे जनप्रतिनिधियों की आम फहम छवि को ही पुख्ता करती हैं। हमारे जनप्रतिनिधियों में बहुसंख्यक लोग निश्चय ही भले और जिम्मेदार लोग हैं, लेकिन उनमें अपराधी तत्वों की तादाद भी इतनी बड़ी है कि किसी नेता पर कोई आरोप लगे तो लोग सहज ही विश्वास कर लेते हैं। केसरी की हत्या की आरोपी महिला रूपम पाठक ने केसरी पर यौन दुराचार का आरोप लगाया था और संभवत: हत्या भी उसने समय पर सुनवाई न करने की वजह से करने की ठानी। विधायक के आसपास के लोगों का आचरण भी कानून और न्याय के प्रति उनकी उपेक्षा को ही जाहिर करता है कि उन्होंने उस महिला को इतना पीटा कि वह गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती है। समूचा प्रसंग यह बताता है कि जिन लोगों के जिम्मे कानून बनाने और उसके पालन की देखरेख करने की जिम्मेदारी है, उनके आसपास कैसा अराजक और कानून का मखौल उड़ाने वाला माहौल है। यह स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए कि विधायक केसरी की हत्या निहायत गलत कदम है और उस महिला के आरोप अगर सच भी हों तो उसने एक गलत और गैर-कानूनी रास्ता अपनाया, लेकिन हमें इस बात पर भी फिक्रमंद होना चाहिए कि हमारे जनप्रतिनिधियों की छवि इतनी खराब है कि शायद लोग बिना किसी पुख्ता सुबूत के उस महिला के आरोपों को विश्वसनीय मान लें। ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी विधायक पर ऐसे आचरण का आरोप लगा हो। उत्तर प्रदेश में एक बसपा विधायक द्वारा कथित यौन दुराचार को लेकर बवाल मचा हुआ है। मुख्यमंत्री मायावती द्वारा सख्त कार्रवाई करने के बावजूद उत्तर प्रदेश में एकाधिक बार विधायक ऐसे मामलों में फंस चुके हैं, बल्कि लगभग हर राज्य में ऐसे कांडों की गूंज हुई है। यह कहना भी जरूरी है कि हर पार्टी में ऐसे लोग हैं और जबानी जमाखर्च के अलावा किसी पार्टी ने अपने अंदर के अपराधी तत्वों को बाहर निकालने के लिए व्यवस्थित प्रयास किए हों। हर पार्टी को राजनीति में अपराधियों का मसला तभी महत्वपूर्ण दिखाई देता है, जब विरोधी पार्टी के किसी नेता का नाम अपराध में उछलता है। सवाल सिर्फ माननीय जनप्रतिनिधियों के लिप्त होने का नहीं है, सवाल यह है कि अगर जनप्रतिनिधि ऐसे हों तो बाकी समाज में कानून के पालन की हम क्या उम्मीद कर सकते हैं।

बिहार में राजग ने अभी-अभी ऐतिहासिक जनमत हासिल किया है और इस ऐतिहासिक जनमत के पीछे एक बड़ा कारण कानून के राज की बहाली है। राजग ने बिहार में कुछ समझौते जरूर किए हैं, लेकिन राजनीति में अपराध के वर्चस्व को कम करने की नीतीश कुमार की सरकार ने काफी हद तक सफल कोशिश की है। जरूरी यह है कि जनता का विश्वास इस सरकार और कानून के राज में बना रहे और इसके लिए सरकार को इसकी निष्पक्ष जांच करनी चाहिए। तय है महिला द्वारा विधायक की हत्या करने के बाद भीड़तंत्र ने उसकी खूब पिटाई की, पर उस समय सुरक्षा गार्ड क्या कर रहे थे। यह सवाल भी है। जरूरी यह है कि राजनैतिक और कानूनी प्रक्रिया में लोगों का विश्वास बना रहे, इसलिए राजनैतिक पार्टियां अपने गिरेबान में जरा झांकें।

दैनिक हिंदुस्तान का संपादकीय, 5 जनवरी, 2011