बुधवार, 23 सितंबर 2009

खुदा का शुक्र है , तबादला रद्द हो गया

दोस्तों, दीदी जीजाजी बेंगलोर से वापस ट्रेन में बैठ चुके हैं। कोशिशों की कामयाबी की खुशी के साथ। हेड ऑफिस में एक डी जी एम् साहेब ऐसे मिले जिन्होंने इस मामले में आगे बढ़कर दिलचस्पी ली और तबादला रद्द करवा दिया।
चलिए इसी बहाने एक बार फ़िर ये विश्वास पुख्ता हुआ कि सिस्टम में अभी कुछ अच्छे लोग बचे हैं, जो भावनाओं, मुसीबतों को समझते हैं और फैसले लेने का हौसला भी रखते हैं ।
आप सभी का शुक्रिया जिन्होंने इस मुसीबत में सहानुभूति दिखाई और हमारा हौसला बनाये रखा।

रविवार, 20 सितंबर 2009

ये दुनिया ऐसी क्यूं है ?

मैं जिस समय ये टिप्पणी लिख रहा हूं, दीदी और जीजाजी बैंगलुरू की ट्रिप पर हैं बल्कि पटना से बैंगलुरू जाने वाली ट्रेन में हैं। दोनों एक अजीब सी ऊहा-पोह में हैं। पिछले तीन महीनों तक निराशा और हताशा का एक लंबा दौर झेलने के बाद एक उम्मीद के साथ ट्रेन पर सवार हुए हैं कि शायद अब काम हो जाए।
बात दीदी-जीजाजी की है और आप सभी से शेयर कर रहा हूं। वजह ये एक उदाहरण है कि कैसे हिंदुस्तान का सिस्टम काम कर रहा है। कैसे एक सच्चे और ईमानदार आदमी की कहीं कोई सुनने वाला नहीं। बस एक सिस्टम चल रहा है-अफसरों की ठसक के साथ। इस सिस्टम में आप इंसाफ की उम्मीद लगाएं तो सौ में से ९० मर्तबा आपको निराशा हाथ लगे तो कोई अचरज नहीं।
दरअसल अभी पिछले एक साल पहले या उससे भी कुछ पहले जीजा का एक बहुत भारी एक्सिडेंट हो गया था। तब से उनकी एक टांग में तकलीफ है और वो स्टिक लेकर चलते हैं। कैनरा बैंक में मैनेजर हैं और करीब २५ साल से इस संस्थान की सेवा कर रहे हैं। लेकिन मुश्किल की घड़ी में इस संस्थान ने उनके साथ जो सलूक किया उसे देखकर हैरानी होती है।
मामला उनके ट्रांसफर से जुड़ा है। जीजाजी की ऐसी हालत नहीं या यूं कहूं कि वो इस शारीरिक और मानसिक स्थिति में नहीं कि घर-परिवार से दूर रह सकें लेकिन बैंक के अफसरान अपनी जिद्द पर अड़ें हैं। उनका ट्रांसफर पटना से कोलकाता कर दिया गया है। उन्होंने अपना ट्रांसफर रद्द करवाने के लिए जीतोड़ कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं। यूनियन की तरफ से कोशिश की गई। अफसरों से विनती आरजू की गई लेकिन सब बेकार। आप सोच सकते हैं पिछले तीन महीने में हर दिन हमारे पूरे परिवार ने किस तरह की मनस्थिति में गुजारा है।
मैं एक मीडिया संस्थान में हूं तो जीजा और दीदी को मुझसे भी कुछ उम्मीदें थीं, लेकिन हम तो परकटे परिंदे हैं। खैर इस परिंदे की जितनी उड़ान हो सकती थी, कोशिश की। सीनियर पत्रकारों से बात की लेकिन उन्होंने एक तरह से हाथ खड़ा कर दिया। बहुत सीनियर पत्रकारों तक मैंने दरख्वास्त नहीं लगाई। कुछ संकोच वश और कुछ नाउम्मीदी में।
खैर इस बीच मेरे एक मित्र जो कांग्रेस की युवा शाखा में सक्रिय हैं उनसे बात की। एक संपर्क सूत्र मिला। योगेन्द्र पति त्रिपाठी, कैनरा बैंक में निदेशक हैं। पेशे से शिक्षक हैं और बेहद मिलनसार। बात कुछ आगे बढ़ी, उम्मीदें भी प्रबल हुईं। करीब एक-डेढ महीने तक हमलोग त्रिपाठीजी के संपर्क में रहे और लगातार हमें ये दिलासा मिली कि ट्रांसफर रूक जाएगा।
शरीर से आंशिक रूप से लाचार एक शख्स के साथ हमदर्दी की उम्मीद हमें भी थी और योगेन्द्र पति त्रिपाठी जी को भी। इस बीच यूनियन की ओर से कैनरा बैंक में निदेशक एस के कोहली से भी बात होती रही। सब कुछ पटरी पर आ रहा था । पटना के जीएम ने हेड ऑफिस बैंगलुरू ये आवेदन भी भेजा कि जितेंद्र कुमार शर्मा (कैनरा बैंक की पटना सिटी ब्रांच के मैनेजर, जीजाजी) की जगह किसी और को कोलकाता भेजा जा सकता है। लेकिन जीएम बैंगुलूरु श्रीनाथ जी ने प्रस्ताव ठुकरा दिया। उनकी नाक ऊंची रहनी चाहिए थी। इंसान की सारी मजबूरी से ज्यादा बड़ी होती है एक अफसर की जिद्द, इसका एहसास ऐसे ही मौकों पर तो एक आम आदमी को होता है। वरना उसे अपने आम आदमी होने का अफसोस ही क्यों कर होता?
अब दीदी जीजी आखिरी उम्मीद में ट्रेन का सफर कर रहे हैं, मुझे उम्मीद कम है लेकिन दुआ यही करता हूं कि दो पल के लिए ही सही श्रीनाथ साहब की इंसानियत जाग जाए, इतने में एक परिवार का सुकून बना रह जाएगा। वरना रोजी-रोटी के लिए सिस्टम का ये सितम भी झेलना ही है।