मंगलवार, 29 मई 2012

ये सड़कें कहीं नहीं जाती...


उत्तराखंड के देवप्रयाग में हल्दू और दैडा के जंगलों से गुजरते हुए अचानक पांव ठिठक जाते हैं। अनायास ही जंगल की हरीतिमा खत्म हो जाती है और धूसर, पथरीला पहाड़ नजर आने लगता है। कुछ दूर चलने के साथ ही यह भी ज्ञात हो जाता है कि क्यों जंगल खत्म हो गए। दरअसल यहां सड़क बनाई जा रही है। आश्चर्य इस बात पर नहीं होता कि सड़क बन रही है, लेकिन इस बात पर जरूर होता है कि सड़क बनाने के लिए सम्बद्ध विभाग ने कितनी निर्दयता से पर्वत और जंगल को नष्ट किया है। एक विशाल क्षेत्र से वृक्ष गायब कर दिये गए हैं। सिर्फ ठूंठ, जमीन पर यहां वहां बिखरी शाखें और विनाश के चिन्ह हैं। इस जंगल का एक हिस्सा वन क्षेत्र के नाप में आता है, दूसरा हिस्सा सिविल है। लेकिन जिला प्रशासन ने वन विभाग को बिना किसी सूचना के इस जंगल को पथरीले मैदान में बदल दिया। स्टोन क्रशर, बुल्डोजर और बड़ी बड़ी मशीनों से पहाड़ को रौंद कर समतल कर दिया गया है और विस्फोट कर पूरे इलाके में पत्थर बिखेर दिये गये। ताज्जुब है कि वन संरक्षक को इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि वहां स़ड़क बनाई जा रही है। इस लापरवाही और निर्वैयक्तिकता के लिए पहले तो वनविभाग ही दोषी है, दूसरा दोष जिला प्रशासन का है जिन्होंने इतनी बड़ी पहाड़ी पट्टी को वृक्ष से सूना कर दिया लेकिन वन विभाग से इसकी आज्ञा लेने की जरूरत नहीं समझी।

कुछ अरसा पहले तक इन पहाड़ों पर हरे भरे पेड़ थे। अब मरे हुए, निष्प्राण वृक्ष हैं। व्य़ासघाट से डाडा नागराज तक सड़क बनाए जाने के क्रम में विकास का अलकतरा जब गिराया गय़ा तो सुंदर वन उसके ताप में तबाह हो गए। इस इलाके में अब मीलों रोते हुए बंजर पहाड़ हैं जिनके सीने पर चट्टानों का साम्राज्य है। हल्दू और दैडा के जंगली इलाकों को ध्वस्त किये गए पहाड़ के मलबों से पाट दिया गया है। बोल्डरों से कुचले गए हजारों पेड़ या तो नीचे बहने वाली गंगा में समा गए या फिर खड़े खड़े सूख गए। अब सोचिये कि पर्यावरण और गंगा को बचाने का सरकारी शोर कितना सच्चा है। सच तो यही है कि इन दोनों को रौंदे जाने की प्रक्रिय़ा सतत चल रही है।

इस विनाश की जानकारी जब गढ़वाल के वन संरक्षक को दी गई तो उन्होंने सड़क निर्माण कार्य रुकवा दिया। चूंकि इस वन क्षेत्र का एक हिस्सा नाप में और एक हिस्सा सिविल इलाके में आता है इसलिए वन विभाग के अधिकार भी सीमित हैं। अब कार्रवाई करने की बारी जिला प्रशासन की है जिनकी ओर से अब तक कोई कदम नहीं उठाया गया है।

जब आप यहां का मंजर देखेंगे तो आपको विश्वास नहीं होगा कि कुछ महीनों पहले तक यह क्षेत्र घने और छायादार पेड़ों से घिरा था, जिनका एक सुंदर छंद था। अब क्या है? सिर्फ चट्टानी चुप्पी और पथरीले पनाहगाह। आखों में बसने वाले वन को बर्बरता से तहस नहस कर दिय़ा गया है। और यह सब एक सड़क बनाने के नाम पर हुआ है ताकि आप इस रास्ते पर चलें, सरकार का कृतज्ञता ज्ञापन करें कि उन्होंने आपके लिए सड़क बनाई, प्रकृति के बीच होने के भ्रम में भी रहें। और इस सत्य से सवर्था अनभिज्ञ रहें कि गंगा के पास से गुजरने वाली इस सड़क ने कितनी बड़ी बलि ली है।

देवांशु झा, महुआ चैनल के प्रोग्रामिंग से जुड़े हैं। आपसे 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है।

सोमवार, 14 मई 2012

मरी हुई पत्नी से प्यार


(विमल कुमार की इस कविता से हर पति का एक बार गुजरना बेहद जरूरी सा जान पड़ता है... मैंने जब ये कविता पढ़ी, मन बेचैन हो उठा। क्या मैं कातिलों की कतार में खड़ा हूं? क्या मेरी पत्नी भी मर चुकी है? कविता पढ़िए और समय रहते सोचिए जरूर कि क्या पत्नियों को जिंदा करने के लिए थोड़ा उजाला किया जा सकता है?)


स्केच-पशुपति शर्मा


मुझे इतने दिनों तक मालूम ही नहीं था
मैं अपनी मरी हुई पत्नी से प्यार कर रहा हूं
मैं तो उसे वर्षों तक चूमता रहा
आलिंगनबद्ध होता रहा
निर्वस्त्र करता रहा उसे अंधेरे में
उसके साथ हंसी ठिठोली करता रहा
पर मुझे मालूम ही नहीं था
वह कब की मर चुकी है

मेरी मां भी ऐसी ही मरी थी
जिंदा रहकर
एक लाश की तरह

सोती रही मेरी पत्नी
बिस्तर पर मेरे संग
कई सालों तक
एक लाश की तरह
मुझे चूमती रही
टेलीफोन पर
उसकी आवाज
बीच में ही दम तोड़ देती थी


स्केच-सर्बानी शर्मा

मैं उसे लेकर गया
बेगूसराय
रिश्तेदारों की शादी में
गया दोस्तों के घर
एक बार शिमला
और एक बार भोपाल भी गया
तब भी वह मरी हुई ही थी

मुझे मालूम नहीं था
वह एक नरकंकाल में बदल चुकी है
शरीर पर मांस जरूर
पर वह तो ठठरी है
आंखें पत्थर हो चुकी हैं
हाथ टहनियां
पांव हो चुके बिजली के खंभे

किसी ने भी मुझसे नहीं कहा-
तुम्हारी पत्नी मर चुकी है
मेरे बच्चों ने भी नहीं कहा-
पापा, मम्मी तो मर गई है
दोस्तों ने भी कहा-
अरे भाभीजी जिंदा नहीं हैं क्या?

एक दिन मेरी पत्नी ने
मुझे भींचते हुए कहा-
जानते हो, मैं कब की मर चुकी हूं
मैं तो सिर्फ जिंदा हूं
अपने बच्चों के लिए
और तुम्हारे लिए
मैंने पत्नी से पूछा-
आखिर कौन है तुम्हारा हत्यारा?

तब से मैं हत्यारे को
खोज रहा हूं
पत्नी ने कहा-
कई हत्यारे हैं मेरे
उनमें से एक तुम भी हो
तब से मैं अपने घर में
गुनहगार की तरह खड़ा हूं
यह जानने की कोशिश कर रहा हूं
मैं तो उससे प्यार ही कर रहा था
आखिर कैसे बन गया
पति से एक हत्यारा

जबकि मुझे मालूम ही नहीं
मैं इतने दिनों तक
एक मरी हुई पत्नी से प्यार कर रहा हूं

लेकिन वह कौन सी मजबूरी है
कि मेरी पत्नी
अपने इस हत्यारे से प्रेम करती है
और उसके साथ अभी भी रहती है
अपने घर में एक दीवार की तरह
रोज थोड़ा-थोड़ा ढहती है,
फिर भी अपने पति पर मरती है

मैं भी अपनी मरी हुई पत्नी से
प्यार करता हूं
और उसे जिंदा करने के लिए
थोड़ा उजाला करता हूं
रोज न चाहते हुए भी दफ्तर निकलता हूं।
 
(कवि विमल कुमार से इस नंबर पर संपर्क किया जा सकता है- 09968400416)

सोमवार, 7 मई 2012

गाड़ी रांची जा रही है...

पेड़वा कटाइल हो रामा' (नुक्कड़)- जवाहर नवोदय विद्यालय पूर्णिया की पेशकश। नुक्कड़ जाम। बहुत भीड़। कुछ साइकिल, कुछ आदमी। साइकिलें कम, आदमी ज्यादा। बहुत शौकीन हैं लोग यहां के। पसंद करते हैं।

अभी शोर है। कई तरह की आवाजें आ रही हैं। एक आवाज- चल न यार फोर स्टार (सिनेमा) आई लव यू कि....कि..... किरण (डर) लगा है। ठहर यार दूसरा शो देखेंगे। नुक्कड़ देख लेते हैं। नुक्कड़ क्या होता है यार ? मुझे भी पता नहीं। भीड़ है इसलिए हूं। दोनों किशोर।

जवाहर नवोदय विद्यालय, पूर्णिया- सर्वेश्रेष्ठ। प्रतियोगिता थी न। अब ये टीम बाहर जाएगी। विद्यालय में थोड़ा-बहुत इधर-उधर, सभी खुश। आगे जाने के लिए पहले तो ना नुक्कड़ हुई लेकिन अंततः अनुमति मिल ही गई। नुक्कड़ पार्टी बहुत खुश थी। गाड़ी खुल गई।
+       +      +      +     +     +     +
सबरंगा यात्री। एक-आध जगह छोड़कर पूरी गाड़ी यात्रियों से सजी थी। नौजवान, बूढे-बच्चे, अच्छे-बुरे, सब। चहकते-गाते, हंसते सभी खुश। एक अनूठा नौजवान। उम्र बाइस-तेइस की रही होगी।

बहुत अच्छा था बेचारा। बहुत बोलता था। दिन-रात, रात-रात भर बोलने की आदत सी पड़ गई थी। आप थोड़ी सी बातें करो, वह बोलता रहेगा। आप तंग हो जाओगे, वह थकेगा नहीं। पढ़ा-लिखा थोड़ा कम था। टूटी-फूटी लेकिन फटाफट हिन्दी बोलता था। पूरे शरीर से बोलता था न इसलिए बहुत देर तक बोल लेता था शायद। ओठ पूरा खुलता था, सभी दांत देख सकते थे आप- सफेद... भुट्टा के दाने जैसे। गुलाबी मसूरे भी अपने आप को प्रदर्शन के योग्य समझ रहे थे। हाथ-पांव सभी सजीव हो जाते थे हंसते समय। बहुत अच्छा किरदार था। कोई फिल्मवाला होता तो जरूर आजमाता उसे। "पंद्रह बोझा पटुआ भैया ले लिए हैं। बेईमानी करते हैं। मैं भी पटुआ बेचूंगा। " बार-बार यही किस्सा दुहराता था बेचारा।

शरीर पर कुछ नहीं था, एक लंगोट था बस। शीत ऋतु - गाड़ी का सफर, फिर भी खुश था। यात्री मज़ाक उड़ाते, बच्चे (नुक्कड़ वाले) तंग करते। उसे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं था। उसके दो रिश्तेदार उसे हमेशा पकड़े रहते, फिर भी वह गाड़ी में इधर-उधर करता। कभी वानर की भांति उछलता तो कभी शंतानी भैंस की तरह बैठकर जुगाली करता। बच्चों (नुक्कड़ पार्टी) का भरपूर मनोरंजन करता। दोनों रिश्तेदार काफी परेशान दिखते थे। नजर हमेशा उसी पर रहती। केवल रिश्तेदार ही दुखी थे और सभी खुश... यात्री और सारे यात्री।

वह कभी लालू यादव, मुख्यमंत्री, बिहार (उस समय) की बातें करता, तो कभी पी वी नरसिंहा राव, प्रधानमंत्री (उस समय) को फोन पर बुलाता। जैसे की 'रावजी' उसके कोई दोस्त हों और वह किसी मुसीबत में फंस गया हो। कभी तेंदुलकर के साथ क्रिकेट खेलता, तो कभी फुटबॉल के मैदान में अपने आप को आजमाता।

उसकी मुखाकृति पर पर इस तरह की कई रेखाएं थीं, जिससे साफ झलकता था कि किसी ने उसके साथ बेईमानी की है। यह सारा कुछ जबरन छीन लिया है उससे। यहां के हंगामे इंसान से बहुत कुछ छीन लेते हैं।

रिश्तेदार कहते हैं- "दिमाग कमजोर हो गया है... अबकी ठीक हो जाएगा।" यात्री कहते हैं-बेचारा पागल है। तब नुक्कड़ पार्टी में से किसी ने हंसकर कहा कि अतः सिद्ध हुआ कि गाड़ी रांची जा रही है। ... और नुक्कड़ पार्टी एक साथ गुनगुना उठी-

"पड़वा कटाइल हो रामा।
आदमियो कटा गेल।।"

- कन्हैया लाल सिंह
सरसी, पूर्णिया के निवासी। फिलहाल स्वतंत्र पत्रकार।

शुक्रवार, 4 मई 2012

स्वर नहीं परमेश्वर की साधना



हिन्दी सिनेमा के यशस्वी गायक मन्ना दा तिरानवे वर्ष के हो गए। एक मई को उनका जन्म दिवस था। उनके गाने तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं लेकिन उस रोज़ मन्ना दा बरबस याद आ रहे थे। एक इत्तेफाक ही था कि सुबह सुबह रेडियो पर उनका अमर गीत, सुर ना सजे बज उठा। ऐसा लगा जैसे पीड़ा के समंदर से तान की लहर उठ रही है। आत्मा की वह रागिनी समय की सारंगी पर निरंतर बज रही है जो मन्ना दा के कंठ से पैदा हुई थी। एक सधे हुए सुर में गाया गया दर्द का वह राग अमर हो गया है। स्वर की वह साधना निश्चय ही परमेश्वर की साधना थी जिसे गाते हुए मन्ना दा ने सुर और शब्द को एकाकार कर दिया था।

'मेरी सूरत तेरी आखें' फिल्म के संगीतकार बर्मन दा ने जब अपने बेजोड़, गीत पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई, के लिए गायक की तलाश शुरू की तो उनकी तलाश सहज ही मन्ना दा के साथ खत्म हो गई। अब उस गाने को सुनते हुए अकसर यह ख्याल आता है कि मन्ना दा के सिवा भला वह कौन सा पार्श्वगायक था जो कुरूप नायक के मन की तकलीफ को इतना सुंदर भाव दे पाता। मन्ना दा ने गीत की आत्मा में उतरकर शब्द उठाए और उन्हें अर्थ के पारदर्शी बना दिया। दिलचस्प है कि मन्ना दा उन नायकों के गायक थे जिन्हें स्टार का तमगा नहीं मिला था लेकिन जब भी मन्ना दा ने उन्हें आवाज़ दी, वे अमर हो गए। भारत भूषण, अशोक कुमार, बलराज साहनी को आवाज़ देते हुए उन्होंने अनायास ही इन नायकों के गरिमामय व्यक्तित्व को अपने स्वर की दीप्ति से आलोकित किया।

मन्ना दा को मालूम था कि संगीत में पीड़ा की तान कैसे छेड़ी जाती है। वे बखूबी जानते थे कि मन की दुखती रग का राग सबसे मधुर होता है इसीलिए वे कुछ अमर गाने गा सके। एक सच्ची आवाज़ जो मुश्किल रियाज़ से तप कर गायन के लिए तैयार हुई थी। सिनेमा के गानों ने जब भी अपनी सीमा पार कर शास्त्रीय संगीत की देहरी तक पहुंचने की कोशिश की। संगीत के यात्री के रूप में सबसे पहले मन्ना दा याद आए । संगीतकारों को मालूम था, मन्ना दा ही एक ऐसे गायक हैं जो लयकारी में रफ्तार के साथ उतार चढ़ाव की लहरों को खूबसूरती से संभाल सकते हैं। लिहाज़ा जब भी झनक झनक कर पायल बजी, जब भी चुनरी में दाग लगा, जब भी किसी ने फुलगेंदवा न मारने की पुकार की, वो पुकार मन्ना दा के गले से ही निकली।

बसंत बहार फिल्म में दो धुरंधर गायकों के बीच भिड़ंत होनी थी। फिल्म का दृश्य कुछ इस तरह से था कि दरबार के प्रतिष्ठित गायक को एक अन्जान गायक से संगीत के समर में हारना थ। दरबारी गायक के लिए पंडित भीमसेन जोशी का चुनाव किया गया फिर एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई कि पंडित जी के सामने कौन सा पार्श्वगायक गाना गाए। संगीतकार शंकर जय़किशन मन्ना दा के पास गए। लेकिन उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। बाद में काफी मान मनव्वल और खुद पंडित जी के उत्साहवर्धन पर वे गाने के लिए तैयार हुए। यह कहना गलत नहीं होगा कि 'केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले' गाने के साथ मन्ना दा ने न्याय किया है। हिन्दी सिनेमा के किसी पुरुष गायक में निश्चित तौर पर सुर और तान की ऐसी पकड़ नहीं थी।

मन्ना दा जितना ही नीचे से गा सकते थे। उनकी तान उतनी ही सहजता से ऊपर भी जाती थी। तार सप्तक को निबाहने वाले वे सिनेमा के अकेले पुरुष पार्श्वगायक हैं। ये बात सब जानते हैं कि जिन गानों को आजमाने से दूसरे पार्श्वगायक मना कर देते थे, वे तमाम गाने मन्ना दा की झोली में आए। संगीतकार सलिल चौधरी ने 'काबुलीवाला' फिल्म के लिए जब, 'ऐ मेरे प्यारे वतन' की धुन तैयार की तो उन्हें बिलकुल नई आवाज की दरकार थी। गाना गाने के लिए मन्ना दा स्टूडियो आए तो उन्होंने साफ कहा कि गाना मुक्त कंठ से नहीं बल्कि दबे हुए दर्द को सहेजती हुई आवाज़ में गाइये। मन्ना दा ने संगीतकार के भाव को समझा,काबुलीवाला फिल्म में फिल्माए गए उस दृश्य में नायक की भावनाओं को दिल में उतारा और अपनी आत्मा से उसे सींच डाला। जब भी वतन की याद में गाए जाने वाले अमर गीतों की सूची तैयार होगी। काबुलीवाला फिल्म का यह गाना चोटी के पांच गानों में होगा।

बिमल रॉय की बेजोड़ फिल्म, दो बीघा जमीन का एक गाना, मौसम बीता जाय, मन्ना दा के कम सुने जाने वाले गानों में जरूर है लेकिन गाने का सौन्दर्य कम नहीं है। बिमल राय़ ने जिस नायक को इस फिल्म में गढ़ा था और जो दृश्य रचा था, यह गाना उसमें खूबसूरती से पिरो दिया गया है। मन्ना दा ने अपनी आवाज़ को देहाती जीवन के अनुरूप खोल दिया था। वह मन्ना दा का अनूठा स्वर था जिसका बलराज साहनी के किरदार से तादात्म्य हो गया है।

पड़ोसन फिल्म का गाना, एक चतुर नार, की शुरुआत कर्नाटक शास्त्रीय संगीत शैली में होनी थी। इस गाने में मन्ना दा को सुनते हुए कहीं से भी यह प्रतीत नहीं होता कि कोई दक्षिण भारतीय गायक नहीं गा रहा। ताज्जुब होता है कि पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई जैसे संजीदा गाने का गायक, कैसे हंसते हंसते इतना चुटीला गाना गाकर सबको अपना मुरीद बना गया। 'ना तो कारवां की तलाश है' जैसी मुश्किल कव्वाली में मन्ना दा ने अपना रंग जमा दिया है। रफी साहब जैसे धुरंधर प्लेबैक सिंगर के साथ जब उन्होंने इस गाने को गाया तो कहीं से उन्नीस नहीं पड़े।
शो मैन राजकपूर के पसंदीदा गायक मुकेश थे लेकिन मन्ना दा ने उनके लिए भी कई बेहतरीन गाने गाए। उनमें से कुछ गाने तो सदाबहार रोमांटिक है। भीगी भीगी रात में मस्त फिजाओं के बीच मन्ना दा की आवाज में चांद का वो उठना अब तक याद है। या फिर प्यार हुआ इकरार हुआ को भला कौन भूल सकता है। राजकपूर ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर का भी एक यादगार गाना उन्हें दिया।

मन्ना दा का संगीत भोर का संगीत है, जो उम्मीदों का उजाला लिये आता है। उनके दर्द भरे गानों में भी विलाप नहीं करुणा का रस है। उनका गाना नाद से उठता है, हृदय में ठहरता है और गले से बाहर निकल कर मन में उतर जाता है। आंखें खोल कर सुनिए तो गाने का संसार सामने चल रहा होता है, आखें बंद कर सुनिए तो गाने के संसार में आप खुद को ठहरा हुआ, डूबा हुआ पाएंगे।

- देवांशु कुमार झा

(महुआ चैनल के प्रोगामिंग सेक्शन से जुड़े हैं.... आपसे 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है)