मंगलवार, 22 जून 2010
ये ट्रेन मिस कर दो विनय!
(माखनलाल चतुर्वेदी का पूर्व छात्र, दस्तक का साथी, हिंदुस्तान भागलपुर का पत्रकार और सबसे बढ़कर सबका प्यारा विनय चला गया, हमेशा-हमेशा के लिए)
मंगलवार की रात 9 बजे फास्ट ट्रैक का बुलेटिन चल रहा था। मैं पीसीआर में बुलेटिन करवा रहा था इसी दौरान प्रवीण का फोन आया, मैंने काट दिया। दूसरी बार, तीसरी बार घंटी बजी लेकिन मैंने फोन काट दिया। फिर मनोज भाई का फोन आया, वो फोन भी मैं नहीं उठा सका। बुलेटिन खत्म हुआ तो संतोष का फोन आया कि विनय नहीं रहा, विनय हम सभी को छोड़ कर चला गया। विनय तु्म्हारी मौत की खबर भी इस न्यूज बुलेटिन ने मुझ तक पहुंचाने में आधे घंटे की देर कर दी।
सुबह पता चला कि तुम भी ऑफिस पहुंचने की आपाधापी में ही ....। पुष्य ने बताया कि ऑफिस में देर हो रही थी और शायद तुम्हारी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पटना से तुम भागलपुर के लिए चले थे लेकिन नाथनगर में पता नहीं तुमने चलती ट्रेन से उतरने की कोशिश की या फिर कुछ और.... लेकिन तुम ऑफिस नहीं पहुंच पाए। अब कभी नहीं पहुंच पाओगे। ऑफिस से लौटते हुए जो बात मुझे बहुत ज्यादा कचोट रही थी कि मैं फोन क्यों नहीं उठाया वो अब कुछ और ज्यादा तकलीफ दे रही है। पता नहीं किस हालात और किन दबावों में हम काम करते हैं कि .... खैर! ये वक्त इस बात का नहीं लेकिन पुष्य समेत अपने तमाम साथियों के जेहन में न जाने ऐसे ही कई सवाल उठ रहे हैं।
मेट्रो से घर पहुंचने तक कई मित्रों के फोन आए- किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। सब एक दूसरे से एक-दो लाइनों में बात करते और फिर शब्द गुम हो जाते। अखिलेश्वर का मेरठ से फोन आया-भैया विनय नहीं.... उसके बाद न वो कुछ बोल सका और न मैं। इसी तरह ब्रजेन्द्र, उमेश ... सभी इस खबर के बाद अजीब सी मनस्थिति में थे.... शिरीष से बात की और ये सूचना दी तो वो भी सन्न रह गया। विनय अब तुम से तो कोई सवाल नहीं कर सकता लेकिन एक दूसरे से ताकत बटोरने की कोशिश कर रहे हैं... विनय ऐसी भी क्या जल्दी थी... एक दिन ऑफिस छूट ही जाता तो क्या होता... लेकिन हादसों के बारे में क्या कहा जा सकता है... तुमने भी तो शायद ये नहीं सोचा था कि चलती ट्रेन के पहिए तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं...
तुम्हारा चेहरा रात से बार-बार मेरे सामने घूम रहा है... सीधा, सपाट और बिलकुल बेबाक विनय और उसकी उतनी ही प्यारी मुस्कुराहट अब कभी देखने को नहीं मिलेगी... वो विनय जो चंद मुलाकातों में ही बिलकुल अपना सा हो गया था वो पता नही कहां गुम हो गया... बंदर मस्त कलंदर का गोडसे उड़न छू हो गया... विनय वो तुम ही तो थे जो बैक स्टेज पर हंसते मुस्कुराते और मंच पर जाते ही गोडसे के चरित्र में ढ़ल जाते थे... तुम्हीं ने राजकमल नायक के साथ एक अलग ही परसाई की कहानी के कैरेक्टर में कमाल की जान डाल दी थी... आज बेजान पड़े हो... बिना किसी रिहर्सल के जिंदगी के नाटक का पटाक्षेप कर दिया...
कई सारी बातें ध्यान में आ रही हैं... बिलकुल बेतरतीब... तुम्हारा भोपाल का कमरा, जहां तुमने मुझे खिचड़ी का न्योता दिया। हबीबगंज स्टेशन पर ट्रेन सीटी बजा रही थी लेकिन तुम्हारे कुकर की सीटी नहीं बज रही थी। बिना खिचड़ी खाए जाना मुमकिन नहीं था... जब तक हम स्टेशन की ओर बढ़ते तब तक ट्रेन जा चुकी थी... तुमने बड़े प्यार से कह दिया- ठीक है एक दिन और रूक जाइए... मेरा मन भी नहीं था कि आप जाएं...
ऐसी ही चंद मुलाकातें बार-बार जेहन में कौंध रही है... तुम्हारी प्रवीण के साथ नोक-झोंक, भागलपुर स्टेशन पर पुष्य के साथ खबरों को लेकर खींचतान... भागलपुर का वो कमरा जो तुमने तीसरी या चौथी मंजिल पर ले रखा था... जिसका पूरा व्याकरण तुमने अपने मुताबिक गढ़ रखा था... विनय तुम सबसे जुदा थे... सबसे अलग.... तुम्हारा स्नेह, तुम्हारा प्यार.... तुम्हारी बहस और तुम्हारे सवाल सब तुम्हारे साथ ही गायब हो रहे हैं... कैसे कहूं- हो सके तो लौट आओ मेरे भाई... तुम्हारे हाथ की खिचड़ी खाने का फिर से मन हो रहा है... क्या तुम मौत की ट्रेन मेरे लिए मिस नहीं कर सकते।
पशुपति शर्मा
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4 टिप्पणियां:
पशुपति जी
आपके ह्रदय की वेदना को मैं भली भांति समझ सकता हूँ, इसे पढ़ एक पल के लिए तो मैं खुद के अतीत में चला गया था....
प्रार्थना है की भगवान श्री विनय जी की आत्मा को शन्ति प्रदान करे... और उनके परिवार को इस करुण स्थिति से उबरने की शक्ति प्रदान करे...
हरे कृष्ण...
ॐ शन्ति...
बीते एक ही महीने में आँखें दो बार नम हुई है. फ़िलहाल अपने आसपास एक अजीब सा रिक्त स्थान पाता हूँ जो पुरानी यादों में थोड़ी देर के लिए भर कर जल्दी ही रीत जाता है. विनय हमारा प्यारा दोस्त..."था" शब्द का प्रयोग उसके लिए कर पाना संभव नहीं है. 2002 में माखनलाल परिसर से विनय जैसे तमाम दोस्तों से छूट जाने के बाद लगता रहा है कि वह कभी न कभी मिलेंगे. मगर विनय की बातें, उसकी वह प्यारी मुस्कान हमेशा के लिए नहीं होगी तो ऐसा कौन सोच सकता है. विनय तुम बहुत ज़ल्दी कर दी है. यह ठीक बात नहीं है. बिल्कुल नहीं है.
होनहार पत्रकार और हमारा प्यारा दोस्त विनय हम सभी दोस्तों की मिलीजुली और अलग-अलग तरह से बसी भोपाल वाली यादों का जीवंत पात्र रहा है. राजकमल नायक निर्देशित नाटक "एक लड़की पाँच दीवाने" में विनय का "सब्जीवाला...ले लो सब्जी ले लो" कैरेक्टर जब याद करता हूँ तो इस वक़्त में भी लिटिल बैले ट्रिप, भोपाल का पूरा हाल हँसी के मारे गूँजता हुआ दिखाई देता है. हमेशा हँसते रहना और बार-बार गले लगाने वाले उसके अंदाज़ को हममें से कोई दोस्त भूल नहीं सकता है. मगर बार-बार सोचने के बाद भी यह यकीन कर पाना अब से मुश्किल होगा कि उसके वही अंदाज़ जब याद आएंगे तो चेहरे की हँसी गायब हो जाया करेगी. यक़ीनन इस बार उसके साथ बहस में उसे ग़लत ठहराने के लिए काफी सारे सवाल हैं. क्या विनय एक मौका देगा...--
समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहा जाय. बस यादों के बादल घुमड़-घुमड़ के सामने आ रहे हैं. इस बेचैनी में कुछ भी कह पाना मुश्किल होता है. मुझे याद है कि विनय जब चलता था तो पैरों पर कुछ ज्यादा ही दबाव देकर चलता था, मानो पहले वह पैर जमाता था, फिर आगे बढ़ता था. ऐसे में उससे यह कैसी चूक हो गयी कि उसने हम सबका साथ ही छोड़ दिया.
राजू कुमार, भोपाल, 09893252617
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