शनिवार, 13 नवंबर 2010

शून्य

शून्य तो शून्य है
शून्य का क्या है,
कितना बड़ा कि इतने से इतने बड़े का क्या है ?

शून्य की शून्यता में इन दिनों
इस तरह समाया हुआ हूँ कि
रात और दिन के बीच कुछ नजर नहीं आता है
सिवाय शून्य के.

शून्य बाहर है कि भीतर का है या मध्य में है
शून्य शून्य भर है कि उसके भीतर समाये गए हैं
अनगिनत शून्य
और उनकी शून्यताएँ

क्या शून्य अकेला ही बढा रहा है शून्यता को या
उसके भीतर के अनगिनत शून्य मिलकर एक कर दे रहे है
धरती और नक्षत्र को.

समुद्री किनारों से इन दिनों
जब मेरे यादों के पहाड़ बदलते जा रहे हैं शून्य में
तब शून्य अपनी शून्यता में
भर रहा है मुझे भी और हर रहा है
मेरे सारे आकार-प्रकार, रंगों और रूपों को.

शिरीष खरे, क्राई, मुंबई।

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