गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

अंधा युग- रह रह कर दोहराता है!



दिल्ली के फिरोज शाह कोटला में 'अंधा युग' एक बार फिर खुद को दोहरा रहा है। पचास साल बाद एक बार फिर किले में गूंज रहे हैं वो संवाद, जो अंदर तक झकझोर कर रख देते हैं। महाभारत के युद्ध के अट्ठारहवें दिन के घटनाक्रम को धर्मवीर भारती ने जिस रूप में पिरोया है, वो हर देश-काल में अपने मायने तलाश लेता है... आज के इस दौर में भी। आज भी जब सत्ता अपने मद में अक्सरां 'अंधी' हो जाती है और सरकार के 'महारथी' अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा की तरह या तो अपने 'पागलपन' में 'हत्यारे' की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं, या फिर बिना विचारे अपने सारे 'ब्रह्मास्त्र' विरोधियों पर छोड़ देते हैं।

ये महज इत्तफाक ही था, कि 18 अक्टूबर, मंगलवार की संध्या दिल्ली की कांग्रेसी मुख्यमंत्री शीला दीक्षित दर्शक दीर्घा में मौजूद थीं, और मंच से 'शासकों' के 'दोमुंहेपन' और सत्ता की 'मदांधता' पर ऐसे संवाद गूंज रहे थे, जो एक साथ कई संदर्भों में चोट कर रहे थे। सत्ता को उसकी 'मर्यादा' का पाठ पढ़ाया जा रहा था। हालांकि मुख्यमंत्री के लिए ये उत्सव है-"इस वर्ष कोटला फिरोजशाह में ऐतिहासिक परिवेश में महाभारत पर आधारित महान नाटक अंधायुग हम सभी के लिए एक अत्यंत उत्साहजनक घटना... उत्सव की बेला है यह।" (मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का संदेश, ब्रोशर से) वाकई अंधायुग सत्ता के 'अंधेपन' का 'उत्सव' है! इसमें क्या संदेह रह जाता है।

नाटक देखते हुए, कई बार हालिया टीम अन्ना का आंदोलन और उस दौरान देश की सरकार का रवैया भी समानांतर मन में कई तरह की हलचल पैदा करता रहा। ये तो एक बानगी है, देश में ऐसे कई आंदोलन चल रहे हैं और कमोबेश हर जगह सरकार की भूमिका और उसकी प्रतिक्रिया ऐसी ही रही है। शायद नाटक के निर्देशक भानु भारती का ये कथन कि उन्होंने नाटक को मौजूदा परिस्थितियों में और प्रासंगिक बनाने की कोशिश की है, इन्हीं प्रसंगों में कुछ और मायने तलाशता है।

नाटक में 'महाराज' धृतराष्ट्र का एक संवाद आता है कि वो अपनी वैयक्तिकता में इस कदर उलझे कि उन्हें न तो बाह्य मानदंडों का खयाल रह गया और न ही वो उन शब्दों के मायने समझ पाए जो 'संजय' उनके सामने बार-बार दोहरा रहे थे। सत्ता को इस बात का एहसास होने में काफी वक्त लग जाता है कि वैयक्तिक सीमाओं से बाहर भी 'सत्य' होता है। धृतराष्ट्र की भूमिका निभा रहे मोहन महर्षि ने अपने अभिनय, भंगिमाओं और हरकतों से अपनी छटपटाहट और हार की वजहों को लेकर चल रहे आत्ममंथन को दर्शकों तक काफी बेहतर तरीके से संप्रेषित किया है।

कोटला के किले में जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, पात्रों का अंतर्द्वंद्व भी तीर्वतर होता जाता है। बिलकुल मध्य से कोरस गान, मंच के दाईं तरफ धृतराष्ट्र का महल और बाईं तरफ वो 'स्पेस' जहां अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य अपनी इस हार से बौखलाए, पगलाए से छटपटा रहे हैं। पिता द्रोण की धोखे से हुई हत्या के बाद अश्वत्थामा ने सारी मर्यादाओं को ताक पर रख दिया, उसके लिए बस एक ही लक्ष्य है- पाण्डवों का समूल नाश, और इसके लिए वो किसी भी हद तक जा सकता है। अश्वत्थामा की भूमिका निभा रहे टीकम जोशी ने बदले की आग में जलते एक शख्स के मनोभावों को बखूबी निभाया है।

अश्वत्थामा के द्वारा संजय पर हमला, एक वृद्ध याचक का 'वध', और पांडव शिविर पर हमला। ये सारे मनोभाव और परिस्थितियां धीरे-धीरे उद्धाटित होती हैं। एक तरफ जहां, धृतराष्ट्र सैनिकों को सहला कर युद्ध की पीड़ा को महसूस कर व्यथित हो उठते हैं तो वहीं पुत्रमोह में गांधारी अश्वत्थामा के कुकृत्यों का विवरण बड़े 'रस' से सुनती रहती हैं। उन्हें इसमें विदुर की ओर से पैदा किया गया कोई व्यवधान रास नहीं आता।

गांधारी की भूमिका में उत्तरा बावकर को देखना, वाकई उस मां से होकर गुजरना है, जो युद्ध की इस बेला में अपनी हार स्वीकार नहीं कर पाती, अपने बेटे दुर्योधन को मरते हुए देखना नहीं चाहती, अपने घर आए बेटे युयुत्सु को आशीष के दो वचन नहीं सुना सकती और अंतत: उस कृष्ण को भी शापित कर देती है जिस पर पुत्र से भी ज्यादा मोह है। कृष्ण और गांधारी के बीच के संवाद में ओमपुरी की आवाज और उत्तरा बावकर के जवाब, सिहरन पैदा कर जाते हैं।

नाटक, हर पल, हर क्षण सत्ता के मद और उसके द्वारा निर्मित 'युद्ध' की परिस्थितियों पर नरम-नरम चोट करता है। इस तनाव पूर्ण परिस्थितियों में भी दो प्रहरी (मौजूदा पुलिस और प्रशासन) की विवशता कटु हास्य पैदा करती है। दाएं से बाएं और बाएं से दाएं... दाएं से बाएं और बाये से दाएं... वाकई सत्ता ने यही काम तो प्रहरियों के जिम्मे छोड़ रखा है। नाटक के एक अन्य दृश्य में युयुत्सु प्रहरियों के हथियार से आत्महत्या कर लेता है। उस वक्त प्रहरी कहते हैं- जो अस्त्र-शस्त्र दुश्मनों के लिए थे, वो अब खुद अपनों के बीच तन गए हैं, चलो अच्छा हुआ ये अस्त्र जो हमारे पास थे आज कुछ काम तो आए।

नाटक समाप्त होता है... वहां जहां आशाओं के दीप जल रहे हैं। नाटक में हिस्सा ले रहे सभी कलाकार एक एक कर मंच के अलग-अलग कोनों से हाथ में दीप लिए आते हैं। दीवाली से पहले कोटला में एक दीपोत्सव मनता है। इस वक्त वृद्ध याचक का एक संवाद फिर मन में उठता है- हर क्षण इतिहास बदलने का क्षण होता है... लेकिन क्या वाकई इस क्षण में हम इतिहास बदलने को तैयार हैं या फिर, रह-रह कर दोहराएंगे एक और 'अंधा युग'।

पशुपति शर्मा

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