शुक्रवार, 2 मार्च 2012

जो जीयै सो खेले फाग



"महंगी पड़े या अकाल हो, पर्व त्यौहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मलेरिया और कालाआजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूंक देती है। रोने कराहने के लिए बाकी ग्यारह महीने तो हैं हीं, फागुन भर तो हंस लो, गा लो। जो जीयै सो खेले फाग। " ये बात फणीश्वर नाथ रेणु कह रहे हैं, अपने उपन्यास 'मैला आंचल' में।

मैला आंचल में होली का जो जीवंत वर्णन है, वो बेहद रोमांचित कर देने वाला है। रेणु जब होली का राग छेड़ते हैं तो पाठकों को बौरा देते हैं। मैला आंचल में छह पृष्ठों की होली में आपको छह हजार रंग नजर आने लगते हैं। नाच-गाना, धमा-चौकरी, छींटाकशी, नए उलाहने भरे गीत... सब कुछ पिक्चर की तरह खटाखट एक दृश्य खत्म होता है, दूसरा चला आता है।

दृश्य एक

फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है, पर वह उसके साथ जाना नहीं चाहती, वह होली गांव में ही मनाना चाहती है। वह क्यों गांव में रहना चाहती है, ये रेणु की नजरों से परे नहीं। फुलिया पिछली होली में सहदेव मिसर से 'मिलन' को भूल नहीं पाई है। फुलिया की पोर-पोर में मीठा दर्द फैल रहा था। मन में कहीं इच्छा है- सहदेव मिसर को बुला भेजे।

'नयना मिलानी करी ले रे सैयां....
नैयना मिलानी करी लें'

दृश्य-दो

चारों ओर गुलाल उड़ रहा है। पर डॉक्टर को कोई रंग नहीं देता।..... उसे कोई रंग क्यों नहीं देता? बाहर का आदमी है, ऊपर से सरकारी... सो गांव के सीधे-सादे लोग उससे सटते ही नहीं। कालीचरण तो नेता आदमी है, उसे डर काहे का। लो ये मारी पिचकारी। डॉक्टर के सफेद कुर्ते पर लाल-गुलाबी रंगों के छींटे छरछराकर पड़ते हैं।

'आज ब्रज में चहुं दिश उड़त गुलाल...'

दृश्य-तीन


डॉक्टर उसकी 'मरीज' कमली आमने-सामने। प्रेमी-प्रेमिका आमने-सामने हों और होली का दिन हो, फिर क्या कहना। पर यह क्या, डॉक्टर चुटकी में अबीर लिए सोच में पड़ा है-कमली को रंग कहां लगाए। निरा बुद्धू है डॉक्टर प्रशांत। कमली 'प्रशांत' में हिचकोले लगाने को बेताब है और वह...।

" जरा अपना हात बढ़ाइए तो"... कमली कह ही तो देती है- " आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं।" ऐसे कितने ही रोचक दृश्य रेणु ने खींचे हैं जो होली की मस्ती बयान करते हैं।

होली में प्रेम, मिलन, हास-परिहास तो है ही, इसके साथ ये सामाजिक- राजनैतिक आलोचना का दिन भी है। रेणु इस पर्व की सर्जनात्मकता को रेखांकित करना नहीं भूलते। एक गीत जो होली के लिए खास तौर पर रचा गया है, तत्कालीन परिस्थितियों पर करारा व्यंग्य है।

"चर्खा कातो, खद्दर पहनो, रहे हाथ में झोली
दिन दहाड़े करो डकैती, बोल सुराजी बोली
जोगीजी सरररररररररर....
जोगीजी ताल न टूटे....
तीन ताल पर ढोलक बाजे
ताक धिना धिन, धिन्नक तिनक, जोगीजी..."


-पशुपति शर्मा

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