मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

सीढियों पर 'वो'...


स्टेशन की सीढ़ियों से उतरते हुए
वह रोज़ दिखता है।
दुख की संचित निधि को समेटे हुए
कुछ पाने की दृष्टि से देखता है।
मैं सोचता हूं,
देखता हूं,
पर,
मेरी और उसकी आखों के पीछे का संचालित
संसार दो अलग छोर पर टिका है।
संघर्ष मेरा भी है,
विजय और पराजय के बीच टंगा हुआ
और
संघर्ष उसका, पीढ़ियों के पराजय का पुल है
जिसके नीचे की नदी सूखी हुई है।
वह कभी स्वांग है, कभी घृणा
कभी तरस, कभी क्रोध का कारण
शायद भूले से दया भी
और
सहानुभूति अपवाद है।
उसके परिचय में संज्ञा सबसे कमजोर है
और सबसे विशिष्ट है, विशेषण
जो सदैव उसके नेत्र को
अभिमान के जल से रिक्त किये हुए है।
-देवांशु झा
(इन दिनों महुआ न्यूज चैनल में कार्यरत। आप से 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है)

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