शुक्रवार, 4 मई 2012

स्वर नहीं परमेश्वर की साधना



हिन्दी सिनेमा के यशस्वी गायक मन्ना दा तिरानवे वर्ष के हो गए। एक मई को उनका जन्म दिवस था। उनके गाने तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं लेकिन उस रोज़ मन्ना दा बरबस याद आ रहे थे। एक इत्तेफाक ही था कि सुबह सुबह रेडियो पर उनका अमर गीत, सुर ना सजे बज उठा। ऐसा लगा जैसे पीड़ा के समंदर से तान की लहर उठ रही है। आत्मा की वह रागिनी समय की सारंगी पर निरंतर बज रही है जो मन्ना दा के कंठ से पैदा हुई थी। एक सधे हुए सुर में गाया गया दर्द का वह राग अमर हो गया है। स्वर की वह साधना निश्चय ही परमेश्वर की साधना थी जिसे गाते हुए मन्ना दा ने सुर और शब्द को एकाकार कर दिया था।

'मेरी सूरत तेरी आखें' फिल्म के संगीतकार बर्मन दा ने जब अपने बेजोड़, गीत पूछो ना कैसे मैंने रैन बिताई, के लिए गायक की तलाश शुरू की तो उनकी तलाश सहज ही मन्ना दा के साथ खत्म हो गई। अब उस गाने को सुनते हुए अकसर यह ख्याल आता है कि मन्ना दा के सिवा भला वह कौन सा पार्श्वगायक था जो कुरूप नायक के मन की तकलीफ को इतना सुंदर भाव दे पाता। मन्ना दा ने गीत की आत्मा में उतरकर शब्द उठाए और उन्हें अर्थ के पारदर्शी बना दिया। दिलचस्प है कि मन्ना दा उन नायकों के गायक थे जिन्हें स्टार का तमगा नहीं मिला था लेकिन जब भी मन्ना दा ने उन्हें आवाज़ दी, वे अमर हो गए। भारत भूषण, अशोक कुमार, बलराज साहनी को आवाज़ देते हुए उन्होंने अनायास ही इन नायकों के गरिमामय व्यक्तित्व को अपने स्वर की दीप्ति से आलोकित किया।

मन्ना दा को मालूम था कि संगीत में पीड़ा की तान कैसे छेड़ी जाती है। वे बखूबी जानते थे कि मन की दुखती रग का राग सबसे मधुर होता है इसीलिए वे कुछ अमर गाने गा सके। एक सच्ची आवाज़ जो मुश्किल रियाज़ से तप कर गायन के लिए तैयार हुई थी। सिनेमा के गानों ने जब भी अपनी सीमा पार कर शास्त्रीय संगीत की देहरी तक पहुंचने की कोशिश की। संगीत के यात्री के रूप में सबसे पहले मन्ना दा याद आए । संगीतकारों को मालूम था, मन्ना दा ही एक ऐसे गायक हैं जो लयकारी में रफ्तार के साथ उतार चढ़ाव की लहरों को खूबसूरती से संभाल सकते हैं। लिहाज़ा जब भी झनक झनक कर पायल बजी, जब भी चुनरी में दाग लगा, जब भी किसी ने फुलगेंदवा न मारने की पुकार की, वो पुकार मन्ना दा के गले से ही निकली।

बसंत बहार फिल्म में दो धुरंधर गायकों के बीच भिड़ंत होनी थी। फिल्म का दृश्य कुछ इस तरह से था कि दरबार के प्रतिष्ठित गायक को एक अन्जान गायक से संगीत के समर में हारना थ। दरबारी गायक के लिए पंडित भीमसेन जोशी का चुनाव किया गया फिर एक बड़ी समस्या खड़ी हो गई कि पंडित जी के सामने कौन सा पार्श्वगायक गाना गाए। संगीतकार शंकर जय़किशन मन्ना दा के पास गए। लेकिन उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। बाद में काफी मान मनव्वल और खुद पंडित जी के उत्साहवर्धन पर वे गाने के लिए तैयार हुए। यह कहना गलत नहीं होगा कि 'केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले' गाने के साथ मन्ना दा ने न्याय किया है। हिन्दी सिनेमा के किसी पुरुष गायक में निश्चित तौर पर सुर और तान की ऐसी पकड़ नहीं थी।

मन्ना दा जितना ही नीचे से गा सकते थे। उनकी तान उतनी ही सहजता से ऊपर भी जाती थी। तार सप्तक को निबाहने वाले वे सिनेमा के अकेले पुरुष पार्श्वगायक हैं। ये बात सब जानते हैं कि जिन गानों को आजमाने से दूसरे पार्श्वगायक मना कर देते थे, वे तमाम गाने मन्ना दा की झोली में आए। संगीतकार सलिल चौधरी ने 'काबुलीवाला' फिल्म के लिए जब, 'ऐ मेरे प्यारे वतन' की धुन तैयार की तो उन्हें बिलकुल नई आवाज की दरकार थी। गाना गाने के लिए मन्ना दा स्टूडियो आए तो उन्होंने साफ कहा कि गाना मुक्त कंठ से नहीं बल्कि दबे हुए दर्द को सहेजती हुई आवाज़ में गाइये। मन्ना दा ने संगीतकार के भाव को समझा,काबुलीवाला फिल्म में फिल्माए गए उस दृश्य में नायक की भावनाओं को दिल में उतारा और अपनी आत्मा से उसे सींच डाला। जब भी वतन की याद में गाए जाने वाले अमर गीतों की सूची तैयार होगी। काबुलीवाला फिल्म का यह गाना चोटी के पांच गानों में होगा।

बिमल रॉय की बेजोड़ फिल्म, दो बीघा जमीन का एक गाना, मौसम बीता जाय, मन्ना दा के कम सुने जाने वाले गानों में जरूर है लेकिन गाने का सौन्दर्य कम नहीं है। बिमल राय़ ने जिस नायक को इस फिल्म में गढ़ा था और जो दृश्य रचा था, यह गाना उसमें खूबसूरती से पिरो दिया गया है। मन्ना दा ने अपनी आवाज़ को देहाती जीवन के अनुरूप खोल दिया था। वह मन्ना दा का अनूठा स्वर था जिसका बलराज साहनी के किरदार से तादात्म्य हो गया है।

पड़ोसन फिल्म का गाना, एक चतुर नार, की शुरुआत कर्नाटक शास्त्रीय संगीत शैली में होनी थी। इस गाने में मन्ना दा को सुनते हुए कहीं से भी यह प्रतीत नहीं होता कि कोई दक्षिण भारतीय गायक नहीं गा रहा। ताज्जुब होता है कि पूछो ना कैसे मैने रैन बिताई जैसे संजीदा गाने का गायक, कैसे हंसते हंसते इतना चुटीला गाना गाकर सबको अपना मुरीद बना गया। 'ना तो कारवां की तलाश है' जैसी मुश्किल कव्वाली में मन्ना दा ने अपना रंग जमा दिया है। रफी साहब जैसे धुरंधर प्लेबैक सिंगर के साथ जब उन्होंने इस गाने को गाया तो कहीं से उन्नीस नहीं पड़े।
शो मैन राजकपूर के पसंदीदा गायक मुकेश थे लेकिन मन्ना दा ने उनके लिए भी कई बेहतरीन गाने गाए। उनमें से कुछ गाने तो सदाबहार रोमांटिक है। भीगी भीगी रात में मस्त फिजाओं के बीच मन्ना दा की आवाज में चांद का वो उठना अब तक याद है। या फिर प्यार हुआ इकरार हुआ को भला कौन भूल सकता है। राजकपूर ने अपनी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्म मेरा नाम जोकर का भी एक यादगार गाना उन्हें दिया।

मन्ना दा का संगीत भोर का संगीत है, जो उम्मीदों का उजाला लिये आता है। उनके दर्द भरे गानों में भी विलाप नहीं करुणा का रस है। उनका गाना नाद से उठता है, हृदय में ठहरता है और गले से बाहर निकल कर मन में उतर जाता है। आंखें खोल कर सुनिए तो गाने का संसार सामने चल रहा होता है, आखें बंद कर सुनिए तो गाने के संसार में आप खुद को ठहरा हुआ, डूबा हुआ पाएंगे।

- देवांशु कुमार झा

(महुआ चैनल के प्रोगामिंग सेक्शन से जुड़े हैं.... आपसे 9818442690 पर संपर्क किया जा सकता है)

कोई टिप्पणी नहीं: