शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

भोपाल में बिखरी 'मोहनिया' की यादें

 

नम आंखें और उन आंखों से ढलकतीं विनय की यादें। भोपाल के गांधी भवन के मोहनिया बाल गृह में सुबह एक-एक कर साथियों का आना शुरू हो गया। विनय की याद में आयोजित कार्यक्रम को लेकर बने पोस्टर और बैनर मंच पर एक-एक कर टांके गए। इसी दौरान दो टेबल पलट कर उस पर एक-एक चादर डाली गई। अखलाक ने जो दो पोस्टरनुमा तस्वीरें मुजफ्फरपुर से बनवाकर लाईं थीं, उसे दो कोने पर जैसे ही लगाया गया, वो मंच तैयार हो गया... जहां विनय की यादें एक-एक कर बिखरने लगीं।

पहला अनौपचारिक सत्र-विनय स्मरण का रहा। राजू नीरा ने चंद लफ़्जों में विनय को याद किया और जैसे ही पुष्पांजलि के लिए साथियों को न्यौता दिया गया, कई आंखें डबडबा गईं। राजू नीरा ने इस अनौपचारिक सत्र की शुरुआत इस प्रस्ताव के साथ की कि विनय की याद के इस सिलसिले को अब किस दायरे में आगे बढ़ाया जाए। माखनलाल तक ही इसे सीमित रखा जाए या इसमें बाहर के लोगों की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी सुनिश्चित की जाए। इसी सिलसिले में राजू ने माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय के एक और सीनियर साथी वेदव्रत गिरि के असामयिक निधन पर शोक जाहिर किया। राजू ने जरूरतमंद और संकटग्रस्त साथियों के लिए एक को-ऑपरेटिव जैसी व्यवस्था विकसित करने की बात भी कही।

मुजफ्फरपुर दैनिक जागरण से जुड़े अखलाक अहमद ने कार्यक्रम में स्थानीय साथियों की कम भागीदारी पर चिंता जाहिर की। उन्होंने कहा कि पिछले चार साल से चल रहे इस कार्यक्रम को जारी रखा जाना चाहिए और एक नेशनल नेटवर्क विकसित किया जाना चाहिए। विनय के बहाने अलग-अलग विषयों पर पुस्तिका प्रकाशन पर भी उन्होंने जोर दिया।

बीबीसी से जुड़ीं शेफाली चतुर्वेदी ने लगे हाथ अगला आयोजन दिल्ली में करने का प्रस्ताव रखा, जिस पर करतल ध्वनि से सभी ने हामी भर दी। एक्शन एड के साथ काम कर रहे उमेश चतुर्वेदी ने भी दिल्ली में कार्यक्रम की जिम्मेदारी लेने की तत्परता दिखाई और कार्यक्रम स्थल के तौर पर गांधी शांति प्रतिष्ठान का नाम सुझाया। मुजफ्फरपुर से आए साथी अमरेन्द्र तिवारी ने आयोजन का समय एक दिन से बढ़ाकर दो दिन करने की इच्छा जाहिर की। इसके साथ ही उन्होंने बीच-बीच में वर्कशॉप किए जाने की जरूरत भी रेखांकित की।

एनडीटीवी, मुंबई में कार्यरत साथी अनुराग द्वारी के चंद बोलों ने विचार में डूबते-उतराते लोगों को फिर भावुक कर दिया। अनुराग ने ये जब ये सवाल किया कि फूलों से भी इतनी तकलीफ़ हो सकती है... तो इसका जवाब आंखें दे रहीं थीं। भोपाल के साथी अरुण सूर्यवंशी ने पिछली बार के कार्यक्रम में न शामिल हो पाने का अफसोस जाहिर किया और कहा कि 'टू बी कनेक्टेड' की स्थिति बनी रहनी चाहिए।

नई दुनिया, इंदौर में कार्यरत सचिन श्रीवास्तव ने विनय के नाम पर किसी फोरम के गठन को लेकर आपत्तियां जाहिर कीं। उन्होंने कहा कि व्यक्ति आधारित संस्थाएं कब तक और कितनी दूर तक चल पातीं हैं, इसका इतिहास अच्छा नहीं रहा है। वहीं दैनिक जागरण, भोपाल के खेल प्रभारी शशि शेखर ने इन सबसे से परे विनय के सरल-सहज स्वभाव को जिंदा रखने को ही आयोजन की सार्थकता बताया। सहारा न्यूज चैनल के एंकर संदीप ने फेसबुक पर एक पेज बनाकर साथियों को जोड़े रखने की बात कही और उन्होंने ये जिम्मा खुद अपने कंधों पर ले लिया। पशुपति शर्मा ने विनय के नाम पर हो रहे आयोजनों को मौजूदा स्वरूप में ही जारी रखने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने कहा कि अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सचिव जैसी व्यवस्थाएं कई बार काम आगे बढ़ाने की बजाय अड़चनें पैदा करने लगती हैं। दस्तक के रोल मॉडल की तरह की विनय स्मरण कार्यक्रम भी यूं ही जारी रखा जाए तो बेहतर होगा।

बिहार में प्रभात खबर के साथ लंबे वक्त से काम रहे अखिलेश्वर पांडेय ने एक ईमानदार आदमी की सतत मौजूदगी को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि आज भी प्रभात खबर के साथ विनय को याद कर भावुक हो उठते हैं। उससे काम में जुटे रहने और जिम्मेदारियां ओढ़ लेने की प्रेरणा लेते हैं।

न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव, दिल्ली के साथी सुभाष गाताडे ने विनय की याद में इस तरह के कार्यक्रम को एक जरूरी पहल बताया। इसके साथ ही औपचारिक संगठन से बचने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि विनय के लेखों के संकलन के बारे में गंभीरता से सोचा जाना चाहिए।

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के प्रोफेसर पुष्पेंद्र पाल सिंह ने एक रोचक प्रसंग से अपनी बात शुरू की। विनय के निधन के बाद दोस्तों ने जिस शिद्दत से उसे याद किया, उसने कई लोगों को प्रभावित किया। उन्होंने बताया कि कैसे अभिलाष खांडेलकर ने उनसे फोन कर पूछा कि आखिर ये विनय कौन है, क्या बात थी इस युवा पत्रकार में कि उसे साथी इतने भावुक होकर याद कर रहे हैं। पुष्पेंद्र पाल सिंह ने कहा कि इस आयोजन की सबसे बड़ी बात ये है कि ये ईमानदारी, अच्छाई और सादगी में लोगों के विश्वास को पुख्ता करता है। ये आस्था बलवती होती है कि समाज में अच्छे लोग हैं तो उनका सम्मान भी है। पहला सत्र साथियों को आगे बढ़ते रहने के पीपी सिंह के इसी संदेश के साथ संपन्न हो गया।

दूसरा सत्र, करीब ढ़ाई बजे... ये फैसले का वक्त है, आ कदम मिला के बोल के साथ शुरू हुआ। मुजफ्फरपुर के सांस्कृतिक संगठन गांव ज्वार के साथी सुनील और अखलाक ने ये गीत गया। इसके बाद शेफाली चतुर्वेदी ने सचिन श्रीवास्तव की कविता 'अफसोस विनय अफसोस' का वाचन किया। पशुपति शर्मा ने आरंभिक उद्बोधन में मोहनिया बाल गृह में अपने मोहनिया को याद करने की बात कही। विनय तरुण का स्वभाव ही ऐसा है कि वो कभी मोहनिया बन कर सामने आ जाता है तो कभी आनंद के राजेश खन्ना की तरह लोगों को हंसता-हंसाता आंखों के सामने तैरने लगता है। विनय की याद में ये कार्यक्रम उसकी सादगी, उसकी सहजता, उसकी ईमानदारी, उसकी दृढ़ता का उत्सव है।

अब बारी सुभाष गाताडे की थी, जिन्हें अस्मिताओं का संघर्ष और पत्रकारिता पर अपनी बात रखनी थी। गाताडे ने विनय की याद में आयोजित इस व्याख्यान पर साथियों को साधुवाद दिया। उन्होंने कहा- ये बड़ी बात है कि साथियों ने विनय के न होने के गम को सयापे में नहीं बदला बल्कि संकल्पशक्ति में तब्दील किया है। ऐसे दौर में जब पत्रकारिता कमीशनखोरी में तब्दील हो गई हो, अपनी भूमिका तलाशने की ऐसी कोशिशें काफी ताकत देने वाली है।

उन्होंने कहा कि अस्मिताओं के संघर्ष का सवाल आज ज्यादा मौजूं है। 80-90 के दशक में दलित और स्त्री अस्मिता का उभार हुआ। हिंदी पट्टी के सबसे बड़े सूबे में मायावती अस्मिताओं के इस संघर्ष के बाद सत्ता पर काबिज हुईं। 90 के दशक में हिंदू अस्मिता का उभार हुआ। और अब आज के दौर में जब हम गुजरात दंगे बनाम विकास की बहस में उलझे हैं, अस्मिताओं से जुड़े ऐसे कई सवाल बार-बार सिर उठाते हैं।

पत्रकारिता के ढांचे का जिक्र करते हुए सुभाष गाताडे ने कहा कि यहां अभी भी पुरुष वर्चस्व कायम है। पत्रकारिता संस्थानों में तमाम अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। इस सिलसिले में उन्होंने 2006 में हुए एक सर्वे का जिक्र किया। 35 चैनलों के 300 सीनियर मीडियाकर्मियों का विश्लेषण प्रतिनिधित्व के लिहाज से बेहद गैर-लोकतांत्रिक नज़र आया। 71 फीसदी पदों पर हिन्दू उच्च जाति का कब्जा था।

हस्तक्षेप के तौर पर देविन्दर कौर उप्पल ने भी कमज़ोर और सशक्त की लड़ाई में हमेशा कमज़ोर के साथ खड़े रहने की प्रतिबद्धता पर जोर दिया। बिहार से आए पत्रकार साथी श्याम लाल ने नक्सली लिंक के शक में प्रताड़ित किए जाने की 'व्यथाकथा' शेयर की।

अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ पत्रकार लज्जा शंकर हरदेनिया ने मीडिया घरानों की मोनोपॉली ख़त्म करने को एक बड़ी चुनौती बताया। उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर की कि पत्रकारों को सबसे कम फ्रीडम न्यूज़ रूम में हासिल होती है। पत्रकार संगठनों के अभाव में हक की लड़ाई जारी रखना भले ही मुश्किल हो गया हो लेकिन हरदेनियाजी ने हर पत्रकार को वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट को समझने और उसे पढ़ने की नसीहत दी। कई मायने में निजी पूंजी से बेहतर सरकारी पूंजी है। उन्होंने स्मरण से किसी पुराने उद्धरण का जिक्र किया कि यदि पत्रकार अपने आर्थिक हालात को लेकर चिंतित रहने लगे तो फिर देश का भविष्य अंधकारमय होना तय है।

अहा जिंदगी के संपादक आलोक श्रीवास्तव की व्यवस्तताओं की वजह से व्याख्यान का एक और सत्र तो मुमकिन नहीं हो पाया लेकिन पहले से तय कार्यक्रम के मुताबिक शाम कविताओं के नाम रही। आलोक श्रीवास्तव, कुमार अंबुज और रवींद्र स्वप्निल प्रजापति ने अपनी कुछ चुनींदा कविताओं का पाठ किया। इसके साथ ही राजू नीरा, सचिन श्रीवास्तव ने कविताएं पढ़ीं और नदीम खान ने कुछ शेर गुनगुनाए।

शाम ढ़लते-ढ़लते विनय की याद में गुजरे एक दिन पर भी धुंधलका छाने लगा... साथी अपने घर को लौट चले।

3 टिप्‍पणियां:

अखिलेश्वर पांडेय ने कहा…

उम्मीद है, 22 जून 2014 को नयी दिल्ली में और नये साथी हमारे साथ जुड़ेगें और नये तरीके से कुछ बेहतर योजना बन सकेगी. इससे पहले भी हम सभी विभिन्न माध्यमों से इस आयोजन के बारे में बातचीत करत रहेंगे.

kishor ने कहा…

मर्मस्पर्शी. मिस कर रहा हूं. ऐसा लग रहा है कि मैं वहां क्यों नहीं हूं. विनय से मेरी दिल्ली और भोपाल में मुलाकात हुई थी. मैं उसे पूर्णियावासी के तौर पर अधिक जानता हूं. इस सिलसिले को हरसंभव बनाए रखना. बहुत अच्छा.

kanhaiyakls@gmail.com

kishor ने कहा…

मर्मस्पर्शी. मिस कर रहा हूं. ऐसा लग रहा है कि मैं वहां क्यों नहीं हूं. विनय से मेरी दिल्ली और भोपाल में मुलाकात हुई थी. मैं उसे पूर्णियावासी के तौर पर अधिक जानता हूं. इस सिलसिले को हरसंभव बनाए रखना. बहुत अच्छा.

kanhaiyakls@gmail.com