पिछले दिनों विकास संवाद के एक कार्यक्रम में महेश्वर जाने का मौका मिला। इस कार्यक्रम में काफी तादाद में मीडियाकर्मी जमा हुए। यूं तो बहस का एजेंडा- मीडिया के मानक और लोग- था, लेकिन चूंकि ये इलाका नर्मदा पर बन रहे बांध की वजह से नर्मदा बचाओ आंदोलन की कर्मभूमि है, सो फिजा में डूब से प्रभावित लोगों का सवाल भी घुला रहा। खुद आयोजकों ने भी कार्यक्रम कुछ इस तरह से ऱखा कि मीडियाकर्मी नर्मदा पर बन रहे बांध और उससे प्रभावित लोगों की हकीकत से दो-चार हुए और उन्हें ये मुद्दा उद्वेलित कर गया।
12 मार्च 2010 को 5 टोलियों में बंटे लोग महेश्वर डैम और डूब प्रभावित गांवों की ओर निकले। नर्मदा बचाओ आंदोलन से महेश्वर डैम के निर्माण से जुड़े लोग किस कदर दहशत में है, इसकी पहली झलक हमें निर्माण स्थल पर पहुंचते ही मिली। एक दस्ता तो किसी तरह गेट के अंदर दाखिल होने में कामयाब हो गया, लेकिन बाकी लोगों को गेट पर ही रोक दिया गया। एस कुमार्स कंपनी के प्रशासनिक अधिकारियों और गार्ड्स ने हमारे तमाम अनुरोध को दरकिनार कर अंदर दाखिल होने से साफ-साफ मना कर दिया। उनका सीधा तर्क था कि आप मीडियाकर्मी हैं तो क्या फिलहाल नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोगों के साथ हैं, इसलिए अंदर जाने नहीं दिया जाएगा। उस समय तो सभी साथियों को बुरा लगा, लेकिन मुझे नर्मदा बचाओ आंदोलन की शक्ति की पहली झलक मिल गई थी। एक अहिंसक आंदोलन से ये खौफ साफ दर्शा गया कि एस कुमार्स कंपनी के लोगों का भरोसा कितना डिगा हुआ है और एनबीए के लोगों की पकड़ इलाके में कितनी मजबूत है।
महेश्वर डैम से हम सभी बैरंग लौटे और हमारी टोली पथराना गांव पहुंची। रास्ते में एक साथी ने नाराजगी में ये कहा कि डैम को बम लगाकर उड़ा देना चाहिए, एस कुमार्स के लोगों को मार-पीटकर बराबर कर देना चाहिए था, वगैरह-वगैरह। वो बिलकुल भन्नाया हुआ था, लेकिन बावजूद इसके मुझे उसकी ये राय नागवार गुजरी। ये चंद पलों का उफान क्या सालों से चले आ रहे किसी आंदोलन का विकल्प हो सकता है? खैर, गांव पहुंचे तो गांव के एक सज्जन ने कहा-“ अच्छा हुआ- आप लोगों ने झगड़ा नहीं किया, वरना आंदोलन का नाम खराब होता। ” मेरे लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्यशैली को लेकर खुश होने का ये दूसरा मौका था। ये बात उस गांव का एक शख्स बोल रहा था जो 13 सालों से अपने वजूद की, अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। वो किसी उतावलेपन में नहीं है, वो अपने हक की लड़ाई को आड़ेचंद पलों में समेटना नहीं चाहता बल्कि उसकी लड़ने की ताकत अदम्य है, असीम है।
बहरहाल, रात का खाना हमने जिस घर में खाया, वहां बुजुर्गों से बात हुई। घर के युवाओं, माताओं-बहनों के बीच हमने करीब आधे घंटे से ज्यादा वक्त गुजारा। गांव उजड़ने की चिंता तो थी लेकिन उनके अंदर मुझे हताशा का वो भाव नहीं दिखा, जो मेरे अंदर इस गांव के डूबने की फिक्र से ही घर करने लगा था। इन लोगों ने बताया कि कैसे आधे घंटे की नोटिस पर पूरा गांव जमा हो जाता है। कैसे संघर्ष के लिए गांव-गांव फौरन खबर भेजी जाती है। कैसे मिल-जुलकर वो अपनी लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं। घर के मुखिया ने बताया कि इस आंदोलन के दौरान वो कई बार जेल भी जा चुके हैं, लेकिन कभी भी वो प्रशासन के आगे गिरगिराकर या पैसे जमाकर अपनी जमानत नहीं करवाते, खुद ही जब जेल अधिकारियों या प्रशासन का जी भर जाता है उन्हें आजाद कर दिया जाता है। गांधी के सत्याग्रह की तरह अपनी बात पर डटे रहने का ये साहस नर्मदा बचाओ आंदोलन की एक और उपलब्धि नहीं तो क्या है?
चौपाल पर जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो गांव के लोगों ने आंदोलन से जुड़े तथ्यों को इतनी संजीदगी से रखा कि पत्रकारों की बोलती बंद हो गई। हर सवाल का मुकम्मल जवाब। गांव की गलियों से लेकर संसद के गलियारे तक नर्मदा बचाओ आंदोलन को लेकर क्या चल रहा है, इसकी पूरी डिटेल गांववालों के पास मौजूद थी। हाल में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के दफ्तर से जारी चिट्ठी तक का हवाला इस चर्चा में दिया गया। गांववालों ने बताया कि ग्राम सभा ने पुनर्वास परियोजना में अनियमितता को लेकर प्रस्ताव पारित किया है और उसे सभी अधिकारियों और मंत्रियों तक पहुंचाया गया है। ये और बात है कि गांधी के नाम पर सत्ता सुख भोगने वाली पार्टी को ग्राम स्वराज का ये हस्तक्षेप रास नहीं आ रहा, लेकिन गांववालों को इसकी ताकत से रूबरू कराने वाले एनबीए को साधुवाद देने से आप खुद को कैसे रोक सकते हैं?
सूचना का अधिकार से लेकर ग्राम स्वराज तक हर मोर्चे पर एनबीए ने गांववालों को सशक्त किया और उनको आगे लाकर अपनी लड़ाई की कमान उनके हाथों में सौंपी है, इसका एहसास मुझे पहली बार पथराना के दौरे के बाद ही हुआ। बावजूद इसके कई सवाल मेरे और साथियों के मन में घुमड़ते रहे। 13 मार्च को मेधा पाटकर जब हम सभी से रूबरू हुईं तो सवालों की बौछार लग गई- नर्मदा बचाओ आंदोलन कोई परिणाम देने में कामयाब क्यों नहीं हुआ? क्या नर्मदा बचाओ आंदोलन को एस कुमार जैसी कंपनियों से पैसा मिलता है, ताकि प्रोजेक्ट डिले हो और उनकी कमाई का जरिया बना रहे। आदि-आदि। इन सभी सवालों का मेधाजी ने बिना किसी झिझक के जवाब दिया। पता नहीं मेरे साथी उन जवाबों से संतुष्ट हैं या नहीं, पर मुझे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं और उसकी कार्यशैली ने काफी प्रभावित किया।
क्या आप इस बात से असहमत हो सकते हैं कि एनबीए ने गांववालों की लड़ाई लड़ने का ठेका नहीं लिया बल्कि हर गांव वाले को एक योद्धा की तरह अपनी लड़ाई लड़ने का हुनर सिखाया? क्या ये कोई उपलब्धि नहीं कि अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले ये गांववासी आज किसी भी अधिकारी, राजनेता या मंत्री से आंख से आंख मिलाकर बात करने का साहस रखते हैं, इनका नैतिक बल उन पर भारी पड़ता है? क्या इस बात को नजरअंदाज किया जा सकता है कि नर्मदा के लोग अपने हक के लिए हर कुर्बानी को तैयार हैं? क्या ये हम सभी को शक्ति नहीं देता कि नर्मदा तट के जीवट लोगों में सालों की लड़ाई के बाद भी सालों लंबी लड़ाई का माद्दा अब भी बाकी है?
नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथियों ने नर्मदा के तट पर केवल प्रतिरोध खड़ा नहीं किया बल्कि प्रतिरोध की एक संस्कृति पैदा की है, जिसे नर्मदा पर बनने वाला कोई बांध नहीं बांध पाएगा, वो हर बांध के बावजूद अपनी गति से बहती रहेगी- हर सुबह, हर शाम। इस अनवरत धारा को शत शत सलाम।
12 मार्च 2010 को 5 टोलियों में बंटे लोग महेश्वर डैम और डूब प्रभावित गांवों की ओर निकले। नर्मदा बचाओ आंदोलन से महेश्वर डैम के निर्माण से जुड़े लोग किस कदर दहशत में है, इसकी पहली झलक हमें निर्माण स्थल पर पहुंचते ही मिली। एक दस्ता तो किसी तरह गेट के अंदर दाखिल होने में कामयाब हो गया, लेकिन बाकी लोगों को गेट पर ही रोक दिया गया। एस कुमार्स कंपनी के प्रशासनिक अधिकारियों और गार्ड्स ने हमारे तमाम अनुरोध को दरकिनार कर अंदर दाखिल होने से साफ-साफ मना कर दिया। उनका सीधा तर्क था कि आप मीडियाकर्मी हैं तो क्या फिलहाल नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोगों के साथ हैं, इसलिए अंदर जाने नहीं दिया जाएगा। उस समय तो सभी साथियों को बुरा लगा, लेकिन मुझे नर्मदा बचाओ आंदोलन की शक्ति की पहली झलक मिल गई थी। एक अहिंसक आंदोलन से ये खौफ साफ दर्शा गया कि एस कुमार्स कंपनी के लोगों का भरोसा कितना डिगा हुआ है और एनबीए के लोगों की पकड़ इलाके में कितनी मजबूत है।
महेश्वर डैम से हम सभी बैरंग लौटे और हमारी टोली पथराना गांव पहुंची। रास्ते में एक साथी ने नाराजगी में ये कहा कि डैम को बम लगाकर उड़ा देना चाहिए, एस कुमार्स के लोगों को मार-पीटकर बराबर कर देना चाहिए था, वगैरह-वगैरह। वो बिलकुल भन्नाया हुआ था, लेकिन बावजूद इसके मुझे उसकी ये राय नागवार गुजरी। ये चंद पलों का उफान क्या सालों से चले आ रहे किसी आंदोलन का विकल्प हो सकता है? खैर, गांव पहुंचे तो गांव के एक सज्जन ने कहा-“ अच्छा हुआ- आप लोगों ने झगड़ा नहीं किया, वरना आंदोलन का नाम खराब होता। ” मेरे लिए नर्मदा बचाओ आंदोलन की कार्यशैली को लेकर खुश होने का ये दूसरा मौका था। ये बात उस गांव का एक शख्स बोल रहा था जो 13 सालों से अपने वजूद की, अपने हक की लड़ाई लड़ रहा है। वो किसी उतावलेपन में नहीं है, वो अपने हक की लड़ाई को आड़ेचंद पलों में समेटना नहीं चाहता बल्कि उसकी लड़ने की ताकत अदम्य है, असीम है।
बहरहाल, रात का खाना हमने जिस घर में खाया, वहां बुजुर्गों से बात हुई। घर के युवाओं, माताओं-बहनों के बीच हमने करीब आधे घंटे से ज्यादा वक्त गुजारा। गांव उजड़ने की चिंता तो थी लेकिन उनके अंदर मुझे हताशा का वो भाव नहीं दिखा, जो मेरे अंदर इस गांव के डूबने की फिक्र से ही घर करने लगा था। इन लोगों ने बताया कि कैसे आधे घंटे की नोटिस पर पूरा गांव जमा हो जाता है। कैसे संघर्ष के लिए गांव-गांव फौरन खबर भेजी जाती है। कैसे मिल-जुलकर वो अपनी लड़ाई को आगे बढ़ा रहे हैं। घर के मुखिया ने बताया कि इस आंदोलन के दौरान वो कई बार जेल भी जा चुके हैं, लेकिन कभी भी वो प्रशासन के आगे गिरगिराकर या पैसे जमाकर अपनी जमानत नहीं करवाते, खुद ही जब जेल अधिकारियों या प्रशासन का जी भर जाता है उन्हें आजाद कर दिया जाता है। गांधी के सत्याग्रह की तरह अपनी बात पर डटे रहने का ये साहस नर्मदा बचाओ आंदोलन की एक और उपलब्धि नहीं तो क्या है?
चौपाल पर जब बातों का सिलसिला शुरू हुआ तो गांव के लोगों ने आंदोलन से जुड़े तथ्यों को इतनी संजीदगी से रखा कि पत्रकारों की बोलती बंद हो गई। हर सवाल का मुकम्मल जवाब। गांव की गलियों से लेकर संसद के गलियारे तक नर्मदा बचाओ आंदोलन को लेकर क्या चल रहा है, इसकी पूरी डिटेल गांववालों के पास मौजूद थी। हाल में पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के दफ्तर से जारी चिट्ठी तक का हवाला इस चर्चा में दिया गया। गांववालों ने बताया कि ग्राम सभा ने पुनर्वास परियोजना में अनियमितता को लेकर प्रस्ताव पारित किया है और उसे सभी अधिकारियों और मंत्रियों तक पहुंचाया गया है। ये और बात है कि गांधी के नाम पर सत्ता सुख भोगने वाली पार्टी को ग्राम स्वराज का ये हस्तक्षेप रास नहीं आ रहा, लेकिन गांववालों को इसकी ताकत से रूबरू कराने वाले एनबीए को साधुवाद देने से आप खुद को कैसे रोक सकते हैं?
सूचना का अधिकार से लेकर ग्राम स्वराज तक हर मोर्चे पर एनबीए ने गांववालों को सशक्त किया और उनको आगे लाकर अपनी लड़ाई की कमान उनके हाथों में सौंपी है, इसका एहसास मुझे पहली बार पथराना के दौरे के बाद ही हुआ। बावजूद इसके कई सवाल मेरे और साथियों के मन में घुमड़ते रहे। 13 मार्च को मेधा पाटकर जब हम सभी से रूबरू हुईं तो सवालों की बौछार लग गई- नर्मदा बचाओ आंदोलन कोई परिणाम देने में कामयाब क्यों नहीं हुआ? क्या नर्मदा बचाओ आंदोलन को एस कुमार जैसी कंपनियों से पैसा मिलता है, ताकि प्रोजेक्ट डिले हो और उनकी कमाई का जरिया बना रहे। आदि-आदि। इन सभी सवालों का मेधाजी ने बिना किसी झिझक के जवाब दिया। पता नहीं मेरे साथी उन जवाबों से संतुष्ट हैं या नहीं, पर मुझे नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं और उसकी कार्यशैली ने काफी प्रभावित किया।
क्या आप इस बात से असहमत हो सकते हैं कि एनबीए ने गांववालों की लड़ाई लड़ने का ठेका नहीं लिया बल्कि हर गांव वाले को एक योद्धा की तरह अपनी लड़ाई लड़ने का हुनर सिखाया? क्या ये कोई उपलब्धि नहीं कि अपने हक की लड़ाई लड़ने वाले ये गांववासी आज किसी भी अधिकारी, राजनेता या मंत्री से आंख से आंख मिलाकर बात करने का साहस रखते हैं, इनका नैतिक बल उन पर भारी पड़ता है? क्या इस बात को नजरअंदाज किया जा सकता है कि नर्मदा के लोग अपने हक के लिए हर कुर्बानी को तैयार हैं? क्या ये हम सभी को शक्ति नहीं देता कि नर्मदा तट के जीवट लोगों में सालों की लड़ाई के बाद भी सालों लंबी लड़ाई का माद्दा अब भी बाकी है?
नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथियों ने नर्मदा के तट पर केवल प्रतिरोध खड़ा नहीं किया बल्कि प्रतिरोध की एक संस्कृति पैदा की है, जिसे नर्मदा पर बनने वाला कोई बांध नहीं बांध पाएगा, वो हर बांध के बावजूद अपनी गति से बहती रहेगी- हर सुबह, हर शाम। इस अनवरत धारा को शत शत सलाम।
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