“आदमी को तोड़ती नहीं है
लोकतांत्रिक पद्धतियां
केवल पेट के बल उसे झुका लेती हैं
धीरे धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए” (राजकमल चौधरी)
आज सुबह हिंदुस्तान (2 अप्रैल, 2010, दिल्ली संस्करण, रिपोर्टर सत्यप्रकाश) की एंकर खबर देखी तो बरबस राजकमल चौधरी की ये पंक्तियां दिमाग में कौंधने लगी। लोकतांत्रिक पद्धतियों के पेट के बल झुका लेने के हुनर की एक और मिसाल मेरे सामने थी। ये मिसाल पेश की लोकतंत्र के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित मंदिर ने। देश के सर्वोच्च न्यायालय के कारिंदों ने एक लॉ इंटर्न को टोपी लगाकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल होने से रोक दिया।
कभी पढा था कि अंग्रेजों के जमाने में कई क्लब के आगे लिखा होता था कि यहां हिंदुस्तानियों और कुत्तों का प्रवेश वर्जित है। ये एक तरह की शासकीय ठसक थी, सामंती नजरिया था और दूसरों को उसकी औकात में रखने की पद्धति थी। देश की आजादी के बाद ये पद्धति बदलनी चाहिए थी, ये नजरिया बदलना चाहिए था लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका। आज सुप्रीम कोर्ट के अंदर कानून के एक छात्र को टोपी उतारने के लिए मजबूर किया जाता है तो कई सवाल जेहन में कौंधते है। ये और मसला है कि इन सवालों के बाद सर्वोच्च अदालत के कारिंदों की बजाय आप कठघरे में खड़े कर दिए जाएं।
बहरहाल, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई कर रहा मंसूर अहमद इन दिनों अजीब से हालात में फंस गया है। मंसूर 10 मार्च से सुप्रीम कोर्ट में इंटर्नशीप कर रहा है। वो यहां इंसाफ की लड़ाई के तौर-तरीके सीखने आया है लेकिन उसके पहले कोर्ट के आला अधिकारी उसे इंसाफ का शिष्टाचार सिखा रहे हैं। वो उसे ये पाठ पढ़ा रहे हैं कि वकीलों को कोर्ट में टोपी लगाने का हक है लेकिन एक इंटर्न को नहीं। सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार की नसीहत भी लाजवाब है-“ बेटे तुम यहां ट्रेनिंग के लिए आए हो। तुम अपना मन उसी में लगाओ। टोपी नहीं लगाओगे तो क्या होगा? ” मी लार्ड माफ करें, पेट के बल झुकने में थोड़ा वक्त तो लगता है। लॉ के नए रंगरूट ने आरटीआई दायर कर टोपी की लड़ाई आगे बढ़ाई लेकिन महानिबंधक एम पी भद्रन ने जवाब भेजा- “यह कोर्ट के शिष्टाचार का मामला है।”
जाहिर है कश्मीर के बड़गाम जिले के निवासी मंसूर अहमद की भावनाओं के लिए सुप्रीम कोर्ट में कोई जगह नहीं है। पता नहीं उसकी टोपी में ऐसी क्या बात है कि सुप्रीम कोर्ट के गुंबद को वो रास नहीं आ रही। मंसूर को टोपी लगाने का हक मिलेगा, फिलहाल इसकी गुंजाइश कम है। हां मंसूर के साथ सर्वोच्च न्यायालय में इंटर्नशीप कर रहे उसके 82 साथियों को पहला सबक जरूर मिल गया। इंसाफ की लड़ाई लड़ो मगर टोपी उतारकर, कमर झुकाकर।
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
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1 टिप्पणी:
Buniyadi mudde uthane ke liye dhanyawaad.
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