शनिवार, 31 जुलाई 2010

विचार नहीं प्लानिंग और एक्शन चाहते थे दुबे सर


नोएडा में एक मकान का बेसमेंट. किसी इंटरनेट कैफे की तरह सजाए गये आठ-दस क्यूबिकल और उन्हीं क्यूबिकलों के एक मेज जिस पर कम्प्यूटर नहीं था, उसी पर बैठते थे कृष्णन दुबे. यह 2003 की बात है जब रविवार के मिजाज की एक पत्रिका निकालने की कवायद उस कमरे में चल रही थी और अपने मित्र पशुपति के जरिये मुझे उस टीम में शामिल होने का मौका मिला था. वहीं कृष्णन दुबे जी से मुझे परिचित होने का सौभाग्य मिला था. फिर कई मुलाकातें हुईं, लोकायत के दौरान, उसके बाद, पशुपति की शादी में. मगर उन्हें जानने समझने का मौका मिला उनसे आखिरी मुलाकात के दौरान महेश्वर में यमुना के किनारे.
विकास संवाद नामक संस्था मीडिया के मानक और लोग पर सेमिनार करवा रही थी. दुबे सर भी संयोग से पहुंचे थे. हमारे मित्र राकेश मालवीय ने परंपरा का निर्वाह करते हुए आधार वक्तव्य पेश किया और उस वक्तव्य में उन्होंने विस्तार से प्रकाश डाला कि मीडिया के मानकों में किस तरह ह्रास आ रहा है. दुबे सर मंच पर बैठे थे, उन्होंने राकेश के वक्तव्य के खत्म होने का इंतजार तक नहीं किया और मंच संचालक से माइक मांग कर बोल पड़े, "सवाल यह नहीं है कि किस तरह मीडिया के मानकों में गिरावट आई है, इस पर बात कर समय बर्बाद करने से बेहतर है कि हम यह बात करें कि हमें करना क्या है. क्योंकि यहां बैठे लोगों में से शायद ही कोई ऐसा होगा जिसे इस गिरावट को लेकर कोई शुबहा होगा, इसलिए इस गिरावट पर चर्चा करने से बेहतर है गिरने से बचाने के उपाय ढूंढे और काम शुरू करें."
उसी वक्त उन्होंने यह भी कह डाला कि हम ये-ये कर सकते हैं. उन्होंने दो उपाय बताये
1. सबसे जरूरी है पत्रकारों का एकजुट होना और यूनियन बनाना. इसके बगैर मीडिया कभी भी कारपोरेट के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएगा और कारपोरेट घराने हमारा शोषण करते रहेंगे.
2. वैकल्पिक मीडिया को मजबूत करना. पश्चिमी देशों में छोटे-छोटे साइट्स और कम्युनिटी रेडियोज का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है और आने वाले दिनों में मीडिया जगत में यही रूल करेंगे.
उस पूरे सेमिनार में उन्हें जब-जब मौका मिला, उन्होंने यही बातें उठाईं और जाते वक्त आयोजकों से कह गये कि एक मैगजीन की प्लानिंग करो एक लाख रुपया मैं दूंगा.
आज के जमाने में ऊंची बातें और आदर्शों की दुहाई देकर दुनिया को बदलने की योजना बच्चा-बच्चा जान गया है और हम सब समझते हैं कि इस तरीके से हमारा नाम तो चमक सकता है मगर हमारा उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है. मगर उस 79 साल के युवा ने अपनी बातें जिस इमानदारी से रखीं उसे भूल पाना नामुमकिन है. वह अनुभव मेरे लिये एक बड़ी सीख है अगर मैं इसे अपना सका तो मेरा जीवन भी थोड़ा सुगंधित हो सकता है.

पुष्यमित्र
प्रभात खबर डॉट कॉम के संपादकीय विभाग में कार्यरत

कोई टिप्पणी नहीं: