शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

आतंक का एक चेहरा ये भी-1

तीन चार दिन पहले की बात है... हम नाइट ड्रापिंग से लौट रहे थे। दफ्तर की गाड़ी थी... नोएडा से लक्ष्मी नगर के लिए निकले थे हम सभी... गाजीपुर मोड़ के पास काफी जाम लगा हुआ था... हम सभी हंसते-खेलते बाते करते जा रहे थे... गाड़ी में दो-तीन लड़के और कुछ लड़कियां थीं... मैं आगे की सीट पर बैठा हुआ था... तभी अचानक हमारी गाड़ी सामने वाली गाड़ी से टच कर गई....
इसके बाद जो कुछ हुआ वो किसी आतंक से कम नहीं था... हम कुछ समझ पाते इसके पहले ही सामने वाली गाड़ी से एक अधेड़ व्यक्ति आया और ड्राइवर को पीटने लगा... मैंने उसे रोकने की कोशिश भी की... लेकिन वो ताबड़तोड़ पिटाई करता चला गया.... उसमें एक लाइन ये भी जोड़ी- ड्राइवर कहीं का....
मैं बिलकुल हतप्रभ था... हैरान भी... किसी तरह हमने उस शख्स को रोका... या यूं कहें कि वो खुद ही वहां से दादागीरी दिखाता हुआ चला गया...
इस स्थिति में क्या करना चाहिए था.... मैं कुछ समझ नहीं पाया... लेकिन मुझे खुद से काफी कोफ्त हो रही थी... मैं पूरे रास्ते गुमसुम सा सोच रहा था... ये आखिर किस चीज का नशा है जो लोग इस तरह से रिएक्ट करते हैं... गाड़ी में जरा सी खरोंच भी लोगों को बर्दाश्त नहीं... गाड़ी में काफी देर तक खामोशी रही...
उसके बाद लोग अपनी तईं अपनी झेंप मिटाने की कोशिश करते रहे... चालक महोदय का दिल बहलाने की कोशिश करते रहे... उनके संयम की तारीफ भी की.... लेकिन मैं कुछ नहीं बोल पाया... गाड़ी से उतरने तक ये खामोशी मेरे साथ रही.... मैं उनसे नजरें भी नहीं मिला पा रहा था...
ये आतंक नहीं तो और क्या था कि हम उस हिंसक महाशय का विरोध तक न कर सके...
आतंक का एक चेहरा ये भी तो है...

1 टिप्पणी:

Aadarsh Rathore ने कहा…

सही कहा आपने।
इस तरह के आतंक के खिलाफ आवाज़ उठाना भी उचित नहीं होता। आप इतना कर सकते थे कि उसका बीच-बचाव करने की कोशिश करते। उस दुष्ट व्यक्ति की हिंसा का जवाब अगर हिंसा से ही देने की कोशिश की जाती तो वो भी सही नहीं होता। खैर, इसके लिए 'संस्कृति' ही दोषी है। जब लोगों का पुलिस, न्याय तंत्र आदि प्रक्रियाओं पर भरोसा ही नहीं है तो वो भी स्वतंत्र होकर खुद ही तय कर लेते हैं कि उन्हें करना क्या है।
ये सब संविधान निर्माताओं की कमियां है जिनकी वजह से आज देश में पूरा तंत्र सड़ सा गया है। इस संविधान की हम ये कहकर तारीफ करते हैं कि इसमें विश्व के सभी संविधानों की निष्कर्ष है, एक अधूरा संविधान है। इधर उधर से चीज़ें ले तो ली गईं लेकिन बीच में जो लूप होल्स बचे, उनकी वजह से ही देश चरमरा रहा है। वास्तव में हमें दुख होना चाहिए कि हमारे पास अपना मौलिक संविधान नहीं है